Tuesday, November 17, 2009

नोएडा से चलनेवाली मेट्रो के क़िस्से


मेट्रो रेल इनदिनों नोएडा भी आने जाने लगी है। इसी के साथ मेट्रो में तरह तरह के प्रजाति के प्राणियों के दर्शन होने लगे हैं। उनकी हरकतें कई बार हंसाती हैं, कई बार गुदगुदाती हैं और कई बार खीज पैदा करती हैं। नियमित मेट्रो में सफर के दौरान कई बातें अक्सर मैंने नोट की है, जिसे मैं आपके साथ साझा कर रहा हूं।
मेट्रो रेल शुरू होते ही नोएडा के लोगों को अचानक लगा कि वो अब अमेरिका और इंग्लैंड के वासी हो गए हैं। सिटी सेंटर से मेट्रो रेल जब रवाना होती है तब उसमें कई तरह की सवारी होती है। कई ऐसे परिवार होते हैं, जिनके लिए मेट्रो से सफर करना हवाई जहाज़ के बराबर है । इनमें मध्यम वर्गीय परिवार है, निम्न मध्यम वर्गीय भी है और उच्च वर्गीय भी। सब एक साथ एक ट्रेन के एक कोच में। बस कपड़े लत्ते से फर्क़ कर लीजिए। उच्च मध्यम वर्गीय के पुरूष कैपरी, बारमुडा या फिर ट्रैक सूट में। हाथ में अंग्रेज़ी को कोई मोटी सी उपन्यास। महिलाएं जींस टीशर्ट के अलावा सलवार कुर्ता या फिर साड़ी में लखदख। सम कुछ चमचमाती हुई। उंगलियों में हीरे की कई सारी उंगुठियां। गले में चमकता हीरा। बातचीत में हिंदी के शब्दों से नफरत। बोटनिकल गार्डन से ऐसे ही एक बुज़ुर्ग, एक युवा, एक युवती और दो बूढ़ी महिलाएं। रेल के पहले कोच में इंटर करते हैं। बाई तरफ बोर्ड लगा है- विकलांग, बुजुर्ग और महिलाओं के लिए आरक्षित। इस तरह की आरक्षित वाली कई सीटें हैं। ये सीटें लगभग खाली हैं। लेकिन उनकी नज़र जाती है अनारक्षित सीटों पर। सीट पर कोई दैनिक आफिस यात्री बैठा है। बुज़ुर्ग उससे कहता है – प्लीज़ , नाऊ यू गेट अप। उसने पूछा –क्यों? जवाब- कॉज़, आई एम ओल्ड यार। जस्ट सी, व्हाट रिटेन आन योर बैक सीट- प्लीज आफर दिस सीट हू नीड। अंग्रेज़ी में अकबकाया वो दैनिक यात्री खड़ा हो जाता है और अंग्रेज़ी पढ़ने और पढ़ाने वाले सारे लोग एक एक करके सबको खड़ा कर बैठ जाते हैं। अब इनकी बातचीत शुरू होती है। आई जस्ट पार्कड माई कार एट रजिंदर प्लेस। वी ओल्ड पिपुल कैन अल्सो इंजोय द राइड न। ये सुनकर युवती खिलखिला पड़ती है। संभवत ये युवती उनकी बहू या बेटी है। तभी फ्रेंच कट युवक अपने ब्लैक बेरी से फोन करता है- ओह पापा- फक। आई फॉरगेट टू कैरी में कैम। यू डू वन थिंग । व्हाट विच कैमरा ? पापा, यू आर सो डंब। यू रिमेंमबर दैट नाइट वेन आई वाज़ स्लीपिंग एंड यू टोल्ड मी दैट यू गॉट द कैमरा। आई कैप्ट इन योर वार्डरोब। ओह , या या । दैट्स राइट। प्लीज़ कीप विद यू । आई वैल टेक इट लेटर आन। बाई । अब बारी है बूढ़ी महिलाओं की । सी वी आर गोइग बैक टू होम। लैट्स गो टू बाराखंबा । वी वैल हैव सम समोसाज़। दैट ब्यॉय मेक वैरी टैस्टी समोसाज़। एंड यू नो दे सर्व सिज़लिंग सॉस चटनीज़ अल्सो। लेट्स गो देयर। बुज़ुर्ग ने हामी भर दी।
इसी कोच में नोएडा के कुछ मध्यम परिवार के लोग हैं और कुछ मनचले लड़के भी। कपड़े –लत्तों से लड़के काफी मार्डन लग रहे हैं। लेकिन सबके जूते एक जैसे हैं। इन लड़कों की नज़र अचानक एक विदेशी जोड़े पर पड़ गई। इन आठ दस लड़कों ने लड़के-लड़की को फोटो खिंचाने के लिए धर लिया। वो चीख रहे हैं- हे वाट यू आर डूइंग। डोट टच मी। कीप अवे। छोरे चीख रहे हैं- भइइ, फोटू ही तै खिचवाणी है। सब एक साथ ठहाके भी मार रहे हैं। सारे लोग देख रहे हैं। लेकिन कोई जा नहीं रहा। बस सब फुसफुसा रहे हैं- नवादा –होशियारपुर के जाट गूर्जर के छोरे होंगे। तब तक ये लड़के दोनों पर काबू कर लेते हैं और दनादन कई फोटो खींच लेते हैं। सबेस ज़्यादा फोटो लड़की के साथ खिंचवाई गई। फिर वो सेक्टर 18 के स्टेशन पर फतर गए।
एक परिवार मध्यम वर्गीय है। देख के लगता है कि खाने पीने की कमी नहीं होगी। ये परिवार मेट्रो की सुंदरता की तारीफ सुरू कर देता है। इस अंदाज़ में मेट्रो के पीआरओ भी तारीफ नहीं कर पाएंगे। देख भाई, पिलाटफारम कित्ता चमक रहा है सै। भाई, साफ सफाई कराण वास्ते लोगण को लगा रखा सै। ई दरवज्जा ते देख णा, कोई दब दुबा न जाव्वै।
इन गप्प सड़ाक्कों के बीच ट्रेन मयूर विहार मेट्रो स्टेशन पहुंच जाती है। सूट-बूट और ब्रीफकेस के साथ सैकड़ों लोग सवार होते हैं। ट्रेन में अब तिल रखने की ज़रूरत नहीं। बस जो जहां है, वहीं खड़ा है। टस से मस नहीं हो सकता। ट्रेन अब यमुना बैंक से आगे बढ़ चुकी है। बीच के किसी स्टेशन से सवार हुए तीन चार लड़के एक दूसरे की ज्ञान बढ़ाने में लग जाते हैं। एक- यहीं से मेट्रो का केबल चोरी हो गया था। दूसरा- अबे फेंक मत। तुझे कैसा पता ? पहली बार तो तू हम लोग के साथ जा रहा है। पहला- नहीं यार, पेपर में ख़बर आई थी। चोरों ने केबल चोरी कर ली थी। पूरी देश की अर्थवव्यस्था गड़बड़ा गई थी। दूसरा- देश की अर्थव्यवस्था कैसे गड़बड़ाई बे? तेरे को कैसे मालूम? पहला- अर्थिंग का केबल चोरी हुआ था न। इंद्रप्रस्थ स्टेशन आने तक अब सारे लोगों की आवाज़ दब जाती है। सुनाई देता केवल शोर। भई, थोड़ा आगे बढ़ो। घुसने तो दो। हां भई, उतर जाना प्रगति मैदान । रोक थोड़ी न रखा है। थोडा और आगे खिसको। पीछे वाला अलग आवाज़ लगा रहा है- क्या आपको प्रगति मैदान उतरना है ? नहीं तो फिर आग क्यों खड़े हैं? पीछे जाइए। उतरने दीजिए। मेट्रो की ये ट्रेन द्वारका की ओर चल पड़ती है।

Thursday, August 13, 2009

मीडिया ने देश में क्यों फैलाया स्वाइन फ्लू का डर ?


जिसे भी हल्का सा बुख़ार हो, बदन में दर्द हो, एक –दो बार उल्टी हो गई हो, आंखों में जलन हो, खांसी हो रही हो और हो सकता है कि नाक भी बह रही हो- पक्का मानिए स्वाइन फ्लू हो गया है। इन लक्षणों को डॉक्टर बेशक़ स्वाइन फ्लू न मानें लेकिन हमारी मीडिया ने इन लक्षणों को स्वाइन फ्लू मान लिया है। इस देश में कुछ अख़बारों और न्यूज़ चैनलों ने स्वाइन फ्लू का ऐसा हौव्वा खड़ा किया है, मानों पूरे देश में महामारी फैल गई हो। हर आदमी डरा सा नज़र आता है। इन लक्षणों में एक भी लक्षण दिखते ही वो डॉक्टरों के पास भागा-भागा जाता है सिर्फ ये पता लगाने के लिए उसे स्वाइन फ्लू है या नहीं?
बीते शुक्रवार को बेटे को बुखार हुआ। पेट में दर्द भी था। एक दो बार उल्टी- दस्त की शिकायत भी हो चुकी थी। इस तरह से वो पहले भी बीमार पड़ता था। मैं उसे चैरीकॉफ और NICE सिरप देता था। वो ठीक हो जाता था। इस बार मैंने इन दवाओं को खुद देने का ज़ोखिम नहीं उठाया। डॉक्टर के पास ले गया । डॉक्टर ने फिर यही दवाएं लिखीं। मैंने डॉक्टर से परेशान होकर पूछा कि लक्षण तो स्वाइन फ्लू से मिलते –जुलते हैं। तो फिर आप टेस्ट क्यों नहीं करते ? डॉक्टर ( जो मेरे घनिष्ठ मित्र भी हैं) ने कहा कि ज़रूरत पड़ी तो जांच भी कर लूंगा। मंगलवार तक बेटा ठीक हो गया। मंगलवार को ही ये लक्षण मुझमें दिखने लगे। एक अंतर ये था कि बदन में बहुत दर्द था। मैं फिर उसी डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने वाइरल की रूटीन दवाएं दीं। मैं भी एक दो दिन में ठीक हो गया। लेकिन इन दो –चार दिन मैं स्वाइन फ्लू के आतंक से परेशान रहा।
अब नज़ारा सरकारी अस्पताल का। रविवार को केंद्रीय गृह स्वास्थ्य मंत्री श्री ग़ुलाम नबी आज़ाद का बयान आ गया कि कोई भी प्राइवेट अस्पताल जांच से मना नहीं कर सकते। मैंनें अपने डॉक्टर को ये बताया। वो मुस्कुराए। बोले – मीडिया का होकर भी नेताओं का बयान नहीं समझते। क्या किसी मंत्री के कह देने भर से इलाज शुरू हो जाएगा। हम क्या कर सकते हैं- हद से हद सबसे पहले आशोलिशन वार्ड बना देंगे। नर्सों और डॉक्टरों को ट्रेनिंग दे देंगे। लेकिन टेस्ट के लिए जो किट चाहिए – वो कहां से आएगा ? वो हमें केवल सरकार ही दे सकती है। अभी तक ये सरकार ने हमें ये नहीं बताया है कि एक किट पर कितना ख़र्च आएगा ? क्या सरकार इस बीमारी को महामारी मानकर कोई सब्सिडी देगी ? अभी तक सरकार से किसी निजी अस्पताल का इस बाबत कोई तालमेल नहीं हुआ है। फिलहाल इसका टेस्ट केवल सरकारी अस्पतालों में ही हो सकता है। अब देखिए नोएडा का सरकारी अस्पताल।
नोएडा के सेक्टर 39 का सरकारी अस्पताल। दिल्ली के सरकारी अस्पताल इसके सामने फोर्टिस या अपोलो और मैक्स की तरह नज़र आते हैं। अस्पताल में भारी भीड़। इतनी भीड़ शायद कभी होली – दीवाली के समय ट्रेन के लिए होती होगी। अस्पताल में ही पता चला कि वैसे तो आम तौर पर इस अस्पताल में पास-पड़ोस के गांवों के लोग दिखाने आते हैं। पहली बार इस अस्पताल परिसर में बड़ी-बड़ी गाड़ियां और बड़े लोग नज़र आ रहे हैं। जान-पहचान निकालने के बाद चौकानेवाले तथ्य सामने आए हैं। डॉक्टरों का कहना है कि सुबह 9 से 11 बजे के बीच वो अमूमन 700 मरीज़ों को देख रहे हैं। सबकी ज़िद है कि स्वाइन फ्लू टेस्ट करो। लक्षण सबके सामान्य वायरल के हैं। अस्पताल में स्वाइन फ्लू जांचने के लिए केवल 22 किट हैं। इन 22 किट में से किसको-किसको जांचा जाए। किट ख़त्म हो जाए तो फिर कहां से आए। लिहाज़ा डॉक्टरों ने जुगाड़ निकाल लिया है। अभी तक ज़्यादातर मरीज़ों को नहीं मालूम कि इसकी जांच कैसे होती है। डॉक्टर अपने हिसाब से जाच कर मरीज़ों को संतुष्ट कर देते हैं।
आख़िर , हमारे देश में स्वाइन फ्लू को लेकर इतना भय क्यों हैं ? ये मीडिया की देन है और मीडिया अपनी इस नकारात्मक भूमिका से बाग भी नहीं सकता। हर एक घंटे पर ब्रेकिंग न्यूज़ की पट्टी- अभी –अभी पुणे में स्वाइन फ्लू से 1 और की मौत। ये लाल पट्टी देख-देखकर लोगों का लाल खून सफेद पड़ गया है। तरह –तरह के डॉक्टरों को पकड़ कर स्टूडियों में बिठा रखा है। बताते कम हैं और डराते ज़्यादा है। ये डॉक्टर और चैनल ये नहीं बताते कि जहां से बीमारी शुरू हुई, वहां कितने लोग मरे। कितनी बीमार हुए और कितने ठीक हुए। अगर ये बता दिया को दुकान नहीं बंद हो जाएगी?
स्वाइन प्लू की शुरूआत अमेरिका से हुई। मेक्सिको से शुरू हुई यह बीमारी अब तक दुनिया के 167 देशों में फैल चुकी है। अब शुरूआत अमेरिका से । अमेरिका में लगभग 6500 लोगों को स्वाइन फ्लू हुआ। इस फ्लू की वजह से लगभग 436 लोगों की मौत हुई। यानी 6064 लोग इस स्वाइन फ्लू से बच कर निकले। अर्जेटीना में 7 लाख 60 हजार लोगों को स्वाइन फ्लू हुआ। केवल 337 लोगों की मौत हुई। संक्रमण और मौत के बीच का अंतर देखिए। आस्ट्रेलिया में करीब 25 हजार लोगों को स्वाइन फ्लू है। केवल 85 लोगों की मौत हुई है। ब्रिटेन में एक लाख से ऊपर लोगों को ये बीमारी हुई है और केवल 36 लोगों की मौत हुई है। भारत में अभी स्वाइन फ्लू केस की संख्या एक हज़ार के पार भी नहीं हुई है। मौत की भी संख्या 17 है। फिर भी हाय तौबा। आख़िर इस भय का वातावरण पैदा करने वाले कौन लोग हैं ? इससे उनके क्या फायदा है ? किसी को डराने का सुख तो केवल सैडिस्ट नेचर में होता है। क्या इस नेचर के लोग भय का माहौल पैदा कर रहे हैं ? या फिर इसके पीछे विशुद्ध धंधे और मुनाफे का खेल है। डराओ और पैसे बनाओ ?

