Monday, October 29, 2007

मोदी पर कौन कसेगा लगाम ?

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इतने बेलगाम कैसे हैं ? ये बात सबको मालूम है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। लेकिन अकेले मोदी समाज को तोड़ रहे हैं। देश की गंगा जमुनी तहज़ीब को आग लगा रहे हैं। जा़हिर भले ही न हो लेकिन ये सच है कि मोदी को पाल पोस कर बड़ा करनेवाले लौह पुरूष भले ही पिघल गए हों लेकिन समय के साथ साथ इस देश में लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनकर आया मुख्यमंत्री चट्टान की तरह अडिग हो गया है। उसका इरादा समाज के उस हिस्से को काट कर अलग कर देना है. जो बरसों से हमारे साथ रचे बसे हैं। इस मुख्यमंत्री का इरादा शरीर के उस हिस्से को काटकर निकाल देना है, जिसके बाहर निकलते ही दिल की धड़कन थम जाए और मरघट में बैठकर अट्टाहास करे। दुनिया को ये बता सके कि वो अपने दम पर आत्मा को मर सकता है। शरीर को निर्जीव कर सकता है। क्योंकि वो बेलगाम है। उसकी लगाम थामनेवाले धृतराष्ट्र हो चुके हैं। अंधे, गूंगे और बहरे हो गए हैं।
गुजरात दंगा भड़काने की साज़िश , क़त्लेआम की प्लानिंग , बलात्कार, मुसलमानों को जि़ंदा फूकने की प्लानिंग को उजागर करतनेवाली स्टिंग आपरेशन की भनक लगते हैं लोकतंत्र की दुहाई देनेवालों ने नादिरशाही रवैया अपना लिया है। सरकार के इशारे पर नाचनेवाले पुलिस अफसरों और सफेदपोश बाबुओं ने कुछ घंटे के लिए पूरे गुजरात में कुछ न्यूज़ चैनलों का टेलीकास्ट रूकवा दिया। अगर सरकारी बाबुओं की बात अगर लोकल केबल वाले नहीं सुनते तो उन्हे हिंदी क़ौम का ग़द्दार कहकर मौत के घाट उतार दिया जाता । मोदी सरकार की इस कोशिश को कुछ जायज़ भी ठहराने लगते । आख़िर सवाल हिंदुत्व और उसके नए महानायक की है।
पांच करोड़ गुजरात के लोगों का नारा देकर नरेंद्र मोदी ने एक तरह से गुजरात को देश से काटने का काम किया है। इस मुख्यमंत्री को देश की चिंता नहीं। इस मुख्यमंत्री को समाज की चिंता नहीं। इस मुख्यमंत्री को का़नून की परवाह नहीं। अगर ऐसा होता तो ट्रेन एक्सिडेंट से लेकर प्राकृतिक आपदा पर कांग्रेस सरकार से इस्तीफा की मांग करनेवाली बीजेपी इस मुख्यमंत्री से इस्तीफा ले चुकी होती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बात बात पर महापुरूषों की मिसाल देनेवाली पार्टियों के लोग लाल बहादुर शास्त्री से सबक ले चुके होते।
हर साल देश के किसी बड़े शहर में करोड़ों रूपए फूंककर हिंदुत्व की राजनीति करनेवाली पार्टी की चिंतन बैठक में तानाशाही , बेगुनाहों के ख़ून और बलात्कार पर भी चिंता होती। लेकिन नहीं। इतिहास गवाह है कि देश के प्रधानंमत्री ने गुजरात दंगों के बाद जब मोदी की आलोचना की तो उसके बचाव के लिए लौह पुरूष आगे आए। मुंबई अधिवेशन में प्रधानंम्तरी तनहा नज़र आए। इस मुद्दे पर पार्टी में उन्हे घेर लिया गया था। शायद बीजेपी आलाकमान को मालूम है कि समाज के एक वर्ग को नरेंद्र मोदी एंग्री यंग मैन लगने लगा है। समाज को तोड़नेवालों , मासूमों का ख़ून बहानेवालों, घूंघट में रहनेवाली औरतों को बेपरदा देखनेवालों, इंसान को ज़िंदा जलाकर मज़ा लूटनेवालों और परपीड़ा का सुख लेनेवालों की क़ौम में ये तानाशाह पूजा जाने लगा है। दंगों के बाद हुए चुनाव में मिली जीत से बड़े नेताओं को ये यक़ीन हो गया है कि अगर सत्ता की मलाई खानी है तो इस तानाशाह को बेलगाम करना होगा। हर ग़लत काम में उसके साथ उठकर खड़ा होना होगा। लेकिन ऐसा सोचनेवाले नेता शायद ये भूल रहे हैं कि इस देश में अकेला गुजरात राज्य नहीं हैं। संदेश ग़लत जा रहा है। सत्ता में आने के बाद अयोध्या में राम मंदिर बनाने का वादा करनेवालों ने सत्ता में आते ही कैसा राम को भूला दिया , ये बात देश की जनता भूली नहीं है। याद पड़ता है अयोध्या आंदोलन के समय का बीजेपी को वो नारा- जो कहते हैं, सो करते हैं। अब तो ये साबित हो चुका है कि बीजेपी की आदत बस यही है। जो कहते हैं, सो करते हैं। कह के फिर मुकरते हैं।

