Tuesday, February 11, 2020

दिल्ली के जनादेश की धमक बिहार-बंगाल में भी सुनाई देगी

देश की राजधानी दिल्ली ने एक बार फिर आम आदमी पार्टी यानी आप को प्रचंड जीत का जनादेश दिया है। कांग्रेस की दिवंगत शीला दीक्षित की तरह ही आप के संयोजक और सीएम अरविंद केजरीवाल ने हैट्रिक बना ली। दिल्ली के इस चुनाव को केवल आप की जीत या बीजेपी-कांग्रेस की हार के तौर पर ही नहीं तौला जाना चाहिए। इस चुनावी नतीजों ने दशकों पुराने मिथकों को तोड़ा है और सियासत की नई इबारत लिखने की कोशिश की है। उम्मीद की जा सकती है कि साल 2020 में पढ़े लिखों का शहर माने जानेवाली दिल्ली से चली ये चुनावी हवा धीरे-धीरे पूरे देशभर में फैलेगी।   

पहली बात तो ये है कि दिल्ली नमे सांप्रदायिकता के मुद्दे को नाले में बहा दिया है। इसमें अच्छी बात ये भी है कि सांप्रदायिकता को नकारने वालों में उन प्रदेशों के लोग भी शामिल हैं, जो आज भी राम मंदिर-मस्जिद, मजहब और जाति के जंजीरों से आजाद नहीं हो पाई है। दिल्ली में बस बिहार-यूपी के वोटरों ने साल 2020 के चुनाव में इस जड़ता को तोड़ा है। साथ ही दिल्ली के वोटरों ने ये भी साबित किया है कि ज्यादा चालाकी कई बार बहुत भारी पड़ जाती है। सीएए लागू होने के बाद पहली बार हो रहे किसी चुनाव में आप विकास के नाम पर जब वोट मांगने निकली। तो केंद्रीय गृह मंत्री और बीजेपी के अध्यक्ष रहे अमित शाह ने बेहद चालाकी से शाहीनबाग के धरने को गद्दारी और देशभक्ति से जोड़ने की कोशिश की। उन्हें उम्मीद थी कि देशभक्ति और राष्ट्रवाद के चाशनीभरे नारों को दिल्ली की जनती गटक लेगी। लेकिन दिल्ली के लोगों ने अपने जनादेश से जता दिया कि उनके लिए शाहीनबाग, गाली, गोली, पाकिस्तान, इमरान, हिंदू-मुसलमान और गद्दारी को गोली नहीं चलेगी।
दिल्ली के जनता ने केवल फ्री वालों नारों पर भी मतदान नहीं किया है। हां ये सच है कि फ्री वाला नारा एक बड़ा फैक्टर जरुर बना है। लेकिन उसका आंकलन कुछ दूसरे तरीकों से भी किया जा सकता है। दो सौ यूनिट तक बिजली फ्री ने वोटरों में करंट जरुर पैदा किया। लेकिन वो वोटर भी आप के साथ जुड़े जो पहले की सरकारों में बिजली के भारी भरकम बिलों से परेशान थे। इस चुनाव ने ये भी साबित किया कि विकास के नाम पर चुनाव लड़ा भी जा सकता है और जीता भी। दिल्ली के डिप्टी सीएम और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने सरकारी स्कूलों में हुए सुधार और पढ़ाई की गुणवत्ता को आधार बनाया। सीएम केजरीवाल ने फ्री सफर, मुहल्ला क्लीनिक, कच्ची कॉलोनियों में डेवलमेंट जैसी तस्वीरें दिखाई और जनता ने उसे स्वीकारा भी। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि दिल्ली की जनता ने नफरत की आंधी के खिलाफ मशाल जलाने की दिलेरी दिखाई है। दिल्ली की जनता ने बताया है कि उसे विकास चाहिए। उसे अच्छी शिक्षा चाहिए। बेहतर स्वाथ्य सेवाएं चाहिए। बुनियादी और मौलिक सहूलियतें चाहिए। उन्हें मीठी गोली को जरुरत नहीं है कि भारत की हैसियत इतने ट्रिलियन की हो जाएगी। सबके खाते में पंद्रह लाख आ जाएंगे। अब पीओके लेकर रहेंगे। जो सत्तर सालों में नहीं हुआ, वो ऐतिहासिक गलितयों को सुधारने का कड़ा फैसला ले रहे हैं। हमारे सामने पाकिस्तान-अमेरिका गया तेल लेने। आदि-आदि। देश की राजधानी ने सड़ांध की राजनीति को अलविदा कह दिया है। तो क्या उम्मीद की जा सकती है कि दिल्ली की तरह बंगाल और बिहार के होनेवाले चुनावों में वहां के वोटर नक्सलियों को दफन कर देंगे और बांग्लादेशियों को भगा देंगे जैसे गुमराह करनेवाले नारों के झांसे में ना आकर उस पार्टी को वोट देंगे, जो वाकई उनके हित के लिए काम करने का इरादा रखती है। हां, इतना तो तय हो गया है कि दिल्ली के चुनाव में जो फॉर्मूला केजरीवाल ने सेट किया है, वो दूसरे राज्यों में भी मिसाल बनने लगा है। मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल सरकार 75 यूनिट तक बिजली फ्री देने जा रही है तो महाराष्ट्र सरकार सौ यूनिट तक बिजली फ्री देने का विचार कर रही है।