Friday, July 3, 2009

रेल बजट से साबित हुआ ममता और लालगढ़ का रिश्ता


पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट को झटका देने का तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और रेल मंत्री ममता बनर्जी कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ रही। चाहें इसके लिए उन्हे रेल बजट की ही आड़ क्यों न लेनी पड़े। इसमें कोई शक़ नहीं कि तैंतीस साल बंगाल में राज कर रहे लेफ्ट फ्रंट को ममता बनर्जी लगातार पानी पिला रही हैं। हालिया लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चा का क़िला ढ़हाने के बाद ममता ने नगरपालिकाओं के भी चुनाव में वाम मोर्चा को पटखनी दी हैं। लेकिन वाम मोर्चा को हाशिए पर लाने और मुख्यमंत्री बनने की छटपटाहट में रेल बजट का इस्तेमाल करना कहां तक सही है।
रेल मंत्री के रेल बजट को ग़ौर से देखिए- पता चलेगा कि ममता ने कितने प्यार से अपने विरोधियों की रेल बनाई है। ममता का खेल समझने से पहले एक बार रेल मंत्रालय का हिसाब किताब समझ लेते है। देश में कुल 6909 रेलवे स्टेशन हैं। इनमें से 1721 स्टेशन कंप्यूटर से जुड़े हुए हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि इन 1721 स्टेशनों पर ही कंप्यूटर से रिज़वर्शन होता है। आधुनिक भारत में बाक़ी 5188 रेलवे स्टेशनों का हाल राम भरोसे हैं। सवाल ये है कि इन 5188 स्टेशनों के मुसाफिर भी बाक़ी मुसाफिरों की तरह किराया देते हैं। लेकिन उन्हे वो सुविधाएं स्टेशनों पर नहीं मिलती, जिसका फायदा बाक़ी के स्टेशनों के मुसाफिर उठाते हैं। यानी आज़ादी के 62 साल बाद भी देश के 5188 रेलवे स्टेशनों की हालत वैसी ही है, जैसा कि अंग्रेज़ छोड़ गए थे।
अब रेल का ख़र्चा पानी का हाल समझ लेते हैं। रेलवे कर्मचारियों की तनख़्वाह की हम बात नहीं करेंगे। न ही उनको मिलने वाले डीए की। हम बात करेंगे साल में एक बार मिलनेवाली सुविधा की। रेल मंत्रालय अपने हरेक कर्मचारी को साल में एक बार फ्री पास देता है, जिसमें वो अपने परिवार के साथ यात्रा कर सकता है। रेलवे के क़रीब साढ़े तेरह लाख कर्मचारी हैं। एक कर्मचारी के परिवार में पत्नी और दो बच्चे हैं तो ये संख्या 54 लाख होती है। साल में एक बार रेलवे के ख़र्चे पर ये परिवार घूमने आता-जाता है। अब इसमें उन लोगों की संख्या भी जोड़ लें, जो रेलवे के कर्मचारी तो नहीं हैं लेकिन हमारे और आपके टैक्स के पैसे से घूमते हैं। सांसद, पूर्व सांसद, विधायक और पूर्व विधायक को फ्री में एसी क्लास से आने जाने का पास मिलता है। इस पास के सहारे ये माननीय पत्नी या पति और अपने एक सहायक के साथ सफर करते हैं। अगर टिकट वेटिंग लिस्ट में है तो हेडक्वार्टर कोटा की मेहरबानी से जनरल कोटा का हक़ मारकर माननीय का टिकट कनफर्म कर दिया जाता है। ऐसी सहूलियत पुलिसवालों को है। हम इसमें देश को आज़ाद कराने वाले परवानों को नहीं जोड़ रहे । क्योंकि सहीं मायनों में वो इसके हक़दार हैं। इस आंकड़ों को जोड़ें तो पाएंगे लगभग 65 लाख लोग हर साल रेल के पैसे पर देश घूमते हैं।
अब बात फिर से ममता के खेल की। ममता ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की है कि जिससे देश के लोगों को बुरा लगे। क्योंकि ममता ने गुढ की भेली में लपेटकर कुनैन की गोली दी है। अब आपको समझ में आसानी से ये बात आएगी, जिस देश में 5188 स्टेशनों पर मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं, उसे ममता कैसे आदर्श स्टेशन बनाएंगी ? दूसरी बात ये कि दो बार पहले रेल बजट पेश कर चुकीं ममता ने असलियत देश के लोगों से छुपाई क्यों ?

ममता ने यात्री किराया या माल भाड़ा नहीं बढ़ाया। आम आदमी ये सुनकर ही मंहगाई के इस दौर में राहत की सांस लेगा। मज़दूर तबका भी ख़ुश हो ले। गांव-देहात से शहर-महानगरों में चाकरी करनेवाले मज़दूर 299 रूपए में 1500 किलोमीटर तक और 399 रूपए देकर 3500 किलोमीटर तक सफऱ कर सकता है। पंद्रह सौ रूपए महीना कमाने वाला आदमी पच्चीस रूपए की पास पर रोज़ाना सौ किलोमीटर तक सफर कर सकता है। ममता की ये पहल क़ाबिल ए तारीफ हैं। लेकिन रेलवे का टिकट या पास देनेवाला बाबू उस मज़दूर से मज़दूर होने का पहचान पत्र मांगे तो वो क्या दिखाएगा ? क्या देश में मज़दूरों के लिए मज़दूरी कार्ड है? इस देश में ऐसे अनगिनत स्टेशन हैं, जहां दिन में कुल दो बार कोई ट्रेन आती या जाती हैं। ऐसे में पंद्रह सौ रूपए महीने कमानेवाला मज़दूर उस पास को लेकर कहां मज़दूरी करने जाएगा और कब घर लौटकर आएगा ?
युवा भी खुश होगा। युवाओं के लिए नई ट्रेन चलेगी। लेकिन युवाओं के लिए अलग से ट्रेन क्यों चलाई जा रही है – ये समझ से परे हैं। क्या इस यूथ ट्रेन में युवा डांस करते हुए चलेंगे ? या फिर इस ट्रेन में पब, मॉल या हॉल जैसी कोई सुविधा होगी ? या फिर ममता ने ये मान लिया है कि देश का नौजवान बूढ़े औऱ प्रौढ़ लोगों के साथ सफऱ करने में असहज महसूस करता है या फिर उसे तकलीफ होती है।
ममता बनर्जी ने कहा है कि 375 स्टेशनों को आदर्श स्टेशन बनाया जाएगा, इसमें से तीन सौ नौ स्टेशनों की पहचान कर ली गई है। ये बहुत अच्छी बात है। लेकिन भाषण में वो पहले ही कह गई है कि इन स्टेशनों पर शौचालय और बैठने के इंतज़ाम के साथ मूलभूत सुविधाएँ दी जाएंगी। ममता ने जिन स्टेशनों की पहचान की है, उसका नाम सुनेंगे तो आप चकरा जाएंगे। कोलकाता और बंगाल का एक भी स्टेशन और हॉल्ट ममता ने नहीं छोड़ा है। इस योजना का दुखद पहलू ये है कि वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री रहने के बाद भी ममता बनर्जी अपने शहर के स्टेशनों को शौचालय या मुसाफिरों के बैठने की जगह का इंतज़ाम नहीं करा सकीं ? हम ये सवाल ममता से कोलकाता से मुत्तलिक पूछ रहे हैं , पूरे बंगाल को लेकर नहीं। ममता के इस आदर्श स्टेशनों में आदि श्पतोग्राम, आगरपाड़ा, अलीपुरद्वार, कालना, बागबाज़ार, बैरकपुर, बेलगाछिया, बैद्यबाटी, चंदननगर, बैंडेल, बर्दवान, आसनसोल आदि हैं। अगर इस सूची को ध्यान से पढ़ें तो 309 में से सवा सौ से ज्यादा नाम बंगाल के हैं। ममता जिन वजहों का हवाला देकर इन स्टेशनों को आदर्श बनाने का दावा कर रही हैं, वो केवल और केवल वोट बैंक की राजनीति है। इन सारे स्टेशनों को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। कोलकाता के दोनों बड़े स्टेशनों सियालदाह और हावड़ा को वो विश्वस्तरीय बना रहीं हैं। बाकी बचे तीन बड़े स्टेशन आसनसोल, दुर्गापुर और रानीगंज में वो तमाम सुविधाएं पहले से हैं, जिसकी कमी दूर करने की बात ममता कर रही हैं। बाक़ी जितने स्टेशनों का वो नाम ले रही हैं वो हावड़ा और सियालदाह रूट के लोकल स्टेशन हैं। इन स्टेशनों पर मुसाफिरख़ानों की ज़रूरत तो होती नहीं हैं। बैठने की जगह और शौचालय बहुत पहले ग़नी ख़ान चौधरी दे गए हैं। बाक़ी कई ऐसे स्टेशनों के नाम हैं, जो स्टेशन नहीं हाल्ट हैं। यानी ममता इन स्टेशनों के सुधार के नाम पर लोकल लोगों को दिहाड़ी देंगी। ताकि वो जनसभाओं में दावा कर सकें कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर हर हाथ को काम दिया है। सरकारी पैसा पानी की तरह उनके लिए बहाया है।
आख़िर में बात ममता और लालगढ़ के रिश्तों की। वाम मोर्चा पहले से ही आरोप लगा रहा है कि ममता बनर्जी के नक्सलियों से रिश्ते हैं। ममता की शह पर वो आतंक फैला रहे हैं। लेकिन सत्ता की ऐसी मजबूरी होतीं है कि राज्य सरकारों की बात कई बार केंद्र को सुनाई नहीं देती। बंगाल में हावड़ा में पहले से ही रेल काऱखाना है। ममता ने कहा कि रेल को ख़ूबसूरत डिब्बों की ज़रूरत है। ख़ूबसूरत डिब्बों के नाम पर कल तक जर्मनी से डिब्बे मंगाने वाले मंत्रालय ने देश में ही डिब्बा बनाने का फैसला कर लिया। लेकिन इसमें ममता को कर्नाटक से लेकर बिहार तक में कोई संभावना नज़र नहीं आईं। उन्होने इस काम के लिए लालगढ़ में कारखाना बनाने के एलान कर दिया। अब लालगढ़ में ज़मीन आसमान से तो आएगी नहीं। वो किसानों से ज़मीन लेंगी। यानी इस मोर्चे पर ममता सिंगूर और नंदीग्राम की नीति को छोड़ देंगी। यहां सेज़ बनाने पर उनका विरोध नहीं हैं। इस इलाक़े में ज़मीनें लालगढ़ के लोगों की हैं। जब वो ज़मीनें देंगे तो सरकारी मुआवज़ा पाएंगे। फिर रेल कोच फैक्ट्री में काम करेंगे। ममता चाहतीं तो कोलकाता से सटे मध्यमग्राम, श्रीरामपुर, चंदनगर, भद्रेश्वर में रेल फैक्ट्री बनवा सकती थीं। लेकिन उन्होने चुना लालगढ़ को ही। इसी लालगढ़ में लालक़िला को ध्वस्त करने का अरमान छिपा है और छिपा है नक्सलियों से राजनीतिक दलों के रिश्ते। ये रिश्ते अब गुमनमी में नहीं हैं।

Thursday, July 2, 2009

मां, माटी और मानुष की वजह से लेफ्ट की मिट्टी दरकी


लोकसभा चुनाव के बाद नगरपालिका, पंचायत और परिषद के चुनावों में भी वाम मोर्चा को मुंह की खानी पड़ी है। लोकसभा की तरह कई नगरपालिका भी वाम मोर्चा के हाथ से ऐसे निकले, जैसे कि मुट्ठी से रेत सरकती है। वाम मोर्चा सकते में हैं, सदमें में हैं। वहीं, तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन जश्न में डूबा है। अब सवाल ये कि क्या मतदाताओं ने एक बार फिर वाम मोर्चा को नकारा है और तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन को जनादेश दिया है। या फिर लोगों की जो नाराज़गी है, उसे अभी तक लेफ्ट दूर नहीं कर पाई है और एक के बाद एक धक्के खा रही है।
पश्चिम बंगाल में सोलह नगरपालिकाओं के लिए चुनाव हुए। इसमें से तेरह नगरपालिकाओं पर ममता बनर्जी और साथियों का झंडा लहराया। इसके साथ ही इन तेरह नगरपालिकओं से वाम मोर्चा का झंडा बेरंग होकर उतर गया। पिछले तैंतीस साल से बंगाल पर राज कर रही लेफ्ट पार्टियां केवल तीन नगरपालिकाओं पर लाल झंडा लहराने में क़ामयाब हुई है। विरोधियों के क़ब्ज़े से लेफ्ट केवल जलपाईगुड़ी की मालबाज़ार नगरपालिका ही छीन सकी है। लेकिन लेफ्ट को ये जीत भी बेहद मामूली सीट से नसीब हुई है। इस नगरपालिका पर पिछले दस साल से बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस का राज था। पिछले चुनाव में लेफ्ट और गठबंधन को बराबर सीटें मिली थीं। इसके बाद लॉटरी के ज़रिए सत्ता तय की गई और ये लॉटरी गठबंधन के हाथ लगीं। इस बार भी मालबाजार नगरपालिका में लेफ्ट पार्टी को केवल एक वार्ड के ज़रिए सत्ता हाथ लगी है। पंद्रह वार्डों में से आठ पर लेफ्ट को और सात वार्ड पर कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस को जीत मिली है। इसके अलावा गंगारामपुर और राजारहाट-गोपालपुर नगरपालिका पर लेफ्ट को जीत नसीब हुई है। जबकि दमदम, दक्षिण दमदम, उलबेड़िया, आसनसोल, मध्यमग्राम, महेशतला, सोनारपुर –राजपुर नगरपालिका वाम मोर्चा के हाथ से निकल गए।
अगर हम हर नगरपालिका, पंचायत और परिषद के नतीजों को तफसील से देखें तो साफ पता चलता है कि लेफ्ट फ्रंट को जहां भी जीत मिली है, वो बेहद मामूली अंतर से हैं। जबकि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को हर जगह अप्रत्याशित जीत मिली है। अपवाद के तौर पर दक्षिण दिनाजपुर की गंगापुर नगरपालिका में 18 सीटों में से लेफ्ट को 12 और गठबंधन को 6 सीटों पर जीत मिली है। जबकि राजराहट-गोपालपुर में 35 वार्ड में से लेफ्ट को 19 और कांग्रेस –तृणमूल गठबंधन को 15 वार्डों पर जीत नसीब हुई है। एक वार्ड से निर्दल जीता है। यानी साफ तौर पर ये नगरपालिका भी लेफ्ट के हाथ से जाते-जाते बची है।
हैरानी की बात है कि उत्तर चौबीस परगना के तीनों नगरपालिका लेफ्ट के हाथ से फिसल गए। जबकि इस ज़िले में सीपीएम के दिग्गज सुभाष चक्रवर्ती, नेपाल देब भट्टाचार्य, असीम दासगुप्ता, अमिताभ नंदी जैसे दिग्गज नेता हैं। लेकिन लाल क़िला को भरभराने से नहीं रोक पाए। दक्षिण दमदम के 35 वार्डों में से लेफ्ट को केवल 11 वार्डों पर जीत मिली है। जबकि गठबंधन को 24 वार्डों पर जीत मिली है। दमदम के 22 वार्डों में से तृणमूल को 13 और लेफ्ट को केवल 9 वार्डों पर जीत मिली है। मध्यमग्राम नगरपालिका के 25 वार्डों में से 18 पर कांग्रेस और तृणमूव कांग्रेस जीती है। महानगर से दूर दराज ज़िलों की बात करें तो उत्तर दिनाजपुर के इस्लामपुर नगरपालिका के 17 में से 13 वार्ड पर गठबंधन जीता है और लेफ्ट को तीन वार्डों से संतोष करना पड़ा है।
आख़िर लेफ्ट के नसीब में अब हार क्यों लिखी है। लोकसभा चुनाव में बात समझ में आ रही है कि नंदीग्राम के तूफान ने वाम मोर्चा के तंबू को उखाड़ फेंका था। आइला तूफान को बीते अब ख़ासा समय हो गया, फिऱ भी लेफ्ट अपनी वजूद नहीं बचा पा रहा। जीत के जश्न में डूबे कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के नेता इसे मां, माटी और मानुष की जीत बता रहे हैं। अगर इसका राजनीतिक मतलब निकालें तो जिन तीन बिंदुओं पर लाल क़िला खड़ा था, वो तीनों बिंदु अब उसके विरोधियों के हाथ में हैं। महानगर कोलकाता और या दूर –दराज़ का कोई गांव- हर जगह से महिलाओं के साथ बलात्कार और दुराचार की ख़बरें आती रहती हैं। महिलाओं के ख़िलाफ हो रहे अत्याचार परिवारों को लेफ्ट से दूर करने का काम किया है। दूसरा बिंदु ये है कि बरगा आंदोलन के बाद लेफ्ट ने गांवों और किसानों का दिल जीत लिया था। शहरी मतदाता भले ही तर्कों के आधार पर वाम को ख़ारिज कर देता था। लेकिन केत खलिहान की भावनाएं लेफ्ट के साथ होती थीं। लेफ्ट नारा भी देता था कि वो निरपेक्ष नहीं वो मेहनती मानुषों के पक्ष में हैं। लेकिन सिंगुर के बाद लेफ्ट सरकार की खेत खलिहानों और किसानों के लेकर नीति को पोल खुल गई। सर्वहारा के नारे पर टिका वाम के लिए अब सर्व हारा ही हो गया है। तीसरा बिंदु मानुष का है। यानी गांव हो या शहर – हर जगह लोगों का जीना दुश्वार हो गया है। बेरोज़गारी बढ़ी है। राज्य सरकार रोज़गार देने में असफल रही है। कभी जूट और सूती मिलों के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश तक में मशहूर रहे राज्य में एक-एक कर सारे कारखाने बंद होते गए। रोज़गारों से रोज़गार छिनें और नए बेरोज़गारों की संख्या लगातार बढ़ती गई। पूरे देश में उत्तम शिक्षा के लिए मशहूर राज्य में शिक्षा का राजनीतिकरण हुआ। ये तमाम वजहें , जिनकी वजह से लेफ्ट को नुक़सान उठाना पड़ा। लोकसभा चुनाव में जब तृणमूल के सुलतान अहमद ने उलबेड़िया में हन्नान मोल्ला को हराया या फिर हावड़ा से अंबिका बनर्जी जीते या दमदम से पुराने कांग्रेसी सौगत राय ने अमिताभ नंदी को हराया तो समीक्षा में बात निकलकर सामने आई कि लोगों के मन लेफ्ट के लिए ग़ुस्सा था। वो लोकसभा में फूटा है। कांग्रेस और तृणमूल कहने लगे कि अब बारी विधानसभा की है। लेकिन एक तबका ये मानता रहा कि लोगों के दिल में जो गुबार था , वो निकल चुका है। लेफ्ट को इस हार से सबक मिली है। लेकिन नगरपालिका के चुनावों ने साबित कर दिया है कि लेफ्ट के लिए खोई हुई ज़मीन हासिल करना अब बेहद चुनौतीभरा काम है।