Friday, October 26, 2007

फिर भी बीजेपी को शर्म नहीं आती

तहलका में गुजरात दंगों का सच आने के बाद से पूरे देश में तहलका है। लेकिन बीजेपी चोरी के बाद सीनाज़ोरी पर उतर आई है। वो बड़े शान से बता रही है कि गुजरात विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के इशारे पर ये ख़बर चलाई गई है। लेकिन बीजेपी के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि कैमरे पर सच्चाई उगलनेवाले भगवा बिग्रेड के लोग सच बोल रहे हैं या फिर झूठ? यहां आकर बीजेपी के मुंह पर ताला लग जाता है। बस रटुआ तोते की तरह बोले जा रही है कि दोषियों को सज़ा मिले लेकिन अदालत से ।
बीजेपी शायद ये भूल गई है कि 1992 में बाबरी मस्जि़द गिरानेवाले लोगों को पूरी दुनिया ने देखा था। फिर भी असलियत जानने के लिए कमीशन बनाया गया। इतिहास के एख सुनहरे पन्ने को नोंचे हुए क़रीब पंद्रह साल हो गए। लेकिन गुंबद और मस्जिद तोड़नेवाले की सूरत साफ नहीं हो पाई है। शायद बाबरी मस्जिद ढहानेवालों की मौत के बाद सच्चाई पर से परदा उठे कि फलां फलां को मस्जिद गिराए जाने का दोषी पाया गया है औऱ उन्हे इतने साल की सज़ा सुनाई जा रही है । सज़ा पाने वाले भले ही स्वर्ग या नर्क पहुंच गए हों। ख़ैर, अपन मुद्दे से भटक रहे हैं।
नरेंद्र मोदी से पहली बार तब मिला था, जब दिल्ली में विधानसभा के चुनाव होनेवाले थे। मुख्यमंत्री के दावेदार मदनलाल खुराना के पीछे खुली जीप में सुषमा स्वराज के साथ जनता का अभिवादन करते देखा था। उस समय भी उनका चेहरा मुझे बेहद निष्ठुर नज़र आया था। पता नहीं क्यों उस सूरत को नहीं भूल सकता। क्योंकि उस मुद्रा में तानाशाह हिटलर की छवि नज़र आती थी। उस तस्वीर को मैंने एक साप्ताहिक पत्रिका के कवर पर छापा था। फिर दूसरी बार तब मुलाक़ात हुई , जब वो बीजेपी की केंद्रीय कमेटी में बड़ी कुर्सी पर बैठे। पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ हिंदुस्तान आए हुए थे। आगरा में अटल बिहारी वाजपेयी से बात चल रही थी। न्यूज़ चैनल पर अरूप घोष और अनुराग तोमर एंकरिंग कर रहे थे और चैनल हेड संजय पुगलिया आगरा में रिपोर्टिंग कर रहे थे। रात के क़रीब दस बजे के आस- पास सबसे पहले संजय पुगलिया ने ख़बर ब्रेक की। ये वाक्य आज तक मुझे याद है। संजय- अरूप, मैं अभी पक्के तौर पर नहीं कह सकता। लेकिन जो ख़बर मेरे पास छन-छनकर आ रही है , उससे लगता है कि बातचीत टूट गई है। वार्ता फेल हो गई है।इतना सुनते ही स्टूडियो में बैठे नरेंद्र मोदी ने आपा खो दिया। लगे अनाप शनाप बकने। उसके चेहरे से , उसके गरजने से तानाशाही की बू आ रही थी। मोदी ने बातचीत टूटने की ख़बर बतानेवालों को देश का दुश्मन करार दिया था। लेकिन बाद में क्या हुआ- सबको मालूम है। ये मेरी मोदी से दूसरी मुलाक़ात थी। तब मेरा शक़ यक़ीन में बदल गया औऱ मन ही मन बुदबुदाया- कौन कहता है कि हिटलर मर गया? तहलका ने छुपे कैमरे से छुपा सच दिखा दिया।
