Friday, July 3, 2009

रेल बजट से साबित हुआ ममता और लालगढ़ का रिश्ता


पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट को झटका देने का तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और रेल मंत्री ममता बनर्जी कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ रही। चाहें इसके लिए उन्हे रेल बजट की ही आड़ क्यों न लेनी पड़े। इसमें कोई शक़ नहीं कि तैंतीस साल बंगाल में राज कर रहे लेफ्ट फ्रंट को ममता बनर्जी लगातार पानी पिला रही हैं। हालिया लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चा का क़िला ढ़हाने के बाद ममता ने नगरपालिकाओं के भी चुनाव में वाम मोर्चा को पटखनी दी हैं। लेकिन वाम मोर्चा को हाशिए पर लाने और मुख्यमंत्री बनने की छटपटाहट में रेल बजट का इस्तेमाल करना कहां तक सही है।
रेल मंत्री के रेल बजट को ग़ौर से देखिए- पता चलेगा कि ममता ने कितने प्यार से अपने विरोधियों की रेल बनाई है। ममता का खेल समझने से पहले एक बार रेल मंत्रालय का हिसाब किताब समझ लेते है। देश में कुल 6909 रेलवे स्टेशन हैं। इनमें से 1721 स्टेशन कंप्यूटर से जुड़े हुए हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि इन 1721 स्टेशनों पर ही कंप्यूटर से रिज़वर्शन होता है। आधुनिक भारत में बाक़ी 5188 रेलवे स्टेशनों का हाल राम भरोसे हैं। सवाल ये है कि इन 5188 स्टेशनों के मुसाफिर भी बाक़ी मुसाफिरों की तरह किराया देते हैं। लेकिन उन्हे वो सुविधाएं स्टेशनों पर नहीं मिलती, जिसका फायदा बाक़ी के स्टेशनों के मुसाफिर उठाते हैं। यानी आज़ादी के 62 साल बाद भी देश के 5188 रेलवे स्टेशनों की हालत वैसी ही है, जैसा कि अंग्रेज़ छोड़ गए थे।
अब रेल का ख़र्चा पानी का हाल समझ लेते हैं। रेलवे कर्मचारियों की तनख़्वाह की हम बात नहीं करेंगे। न ही उनको मिलने वाले डीए की। हम बात करेंगे साल में एक बार मिलनेवाली सुविधा की। रेल मंत्रालय अपने हरेक कर्मचारी को साल में एक बार फ्री पास देता है, जिसमें वो अपने परिवार के साथ यात्रा कर सकता है। रेलवे के क़रीब साढ़े तेरह लाख कर्मचारी हैं। एक कर्मचारी के परिवार में पत्नी और दो बच्चे हैं तो ये संख्या 54 लाख होती है। साल में एक बार रेलवे के ख़र्चे पर ये परिवार घूमने आता-जाता है। अब इसमें उन लोगों की संख्या भी जोड़ लें, जो रेलवे के कर्मचारी तो नहीं हैं लेकिन हमारे और आपके टैक्स के पैसे से घूमते हैं। सांसद, पूर्व सांसद, विधायक और पूर्व विधायक को फ्री में एसी क्लास से आने जाने का पास मिलता है। इस पास के सहारे ये माननीय पत्नी या पति और अपने एक सहायक के साथ सफर करते हैं। अगर टिकट वेटिंग लिस्ट में है तो हेडक्वार्टर कोटा की मेहरबानी से जनरल कोटा का हक़ मारकर माननीय का टिकट कनफर्म कर दिया जाता है। ऐसी सहूलियत पुलिसवालों को है। हम इसमें देश को आज़ाद कराने वाले परवानों को नहीं जोड़ रहे । क्योंकि सहीं मायनों में वो इसके हक़दार हैं। इस आंकड़ों को जोड़ें तो पाएंगे लगभग 65 लाख लोग हर साल रेल के पैसे पर देश घूमते हैं।
अब बात फिर से ममता के खेल की। ममता ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की है कि जिससे देश के लोगों को बुरा लगे। क्योंकि ममता ने गुढ की भेली में लपेटकर कुनैन की गोली दी है। अब आपको समझ में आसानी से ये बात आएगी, जिस देश में 5188 स्टेशनों पर मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं, उसे ममता कैसे आदर्श स्टेशन बनाएंगी ? दूसरी बात ये कि दो बार पहले रेल बजट पेश कर चुकीं ममता ने असलियत देश के लोगों से छुपाई क्यों ?