Wednesday, July 1, 2009

आयोगों के ज़रिए सरकारें करती हैं लीपापोती


बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड को लेकर लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंप दी। अभी किसी को नहीं मालूम कि इस रिपोर्ट में क्या है ? आयोग ने क्या सिफारिश की है ? लेकिन इस रिपोर्ट को लेकर राजनीति शुरू हो गई है। इसका राजनीतिक पहलू समझने से पहले एक बार इस आयोग के बारे में समझ लें। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के दस दिन के बाद केंद्र सरकार ने 16 दिसंबर 1992 को लिब्राहन आयोग का गठन किया। सरकार ने तीन महीने के भीतर जांच रिपोर्ट देने को कहा था। यानी आयोग को 16 मार्च 1993 तक अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपना था। लेकिन आयोग को ये काम करने में सत्रह साल लग गए। इसी के साथ इस आयोग ने भारत में एक रिकार्ड भी क़ायम कर लिया है। देश में सबसे ज़्यादा समय तक काम करने का रिकार्ड अब लिब्राहन आयोग के नाम है। इस आयोग को 48 बार एक्सटेंशन यानी विस्तार दिया गया। आयोग ने एक सौ दो लोगों ,जिनमें आरोपी भी शामिल हैं, के बयान लिए। 399 बार सुनवाई की। सरकार के दस करोड़ रुपए के ख़र्चे पर अपनी रिपोर्ट सत्रह साल बाद सरकार को सौंप दी। बताया जाता है कि आयोग ने चार साल पहले ही रिपोर्ट तैयार कर ली थी। लेकिन सौंपी अब है। इसकी वजह तो नहीं मालूम। लेकिन एक बात सबको मालूम है कि जस्टिस लिब्राहन और आयोग के वकील अनुपम गुप्ता के बीच छत्तीस का आंकड़ा था और वो बाद में आयोग से अलग भी हो गए थे।
अब बात इस रिपोर्ट की राजनीति की। हिंदुत्व की लहर पर सवार होकर सत्ता सुख पा चुकी बीजेपी क्या इस रिपोर्ट से सांसत में हैं ? ऊपर से देखने में एक बार ऐसा महसूस तो हो सकता है। क्योंकि बीजेपी और उसकी परिवार के कई दिग्गज आरोपी हैं। लेकिन सच ये नहीं है। सच तो ये है कि राजनीतिक भंवर में फंसी बीजेपी के लिए ये रिपोर्ट आक्सिजन जैसा है। याद करें चुनाव से पहले हिंदुत्व के मुद्दे पर बीजेपी का हालत सांप –छुछुंदर जैसी थी। बीजेपी तय नहीं कर पा रही थी कि वो हिंदुत्व की लहर पर सवार हो या फिर सूडो सेक्युलर की छवि के साथ मैदान में उतरे। वरूण गांधी के विवादास्पद बयान के बाद कई दिनों तक बीजेपी के दिग्गज नेताओं की दुविधा पूरे देश ने देखा है। चुनाव के बाद बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी ने स्वीकार किया था कि देश दो दलीय राजनीति की तरफ बढ़ा है और मतदाताओं ने बीजेपी को खारिज किया है।
बीजेपी को अच्छी तरह से मालूम है कि चुनाव में हुए घाटे की भरपाई इसी रिपोर्ट से संभव है। अगर किसी आरोपी के ख़िलाफ सरकार कार्रवाई करेगी तो सीधे तौर पर बीजेपी को फायदा होगा। चुनाव के समय विकास के नाम पर एकजुट हुए मतदाता पोलोराइज़ेशन के इस दौर में फिर से धर्म के नाम पर बंटेगें।
रिपोर्ट पेश होने के बाद बीजेपी नेताओं और बीजेपी से अलग हो चुके नेताओं के बॉडी लेंग्वेज पर ग़ौर कीजिए। हालिया मध्य प्रदेश चुनाव में गोते खाने के बाद बीजेपी में लौटने की राह तक रही उमा भारती फिर से फायर ब्रांड मुद्रा में आ गईं। सत्रह साल पहले की तस्वीर सबको याद होगी, जिसमें मस्जिद टूटने के बाद उमा भारती बीजेपी के दिग्गज मुरली मनोहर जोशी के साथ गलबहियां करते देखी गई थीं। उमा भारती ताल ठोंककर सरकार को चुनौती दे रही हैं कि उन्हे सरेआम सूली पर लटाकाया जाए। उमा भारती दावा कर रही हैं कि वो मस्जिद गिराए जाने की ज़िम्मेदारी एक अच्छे सेनापति की तरह लेने को तैयार हैं। कल तक यही उमा भारती और बीजेपी के दिग्गज दावा कर रहे थे कि जो कुछ भी हुआ , साज़िश के तहत नहीं हुआ। ये घटना अप्रत्याशित थी।
रिपोर्ट पेश होते ही बीजेपी के दिग्गज अरूण जेटली, राजनाथ सिंह आदि लालकृष्ण आडवाणी से मिले। ज़ाहिर इस रिपोर्ट के असर को लेकर रणनीति बनी होगी।
पूर्व केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद इस रिपोर्ट को फुल टॉस बॉल की तरह लिया। सीना तानकर कहा कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर बने। साथ ही लगे हाथ आयोग की उम्र पर सवाल खड़े कर दिए। मांग कर डाली की कि इसकी भी जांच होनी चाहिए। ये मांग करते समय शायद रविशंकर प्रसाद ये भूल गए कि इस दरम्यान बीजेपी ने भी छह साल तक शासन किया है। भव्य मंदिर बनाने की बात करते समय ये भी भूल गए कि उनकी सरकार के दौरान अयोध्या में राम मंदिर की लड़ाई लड़नेवाले पुराने साधू परमहंस ने भूख हड़ताल शुरू कर दी थी। सरकार ने विशेष दूत भी भेजा था और लालकृष्ण आडवाणी ने एनडीए के एजेंडे में राम मंदिर न होने की बात कर विवाद से पल्ला झाड़ लिया था। कांग्रेस भी इस पर राजनीति करने का मौक़ा नहीं छोड़ रही। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने बीजेपी नेताओं का नाम लिए बग़ैर राशन पानी लेकर धावा बोल दिया। दावा करने लगे कि दोषियों के ख़िलाफ सरकार किस तरह का कार्रवाई का इरादा रखती है। उनका ये दावा अंतर्मन से कम राजनीतिक दिल से ज़्यादा लगता है।
बीजेपी और कांग्रेस नेताओं के बयानबाज़ी के विशुद्ध तौर पर राजनीतिक मतलब है। बीजेपी चाहती है कि इस मुद्दे पर उनके नेताओं को घसीटा जाए। उनके नेताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई की बात हो और शहीदी मुद्रा में आकर राजनीतिक लाभ कमाएं। वहीं , कांग्रेस भी इसका राजनीतिक फायदा उठाने के लिए अल्पसंख्यक राजनीति की मौक़ा नहीं छोड़ रही। लेकिन उसे बहुसंख्यक वोट खोने का भी डर सता रहा है। कांग्रेस को अच्छी तरह से मालूम है कि अगर उसने इस रिपोर्ट पर कार्रवाई शुरू की तो घाटा कांग्रेस को होगा और लाभ बीजेपी को। इसलिए बयानबाज़ियों से काम चला लिया जाए। अल्पसंख्यकों को फिर से ये अहसास कराया जाए कि सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस अब भी उनके साथ खड़ी है।
अब सवाल ये है कि सरकार आयोग की सिफारिशों पर क्या करेगी। चूंकि अपने देश का राजनीतिक इतिहास रहा है कि कोई भी जांच कमीशन ईमानदार जांच के लिए नहीं गठित की जाती। उसका इस्तेमाल राजनीतिक मतलबों के लिए होता है। इन आयोगों को बनाने वालों की नीयत और मंशा शुद्ध तौर पर राजनीतिक होती हैं। इसलिए आयोगों की रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। आज़ादी के बाद से लेकर अब तक कई रिश्वत कांड को लेकर आयोग बने। लेकिन आज एक बार भी ऐसा नहीं सुनने में आया कि दोषी को कड़ी सज़ा मिली है। ऐसा ही मामला जैन हवाला कांड में भी हुआ। नानवटी आयोग ने गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी सरकार को क्लीन चिट दी। सिख विरोधी दंगों के आरोपी अब भी सज़ा नहीं पाए हैं। दरअसल , सरकार चाहें जिस किसी भी पार्टी की हो, वो आयोगों के ज़रिए लीपापोती करती है। सच पर परदा डाला जाता है। अरसा ग़ुज़रने पर लोगों के ज़ख़्म खुद ही सूख जाते हैं। नेताओं के बिरादरी को मालूम है कि जनता की याददाश्त कमज़ोर होती है और वो इसी का फायदा उठाते हैं। भले ही इससे लोकतंत्र की साख पर बट्टा लगे।

Tuesday, June 30, 2009

बाबरी मस्जिद की कहानी – 17 साल बाद उसी की ज़ुबानी


सत्रह साल हो गए मुझे टूटे हुए, भरभराए हुए। इबादत की जगह को पैरों से रौदा गया। नफरत से तोड़ा गया। लेकिन क्या मैं अकेले टूटा हूं ? मैं इन सत्रह सालों में बार –बार यहीं सोचता रहा। मुझे लगता है कि मैं अकेले नहीं टूटा। इस ज़म्हूरी मुल्क की इज्ज़त टूटी। देश का ईमान टूटा। गंगा –जमुनी तहज़ीब टूटी। राम-रहीम की दोस्ती टूटी। एक –दूसरे का एतबार टूटा। रिश्तों की डोर टूटी। दिलों का तार टूटा। अब आप सोचिए क्या मैं अकेले टूटा था ?
मुझे चाहें जिसने भी बनाया हो। जिस भावना से बनाया हो। लेकिन मुझे जगह तो मर्यादा पुरशोत्तम श्रीराम ने ही दी। मैं सैंकड़ों साल से उनके साथ रहा। वो भी मेरे साथ सैकड़ों साल से जुड़े रहा। उनके बगल में मेरे होने से उन्हे कोई तकलीफ नहीं हुई। मेरे साथ उनके होने से मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई। मैं उनकी नज़रों से होली खेलता था। दीवाली के पटाखे फोड़ता था। नवरात्रा मनाता था। दशहरा मनाता था। मेरी नज़रों से वो ईद की मीठी सिवइयां खाते थे। हम दोनों को एक दूसरे से कोई तकलीफ नहीं थी।
मुझे तोड़ने के लिए मुट्ठी भर लोगों ने देश में फतवा जारी किया। वो फतवा किसी मज़हब का नहीं था। किसी ईमान का नहीं था। किसी इंसान का नहीं था। ये फरमान राम का नहीं था। क्योंकि कोई भी मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। ये तो सत्ता के लालची उन उन्मादियों का तुलग़की फ़रमान था, जिन्हे दीन ओ ईमान से कोई मतलब नहीं थी। उन्हे मतलब था तो हम दोनों के सहारे हुक़ूमत की चाबुक पाने से।
मैं टूट रहा था। मुझ पर हमले हो रहे थे। मुझमें हिम्मत थी सब सहने की। मुझे सब सहना भी चाहिए था। ये मुल्क का तक़ाज़ा था। क्योंकि मैं भी इस देश की माटी से बना था। वतन का क़र्ज़ दूध के भी क़र्ज से बड़ा होता है। मैं सह रहा था । दर्द पड़ोसी को हो रहा था। मेरे राम को हो रहा था। वो दिल ही दिल रो रहे थे। सोच रहे थे कि हजारों साल पहले जंग कर जिस रावण का ख़ात्मा कर चुके थे, वो चेहरे फिर से दिखने लगे हैं। जिन्हे दूसरों को तकलीफ देख कर आनंद आता है। वो मुझसे शायद कह रहे थे- घबराना नहीं। टूटना नहीं। सब सहना है । सब सहकर फिर से मुल्क को मजबूत बनाना है। मज़हब की तालीम देनी है। चौपाइयों और दोहों से फिर समझाना हैं कि हमारे बदन का लहू एक जैसा हैं, एक रंग का है। इसलिए हम दोनों का ख़ून भी एक है। लेकिन लोग नहीं समझ रहे थे। रथ जहां –जहां से निकला था, अपने पीछे काला धुआ छोड गया था। इस गुबार में लोगों के ख़ून काले पड़ गए थे और आंखें लाल हो गई थीं। बहुत सी औरतें की चूड़ियां टूटीं। बहुत सी माओं का आंचल सूना हुआ। कई बच्चों के सिर से मां- बाप सका साया उठ गया। बहुत ख़ून बहा- हम दोनों के नाम पर। लेकिन हम दोनों ने तो ऐसा नहीं कहा था । फिर क्यों बहा ख़ून ? किसके लिए बहा ख़ून ?
सबने मुझे टूटते हुए देखा। लेकिन क़ानून को देखने –समझने में सत्रह साल लग गए। सुना था मैंने इंसाफ में देर ज़रूर है, लेकिन मिलता ज़रूर है। सुना है कि क़ानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं, हमसे भी लंबे। सत्रह साल बाद क़ानून को सब पता चल गया। किसने मुझे तोड़ा। क्यों मुझे तोड़ा। लेकिन क्या गुनाहगार सज़ा पाएंगे ? या फिर मेरे और राम के मज़हब में जो लिखा है, वहीं होगा। सबको ऊपर सज़ा मिलेगी। क्योंकि हमारे वार में आवाज़ नहीं होती। लेकिन जाते –जाते आपसे गुज़ारिश है। आप मत टूटना कभी । आप टूटेंगे तो मुल्क टूटेगा, ज़म्हूरी ताक़त टूटेगी, गंगा जमुनी तहज़ीब टूटेगी, मज़हब की तालीम टूटेगी। याद रखिएगा- ग़लतियां बाबर की थी, जम्मन का घर फिर क्यों जले। दफन है जो बात, उस बात को मत छेड़िए।

Monday, June 29, 2009

अगर हमें राहुल बाबा नहीं मिलते तो देश कैसे चलता ?