28 फरवरी 2002 को अहमदाबाद के नरौदा पाटिया में भगवा बिग्रेड ने मुसलमानों को ऐसे काट डाला, जैसे कि भेड़ - बकरियों को भी नहीं काटा जाता। इस घटना को सुनकर ही हर हिंदू की आंखें शर्म से झुक जाती है। भले ही हिंदुत्व की रोटी खानेवालों का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है लेकिन आम हिंदुओं के मन में नफरत ही है। नरौदा पाटिया में बीजेपी एमएलए मायाबेन कोडनानी और बजंरग दल के नेता बाबू बजरंगी उस भीड़ की अगुवाई कर रहे थे, जिनके सीने में बरसों से लगनी वाली शाखाओं ने मुसलमानों के लिए नफरत के बीज बोए थे। गुजरात के बाहर से त्रिशुल , तलवार, बंदूके मंगाई गई। बीजेपी नेताओं की फैक्ट्री में ठीक वैसे ही हथियार बनाए गए, जैसे सरहद पार आतंकवादियों को दिए जाते हैं। तहलका के मुताबिक़, बाबू बजरंगी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदीके इशारे पर सूबे में क़त्लेआम करवा रहा था। उसने लाशों का पहाड़ खड़ा करने की क़सम खाई थी। संघ परिवार के लोग खुलकर उसे मदद कर रहे थे। ये राम का हिंदुत्व है या कृष्ण का उपदेश कि नौ महीने की गर्भवती कौसर बानो कापेट चीरकर बच्चे को बाहर निकाला गया और उसे तलवार की नोंक पर रखकर शहर में घुमाया गया। बड़े शान से नारे लगे- जय श्री राम। मुन्ना बजरंगी वीएचपी महासिचव जयदीप पटेल को फोन पर लाशों की संख्या ऐसे बता रहा था कि मानों वो क्रिकेट का स्कोर बता रहा हो। सूबे की क़ानून व्यवस्था जिनके हवाले थी, उस गृह मंत्री गोवर्धन जफड़िया को भी वो ताज़ा आंकडे़ बता रहा था। संघ परिवार के इस घिनौने खेल में राज्य की पुलिस भी बराबरी का पापी बन रही थी। भावनगर में एस पी राहुल शर्मा बलवावियों पर गोली बरसाते हैं तो गृह मंत्री का फोन उन्हे रोकने के लिए आता है। क्योंकि बलवाई हिंदू थे, जो उनके इशारे पर नंग नाच रहे थे।
बजरंगी ख़ुद कहता है कि छारनगर आकर मोदी ने हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों, लूटरों को फूल माला पहनाकर उत्साह बढ़ाया । दंगों के बाद मोदी ने बजंरगी को चार महीने तक छिपने में मदद की। नाटकीय तरीक़े से गिरफ्तार कराया। उसे बाहर निकलवाने के लिए जजों के ट्रांसफर कराए। तब के पुलिस महानिदेशक साफ साफ अपने इमानदार अफसरों को कहते हैं कि ब्यूरोक्रेसी संघी शिविरों में बिक गई है। तब के पुलिस आयुक्त पी सी पांडे पुलिस की खाकी वर्दी और संघियों के खाकी निकर में फ़र्क़ करना भूल जाते हैं। तत्कालीन पुलिस महानिदेशक एन डी गडवी ने ज़िला मंत्री रमेश दवे से क्षत्रियों की तरह वादा किया कि जान जाए पर वचन जाए। चार पांच मुसलमानों कोतो वो ही मरवा देंगे। इस्पेक्टर के जी इर्दा ने मुसलमानों को सुरक्षित बाहर ले जा रही गाड़ी को दंगाइयों के हवाले कर दिए। पुलिस अफसर के आंखों के सामने एक मुसलमान का ख़ून होता है औऱ वो हंसता है। मोदी की शह पर राज्य के जाने माने हिंदू वकील एकजुट होते हैं। सबका इरादा एक है। अदालत से ख़ूनियों, बलात्कारियों , डकैतों को मासूम साबित कर बाहर निकालना है। भले हीवो बेस्ट बेकरी में दर्जनों मुसलमानों को जिंदा जला दें। गुजरात का ये एक ऐसा सच है , जिसे सोचकर आंखे शर्म से झुक जाती हैं।
गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के लिए सिर्फ मोदी ही ज़िम्मेदार नहीं है। केंद्र की सरकार क्या नीरो की तरह बैठी चैन की बंसी बजा रही थी। अगर देश का प्रधानमंत्री इस कुकृत्य के लिए राज्य सरकार की आलोचना और मुख्यमंत्री मोदी को कोसता है तो उसके बचाव के लिए उप प्रधानमंत्री और स्वंयभू लौह पुरूष उठ के खड़ा हो जाता है।
बाबरी मस्जिद की तरह गुजरात दंगों की जांच के लिए भी एक कमीशन है। लेकिन तारीख़ पर तारीख़ जारी है। अब कमीशन ने तहलका के टेप मंगाए है ये कहते हुए कि इसे जांच में शामिल किया जाएगा। क़ानून के जानकर मानते हैं कि अदालत में टेप को सबूत के तौर पर मान लिया जाएगा। क्योंकि टेप की प्रयोगशाला में जांच पड़ताल होगी। लेकिन बीजेपी क्या इसे आसानी से मान लेगी ? बीजेपी के सांसद कैमरे के सामने घूस लेते पकड़े जाते हैं, तब भी बीजेपी गाल बजाती है। कहती है कि टेप से छेड़छाड़ हुई है।वो इस टेप को इतनी आसानी से मान लेगी ?