ममता ने यात्री किराया या माल भाड़ा नहीं बढ़ाया। आम आदमी ये सुनकर ही मंहगाई के इस दौर में राहत की सांस लेगा। मज़दूर तबका भी ख़ुश हो ले। गांव-देहात से शहर-महानगरों में चाकरी करनेवाले मज़दूर 299 रूपए में 1500 किलोमीटर तक और 399 रूपए देकर 3500 किलोमीटर तक सफऱ कर सकता है। पंद्रह सौ रूपए महीना कमाने वाला आदमी पच्चीस रूपए की पास पर रोज़ाना सौ किलोमीटर तक सफर कर सकता है। ममता की ये पहल क़ाबिल ए तारीफ हैं। लेकिन रेलवे का टिकट या पास देनेवाला बाबू उस मज़दूर से मज़दूर होने का पहचान पत्र मांगे तो वो क्या दिखाएगा ? क्या देश में मज़दूरों के लिए मज़दूरी कार्ड है? इस देश में ऐसे अनगिनत स्टेशन हैं, जहां दिन में कुल दो बार कोई ट्रेन आती या जाती हैं। ऐसे में पंद्रह सौ रूपए महीने कमानेवाला मज़दूर उस पास को लेकर कहां मज़दूरी करने जाएगा और कब घर लौटकर आएगा ?
युवा भी खुश होगा। युवाओं के लिए नई ट्रेन चलेगी। लेकिन युवाओं के लिए अलग से ट्रेन क्यों चलाई जा रही है – ये समझ से परे हैं। क्या इस यूथ ट्रेन में युवा डांस करते हुए चलेंगे ? या फिर इस ट्रेन में पब, मॉल या हॉल जैसी कोई सुविधा होगी ? या फिर ममता ने ये मान लिया है कि देश का नौजवान बूढ़े औऱ प्रौढ़ लोगों के साथ सफऱ करने में असहज महसूस करता है या फिर उसे तकलीफ होती है।
ममता बनर्जी ने कहा है कि 375 स्टेशनों को आदर्श स्टेशन बनाया जाएगा, इसमें से तीन सौ नौ स्टेशनों की पहचान कर ली गई है। ये बहुत अच्छी बात है। लेकिन भाषण में वो पहले ही कह गई है कि इन स्टेशनों पर शौचालय और बैठने के इंतज़ाम के साथ मूलभूत सुविधाएँ दी जाएंगी। ममता ने जिन स्टेशनों की पहचान की है, उसका नाम सुनेंगे तो आप चकरा जाएंगे। कोलकाता और बंगाल का एक भी स्टेशन और हॉल्ट ममता ने नहीं छोड़ा है। इस योजना का दुखद पहलू ये है कि वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री रहने के बाद भी ममता बनर्जी अपने शहर के स्टेशनों को शौचालय या मुसाफिरों के बैठने की जगह का इंतज़ाम नहीं करा सकीं ? हम ये सवाल ममता से कोलकाता से मुत्तलिक पूछ रहे हैं , पूरे बंगाल को लेकर नहीं। ममता के इस आदर्श स्टेशनों में आदि श्पतोग्राम, आगरपाड़ा, अलीपुरद्वार, कालना, बागबाज़ार, बैरकपुर, बेलगाछिया, बैद्यबाटी, चंदननगर, बैंडेल, बर्दवान, आसनसोल आदि हैं। अगर इस सूची को ध्यान से पढ़ें तो 309 में से सवा सौ से ज्यादा नाम बंगाल के हैं। ममता जिन वजहों का हवाला देकर इन स्टेशनों को आदर्श बनाने का दावा कर रही हैं, वो केवल और केवल वोट बैंक की राजनीति है। इन सारे स्टेशनों को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। कोलकाता के दोनों बड़े स्टेशनों सियालदाह और हावड़ा को वो विश्वस्तरीय बना रहीं हैं। बाकी बचे तीन बड़े स्टेशन आसनसोल, दुर्गापुर और रानीगंज में वो तमाम सुविधाएं पहले से हैं, जिसकी कमी दूर करने