19 जून को इस देश –दुनिया में बहुतेरे का जन्मदिन रहा होगा। लेकिन ख़बर बनी राहुल गांधी के जन्म दिन की। इसी दिन राहुल बाबा इस धरती पर अवतरित हुए थे। अवतार का उनतालिसवां साल था। जश्न का अंदाज़ भी जोशीला था। जन्मदिन के मौक़े पर कई दरबारियों और चारण नीति के समर्थकों ने राजकुंवर राहुल गांधी और राजमाता सोनिया गांधी के घर के बाहर जमकर भांगड़ा पाया। अगर किसी को राजकुंवर या राजमाता शब्द खटके तो उसके आगे लोकतांत्रिक शब्द जोड़ सकते हैं। अतिउत्साही राहुल प्रेमियों ने 139 किलो का केक भी काटा। ये तो गनीमत है कि उम्र के साथ एक सौ किलो का केक काटा। इरादा तो एक हज़ार 39 साल जीने का आशिर्वाद देने का था। लेकिन दिल्ली में फटाफट उन्हे 1039 किलो का केक मिला नहीं होगा। ख़ूब नाचे गाए। तालियां बजा बजाकर जुग जुग जीने का आशिर्वाद दिया। साथ –साथ घोड़ों को भी नचाया। घोड़ा भी ख़ुश होकर नाचा होगा। सोचा होगा- जब प्राणियों में सर्वोच्च मनुष्य दिल खोलकर नाच रहा है तो वो इस पुनीत पावन कर्तव्य का हिस्सा बनकर स्वर्ग जाने का रास्ता पा रहा है।
ये लोकतंत्र हैं। लोकतंत्र में सबको अपनी मर्ज़ी से जीने, करने और बोलने का अधिकार है। इसी लोकतंत्र के लिए हमारे देश के कई लोगों ने अंग्रेज़ों की लाठी-गोलियां खाईं। जान दी। शहीद कहलाए। इसी लोकतंत्र का फायदा राहुल प्रेमियों ने उठाया और राहुल गांधी ने भी। लोकतंत्र में शायद ज़रूरत से ज़्यादा आस्था रखनेवाले राहुल प्रेमियों ने कभी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का 175 किलो का केक काटने का इरादा नहीं दिखाया। शायद उन्हे मालूम है कि लोकतंत्र ने जितनी ताक़त राहुल बाबा को दी है , वो ताक़त भला पीएम में कहां ? उन्होने पीएम को विनती करते हुए सुना है- मैं राहुल जी को मंत्री बनाना चाहता हूं। लेकिन वो मान नहीं रहे हैं। इन प्रेमियों ने इसके अलावा मंत्री के नामों की कांट – छांट करते राहुल के बारे में भी ख़ूब सुना है। राहुल बाबा को पूरे देश में घूमकर अपनी मां के साथ विपक्ष की बखिया उधेड़ते भी देखा है। सत्ता के सुख में मदांध नेहरू –गांधी परिवार को होते देखा है।
ये नज़ारा राहुल बाबा आंखों से नहीं देख पाए। वो तो उस दिन लंदन में छुट्टियां बिता रहे थे। अब पता नहीं वहां कोई भारतीय न्यूज़ चैनल देखा कि नहीं, जिसमें जन्माष्टमी की तरह राहुल चालीसा पढ़ा और दिखाया जा रहा था। देखें होंगे तो यक़ीनन बेहद खुश हुए होंगे। जन्मदिन के मौक़े पर राहुल के लंदन में होने से अपन लोग बेहद खुश हुए। बेचारा राहुल देश को सेक्युलर, मज़बूत सरकार और लोकतंत्र के लिए दिन रात एक किया था। सरकार बनाने के लिए क्या क्या जतन किए। मंत्रियों के नाम तय करने में अपने दिमाग़ का कितना दही किया। इतना सब करने में 39 साल का जवान राहुल बाबा कितना थक गया होगा। बेचारा विलायत में अपनी थकान उतार रहा होगा। खुश होना चाहिए। ठीक वैसे ही, जैसे कि हम उनके परदादा जवाहर लाल नेहरू के कोट फ्रांस से धुल कर आने की ख़बर सुनकर अपन लोग खुश होते थे।
अगर राहुल बाबा न होते तो देश कैसे कलावती को जानता। ये अलग बात है कि बेचारी कलावती नहीं समझती कि राहुल बाबा के पास कितने काम हैं। देश चलाना है। नौजवानों को जगाना है। संगठन खड़ा करना है। राहुल बाबा ने उसे एक पहचान दी है। पूरा देश अब उसे जानता है। लेकिन वो राहुल बाबा से टाइम लिए बग़ैर मिलने दिल्ली आ धमकी। नहीं मिल पाई। उसे बुरा तो बहुत लगा होगा। लेकिन समझ गई होगी कि बेचारे राहुल के पास कितना काम है। इतना काम है कि उन्हे अपनी कलावती से मिलने का वक़्त नहीं मिला। चुनाव से पहले जब उनके पास समय था तो महाराष्ट्र जाकर उससे नहीं मिले थे ! ये अहसान तो वो भूल ही जाती है।
सोचिए , अगर राहुल बाबा नहीं होते तो देश में दलितों का उद्धार कौन करता। कौन उत्तर प्रदेश के गांव में जाकर दलित की चारपाई पर सोता, उनकी रोटी खाता। अगर राहुल बाबा न होते तो कैसे विदेशों के मंत्री उत्तर प्रदेश के गांव और दलित का घर देख पाते। इन विदेशियों ने बड़ी मुश्किल से स्वीकार किया था कि भारत अब सांप-संपेरों का देश नहीं रहा। दिल्ली की चमक और मुंबई की धमक को देखकर मान बैठे थे कि भारत बदल गया है। धन्य हों राहुल बाबा, जो आपने अज्ञानी विदेशी मंत्री को उत्तर प्रदेश के गांव में दलित के घर पहुंचाकर उसका ज्ञानचक्षु खोल दिया।
राहुल बाबा देश को आगे बढ़ाने के लिए कितना काम कर रहे हैं। युवा शक्ति की फौज खड़ी कर रहे हैं। देश युवाओं के हाथ में हो-इसके लिए वो युवाओं को आगे ला रहे हैं। अगर कलावती और राम सरेखन का बेटा-बेटी-बहू पढ़े लिखे होते तो उन्हे भी ज़रूर आगे लाते। अब अनपढ़ भरे पड़े तो वो क्या कर सकते हैं। वो कोशिश तो कर ही रहे हैं। राजेश पायलट के बेटे, माधवराव सिंधिया के बेटे, गनी ख़ान चौधरी की भांजी आदि –आदि को आगे ला रहे हैं। मंत्री बना रहे हैं।
राहुल बाबा को मंत्री नहीं बनना है। वो साफ कहते हैं- टैम ना है। अरे भई, इतना काम कर रहे हैं तो टैम कैसे मिलेगा। राहुल ये जानते हैं कि मंतरी- संतरी बनकर क्या होगा। बनना तो एक दिन पीएम ही है। पापा बने, दादी बनी, परदादा बने। एक दिन वो भी बनेंगे। पीएम की कुर्सी कौन सी भागी जा रही है ससुरी। कई बार तो ऐसा लगता है कि राहुल धार्मिक भी हैं। रामायण ख़ूब पढ़ी होगी। खड़ाऊं पूजन समझते होंगे। तभी तो मां-बेटे ने मिलकर मनमोहन सिंह को पीएम बना रखा है। भले आदमी हैं। सज्जन पुरूष हैं। वो बेईमानी नहीं करेंगे। खड़ाऊ शासन चलाते रहेंगे। जब सम्राट की ईच्छा होगी तो वो ख़ुद तख़्त ओ ताउस संभाल लेगा। सोनिया और राहुल दोनों ही लोकतंत्र और संविधान में अगाध आस्था रखते हैं। संविधान कहता है कि संसदीय दल का नेता ही प्रधानमंत्री होगा। संसदीय दल तय करेगा कि उसका नेता कौन हो। इसके बाद प्रधानमंत्री तय करेगा कि मंत्रिमंडल में कौन –कौन होगा। लेकिन मां- बेटे दोनों को मालूम है कि मनमोहन सिंह भद्र पुरूष हैं। राजनीति के नौसिखिए हैं। वो संसदीय दल को कह नहीं पाएंगे कि मुझे नेता चुनो। मीठा बोलनेवाले मनमोहन सिंह जी किसी को ये कह नहीं सकते कि आपको मंत्री नहीं बना सकता। उन्होने मनमोहन सिंह की इस बारे में भी मदद की है। चुनाव से पहले ही फरमान जारी कर दिया – मनमोहन ही पीएम होंगे। पीएम बनवा कर छोड़ा। आख़िर भले लोगों का साथ कौन नहीं देगा ? इस परिवार ने तो हमेशा देश का भला ही सोचा है। अगर इस परिवार ने आपातकाल नहीं थोपा होता तो जनता को लोकतंत्र का मतलब कैसे पता चलता ? लोकतंत्र पहले से कहीं ज़्यादा और मज़बूत कैसे होता ? हमारे देश के लोग भी जानते हैं कि इसी में उनकी भलाई है। शायद उन्हे भी कुछ मलाई मिल जाए। ऐसे में अगर भांगड़ा पा दिया तो कौन सा आसमान टूट पड़ा।