क्या इस दंगे के लिए आम जनता को माफ किया जा सकता है , जिसने दंगों के बाद हुए चुनावी प्रचार में मोदी को गरजते हुए सुना। जीभर के तालियां बजाई। दिल खोलकर वोट डाले। एक बार फिर दंगाइयों के हवाले राज्य की सरकार कर दी ? ये आम जनता की हौसला अफ़ज़ाई का ही नतीजा था कि संघ का पाला पोसा हुआ हिंदुस्तानी हिटलर के आंकड़े में गुजरात की आबादी सिर्फ पांच करोड़ हिंदुओं की होती है। उसकी जनगणना में मुसलमानों की संख्या शािमल नहीं होती। उसे उस आलाकमान से शाबाशी मिलती है, जिसे हिंदुस्तान को हिंदुस्तान कहने में शर्म आती है। वो बड़े ही शान से हमारे भारत को हिंदुस्थान कहता है। अल सुबह और शाम को लगनेवाली शाखाओं में जिस लौहपुरूष की पूजा की जाती है , वही लोहा राजनीती की आंच में ऐसा पिघलता है कि जिन्ना की मज़ार पर क़सीदे पढ़ने से नहीं चूकता।
मेरा सवाल पाठकों से है। तारीख़ पर तारीख का खेल तो जारी रहेगा। क्या आम लोगों को अब भी यक़ीन है कि जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद ढहाई, जिन्होने गुजरात में ख़ून किया, बलात्कार किया, डाका जाला, राहज़नी और आग़जनी की - उन्हे कभी सज़ा मिल पाएगी ? जिन्होने हमारे और आपके राम को राजनीति के बाज़ार में बेचा , उन्हे कौन सज़ा देगा ? चुनाव आते ही जो राम नाम की रट लगा देते हैं , उन्हे क्या अब भगवान ही सज़ा देगा ?

मुंगेरिया सखीचंद का कोलकाता में कमाल

तब मैं छोटा बच्चा था। लेकिन कोई शरारत नहीं करता था। मेरी गिनती भोंदू बच्चों में होती थी। मां बताती थीं कि मैं शायद पांच या छह किलो का पैदा हुआ था। ज़्यादातर लोग मुझे गोदी में लेने से कतराते थे। क्योंकि मेरा वज़न उनके गोदी लेने के सलीके पर भारी पड़ता था। जब बचपन की श्वेत- श्याम तस्वीरों को अब देखता हूं तो मुझे भी यक़ीन होने लगता है कि हां मैं मोटा और भोंदू था। बक़ौल मेरी मां मैं अक्सर आस पास के भनसाघरों में पाया जाता था। भनसाघर , जिसे हम और आप रसोई और किचन के नाम से जानते हैं। ऐसा ही एक भनसाघर था सखीचंद का। सखीचंद चाची का मैं दुलारा था। लिहाज़ा बेरोकटोक उनके किचन में जाता था। उनके खाने को अपना समझकर बहुत मन से खाता था। मेरे लिए दूध भी मंगाकर वो रखती थीं। बचपन में मुझे मांसाहार से परहेज़ था। याद है वो दिन जब पहली बार सखीचंद चाचा के यहां बनी मछली का स्वाद लिया था। वो स्वाद अब भी ज़ुबान पर है। चच्चा ने मेरे लिए ही मांगुर मछली बनाया था ताकि मेरे मन से मांसाहार की नफरत दूर हो जाए।
जिस चच्चा ने पहली बार अपने हाथों से मेरे मुंह में मछली का निवाला रखा था, बड़ा होने पर पहली बार उन्होने ही मुझे दारू का जाम थमाया। यानी कोलकाता के गारूलिया क़स्बे का वो आदमी , जो बेशक़ अनपढ़ था लेकिन समय के साथ जेनेरेशन गैप ख़त्म करने की कला जानता था। वैसै सखीचंद चच्चा बहुत कम अपने घर या शहर में मिलते थे। जब भी पूछता था कि कहां जा रहे हैं तो उनका जवाब होता था - ड्यूटी पर। ख़ैर बड़ा होने पर पता चला कि उनकी ड्यूटी क्या थी। दरअसल , सखीचंद चच्चा वैगन ब्रोकर का काम करते थे। यानी रेल की माल गाड़ी के डिब्बे से सामान चोरी करना। पहले पहल तो समझ नहीं आया कि एक बूढ़ा आदमी कैसे इतना सारा माल उड़ाता होगा लेकिन जब दारू की महफिल में उनके दोस्तों से मुलाक़ात होनी शुरू हुई तो सच्चाई परत दर परत साफ होती गई। सखीचंद चच्चा के साथ रेलवे के बाहुओं, टिकिट चेक करनेवालों और टीटी बाबुओं के साथ सांठ गांठ थी। इनकी मदद से सखीचंद चच्चा ने अपनी इस कला को धोनी की बैंटिंग की तरह मांजकर चमका दिया था। सप्ताह में दो तीन दिन उनके घर पर ट्रकों से माल उतरता था। रेशमी साड़ियां, इलेक्ट्रानिक के महंगे महंगे सामान।