की बात ममता कर रही हैं। बाक़ी जितने स्टेशनों का वो नाम ले रही हैं वो हावड़ा और सियालदाह रूट के लोकल स्टेशन हैं। इन स्टेशनों पर मुसाफिरख़ानों की ज़रूरत तो होती नहीं हैं। बैठने की जगह और शौचालय बहुत पहले ग़नी ख़ान चौधरी दे गए हैं। बाक़ी कई ऐसे स्टेशनों के नाम हैं, जो स्टेशन नहीं हाल्ट हैं। यानी ममता इन स्टेशनों के सुधार के नाम पर लोकल लोगों को दिहाड़ी देंगी। ताकि वो जनसभाओं में दावा कर सकें कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर हर हाथ को काम दिया है। सरकारी पैसा पानी की तरह उनके लिए बहाया है।
आख़िर में बात ममता और लालगढ़ के रिश्तों की। वाम मोर्चा पहले से ही आरोप लगा रहा है कि ममता बनर्जी के नक्सलियों से रिश्ते हैं। ममता की शह पर वो आतंक फैला रहे हैं। लेकिन सत्ता की ऐसी मजबूरी होतीं है कि राज्य सरकारों की बात कई बार केंद्र को सुनाई नहीं देती। बंगाल में हावड़ा में पहले से ही रेल काऱखाना है। ममता ने कहा कि रेल को ख़ूबसूरत डिब्बों की ज़रूरत है। ख़ूबसूरत डिब्बों के नाम पर कल तक जर्मनी से डिब्बे मंगाने वाले मंत्रालय ने देश में ही डिब्बा बनाने का फैसला कर लिया। लेकिन इसमें ममता को कर्नाटक से लेकर बिहार तक में कोई संभावना नज़र नहीं आईं। उन्होने इस काम के लिए लालगढ़ में कारखाना बनाने के एलान कर दिया। अब लालगढ़ में ज़मीन आसमान से तो आएगी नहीं। वो किसानों से ज़मीन लेंगी। यानी इस मोर्चे पर ममता सिंगूर और नंदीग्राम की नीति को छोड़ देंगी। यहां सेज़ बनाने पर उनका विरोध नहीं हैं। इस इलाक़े में ज़मीनें लालगढ़ के लोगों की हैं। जब वो ज़मीनें देंगे तो सरकारी मुआवज़ा पाएंगे। फिर रेल कोच फैक्ट्री में काम करेंगे। ममता चाहतीं तो कोलकाता से सटे मध्यमग्राम, श्रीरामपुर, चंदनगर, भद्रेश्वर में रेल फैक्ट्री बनवा सकती थीं। लेकिन उन्होने चुना लालगढ़ को ही। इसी लालगढ़ में लालक़िला को ध्वस्त करने का अरमान छिपा है और छिपा है नक्सलियों से राजनीतिक दलों के रिश्ते। ये रिश्ते अब गुमनमी में नहीं हैं।

3 comments:

Gyan Darpan said...

ममता भी राजनितिज्ञ ही है आज के ज़माने में किसी राजनितिज्ञ द्वारा बिना वोट का फायदा देखे किसी काम की उम्मीद करना बेमानी है |

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

चन्दन जी आपने अच्छा आंकडा जुटाया है | कबीले तारीफ लेख लिखा है आपने | वैसे मुझे इसकी आशंका पहले से ही थी | ममता दीदी का बस चले तो बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, और थोड़े से मध्य प्रदेश के सरे रेल मंडलों को कोलकत्ता ले आयें | इस रेल बजट मैं सिर्फ और सिर्फ बंगाल ही दीखता है, फिर भी अपनी मीडिया इसका जम कर गुणगान करेगी; कांग्रेस प्रेम है तो इतना तो मीडिया को करना हे चाहिए |

दिनेशराय द्विवेदी said...

आंकड़े सामने रख आपने बहुत तथ्यों को उजागर कर दिया है।