Tuesday, June 23, 2009

हर पल , हर लम्हा याद आते हैं पापा


सत्ताइस जून को पापा को हमसे बिछड़े बारह साल पूरे हो जाएंगे। इन बारह साल के दौरान एक भी पल ऐसा नहीं रहा होगा, जब पापा की याद न आई हो। हर मोड़ पर पापा याद आए। चाहें वो मौक़ा ख़ुशी का रहा हो या फिर ग़म का। कभी अकेले में बैठकर सोचता हूं तो लगता है कि दुनिया में कितना अकेला हूं। एक –एक कर के वो सब साथ छोड़ गए, जिसकी कभी मैंने कल्पना नहीं की। चाहें वो मेरी बुआ ( बाबा की बुआ) हों, बाबा हों, पापा हों, नाना हों या फिर मम्मी।
अभी हाल की बात है। कोलकाता में कुछ लोग पापा का जन्मदिन मना रहे थे। इसके बाद एक मूर्धन्य पत्रकार ने एक वेब साइट पर स्टोरी की। एसपी की याद में हुई संगोष्टी में वक्ता आठ और सुनने वाले पांच। मैंने उस ख़बर में पाया कि पापा का जन्म दिन की तारीख़ वो नहीं हैं, जिसे वो मना रहे हैं। ये अलग बात है कि पापा ने जीते जी कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया। उनका मानना था कि धरती पर आकर कोई महान काम नहीं किया है, जो इसका जश्न मनाऊं। ये ढकोसला, दिखावा और आडंबर है। पापा का जन्मदिन मनानेवाले अगर उनके क़रीबी होते तो शायद उनकी भावना को समझकर जन्म दिन नहीं मनाते।
इस ख़बर को देखकर मैंने अपनी आपत्ति भेजी। इसके बाद महोदय का मेल आया कि हम पहली बार नहीं मना रहे हैं। इसमें एम.जे.अकबर आ चुके हैं। इसमें पापा के बड़े भाई नरेंद्र प्रताप भी आ चुके हैं। इसमें सीपीएम के दिग्गज मोहम्मद सलीम और न जाने कितने तरह के बुद्धिजीवी आ चुके हैं। महोदय ने ये भी दावा किया कि एसपी तो उनके असली हीरो हैं। वो उनके जीवन के नायक हैं। मैंने उन्हे कुछ दस्तावेज़ भेजे। वो महोदय सक्रिय पत्रकार नहीं हैं। शायद साहित्य से उनका कोई नाता है। अचरज है कि जो पत्रकार दिन रात पापा के साथ रहे । उन्हे अपना आदर्श मानते रहे। उन्होने तो कभी पापा के अपनों की ख़बर नहीं ली। लेकिन इस पेशे से इतर कोई पापा के अपनों की ख़बर रखता है। मैंने उन महोदय से ये पूछा कि आप जन्मदिन मनाएं। मुझे एतराज़ नहीं क्योंकि उन्होने मीडिया में सार्वजनिक संपत्ति तो पहले ही बनाया जा चुका है। लेकिन आप ये बताएं कि आप एस पी को अपना रियल लाइफ हीरो मानते हैं तो कुछ किलमीटर चल कर आपने अपने हीरो के अपनों की ख़बर ली ? आपके हीरो की मां कैसी हैं? किस हाल में हैं ? पापा की जो सबसे क़रीबी जीवन की रहीं हैं वो हैं मेरी मम्मी यानी उनकी भाभी। आपने क्या उनकी कभी सुध ली। महोदय का जवाब इस पर नहीं आया।
ख़ैर , कई मौक़ों पर पापा बेसाख्ता याद आए। जब मेरी शादी हो रही थी तो ठीक उससे पहले मैं, मेरी मम्मी, मुझे जन्म देने वाले पिता और छोटा भाई ख़ूब रोए। शादियों के मौक़ों पर नाच-गाना होता है। मेरे घर में मातम मन रहा था। सबको पापा की याद आ रही थी। हम इसलिए नहीं रो रहे थे कि पापा होते तो नौकरी देते। तरक्की देते। ग्लैमर का रास्ता खोलते। या आगे बढ़ने का मौक़ा देते। हम इसलिए रो रहे थे कि अगर मेरी शादी से सबसे ज़्यादा ख़ुशी किसी को होती तो वो पापा ही होते। मम्मी ये कह कर रो रही थीं कि कितना अच्छा होता कि सुरेंदर बहू को मुंह दिखाई देता। ससुर बनता। देखती कि साहेब बना सुरेंदर बहू से घूंघट करवाता है कि नहीं? जब मेरा बेटा हुआ तो एक बार फिर सब रोए । फिर वहीं ग़म । पापा होते तो अपने पोते को देख फूले नहीं समाते। इस बार अस्पताल में ही मम्मी ने पूछा कि बेटे का कुछ नाम सोचे हो? मैंने कहा कि मम्मी , अभी नहीं। इस बारे में घर में जाकर बात करेंगे। मैं अपनी मां से कैसे कहता कि मेरे बेटे की जान ख़तरे में है। पैदा होते ही उस पर मौत मंडराने लगा है। अस्पताल में इस दौरान मैं अकेले में बार –बार यही सोचता था कि क्या यहीं मेरी नियती है कि पापा भी नहीं और बेटा भी नहीं ? बच्चे की मां बार बार कहती कि बेटे का कहां रखा हैं। मैं उस बार दिलासा दिलाता- अभी तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। तुम्हारी तबीयत ठीक होते ही उसे तुम्हारे पास ले आऊंगा। मम्मी पूछती थीं कि इतने दिनों तक डॉक्टर बच्चे को जच्चे से अलग नहीं रखते । ये कैसा अस्पताल और डॉक्टर है, जो बच्चे को जच्चे से दूर रख रहे हैं ? मैं दिल्ली के उन तमाम मंदिरों, मस्जिदों, गिरजघरों और मज़ारों पर गया। ये सब वहीं जगहें हैं, जहां मैं पापा की ज़िंदगी की दुआओं के लिए कई बार गया था। इस बार मेरे साथ नंदलाल थे। नंदलाल को बहुत कम लोग जानते होंगे। नंदलाल पापा की गाड़ी चलाया करते थे। बहुत लंबे समय तक। ख़ैर , डॉक्टरों ने बच्चे को सुरक्षित घोषित कर दिया। इसके बाद बारी आई – बच्चे की नाम की। पारिवारिक परंपराओं से उलट मैंने बेटे का नाम तय करने का फैसला किया। घरवालों ने नाम सुना तो बेहद ख़ुश हुए। सबका बस एक ही सुझाव था- इसके नाम में जात-पात न हो। इसका सरनेम सुरेंद्र हों। आख़िरकार मेरे बेटे का नाम रखा गया अंश सुरेंद्र ।
अस्पताल में सबने लाख जतन किए कि किसी तरह पापा बच जाएं। ख़ून के रिश्तों से भी बढ़कर दिबांग ने दिन रात एक कर दिया था। क़मर वहीद नक़वी जी दिलासा देते थे कि नक्षत्र बताते हैं कि वो जल्द ही अस्पताल से ठीक होकर लौंटेंगे। संजय पुगलिया का अस्पताल आकर कोने में कुछ देर तक ख़ामोश खड़े रहना। अमित जज, नंदिता जैन, रामकृपाल जी और कमेलश दीक्षित का लगातार आना-जाना। राम बहादुर राय जी की कोशिश - पूजा पाठ और हवन के ज़रिए अनहोनी को टाला जाए। सबसे मिलकर लगता था कि नहीं , पापा लौटेंगे। मुझे विवेक बख़्शी दिलासा दिलाता था कि सब ठीक हो जाएगा। रात को कई बार मैं दीपक चौरसिया, आशुतोष, अंशुमान त्रिपाठी, राकेश त्रिपाठी और धर्मवीर सिन्हा रूकते थे। इस विश्वास के साथ कि पापा लौंटेंगे। लेकिन सब बेकार।
जब उनके पार्थिव शरीर को लेकर हम घर आने लगे तो मैं थरथरा रहा था। मैंने रामकृपाल चाचा से आग्रह किया कि वो मेरे साथ बैठें। मेरे अंदर हिम्मत नहीं है। सहीं में, पापा के बग़ैर ये सोचकर ही हिम्मत जवाब दे गई थी। मैं फूट फूटकर रो नहीं पा रहा था। जिसका मैं अंश था , उसे ही मैं जलाने जा रहा था। श्मशान में पापा के बगल में बैठकर ख़ूब रोया। ख़ैर, मैं तो उनका अंश था। मैंने एम जे अकबर और सीतराम केसरी को भी फूट- फूटकर रोते देखा। मेरे साथ दिबांग ने भी एक तरह से पुत्र धर्म का निर्वाह किया। पापा को धू- धू जलते देख मैं बौखला उठा। मेरे पिता मेरे पास आए और कहा- ये सच है। तुम्हारा बाप मर गया। बाप वो नहीं होता, जो जन्म देता। बाप वो होता , जो उसे लायक बनाता है। बस इतना याद रखना – भले ही अपने बाप की इज्ज़त न बढ़ा सको लेकिन बट्टा मन लगाना।
कोशिश कर रहा हूं कि अपने वादे पर खरा उतरूं। दुनिया को ख़ामोशी के साथ बदलते देख रहा हूं। ऐसे में पापा और ज़्यादा याद आते है। वो अक्सर अकेले में समझाया करते थे कि अगर झूठ नहीं बोल सकते तो दिल्ली में बोलना बंद कर दो। सफल रहोगे। ये दिल्ली है। लेकिन क्या करूं। हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के अपनी बात कहने की आदत नहीं रही।

एस.पी.सिंह


ये तस्वीर उन दिनों की है, जब पापा रविवार में थे। लगभग 32 साल पुरानी तस्वीर है।

Monday, June 22, 2009

एस.पी. सिंह


ये तस्वीर मुझे बेहद पसंद है। इसलिए ये तस्वीर साझा कर रहा हूं।

Saturday, June 13, 2009

पापा, मैं और श्मशान घाट


मैं भी दिल्ली आकर पत्रकारिता करने लगा। शुरूआत में मुझे दैनिक आज के श्री सत्य प्रकाश असीम जी, दैनिक हिंदुस्तान के के.के. पांडेय जी और साप्ताहिक हिंदुस्तान के श्री राजेंद्र काला जी ने बेहद प्रोत्साहित किया। लेकिन सहीं मायनों में मुझे श्री आलोक तोमर जी ने करंट न्यूज़ के ज़रिए मुझे ब्रेक दिया। पाक्षिक से साप्ताहिक बनने वाली अमित नंदे की पत्रिका की टीम में मुझे आलोक कुमार, कुमार समीर सिंह , अनामी शरण बबल और फोटोग्राफर अनिल शर्मा जैसे दोस्त मिले। मैं दिल्ली में रहकर भी पापा के साथ नहीं रहता था। शुरू में तकलीफ हुई । लेकिन पापा ने साफ कहा कि जहां मेरी मदद हो आ जाना । लेकिन इस महानगर में तुम्हे अपने पैरों पर खड़ा होना है। तुम्हे आटा –दाल का भाव मालूम होना चाहिए। ख़ैर नब्बे के दशक में मुझे ढ़ाई हज़ार रुपए पगार मिलते थे। पापा ने बस इतना ही कहा था कि कांक्रीट के इस महानगर में राजमिस्त्री भी इतना कमा लेता है। एक अच्छी लाइफ स्टाइल के लिए ये पैसे कम है।
बहरहाल , पापा जब भी कलकत्ता जाते, मुझे पहले ही बता देते कि इस तारीख़ को जा रहा हूं, तुम भी पहुंच जाना। पापा हवाई रास्ते से पहुंचे और मैं अपनी छुक –छुक से उनसे एक दिन पहले पहुंच जाता। ऐसा ही एक वाकया है। मुझे कुर्ता पायजमा पहनने का बड़ा शौक़ हैं। ये शौक़ पापा को भी था। उन्होने मुझे दिल्ली में भी कुर्ता पायज़ामे में देखा था लेकिन कुथ कहा नहीं। इस बार जब वो कोलकाता गए तो एक बैग मेरे हवाले किया। उसमें दर्जन भर से ज़्यादा कुर्ता पायजामा था। मैं बैग खोलते ही हैरान था। इतने में पापा कमरे में आए और कहा- सब डिज़ाइनर्स हैं। पहना करो ऐसा कि अच्छा लगे, दिल को भी और आंखों को भी।
शाम चार बजते ही पापा का बुलावा आया- घूमने जाना है। इस घूमते का मतलब होता था कि चलो बाप-दादाओं ने जो संपत्ति छोड़ गए हैं, उसे देखकर आते हैं। मेरे बाबा ने कोलकाता के गारूलिया में बहुत सारे बाड़ी बनवाए थे। बंगाल में बाड़ी वैसे ही होता है , जैसे कि मुबंई में चॉल। एक –एक बाड़ी में अस्सी सौ कमरे होते थे बरामदों के साथ। साथ में काफी खुला मैदान भी होता था। बीस पच्चीस बाड़ियों का चक्कर लगाने का मतलब होता था- डेढ़ से दौ घंटे। इस दौरान कई लोग पापा से मिलते थे। पापा बेहद खुलकर उनसे बात करते थे। बातचीत भी घर परिवार या समाज या राजनीति की नहीं। कोई मिल गया तो शुरू हो गई शिकायत- मालिक, ज़रा अशरफिया को डांट दीजिए। आज कल वो बिलाटर ( बांग्ला देशी दारू) पीकर मुहल्ले में सबको गाली बकता है। वो इस बात को भी ध्यान से सुनते थे। थोड़ी दूर जाने पर जग्गू रिक्शा वाला मिलता था। उससे मिलकर वो बेहद खुश होते थे। जग्गू बताता था कि उसके घर में आजकल क्या चल रहा है। बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। वो पापा को क्लास मेट था, जो बेरोज़गारी की वजह से रिक्शा चलाता था। रास्ते में सूरज चौधरी मिलते थे। पापा उससे भी बहुत घुलकर बात करते थे। वो भी पापा के बहुत पुराने दोस्त थे। नगरपालिका में वॉरमैन का काम करते थे। वो सुबह चार बजे जाकर पानी का बटन आन करते थे और सुब नौ बजे आफ । फिर सुबह 10 बजे आन करने थे और दोपहर बारह बजे आफ। फिर शाम को चार बजे आन करते थे और रात नौ बजे आफ। शहर में पानी आने और न आने के लिए अगर कोई ज़िम्मेदार था तो वो सूरज चचा थे। इस बात को गारूलिया शहर का बच्चा जानता था। पापा उन्हे प्यार से सूरजा कहते थे। सूरज चचा खेल के भी बेहद शौकीन थे। वो अपने समय में स्थानीय क्लब की ओऱ से श्याम थापा और सुब्रतो बनर्जी जैसे फुटबालरों के खिलाफ भी खेल चुके थे। बचपन में हम सूरज चचा को देधकर डरते थे। क्योंकि उनका वो सवा छह फीट लंबे और वेस्ट इंडीज के खिलाड़ियों वाले रंग के थे। सूरज चचा से बतियाने के बाद पापा श्मशान घाट पहुंचते थे। श्मशान से सटा ज़मीन का एक बड़ा टुकड़ा भी हमारा था, जहां बच्चे खेलते थे।
श्मशान में घुसते ही बड़ा से पीपल और बरगद का पेड़ था। तब .ये हमारे इलाक़े का इकलौता श्मशान घाट था। लकड़ी से लाशें जलाई जाती थीं। इसी श्मशान में हमनें अपनी बुआ का अंतिम संस्कार किया था। वही बुआ, जिन्होने मुझे , मेरे पापा और मेरे बाबा को पाला था। यहां पहुंचते ही मुझे बुआ याद आती थीं और पापा को ? केवल बुआ ही नहीं , उनके बाबा भी याद आते थे। ये वो लम्हा होता था ,जब पापा मेरे कंधे पर हाथ रख कर खड़े होते थे। क्योंकि उस समय मेरे परिवार में किसी भी बेटे की इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि वो अपने पिता के बराबर या सामने खड़ा हो सके। पापा मेरे कंधे पर हाथ रखकर श्मशान को देखते थे। आसमान को देखते थे। फिर पीपल के नीचे बने चबूतरे पर हम दोनों बैठ जाते थे। यूं ही लगभग पांच –दस मिनट। हममें कोई बातचीत नहीं होती थी। हम दोनों विपरीत दिशाओं में देखते थे। अचानक पापा अठकर खड़े होते थे और मैं उनके पीछे- पीछे घर की ओऱ चल देता था। इसी तरह मेरी पापा से आख़िरी मुलाक़ात श्मशान घाट में ही हुई। लोदी रोड का श्मशान घाट। जहां इससे पहले मेरे परिवार से किसी का अंतिम संस्कार नहीं हुआ था। दाह संस्कार के बाद मैं इस बार पापा को छोड़कर अकेले घर लौटा। मेरे साथ पापा नहीं थे। श्मशान सच हैं।