चच्चा इन सामान को ख़ुले बाज़ार में बहुत कम दामों में बेच देते थे। लोकल दुकानदारों को एक रूपए का माल अट्ठनी में मिल जाता था। फिर उसे वो हम - आप जैसे ग्राहकों को एख रूपए में बेच देते थे। चच्चा का मुनाफा ये कि बग़ैर पूंजी लगाए वो भी दुकानदारों की तरह मुनाफा कमाते थे। धंधा बहुत चोखा चल रहा था। लेकिन पाप की गठरी कब तक बंधी रहती ? सखीचंद चच्चा का ये धंधा सभी लोगों की जानकारी में थी। सिर्फ पुलिसवालों को ख़बर नहीं थी। एक दिन उन्हे भी भनक लगी।
धमक गए पुलिसवाले चच्चा के घर। सबको लगा कि अब तो चच्चा गए। ऐसा सोचनेवालों की कोई कमी नहीं थी। क्योंकि बिहार के मुंगेर ज़िले में जन्मे सखीचंद चच्चा कोलकाता में बड़े ठाठ से रहते थे। उन लोगों को ज़्यादा जलन होती थी, जिन्होने दूंधमुंहे चच्चा के सिर से बाप का साया उठते देखा था। चच्चा को पालने पोसने के लिए उनकी मां को गोइठा ( उपला) बनाते देखा था। बड़ा होने पर चच्चा ने रोज़ी रोटी के लिए भले ही कोई ग़लत धंधा चुन लिया हो लेकिन ऐसे लोगों की मदद करना नहीं छोड़ा , जिन्होने मुफलिसी में उनकी अम्मा को सहारा दिया था। चच्चा जब भी मंहगा माल उड़ा कर लाते , तो वो उन लोगों के घर ख़ुद पहुंचा कर आते थे। यहां तक उन ग़रीब लोगों के घरों के फर्श पर कारपेट बिछने लगे। मखमली चादर और तकिया नसीब होने लगी। हर दूसरे -तीसे दिन रोहू, हिल्सा, कतला , रुई, मांगुर, कोई, पाब्दा मछली का स्वाद मिलने लगा। आखि़र इतने घरों से दुआओं के लिए उठे हाथ बेअसर थोड़े ही न जाते। जब पुलिसवाले उनके घर से बाहर निकले तो सबके चेहरे पर ख़ुशी थी। क़दमों में लड़खड़ाहट थी। आंखों में चमक थी। ये मुंगेरीलाल के हसीन सपनों का असर था।
अब आए दिन चच्चा के घर पर रेलवे के बाबुओं को अलावा खाकी वालों की महफिल सजने लगी। खादी वालों से बर्दाश्त नहीं हुआ तो उन्होने भी चच्चा के यहां आना जाना शुरू कर दिया। लेकिन चच्चा ने साफ कर दिए वो सिर्फ मेहनतकश लोगों की मदद करेंगे, लूटेरों की नहीं। आहे भरनेवालों के लिए चच्चा ने छापेमारी के कुछ दिनो बाद ही फिल्मी स्टाइल में तोहफा दिया। इस बार बोगी से फौज के लिए जा रही बंदूकों और पिस्तौलों पर हाथ साफ कर दिया। ये ख़बर जब खादी औक खाकी को लगी तो वो भागे भागे आए। कहा -सखीचंद मरवा दोगे। ये फौज का माल है। उन्होने कहा दिया - बिहारी हूं, डरपोक नहीं। जो कर दिया , सो कर दिया । अब अंजाम से क्या डरना । चच्चा ने बग़ैर किसी की मदद के सारे माले औने पौने दामों में बेच दिया। चच्चा की महिफलें सजती रहती। जैसे -जैसे माल बढ़ता गया , महफिलों से घुंघरूओं की खनक तेज़ होने लगी। बड़े बड़े अफसरों की आवाजाही बढ़ गई। अब सखीचंद चच्चा इस दुनिया में नहीं है। लेकिन एक सवाल छोड़ गए हैं। क्या रेलवे में अब कोई सखीचंद नहीं है ? एक बार अपने आस -पास देखिए। शायद कहीं उस बूढ़े की आत्मा मिल जाए।

Tuesday, October 23, 2007

अब स्वेटर में वो मुहब्बत कहां ?

इस दशहरे में वैसी सर्दी महसूस नहीं हुई जो पहले हुआ करती थी। बात बहुत पुरानी है । दुर्गा पूजा की शुरूआत होते ही फिज़ा में गुलाबी सर्दी दस्तक दे देती थी। ये सिलसिला बचपन से लेकर जवानी तक चला। लेकिन जब से काली दाढ़ी पर सफेदी ने दस्तक दी है , तब से सर्दी में भी गरमाहट महसूस होने लगी है। तब मैं कोलकाता में रहता था। लंगोट में रहकर दुर्गा पूजा की संस्कृति सीखी। इस सीख का नतीजा था कि अब तक लंगोट का पक्का हूं।
सत्तर के दशक की बात है। दुर्गा पूजा की शुरूआत होते ही बाबा थान का थान ख़रीद कर लेकर आते थे। घर में बच्चों की लंबी चौड़ी फौज थी। चचेरे-ममेरे- फूफेरे भाई -बहनों की संख्या लगभग तीस पैंतीस थी। घर पर दर्ज़ी आता था। सब भाई -बहनों का माप लेता था। शाम को हम दुर्गा पूजा देखने पंडालों में जब निकलते थे , तो पूरा बंगाली मुहल्ला हमें देखता था। हमें शर्म आती थी। लेकिन बाबा की डपट के आगे सबकी घिघ्घी बंध जाती थी। लोग हमें हैरानी से देखते थे। क्योंकि हम सब बैंड पार्टी की तरह दिखते थे। लेकिन