Friday, June 12, 2009

27 जून को पापा की बरसी


बड़ी मुश्किल होती है, जब किसी बेइंतहा क़रीबी के बारे में लिखना पड़े। कुछ यही हाल मेरा है। पुष्कर पुष्प जी ने एस. पी. सिंह यानी पापा के बारे में मुझे कुछ लिखने को कहा। मैं बिलकुल वैसा ही काम रहा हूं , जैसा कि किसी आंधी तूफान में बरगद का बड़ा पेड़ उखड़ जाए । इसके बाद लोग उसकी फुनगी से पूछें कि ये कैसे हुआ ?
एसपी को मैं पापा कहता हूं। वो मेरे सगे पापा नहीं हैं। न हीं उन्होने समाज के सामने ढोल पीटकर और न ही लिखा-पढ़ी कर मुझे बेटा बनाया। रिश्तों की उलझन में समझना चाहें तो वो मेरे चाचा थे। जब मैं बोलना सीख रहा थी तब मेरे बाबा ( दादाजी), आजी ( दादी जी) और मम्मी ने कहा कि ये पापा हैं। तब से उन्हे पापा कह रहा हूं। बचपन में बड़ी मुश्किल होती थी सगे पापा और पापा के संबोधन को लेकर। लेकिन घरवालों ने इसका भी तोड़ निकाल दिया। पापा बंबई में नौकरी करने लगे और दोनों पापा की पहचान अलग करने के लिए मुझे सिखा दिया गया—कहो, बंबईया पापा। जब मैं थोड़ा समझदार हुआ तो ख़ुद ही इस संबोधन से बंबइया को निकाल दिया।
पापा ने कभी मुझे चाचा का प्यार नहीं दिया। मुझे हमेशा बेटे का ही प्यार और दुलार मिला। हम दोनों को रिश्ते में कभी ये अहसास नहीं रहा कि वो मेरे सगे पापा नहीं हैं, वो केवल चाचा हैं। ये तो दिल्ली वालों की देन हैं, जो मुझे बेटे के तौर पर नहीं, भतीजे के तौर पर जानने लगे। मुझे याद है कि पापा एक बार बीबीसी के नरेश कौशिक जी के साथ गप्पे लड़ा रहे थे। नरेश जी लंदन से आए हुए थे। मैं कमरे में दाख़िल हुआ तो नरेश कौशिक ने मेरे बारे में पूछा तो पापा ने कहा – बेटा है। उनकी आंखे हैरत से फैल गईं। पूछा- एसपी, तुम्हारा इतना बड़ा बेटा ? पापा ने हंसकर कहा- बेटे और भतीजे में कोई फ़र्क़ होता है क्या? एक बार सुहासिनी अली घर पर पर आईं। मुझे देखते ही कहा कि अरे, ये तो जवानी का एसपी है। पापा से मज़ाक का रिश्ता रखनेवाले किसी ने जवाब दिया- हमारे यहां, पड़ोसियों से शक्ल नहीं मिलती।
मेरे बाबा चार भाई थे। मेरे बाबा तीसरे नंबर पर थे। चार में से तीन बाबा कोलकाता में ही रहते थे। लेकिन सबसे बड़े बाबा कभी भी ग़ाज़ीपुर छोड़ने को राज़ी नहीं हुए। ये तीनों बाबा कभी ग़ाज़ीपुर बसने को राज़ी नहीं हुए। बड़का बाबा साल छह महीने में कोलकाता घूमने के लिए आते थे। हम बच्चे चारों को बाबा ही कहते थे। लेकिन कई बार आजियों को समझ में नहीं आता कि हम किस बाबा की बात कर रहे हैं। रिश्तों के इस उलझन को दूर करने का रास्ता निकाला गया। सबसे बड़े बाबा का नाम बड़का बाबा। दूसरे वाले बाबा का नाम दुकनिया बाबा। ये नाम इसलिए क्योंकि बड़े अफसर बनने से पहले अपने जवानी में वो मोटर गाड़ियों और गहनों के दुकान के मालिक थे। सबसे छोटे बाबा का नाम रखा गया बुच्ची बाबा। उनकी भाभियां उन्हे प्यार से घर में बुच्ची बुलाती थीं। इससे सब बाबाओं का संबोधन साफ हो गया। अब तीन बाबा तो रहे नहीं, सबसे छोटे बाबा की उम्र ख़ासी हो गई है। बाबा के चारों भाइय़ों के अलगाव का होश तो मुझे नहीं हैं लेकिन इसका दर्द मैंने हमेशा अपने पापा और बाबा दोनों में ही पाया।
मेरे पिता जी तीन भाई। सबसे बड़े मुझे जन्म देनेवाले पापा ( नरेंद्र प्रताप) , उसके बाद पापा ( सुरेंद्र प्रताप ) और उसके बाद छोटे चाचा ( सत्येंद्र प्रताप) । मेरे अलावा एक और भाई है। मुझे पालने पोसने में घर के जिन लोगों ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई, वो थे मेरे बाबा । उन्होने मेरी पढ़ाई लिखाई का सारा बोझ उठाया। इसके अलावा हमारे घर में बुआ थीं। वो मेरे बाबा की बुआ थी, जो विधवा होने के बाद बाबा के साथ यानी हमारे साथ रहती थीं। उन्होने केवल मुझे ही नहीं, बल्कि मुझसे पहले के पीढ़ी के लोगों को पाला पोसा। उन्होने पापा को भी पाला था। मुझे याद हैं, मैं सोया रहता था तो वो फूल ( पीतल या कांसे की तरह के बर्तन) के एक बड़े से कटोरे में ढ़ेर सारा दूध, गुढ़ की भेली और रोटियां मीसकर मुझे खिलाती थी। मैं नींद में ही खाते रहता था। मेरी मां घर का सारा काम काज करती थीं।
मेरे समय में कोई प्ले स्कूल था नहीं। मुहल्ले में ही एक प्राइमरी स्कूल था। जिसमें कुल चार जमात तक पढ़ाई होती थीं। उसमें मेरा दाख़िला करा दिया गया। मैं गदहिया गोल ( नर्सरी ) में जाने को तैयार नहीं था। रो रहा था। ख़बर बाबा को लगी। बाबा आए। बग़ैर किसी पूछताछ के गाल पर ज़ोरदार तमाचा रसीद किया। बगल में खड़ी मेरी सबसे छोटी बुआ ने मेरी ऊंगली पकड़कर स्कूल पहुंचा दिया। बाबा ने मुझे पहली और आख़िरी बार थप्पड़ मारा। मेरे बाबा सारा जीवन फैशन परस्ती और दिखाने से नफ़रत करते रहे। अगर घर में कोई भी लेटेस्ट फैशन के कपड़े या बालों में दिख जाए तो समझिए मुसीबत टूट पड़ी। बाबा की सोच थी कि फैशन से बिगड़ने का रास्ता बेहद क़रीब होता है। ज़िंदगी में मैंने जो पहली पतलून पहनी , वो मेरे मामा ने पहनाया। ज़िंदगी में जो पहली जींस पहनी , वो पापा ने दिए। जो पहली घड़ी पहनीं, वो भी पापा की दी हुई थी। पापा जब भर आते , तो वो मेरे छोटे भाई के लिए तरह तरह के उपहार लाते। इसमें वॉकमैंन से लेकर साइकिल तक शामिल है। लेकिन मुझे हमेशा तोहफे में किताबें मिलीं। इसमें कई किताब लल्ला जी ( योगेंद्र कुमार लल्ला, संयुक्त या सहायक संपादक, रविवार) भेजते थे। पापा ने मेरे छोटे भाई को मसूरी को स्कूल में पढ़ाया भी। पापा, मेरे छोटे भाई को बेहतरीन स्कूलों में पढ़ाते रहे और मैं सरकारी स्कूलों और कॉलेज में पढ़कर पापा के पेशे में आ गया। पापा , हमेशा मुझे पत्रकारिता में आने से रोकते रहे। कहते रहे कि कुछ और करो। लेकिन मुझ पर तो सनक सवार थी- पत्रकार बनने की। ख़ैर पापा ने मुझे रास्ता दिखाया। दो टूक में कह दिया – पत्रकार बनने का विरोध नहीं करूंगा लेकिन मुझसे कभी नौकरी की उम्मीद नहीं करना। वो अपने वचन पर आख़िरी वक़्त तक क़ायम रहे। करियर में मुझे शैलेश जी मिले, जिन्होने मुझे टीवी पत्रकार बनाया और बहुत बाद में श्री संजय पुगलिया मिले, जिन्होने मुझे आगे बढ़ाया।

27 जून को एस. पी.सिंह की पुण्यतिथि हैं। अगर आपके पास एसपी से जुड़ी कोई याद या तस्वीर है तो हमें ज़रूर भेजें।

Saturday, March 28, 2009

आई एम ए कॉम्पलैन ब्यॉय

अस्सी कब के पार चुके लालकष्ण आडवाणी पर टीनएजर बनने का शौक़ चर्राया हुआ है। उन्हे किसी ने समझा दिया है कि हिंदुस्तान पर राज करना है तो नौजवानों को साथ लेना होगा। नौजवानों का मूड समझना होगा। नौजवानों के साथ चलना होगा। नौजवानों की तरह चलना होगा। आडवाणी को ये बात मुगली घुट्टी की तरह पिला दी गई है। जवानी का मंत्र समझते ही आडवाणी ने सबसे पहले कहा- या....हू.... यानी याहू पर चैट। कहने को वो टेक्नोफ्रेंडली बने। क्योंकि वो सिर्फ बोलते रहे , टाइप करनेवाले प्राणि और थे। इस चैट में भी आडवाणी ज़्यादातर आड़े-मेड़े, तिरछे सवालों से बचते रहे। बस ये साबित करने की कोशिश करते रहे कि नौजवानों की तरह वो भी इंटरनेटच पर चैट कर सकते हैं। बैल्कबैरी फोन का इस्तेमाल करना जानते हैं। थ्री जी -वी जी सब उनकी जेब में है। ब्लॉग-ब्लॉग भी खेलना उन्हे आता है।
मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी है- बूढ़ी काकी। इसमें एक पंक्ति काफी प्रासंगिक है। लिखा है- बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुर्नागमन होता है। शायद ये बात आडवाणी पर भी लागू होती है। पंद्रहवी लोकसभा चुनाव में वो ये नहीं बोल रहे कि वो देश को आगे ले जाने के लिए औरों से बेहतर क्या कर सकते हैं। उनका कहना है कि देश ने इतना कमज़ोर प्रधानमंत्री ( मनमोहन सिंह को) नहीं देखा। सरकार तो दस जनपथ से सोनिया चला रही हैं। अरे भाई, जब और वाजपेयी मिलकर सरकार चला रहे थे तो सच बोलिए- नागपुर आपलोगों को चलाता था या नहीं। मदनदास देवी जैसे नेता आपलोगों से क्यों मिलने आते थे। गिरिराज किशोर और अशोक सिंघल को क्यों मनाना पड़ता था।
ख़ैर , आप करें तो चमत्कार और मनमोहन करें तो कोई और कार्य.......अब आडवाणी जी ताल ठोंक रहे हैं कि मनमोहन में हिम्मत हो तो टीवी चैनल पर बहस कर दिखाएं। कांग्रेस ने मना कर दिया तो दावा कर रहे हैं कि जो आदमी बहस नहीं कर सकता, वो सरकार क्या चलाएगा। आडवाणी जी, मैं भी इस देश का नागरिक हूं। जितना हक़ आप रखते हैं कि किसी को चैलेंज करने का , उतना ही लोकतांत्रिक हक़ मेरा भी है आपको चैलेज करने का। मुझे ये समझा दीजिए कि गाल बजाने और सरकार चलाने में क्या मेल है। क्या आप ये साबित करना चाहते हैं कि जो ज़्यादा बोलने में उस्ताद होगा, देश -सरकार केवल वहीं चला सकता है। फिर तो कम बोलनेवाले कभी सरकार चला ही नहीं सकते।
आडवाणी जी, आप किसी कुटिया से कोई भी शिलाजीत खाएं, देश को फर्क नहीं पड़ता। आप सिंकारा पिएं या एनर्जिक 32 खाएं, इससे भी देश को फर्क नहीं पड़ता। हार्लिक्स पिए, बॉर्नविटा खाएं या कुछ और - इससे भी अपने जैसे लोगों को फर्क नहीं पढ़ता। आपको नेट पर चैट करना आता है या नहीं, या ब्लॉगिंग में आप माहिर हों या नहीं- अपन जैसे मतदाताओं को फर्क नहीं पड़ता। हमें तो फर्क पड़ता है उससे, जो अच्छी सरकार देने की कोशिश करे। जिसके सरकार में कोई सहयोगी पार्टी प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री पर अंबानी घराने से घूस खाने का आरोप न लगाए। जो सरकार दंगा करानेवालों को बचाव न करती हो। जो सरकार, आतकंवादियों को सिर आंखों पर बिठाकर अफ़गानिस्तान छोड़ने न जाती हो । जिस सरकार का आधा समय कभी ममता बनर्जी और जयललिता को रूठने-मनाने में न जाता हो। जो कभी ये न कहे कि मंदिर वहीं बनेगा, फिर कहे- पार्टी बिल्डिंग बनाने का काम नहीं करती। सरकार , जो कहे , सो करे।
आडवाणी जी एंड पार्टी से विनम्र आग्रह है कि अगर वो इन तमाम बातों को मानेंगे तो देश की जनता उन्हे ताज देगी। अगर 92 की तरह फिर काठ की हांडी चढ़ाने की कोशिश की तो जनता उन्हे बनवास देगी। जनता को फर्क नहीं पड़ता कि आप धोती कुर्ता में हैं या फिर अट्ठारह साल के नौजवान की तरह कैपरी और टी शर्ट में - जिसके सीने पर आसमान ताकती ऊंगली हो और प्यार भर चार अक्षर।
आडवाणी जी, चुनाव भर आपसे ऐसे ही बातें करता रहूंगा।
आपका एक मतदाता

Sunday, February 8, 2009

राम का नाम बदनाम न करो !


18 साल बाद बीजेपी को एक बार फिर मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम की याद आई है। ये याद तब आई है, जब लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। ये याद तब आई है, जब पार्टी मुसीबत में है। कहते हैं न कि मुसीबत के समय ही भगवान याद आते हैं। यही हाल लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, वेकैय्या नायडू, अरूण जेटली , सुषमा स्वराज और रविशंकर प्रसदा की है। अगर चुनाव सिर पर नो होता, आंतकवाद, महंगाई जैसे चुनावी चमकदार शस्त्र टूट नहीं गए होते और पार्टी की हालत पतली न होती तो शायद फिर राम याद न आते। क्योंकि बीजेपी ने अपने शासनकाल में एक बार साबित तो कर ही दिया है- बीजेपी के नेता ठाठ में और हमारे राज जी बेचारे हैं टाट में। बीजेपी एक बार फिर लोगों के आंखों में धूल झोंकने आई है। लोगों को एक बार फिर आपस में बांटने आई है। बीजेपी एक बार फिर हमारे संवेदानाओं के साथ खिलवाड़ करने आई है। बीजेपी एक बार फिर हमारे घाव को हरे करने आई है। बीजेपी एक बार फिर काठ की हांडी को चढ़ाने आई है। बीजेपी को एक बार श्री राम की याद सताई है।
समाज के एक बड़े हिस्से की शिकायत है कि अपनी गद्दी बचाने के लिए मांडा के राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन का ब्रम्हास्त्र चलाया था। बात तो की थी कि इससे देश के दबे-कुचले, वंचित-शोषित लोग आगे आएंगे। तो फिर ये आलोचना बीजेपी के लिए क्यों नहीं ? बीजेपी ने भी तो देश को बांटने का काम किया था और आज भी कर रही है। सत्ता की भागीदारी पाने के लिए ( दूसरी तरफ से नाक पकड़कर) लेफ्ट के साथ वी.पी.सिंह की सरकार का साथ दिया था। फिर बीजेपी को लगा कि थोड़ी सी और मेहनत की जाए तो सत्ता की चाबी मिल जाएगी। कथित लौहपुरूष का रथ पूरे देश में निकला। जिधर से भी गुज़रा, अपने पीछे सांप्रदायिकता का काला धुंआ छोड़ गया। जिधर -जिधर से आडवाणी का रथ गुज़रा , उसके गुज़रते ही उस इलाक़े में ज़हर घुल गया। क्या -क्या पापड़ नहीं बेले बीजेपी ने ? अयोध्या में राम मंदिर बनाने का वादा किया, समान क़ानून संहिता और संविधान के अनुच्छेद 371 को ख़त्म करने का वादा किया था। चुनावी मंच से बीजेपी के नेता जब ये वादा करते थे तो लोगों को लगता था कि ये लोग गंगा में खड़े होकर हाथ में तांबे का लोटा, तुलसी का पत्ता, गोबर और गंगा जल लेकर वादा कर रहे हैं। ये लोग नेता नहीं हैं। ये तो अपने हैं, जो अपने दिल की बात कर रहे हैं। ये उन लोगों की सोच थी, जो इस देश में बहुसंख्यक हैं। राम मंदिर बनाने के लिए बीजेपी ने साध्वी ऋतंभरा, साध्वी उमा भारती, विनय कटियार जैसे फायर ब्रांड नेताओं को मंच पर उतारा। शाखाओं से बाहर निकलकर पहली बार मंच से लोगों सं संवाद क़ाय़म करने के लिए इन नेताओं जो शैली और बोली चुनी, वो लोगों के तन बदन में आग लगा देती थी। ऐसे अनगिनमत मंचों , रैलियों और भाषणों का गवाह रहा हूं मैं।
1. राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे।
2. याचना नहीं अब रण होगा, संघर्ष बड़ा भीषण होगा।
3. बाबर के औलादों से ख़ून का बदला लेना है।
ये नारे थे बीजेपी के । समझ सकते हैं आप कि इन नारों ने बहुसंख्यक समाज पर कैसा असर डाला होगा। भाषण भी ऐसे कि एक तबके का लहू खौल जाए। साध्वी की ज़ुबां से - बहुत सहा है। अब नहीं सहेंगे। नहीं चाहिए कटा हुए देश और कटे हुए लोग। इस अंश का अर्थ परिभाषित करने की ज़रूरत है क्या ?
मुझे याद है कि बीजेपी का ये सपना बहुसंख्यक समाज का सपना हो गया था। जूट मिल में जिस मज़दूर की दिहाड़ी अस्सी से सौ रुपए की थी, उसने भी पांच सौ रूपए का योगदान दिया था। संघ और बीजेपी के कार्यकर्ता आम लोगों को समझाने में क़ामयाब हो गए थे कि इन्ही ईंटों से उनके राम की मंदिर बनाई जा रही है। एक ईंट की क़ीमत पांच सौ रूपए हैं। ऐसे अनगिनत पैसे बीजेपी और संघ के पास ताकि "अजोधा" राम मंदिर बन सके।
बीजेपी सरकार में आई। पहले अपनी तेरहवीं मना कर विदा हुई और फिर तेरह महीने के फेरे में पड़ कर बाहर हुई। लोगों को लगा कि अगर बीजेपी को जनादेश पूरा मिला होता तो शायद उनका सपना अब तक पूरा हो गया होता। इसके बाद के चुनाव में लोगों ने और उत्साह के साथ बीजेपी को वोट दिया। बीजेपी अपने सहयोगियों के साथ मिलकर पांच साल सरकार चलाने में क़ामयाब रही। लोगों को लगा कि इस मर्तबा उनका सपना पूरा होगा।
राम जन्म भूमि न्यास के तब के मुखिया महंत परमहंस जी ने चेतावनी दे दी कि अगर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने मंदिर का काम शुरू नहीं कराया तो प्राण तज देंगे। उनकी ज़िद और लोकप्रियता का अंदाजा़ बीजेपी नेताओं को था। क्योंकि उनके इसी सपने को सत्ता के लिए बीजेपी ने नारे में बदल दिया था। प्रधानमंत्री के विशेष दूत भागे-भागे अयोध्या गए। महंत को समझाने बुझाने का प्रयास किया। लेकनि वो टस से मस नहीं हुए। तब के उप प्रधानमंत्री ( मुझे याद नहीं कि तब तक वो " लौह पुरूष " बन पाए थे या नहीं) लाल कृष्ण आडवाणी ने दो टूक कह दिया कि मंदिर नहीं बन सकता। क्योंकि केंद्र में बीजेपी की सरकार नहीं है। केंद्र में मिली -जुली सरकार है। केंद्र में बीजेपी की नहीं , एनडीए की सरकार है। इस मुद्दे ( राम मंदिर ) पर सबकी राय एक नहीं है। अब पता नहीं कि आज की तारीख़ में आडवाणी या शिष्य ये न कह दें कि उन्होने ऐसा नहीं कहा। मीडिया ने उनकी बातों को तोड़ा- मरोड़ा। उनके कहने का ये मतलब नहीं था। उनके कहने का गडलत मतलब निकाला गया। महंत परमहंस जी इस दुनिया से विदा हो गए । लेकिन उनका सपना पूरा नहीं हो पाया।
बीजेपी इस बार भी अकेले चुनाव नहीं लड़ रही। इस बार भी उनके संग एनडीए है। क्या इस बार एनडीए राम मंदिर बनाने के लिए मान गया है ? क्या ओम प्रकाश चौटाला, नीतीश कुमार , बीजू पटनायक आदि से इस बारे में बात हो गई है ? अगर नहीं तो बीजेपी इस बार भी मंदिर कैसे बनाएगी ? क्या एनडीए के सहयोगी दलों को एतराज़ नहीं होगा ?
नागपुर में बीजेपी कहती है कि राम मंदिर बनाने के लिए तमाम अड़चनों को दूर करेगी। सरकार में आते ही फास्ट ट्रैक कोर्ट बना देगी। ताकि जल्द ही विवाद का हल निकल जाए। यानी बीजेपी ये मान कर चल रही है कि वो जो फास्ट ट्रैक कोट्र बनाएगी, उसका जज ये फैसला देगा कि जिस जगह पर बीजेपी चाहती है , वहीं पर मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम का जन्म हुआ था। आतातायी बाबर ने मंदिर ने तोड़कर मस्जिद बना दिया था। फास्ट ट्रैक कोर्ट वही सब कहेगी , जो बीजेपी चाहती है। क्या इस लोकतांत्रिक देश में ये संभव है ?
बीजेपी अगर सत्ता में आने के बाद कहती कि वो राम मंदिर बनाने के लिए कोशिश कर रही है, तो उन लोगों को बुरा नहीं लगता, जो राम मंदिर बनते हुए देखना चाहते हैं। लेकिन चुनाव से पहले एक बार फिर मंदिर बनाने का गदा भांजकर बीजेपी ने मंदिर भक्तों के मन में एक बार फिर शक़ के बीज बो दिए और वो लोग सोचने को मजबूर हो गए हैं कि हर चुनाव के पहले ही बीजेपी को राम की याद क्यों आती है ?

Monday, February 2, 2009

क़समें, वादे, प्यार- वफ़ा सब- बातें हैं , बातों क्या फ़िज़ा


बदली की ओट में चांद क्या छिपा, फ़िज़ा ही बदल गई है। फ़िज़ की ज़िंदगी में जब बहार की जगह अमावस की रात होगी तो वो बदलेगी ही। हरियाणा के पूर्व डिप्टी सीएम चंद्रमोहन उर्फ चांद मोहम्मद और अनुराधा बाली उर्फ फ़िज़ा की मोहब्बत को नज़र लग गई। अब चांद मोहम्मद कुछ कह रहे हैं और फिज़ा कुछ और। ऐसे हालात में फ़ैज़ अहमद फैज़ बेसाख़्ता याद आते हैं। उन्होने लिखा है-

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग
मैंने समझा था इक तू है तो दरख़्शां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म ए दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सोहबत
तेरी आंखों के सिवाए दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निग़ाह हो जाए
यूं ना था मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाए

फ़ैज़ अहमद फैज़ की इस कृति की कुछ आख़िरी पंक्तियां यूं है-

लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्नमगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवाए
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवाए

अब इसे पढ़ने के बाद चांद मोहम्मद और फिज़ा की मोहब्बत भरी दास्तां पर टूटी सितम का अंदाज़ा लगा सकते हैं। अभी कुछ महीने भी नहीं बीते थे कि चंद्रमोहन ने अपनी अनुराधा बाली के लिए घर बार, पत्नी, बच्चा, मां- बांप, भाई -बहन - सबको तज दिया था। यहां तक कि हरियाणा के डिप्टी सीएम की कुर्सी भी। अनुराधा ने भी अपने चंद्रमोहन के लिए पति छोड़ा। सरकारी वकील की बड़ी नौकरी छोड़ी। यहां तक कि औरत का सबसे बड़ा गहना - लाज को भी मुहब्बत के लिए तिलांजलि दे दी। शादी में आनेवाली बाधाओं को दूर करने के लिए मज़हब तक बदल लिया। चंद्रमोहन चांद बन गया और अनुराधा बन गई चांद की फ़िज़ा। दोनों बाहों में बाहें डाले दुनिया के सामने आए। चांद ने कहा कि पहली पत्नी सीमा के रहते ज़िंदगी में घुटन आ गई थी। कहने का कुछ यूं अंदाज़ था कि जिंदगी में अब तो बहार आई है। अब इसी फिज़ा में ज़रा सुक़ून तो लेने दो। फ़िज़ा भी फूले नहीं समा रही थी। बरसों बाद आंचल में प्यार बरस रहा था। दोनों की मुहब्बत भरी कहानी ने मटुकनाथ और जूली की कहानी को भी पीछे छोड़ दिया। सबसे हॉटेस्ट लव स्टोरी बनी फ़िज़ा और चांद की लव स्टोरी। इस जोड़ी को देखने के लिए मीडिया की भी बेताबी देखते बन पड़ती थी। याद आता है इस जोड़े के प्रेस क्लब में बुलाया गया था। इस जोड़े की ख़बर लेने मेरे साथ मेरे वरिष्ठ सहयोगी उमेश जोशी और साथी रोहिल पुरी भी गए। मेरे आदरणीय परवेज़ अहमद साहेब ने प्रेस क्लब में चचा ग़ालिब को याद करते हुए दुआएं दी थी। शायद चचा की आड़ में वो इस जोड़े को ताक़ीद भी कर रहे थे। उनके स्वागत करने का तरीक़ा कुछ यूं था- ये इश्क़ नहीं आसां ग़ालिब बस यूं समझ लीजिए, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। इस दौरान दोनों ने साथ जीने मरने की क़समें खाई। मज़हब बदलने पर सफ़ाई दी। हुस्न के जुनून में खोए राजनेता को ये स्वीकारने में भी गुरेज नहीं था कि दिल की बाज़ी जीतने में वो कुर्सी की बाज़ी हार गए हैं। वो बस फिज़ा को निहार रहे थे। दुनिया को दिखा रहे थे कि देखो, मेरे पास मलिका ए हुस्न है।
फिर एक दिन यकायक चांद कहीं खो गया। फिज़ा बदल गई। फिज़ा ने कहा- मेरे शौहर को मार पीट कर अगवा किया गया है। ये काम उनके छोटे भाई कुलदीप विश्नोई ने किया है। कुलदीप ने आरोप को नकारा। शाम क धर्म की नगरी हरिद्वार में चांद निकला। चांद का कहना था कि वो अपनी मर्ज़ी से हरिद्वार में उग आया है। वो धर्मयात्रा पर है। वो कोई बच्चा नहीं, जो कोई उसे अगवा कर लेगा। शायद ये बेवफाई, ये जुदाई फ़िज़ा से बर्दाश्त नहीं हुई। उसने बहुत सारी नींद की गोलियां खा ली। वो अपनी मुहब्बत को शायद रूसवा होते नहीं देखना चाहती थी। उसे उम्मीद थी कि चांद उसके आंगन में ज़रूर लौटकर आएगा। क्योंकि उसकी चांदनी से चमकता है। लेकिन चांद नहीं आया। उसने खुलकर बेवफाई की बात करने लगी। दुनिया को मोबाइल पर प्रेम रस दिखाया। रोई, ज़ार-ज़ार रोई। दिल से रोई। फफक कर रोई। क्योंकि उसका चांद उससे दूर जा चुका था। चोट काई नागिन की तरह उसने एलान कर दिया- चांद ने फ़िजा की केवल मुहब्बत देखी है, दूसरा चेहरा नहीं देखा। सच कहा फ़िज़ा ने। महबूबा के दो चेहरे होते हैं। ये हर आशिक़ जानता है। एक वो जब वो हर लम्हा चंद्रमुखी दिखती है और अपने अंदर सूरजमुखी छिपाए रखती है।
चांद और फिज़ा की इस लव स्टोरी, जिसका नाम है- कमबख़्त इश्क़ 2008। शायद इसी तरह के अंजाम को देखकर कभी ये लिखा गया होगा-
क़िस्मत को देखिए , कहां टूटी कमंद
जबकि दो -चार हाथ लमे बाम रह गया

Monday, January 26, 2009

अब गांव में भी ये देखने को नहीं मिलता


बहुत दिनों से एक मंज़र नज़रों के सामने घूम रहा है। ये मंज़र, ये दृश्य मैंने कई बार छुटपने में देखा है। दिमाग़ में अब भी वो शॉट फ्लैश बैक की तरह घूमते रहता है। लेकिन अब देखने को नहीं मिलता। कई बार कोशिश की तो पाया कि अब हिंदुस्तान का गांव भी बदल गया है। सरकारी नारा झूठ नहीं है कि गांव बदल रहा है।
छोटा था तो अक्सर देखता था कि कोई नौजवान पतली , कच्ची-पक्की गलियों में चमचमाती हुई अपनी नई साइकिल को पूरी रफ्तार के साथ चला रहा होता था। साइकिल के आगे बने कैरियर में एक ट्रांजिस्टर होता था, जो अपनी पूरी दम-खम के साथ चिल्ला रहा होता था। उन दिनों जो गाने सबसे पॉपुलर होते थे, वो ट्रांजिस्टर पर सुनने को मिलता था। अक्सर दुपहरिया में सुनने को मिलता था- फुलौड़ी बिना चटनी कैसे बनी ? आग लगे सैंय्या तोहार ,भांग के पिसाई में -केतना दर्द होला,राति के कलाई में। इन गानों को फुल वॉल्युम में सुनाने वाला बांका नौजवान ख़ुद को उस गांव या मुहल्ले का सबसे बड़ा कैसेनेवा समझता था। कई बार इस तरह के नौजवानों की कलाई में सुनहरे रंग की घड़ी चमचमा रही होती थी। पूछने पर पता चलता था कि ये एचएमटी की काजल है। अब ज़रा पोशाक को भी देख लीजिए। कोई भी महीना हो- नौजवान थ्रीपीस सूट या फिर सफारी सूट में होता था। अमूमन ये रंग ब्राउन या फिर क्रीम कलर का होता था। जूता भी लाल रंग या यू कहें कि टैन कलर का होता था। और मोजा- उसका रंग शायद सर्वप्रिय था। लाल रंग का मोजा। ये पहचान थी उस ज़माने की नए दुल्हे की। जिसके पास नई साइकिल, काजल की घड़ी, ट्रांजिस्टर , थ्री पीस सूट और लाल जूता- मोजा हो , समझ लीजिए नया नवेला दुल्हा बना है। इस पहचान को मैंने कई बार कई राज्यों के कई गांवों और क़स्बों में तलाशने की कोशिशश की। कई लोगों से बात की। पूछा - देखा है अब कहीं ऐसा दुल्हा? हर जगह से एक ही जवाब - आजकल ये सब कहां होता है? गांव भी तो बदल रहा है। क्या वाकई हमारे देश का गांव बदल गया है?

Saturday, January 17, 2009

सरकार क्यों चाहती है मीडिया पर अंकुश लगाना ?