बाबा को ख़ुशी मिलती थी, हम सबको को एक ही तरह के कपड़ों में देखकर। ख़ैर , यहीं तक गनीमत थी। क्योंकि हमें स्वेटर अलग अलग रंगों और डिज़ाइन के मिलते थे। वरना दुर्गा पूजा क्या , पूरी सर्दी बैंड पार्टी की तरह गुज़र जाती। वैसे , दिल्ली की तुलना में कोलकाता में सर्दी कम पड़ती है। ये अहसास दिल्ली में बसने के बाद हुआ। लेकिन उस वक़्त वही हल्की सर्दी हमें बहुत भारी पड़ती थी। शारदोत्सव की आहट आते ही हर घर में ऊन और बुनाईवाले कांटें यानी सिलाई बाहर निकल आती थी। ललुआ की दुकान से ऊन के गोले ख़रीद कर आते थे। मां के पास झाड़ू - पोंछा और चूल्हा -चौकी से फुर्सत नहीं होती थी। इसलिए स्वेटर बनाने का काम आजी, बुआ औऱ पड़ोसिनों का होता था। कोई बांह बनाना शुरू करता था। कोई पीठ बनाना शुरू करता था। कोई सामने वाले हिस्सा बनाना शुरू करता था। सबकी अपनी अपनी पसंद होती थी। हर तीसरे -चौथे रोज़ कोई न कोई बुला लेता था माप लेने के लिए। किसी को स्वेटर में एक ऊंगली बड़ी लगती थी तो किसी को डिज़ाइन में वो रंग नहीं फबता था। एक बार फिर उधेड़ा जाता था। फिर गोले बनते थे। फिर सिलाई शुरू होती थी। दस -बारह दिनों में स्वेटर बन कर तैयार हो जाता था। सर्दी की शुरूआत में कट्टी बांह यानी हाफ स्वेटर मिलता था। नवंबर में पूरी बाजू की स्वेटर पहनने को मिलती थी। क्योंकि दुर्गा पूजा के बीतते ही पटाखे फोड़ने की तैयारी होती थी। पटाखे फूटने के बाद छठ पूजा की शुरूआत हो जाती थी। ये पूजा दरिया के किनारे होती है। ढलते सूरज और उगते सूरज की पूजा के लिए दरिया के किनारे खड़े होने पर ठिठुरन ज़्यादा होती थी। इसलिए फूल स्वेटर के साथ साथ ऊनी मफलर भी बनता था। मुब्बत के धागों से बने स्वेटर और मफलर में जो गरमाहट महसूस होती थी , वो आज मय्यसर नहीं। इन्ही कपड़ों के साथ दिल्ली आया। टेलीविज़न की नौकरी शुरू की। नया -नया रिपोर्टर बना था। फिर आया सर्दी का मौसम।
कलकतिया स्वेटर और मफलर में दफ्तर गया। शूट पर जाने का असाइनमेंट मिला। प्रोड्यूसर ने बुलाकर स्वेटर बदलने की हिदायत दी। उसकी नज़र में कढ़ाई बुनाई वाला स्वेटर डाउन मार्केट था। मैने विनम्रता से पूछा - इसमें क्या ख़राबी है। पास पड़ोस में खड़ी अप मार्केट लड़के लड़िकयों ने ठहाके लगाने शुरू कर दिए। तब अहसास हुआ कि ग्लैमर की दुनिया औऱ कांक्रिटों के जंगलों में मुहब्बत की कोई क़ीमत नहीं होती। बाज़ार से मांटो कार्लो, ली कूपर और ली के कई सारे स्वेटर ख़रीद लिए। लेकिन वो गरमाहट नहीं मिली।
अब शादी शुदा बाल बच्चेदार आदमी हूं। मेरी बीवी नेहा मेरी नज़र में दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत महिला है। सर्दी के मौसम में वो मेरे लिए बाज़ार से कई सारे स्वेटर ख़रीद कर लाती है। सब एक से बढ़कर एक। सब स्वेटर बड़ी बड़ी कंपनियों के टैग लगे होते हैं। ज़ाहिर है इस टैग के लिए पर्स अच्छा ख़ासा हल्का होता होगा। लेकिन इन स्वेटरों में ठिठुरन होती है। कुछ ख़ालीपन सा लगता है। शायद मेरी बीवी के पास इतना वक़्त नहीं कि वो कट्टी या पूरी बाजू की स्वेटर न सही एक मफलर बना दे।
इस दुर्गा पूजा में दिल्ली में बैठकर कोलकाता की सर्दी का मज़ा लेना चाहा। बिजोयादोशमी के दिन नेहा से कहा - चलो, बेटी की विदाई का समय हो चला है। चलो विदा कर आएं। शिंदूरखेला ( सिंदूर की होली ) खेल कर आए। उसने साफ इनकार कर दिया। शायद उसे ये पता नहीं चला या अहसास नहीं हुआ - इतने बरस बाद अब वही गर्मी मैं अब फिर तलाश रहा हूं, जो मुझे मां- आजी से मिली। शायद इसी तलाश में लंगोटपन का वो ही दशहरा मिल जाए। लेकिन ज़माना बदल गया है। मेरी सोच ग़लत थी। तेज़ रफ्तार की ज़िंदगी में अगर मैं बरसों पुराना यादें तलाशने जाऊँगा तो आंखों में धूल की पुरानी परतें ही तो पड़ेंगी ! आंखों में धूल के महीन से महीन कण भी जाए तो आंखें गीली तो होंगी ही न !