एक बार फिर कांग्रेस की सरकार मीडिया का गला घोंटने की तैयारी कर रही है। सरकार केवल नियमों में बदलाव करना चाहती है। क्योंकि सरकार को लगता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपनी जि़म्मेदारी की समझ नहीं है। सरकार कहती है कि देश पर आतंकवादी हमलों और दंगों के समय में टीवी चैनलों की रिपोर्टिग सही और संयमित होनी चाहिए। यानी सरकार ये कह रही है कि अब तक टीवी चैनलों ने सधी हुई रिपोर्टिंग नहीं की है। क्यों ? शायद सरकार इसका जवाह अभी नहीं दे पाए। लेकिन बार-बार वो मुंबई आतंकवादी हमले की रिपोर्टिंग का हवाला दे रही है। इसलिए सरकार चाहती है कि टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग पर सरकार की लगाम हो। अगर सरकार अपनी मंशा में क़ामयाब हो जाती है , तो फिर क्या होगा ?
फ़र्ज़ कीजिए किसी शहर में दंगा हो गया हो। सुबह सात बजे की बुलेटिन की शुरूआत ऐसे होगी। नमस्कार , मैं हूं ओम सिंह और आप देख रहे हैं .... चैनल। अभी -अभी ख़बर मिली है कि सूरत में दंगे हो भड़क गए हैं। लेकिन अभी हम आपको ये नहीं बताएंगे कि किस समुदाय के बीच दंगा हो रहा है। दंगा किसने शुरू किया। इस दंगे में कितने लोग मारे गए हैं। कितने लोग घायल हुए हैं। कितने दुकान-मकान जलाए गए हैं। इस दंगे का असर शहर , राज्य और देश पर क्या पड़ रहा है। क्योंकि सरकार ने हमें ये सब बताने को मना किया है। इस बारे में हम आपको शाम पांच बजे के बाद बता पाएंगे। आप य न सोचें कि हमारे पास रिपोर्टर नहीं है। ये फाइव विंडों में देखे मनीष मासूम अभी खुमार उतारने में लगे हैं। विवेक वाजपेयी किसी पुलिसवाले से गपिया रहे हैं। दीपक बिस्ट की नज़रें कुछ खोज रही हैं। योगेंद्र प्रजापति को किसी का इंतजार है औऱ रोहिल पुरी अपने लैपटॉप पर कुछ देख रहे हैं। ये सब दफ्तर में ही हैं। लेकिन रिपोर्टिंग पर नहीं जाएंगे। गाड़ी भी , सीएनजी भी है और कैमरापर्सन भी । हमें सरकार ने बताया है कि बल्लीमारान में शादी ब्याह का वीएचएस फिल्म बनानेवाले रऊफ चाचा से बात हो गई है। वो हमें पैंतीस सेकेंड का विज़ुअल दे देंगे। डीएम साहेब अपनी बाइट भी 20 सेकेंड का भेज देंगे। डीएम साहेब ही बताएंगे कि दंगा कब , कैसे शुरू हुआ। हम मौक़े पर मौजूद चश्मदीदों-गवाहों ज़ाकिर, अरूण , विनीत, अल्ताफ और सीता बेन की बात पर भरोसा नहीं करेंगे।
सुबह नौ बजे का बुलेटिन। नमस्कार . मैं हूं ओम सिंह और आप देख रहे हैं .... न्यूज़। सबसे पहले आपको बताते हैं कि गुजरात में दंगा हुआ है। लेकिन इस बारे में अभी आपको कुछ नहीं बताएंगे। क्योंकि एख घंटे पहले ही हमने इस बारे में आपको जानकारी दी थी। डिटेल में शाम को पांच बजे के बाद बताएंगे। फिलहाल सबसे बड़ी ख़बर, प्रधानमंत्री ने राजीव फ्लाई ओवर का उदघाटन किया है। इस पुल के बनने से अब लोदी रोड आने जाने में काफी आसानी होगी। लोगों को ट्रैफिक में नहीं फंसने होगा। मिनटों की दूरी सेकेंडों में पूरी होगी। प्रधानमंत्री ने यूपीए अध्यक्ष के कहने पर इस पुल को बनवाया है। यूपीए अध्यक्ष को बहुत तकलीफ होती थी जब प्रियंका के पति राबर्ट के दोस्तों में आने जाने में परेशानी होती थी। उनके सभी दोस्तों के पास लाल औऱ नीली बत्ती की सुविधा नहीं है। दूसरी बड़ी ख़बर, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री फौरन अमेठी रवाना हो गए हैं। वहां वो शिओ देवी से मिलेंगे। शिओ दंवी के पांच बच्चे हैं और पति कैा देहांत हो गया है। गुज़र-बसर करने में दिक़्क़त हो रही है। कांग्रेस के युवराज कल उनके यहां रात को ठहरे थे। लट्टू से लेकर पंखा तक उसके घर में नहीं है। युवराज से उनकी तकलीफ देखी नहीं गई। उन्होने अपने मम्मी से इस बारे में बात की। मम्मी ने प्रदानमंत्री से सब कुछ ठीक करने को कहा। प्रधानमंत्री ने ग्रामीण विकास मंत्री को भेजा है। अह शिओं देवी के घर के सामने से स्वर्णिम योजना गुज़रेगी। रोज़गार गारंटी योजना के तहत शिओं देवी को 365 दिन काम मिलेंगा। बिजली मंत्री आज शाम को घर जाएंगे। शिओ देवी के घर पर लट्टू लगवाएंगे। केंद्रीय शिक्षा मंत्री थोड़ी देर में पहुंचेगे। बच्चों को स्कूल में एडमिशन कराएंगे। तो देखा आपने - कांग्रेस का हाथ , ग़रीबों के साथ है। फिर मिलेंगे , नमस्कार।
शाम पांच बजे- सबसे पहले बात गुजरात दंगे की । डीएम ने कहा है कि सूरत में मुर्गी पकड़ने के लिए मुहल्ले के दो गुटों में संघर्ष हो गया। प्रशासन ने फौरन पुलिस बल तैनान कर दिए। हालात सामान्य हैं। अफ़वाह फैलानेवालों की ख़बर ली जाएगी।
कुछ ऐसी ही न्यूज़ बुलेटिन देखे जाएंगे। क्योंकि सरकार के इशारे पर नाचने का हुक़्म होगा। ये हुक़्म लोकतंत्र में क़ानून की आड़ में होगा। क्योंकि इलेक्ट्रानिक मीडिया से देश की अखंडता , अक्ष्णुता और एकता ख़तरे में न पड़े। टीवी चैनलों ने मुंबई हमले के समय क्या दिखाया। सब स्क्रीन पर होटल के बाहर के शॉट्स दिखे। सभी कैमरापर्सन और रिपोर्टर होटला से ढ़ाई-तीन सौ मीटर दूर खड़े थे। सरकार का बयान हास्यास्पद है कि आतंकवादी टीवी देखकर चौकस हो रहे थे। यानी वो आतंकवादी सरहद पार कर सिर्फ टीवी देखने आए थे और टीवी देख देखकर आग लगा रहे थे। हथगोले फेंक रहे थे । गोलियां चला रहे थे। लोगों की हत्या कर रहे थे। ये इनकाउंटर कई घंटे चला था। यानी आतंकवादी अख़बार भी पढ़ रहे होंगे। किस पन्ने पर कितने कॉलम में ख़बर है। फोटो है कि नहीं। इटंरनेट भी पढ़ रहे होंगे। सरकार कहती है तो शायद ऐसा ही हुआ होगा।
सोनिया की सासू मां इंदिरा गांधी ने अपने लाड़ले संजय गांधी के साथ मिलकर आपातकाल की घोषणा कर दी। अख़बारों और पत्रिकाओं पर हंटर चलने लगे। जिन रीढ की हड्डी वाले पत्रकारों ने रेंगने से मना कर दिया , उन पर ज़ुल्म हुए। जेल बेजे गए। क्योंकि उनसे देश को ख़तरा था। लोकतंत्र बहुत देऱ तक किसी की तानाशाही बर्दाश्त नहीं करता। चुनाव में लोकंतंत्र ने मां- बेटे को ऐसी सज़ा दी, जो उनका परिवार कभी भूल नहीं सकता। पहली बार देश की सत्ता नेहरू-गांधी परिवार के हाथ से निकल गई। इसके बाद इंदिरा की मौत के बाद राहुल गांधी ने मानहानि विधेयक लाने की कोशिश की। लेकनि पत्रकारों के इंक़लाबी तेवर देखकर वो अपने क़दम पीछे हटने को मजबूर हो गए। तब प्रियरंजन दासमुंशी उनके बेहद क़रीबी सलाहकारों में से होते थे। अअ यही काम मनमोहन सिंह कर रहे हैं और इस सरकार में फिर प्रियरंजन दासमुंशी शामिल हैं। जब तक लिखने की आज़ादी है- अपन लिख सकते हैं। मनमोहन जी, इंदिरा- संजय और राजीव के फैसले और जनता के फैसले को याद कीजिए और फिर जो मन में आए कीजिए। क्योंकि देश प्रेम तो सिर्फ आप लोगों को ही आता है। हम पत्रकारों का क्या है ?

Thursday, January 15, 2009

लालू की जय हो


अपने रेल मंत्री लालू प्रसाद भी कमाल के हैं। परदे के पीछे चाहें उन्हे जो भी अफसर चलाता हो लेिकन टीवी पर आकर वही लोगों को चराते हैं। िपछले कई बरस से रेल बजट पेश के दौरान क़ामयाबी के गीत गाते हैं। किराया नहीं बढ़ता । पब्लिक भी ख़ुश हो जाती है। लेकिन लालू कब चुपके से किस मद में भाड़ा बढ़ा देते हैं, ये बात ढोल बजाकर नहीं बताई जाती। आज में लालू के महान काम का एक नमूना पेश करने जा रहा हूं।
12 जनवरी को मेरे एक रिश्तेदार बनारस से दिल्ली आ रहे थे। मुझे उनका रिसीव करने जाना था। घर से निकलने से पहले सोचा कि क्यों न हाई टेक रेलवे से पता करके स्टेशन जाया जाए। क्योंकि इन दिनों रेल गाड़ियां देर से चल रही हैं। रेल मंत्रालय ने अख़बारों में कई बार बड़े बड़े विज्ञापन दिए। कई नंबर फ्लैश किए। लालू जी जापान में बुलेट ट्रेन देखकर भारत में दौड़ाने की घोषणा कर रहे थे। मेरे लिए ये किसी चमत्कार से कम नहीं था। मुझे खुशी हो रही थी कि टैक्स देने का सुख हमें मिलेगा। अच्छी गाड़ियां और स्टेशन सिर्फ विदेशों में ही नहीं मिलेंगे। इसी सोच के साथ मैंने कई नंबरों पर फोन घुमाया। लेकिन मेरा भ्रम टूटना लगा। किसी भी नंबर पर किसी ने भी फोन नहीं उठाया। इसके बाद मैनें रेलवे की हाई टेक सिस्टम का इस्तेमाल करने की सोची। मैंने 139 पर फोन किया। हाई टेक सिस्टम था भई। बताए गए निर्देशों का पालन करने लगा। नारी स्वर में - भारतीय रेलवे पूछताछ सेवा में आपका स्वागत है। हिंदी में जानकारी के लिए एक दबाएं। मैंने एक दबा दिया। फिर ट्रेनों की आवाजाही के लिए कुछ और नंबर दबाने का निर्देश आया। वो भी कर दिया। इसके बाद ट्रेन नंबर पूछा गया। शिवगंगा एक्सप्रेस जब बनारस से दिल्ली आती है तो उसका नंबर 2559 होता है और जाते समय उसका नंबर 2560 हो जाता है। रेलवे पूछताछ कंप्यूटर सिस्टम में आने और जाने की गाड़ियों के नंबर दर्ज होने का मैने जो अनुमान लगाया था, वो ग़लत निकला। आगमन की जानकारी के लिए ट्रेन नंबर लिखने का निर्देश आया। मैने किया। फिर प्रस्थान स्टेशन का एसटीडी या स्टेशन कोड पूछा गया। जान कर आपको हैरानी होगी कि आगमन के लिए और प्रस्थान के लिए रलवे के अलग अलग संदेश नहीं थे। अगर आप 2559 नंबर ट्रेन का लिखकर एसटीडी कोड बनारस का लिख दें तो बनारस पहुंचने का टाइम बताया जाएगा। और अगर दिल्ली का एसटीडी लिख दें तो दिल्ली का। यानी रेलवे के हिंदी अफसर आगमान और प्रस्थान का सही मतलब नहीं जानते। ख़ैर - जानकारी मिली कि सुबह सात बजकर पच्चीस मिनट पर आनेवाली शिवगंगा एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से एक घंटा तीस मिनट के विलंब से यानी 8 बजकर 55 मिनट पर आएगी।
स्टेशन पहुंचने के बाद पता चला कि प्लेटफॉर्म टिकिट नहीं मिलेगी। मेरी जो रिश्तेदार आ रही थी, वो काफी बुज़र्ग हैं और अकले सफ़र कर रही थीं। वो सामान के साथ अकेले कैसे बाहर आ पाएंगी- मैं इसी सोच में था। कोई रास्ता नहीं सूझ नहीं रहा था। मैंने एक रेलवे पुलिस को अपनी परेशानी बताई। उन्होने सुझाव दिया- पांच रुपए का टिकिट मिलेगा ग़ाज़ियाबाद ईएमयू का । ले लीजिए। मैंने उनसे पूछा कि कोई परेशानी नहीं होगी। उन्होने कहा- कोई पूछे तो बोल दो, ग़ाज़ियाबाद जाने की सोच कर आया था। ज़रूरी काम आ गया, वापिस जा रहा हूं। या अप डाउन दोनों ले लो। मैंने कहा- सर, प्लेटफार्म टिकिट न बेचने का मक़सद तो यही है न कि प्लेटफार्म पर फालतू भीड़ न हो। फिर तो सब यही करते होंगे। उन्होने तल्ख़ आवाज़ में कहा- सब करते हैं। आपको ज़रूरत है, आप भी कर लो। आप क़ानून की किताब क्यों पढ़ रहे है। मैं टका सा रह गया।
अंदर गया। बहुत सारी ट्रेनें देर से चल रही थी। लेकिन माइक बार -बार माफी इस बात पर मांगी जा रही थी कि मुंबई से दिल्ली आनेवाली राजधानी एक्सप्रेस लेट है। बाकी ट्रेनों के लिए कोई माफी नहीं। मुझे लगा कि शायद ये सेवा चुनिंदा गाड़ियों के लिए रेल मंत्री जी ने बनाई होगी। हवाई जहाज़ वाले मुसाफिर रेल में आ जाएं, तो ऐसा करना पड़ता होगा। 9 .15 तक शिवगंगा एक्सप्रेस नहीं आई तो मैंने दुबारा 139 आप्शन का सहारा लिया। लेकिन वहां को तोता अब भी 8. 55 की रट लगाए था। 139 नंबर पर एख और आप्शन था, रेलवे कर्मचारी से बात करने का। मैंने बात की। फिर एक नारी स्वर। प्राइवेट कॉल सेंटर की तरह। मैडम ने पूरी पूछताछ की। कौन सी ट्रैन है। क्या नंबर है। कहां से कहां जा रही है। मैंन कहा -मैंडम आपको ट्रेन नंबर बता दिया है। आपका कंप्यूटर क्या ये नहीं बता सकता कि इस नंबर की ट्रेन कहां से कहां जाती है। मैडम बुरा मान गईं। ख़ैर उन्होने भी वहीं टाइम बताया जो लालू जी का रट्टा तोता बोल रहा था। मैनें कहा- मैंडल आप अपनी घड़ी देख लें। 8.55 हुए ज़माना बीत गया है। उन्होने कहा- मेरे पास यही लिख कर आ रहा है। मैं क्या करूं। मैंने कहा- मैंडम सही टाइम कहां से मिलेगा। उन्होने कहा- स्टेशन पर जाकर पूछताछ से पता करें। मैंने कहा- मैंडम - अगर उसी तरह से लाइन में लगकर बाबा आदम ज़माने वाले सिस्टम से ही चलना है तो काहें का ये सब टंटा पाल रखे हैं। जनता का पैसा पटिरयों पर बहा रहे हैं। विज्ञापन देते हैं। ग्लोबल मंदी है। जब बाबा आदम सिस्टम ही फॉलो करना है तो ये सब बंद कर ख़र्च कम करो। मैडम ने वैसे कहा तो नहीं - लेकिन फोन रखने का अंदाज़ बता गया कि ये सलाह पसंद नहीं आई। ख़ैर, उसके बाद से मैं ये सोच रहा हूं कि एक न एक दिन बुलेट ट्रेन भारत में भी दौड़ेगी। लेकिन कैसे। जैसे जापान में चलती है या फिर जैसे अपने यहां सभी ट्रेनें चलती हैं। सोचिए। हम भारतीय जनता केवल सोच ही सकते हैं.