Tuesday, October 2, 2007

मायावती की पुलिस सवालों के कटघरे में

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से कहीं ज़्यादा उनकी पुलिस जल्दी में दिखाई दे रही है। हाल के दो घटनाओं को ग़ौर से देंखे तो यही लगता है। इन घटनाओं से उत्तर प्रदेश की पुलिस की किरकिरी तो हुई है। साथ में उत्तर प्रदेश सरकार की जो फ़ज़ीहत हुई है, सो अलग। लेकिन इन दोनों घटनाओं पर मायावती ने चुप्पी साध रखी है। उनकी इस ख़ामोशी से बहुत सारे सवाल खड़े होते हैं। अगर मायावती पुलिस बेदाग है तो मुख्यमंत्री को बयान देने में हिचक क्यों हैं ? अगर पुलिस वाले सवालों के कठघरे में खड़े हैं तो उनके ख़िलाफ़ क़दम उठाने में सरकार के क़दम क्यों लड़खड़ा रहे हैं ? इन सवालों का जवाब या तो मायावती दे सकती हैं या फिर कोई स्वतंत्र जांच एजेंसी। क्योंकि लोगों का भरोसा मायावती पुलिस पर से उठ चुका है।
सबसे पहले सबसे ताज़ा घटना की बात करें। उत्तर प्रदेश सरकार ने एक बार फिर सात हज़ार चार सौ पुलिसवालों को नौकरी से निकाल दिया। सरकार का आरोप है कि पिछली सरकार ने गड़बड़झाला करके इन्हे पुलिस की वर्दी दी थी। नौकरी के लिए फर्ज़ी दस्तावेज़ जमा कराए गए थे। सबसे बड़े जांच अधिकारी शैलजाकांत मिश्र ने सीना तानकर बताया कि एडीजी बी.के.भल्ला समेत सात आईपीएस अफसरों पर भी गाज गिरी है। भर्ती बोर्डों के इकसठ पीपीएस और वायरलेस अफसरों के ख़िलाफ़ जांच शुरू कर दी है। शैलेजाकांत मिश्र के मुताबिक़, नौकरी के नाम पर महिला पुलिसकर्मियों का यौन शोषण हुआ। कैसे हुआ, कब हुआ, किसने किया- ये सब बात अभी शैलेजाकांत ने नहीं बताई है। उन्होने बस इतना भर कहा कि इस कर्मकांड में पिछली सरकार के एक नेता के हाथ होने के सबूत मिले हैं। मायावती की सरकार ने अब तक क़रीब अट्ठारह हजा़र पुलिसवालों को नौकरी से अलग कर दिया है। शैलेजाकांत मिश्र के बयान के बाद ही लखनऊ में कुछ महिला पुलिसकर्मी सड़कों पर उतर आईं। उनके ख़िलाफ़ नारेबाज़ी हुई। सबने एक सुर में कहा- शैलेजाकांत झूठ बोल रहे हैं। शैलेजाकांत ने यौन शोषण की बात कुछ महिला पुलिस कर्मियों से बातचीत के आधार पर कही थी। शैलेजाकांत ने बताया कि उन्हे कुछ महिलाओं ने बताया कि नौकरी दिलाने के नाम पर यौन शोषण हो रहा था। जो राज़ी हुईं, उन्हे नौकरी मिल गई। जो नहीं मानीं, उन्हे वर्दी नसीब नहीं हुई। अब ये शैलेजाकांत मिश्र ही बता सकते हैं के ये जानकारी उनके हाथ कहां से लगी ? लेकिन महिला पुलिसकर्मियों का आंदोलन, धरना -प्रदर्शन और नारेबाज़ी ये इशारा करता है कि दाल में कहीं काला है। दूसरा बड़ा सवाल ये है कि अगर शैलेजाकांत मिश्र के पास पुख़्ता जानकारी या सबूत है तो यौन शोषण से जुड़े पिछली सरकार के नेता के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई कर रहे हैं ? अगर सबूत है तो उस नेता को अब तक पकड़ा क्यों नहीं गया है ? क्या पुलिस बहुत जल्दी में है ? या फिर वो किसी दबाव में है ? अगर जांच कमेटी के अगुवा शैलेजाकांत मिश्र के पास यौन शोषण के ठोस सबूत हैं तो सड़कों पर उतरकर सरकार की धज्जियां उड़ानेवाली महिला पुलिस कर्मियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती ? कार्रवाई तो दूर,यौन शोषण की बात मीडिया को बतानेवाले अधिकारी ख़ामोश क्यों हैं ? सवाल बहुत सारे कुलबुला रहे हैं। लेकिन जवाब अभी तक नहीं मिला है।
दूसरी घटना राजधानी लखनऊ से दूर बनारस की है। तेरह सितबंर को शहर के जाने -माने डॉक्टर देवेंद्र प्रताप सिंह यानी डी.पी.सिह की दिन -दहाड़े हत्या कर दी गई। इस घटना से शहर में सन्नाटा पसर गया। जितनी मुंह , उतनी बातें। ज़्यादातर लोगों की ज़ुबान पर बस यही बात थी कि अगर शहर में जाने-माने डॉक्टर की जान महफूज़ नहीं तो आम लोगों का क्या होगा ? क्या इस हत्या के पीछे रंगदारी या फिरौती का कोई मामला तो नहीं है ? इस हत्या से स्तब्ध पूरबिया डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी। डॉक्टरों की इस हड़ताल की असर सीधे पुलिस - प्रशासन पर पड़ा। पुलिस ने आनन- फानन में केस सॉल्व कर देने का दावा पेश कर दिया। कुछ बदमाशों को पकड़ कर लाई। मीडिया के सामने ये ख़ुलासा किया कि हत्या किसी और ने नहीं बल्कि डी.पी.सिंह की पत्नी शिल्पी राजपूत ने ही कराई है। शिल्पी भी शहर की जानी मानी डॉक्टर हैं और वो अपना एक नर्सिंग होम चलाती है। पुलिस बहुत दूर की कौड़ी खोज कर लाई थी। पुलिस के मुताबिक़, शिल्पी और देवेंद्र में नहीं पटती थी। घटना के कुछ दिनों पहले डॉक्टर देंवेद्र ने डॉक्टर शिल्पी को पीटा था। इस घटना से शिल्पी बौखला गई थी। उसने अपने फुफुरे भाई से बात की। भाई ने भरोसा दिलाया। पुलिस की मानें तो फुफुरे भाई ने कांट्रेक्ट किलरों से बात की। सौदा तय हो गया। सौदे के तहत सुबह -सुबह तीन बदमाश डॉक्टर देवेंद्र के पास आए और पता पूछने के बहाने उन्हे बीच राह में रोककर गोलियों से छलनी कर दिया। पुलिस को सारे बदमाश एक साथ हाथ लगे थे। बदमाशों के पास से पुलिस को हथियार भी मिल चुका था। ये सारे उस समय पुलिस के हाथ लगे , जब वो सारे एक साथ एक ही गाड़ी में सवार होकर बनारस से कहीं दूर भागने की फिराक़ में थे। पुलिस ने डॉक्टर शिल्पी को गिरफ्तार कर लिया। शायद पुलिस पर केस जल्दी सॉल्व कर लेने का दबाव था। एक तो शहर के डॉक्टरों का रूख़ कड़ा था। दूसरी बात ये इस ख़बर देश के बड़े -बड़े अख़बारों और टीवी चैनलों की नज़र थी। पुलिस ने चुटकी बजाकर केस सॉल्व कर लेने का दावा कर दिया। लेकिन पुलिस ही अंतिम सत्य नहीं। पुलिस का काम जहां से ख़त्म होता है, वहीं से अदालत का काम शुरू हो जाता है। अदालत ने डॉक्टर हत्याकांड की सुनवाई के दौरान पुलिस पर ही सवाल खड़े कर दिए। इसके बाद से ही पुलिस एक बार फिर सवालों के कठघरे में है।
ज़िला और सत्र न्यायाधीश डॉक्टर चंद्रदेव राय ने केस की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराने की सलाह दी। अदालत ने अपने पांच पन्नों के फैसले की कॉपी ज़िलाधिकारी और गृह सचिव को भेजने का निर्देश दिया। अदालत ने डॉक्टर शिल्पी राजपूत की ज़मानत तो मंज़ूर की ही। अदालत ने साफ कहा कि सुनाई के दौरान उमड़ी भीड़ और जनभावना का हवाला देकर कहा - इस केस की जांच स्वतंत्र एजेंसी से ही कराना बेहतर होगा। अदालत में अभियोजन पक्ष ठोस सबूत और गवाह नहीं पेश कर सका। उलटे डॉक्टर देंवेंद्र के पिता और बेटे ने भरी अदालत में डॉक्टर शिल्पी के पक्ष में बयान दिया। अदालत को डॉक्टर शिल्पी की गिरफ्तारी की जगह और समय में झोल दिखा। वादी ने अदालत में यहा कर कहा कि उसे पांच दिनों तक थाने में रखा गया। इस दौरान कुछ कोरे कागज़ पर पुलिस ने दस्तख़त करा लिए। अदालत में पुलिस ने जिस गवाह को पेश किया था, अदालत ने उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया। क्योंकि गवाह का कहना था - वो अपनी पत्नी का इलाज कराने नर्सिंग होम गया था। लेकिन वो अदालत में दवा की पर्ची से लेकर बीमारी तक के कोई दस्तावेज़ पेश नहीं कर पाया। जज ने जब इस बारे में पूछा तब पुलिस बगले झांकने लगी।
ये दूसरी घटना है , जब मायावती की पुलिस सवालों के कठघरे में है। पुलिस ने इस केस में भी हड़बड़ी दिखाई है। अदालत की राय को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। क्योंकि अदालत की नज़र में कोई गड़बड़ी पकड़ में आई होगी। तभी इस केस की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराने की सलाह दी गई होगी। इस केस में भी बहुत सारे सवाल है। क्योंकि इस केस में बहुत सारे पेंच दिख रहे हैं। ऐसे में मायावती की पुलिस की विश्वसनीयता पर सवाल होना लाज़िमी है।