Thursday, November 8, 2007

ख़बरदार, जो वेश्या कहा

बिहार में अब वेश्या को वेश्या कहना महंगा पड़ेगा। वर्दी और डंडे के जो़र पर अच्छों -अच्छों को लाइन पर लानेवाली पुलिस भी अपनी आदत बदलेगी। आइंदा से जब वो वेश्याओं को गिरफ्तार करेगी, तो थाने में उसके साथ बहुत अच्छा बर्ताव करेगी। हो सकता है कि बिहार पुलिस वेश्याओं की ख़ातिरदारी करते मिले। पुलिस को ये सब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हुक़्म पर करना पड़ेगा। पक्के समाजवादी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने के लगभग ढाई साल बाद वेश्याओं का ख़्याल आया। नीतीश कुमार का कहना है कि कोई शौक़ से वेश्या नहीं बनती। ग़रीबी, मजबूरी औऱ दबंगों की वजह से उन्हे देह का धंधा करना पड़ता है। इसलिए अब जब भी पुलिस वेश्याओं को पकड़े तो उन्हे आरोपी न बनाए। उन्हे पीड़ित बताए। क्योंकि तमाम तरह की पीड़ाओं को झेलकर ही वो देह का सौदा करने पर मजबूर हुई है। इसलिए पुलिस उसे वेश्या न माने। वेश्याओं का दर्द सीने में दबाए नीतीश कुमार का ये बयान उन वेश्याओं की मांग से ज़्यादा दमदार और मार्मिक है, जो देहव्यापार को मज़दूरी का दर्ज़ा देने की मांग करती आ रही हैं और संसद से लेकर सड़क तक पर आंदोलन कर ही है।
नीतीश कुमार ने सही फरमाया है। कोई शौक़ से देह व्यापार का अपराध थोड़े ही करता है। ठीक वैसे ही, जैसे कि कोई चोरी शौक़ से नहीं करता। तफरीह के लिए डाका नहीं डालता। प्यास बुझाने के लिए किसी का ख़ून नहीं बहाता । सबकी अपनी- अपनी मजबूरियां होती हैं। सबकी मजबूरियों को बिहार पुलिस समझे। ताकि देश के बाक़ी राज्यों को सबक मिले। सरकारें समझें कि अपराधी के अपराध के पीछे छिपे सामाजिक मजबूरी को समझें। उस मजबरी को दूर करें। अपराध ख़ुद ब ख़ुद ख़त्म हो जाएगा।
नीतीश कुमार जानते हैं कि गांधीगिरी का उनका ये तरीक़ा देसी राजनीति की कीचड़ में फंसकर गंदा हो जाएगा। इसलिए उन्हे इसे अमल में लाने के लिए उन्हे फिरंगियों की ज़रूरत आन पड़ी। यूनाएटेड आफिस आन ड्रग्स एंड क्राइम की मदद से उन्होने नई शुरूआत की है। मानव तस्करी निरोध कोषांग बना दिया है। शुरूआत कोषांग पटना, गया और मुज्जफरपुर से होगी। सफलता मिलने पर पूरे सूबे में काम करेगा। नीतीश कुमार को उम्मीद है कि वेश्यावृति ख़्तम करने का उनका ये फार्मूला जब हिट होगा तो पूरे देश में इसे लागू किया जाएगा। जिस तरह से रेल मंत्री रहने के दौरान किए गए काम काज की आज भी तारीफ होती है । ठीक वैसे ही वेश्यावृति मिटान में उनके योगदान को याद रखा जाएगा। नीतीश जी की जय हो। धन्य हैं अपने नीतीश बाबू जी की।

Wednesday, November 7, 2007

मित्रों, फिर आई है दीवाली। इस दीवाली में मुझे एक पुराना मुखड़ा याद पड़ा। सोचा , क्यों न दीवाली के बहाने अपने मित्रों को इस गीत की फिर से याद दिला दूं। हरियाली और रास्ता फिल्म में मुकेश औऱ लता मंगेशकर ने इसे गाया था। शायद , ये गीत दिल के उस कोने को छू जाए, जहां अब भी कोई टीस हो। बोल कुछ इस तरह से हैं....

मुकेश-
लाखों तारे आसमान में
एक मगर ढूंढे ना मिला
देखें दुनिया की दीवाली
दिल मेरा चुपचाप जला
दिल मेरा चुपचाप जला
लता-
लाखों तारे आसमान में
एक मगर ढूढें ना मिला
एक मगर ढूंढे ना मिला
मुकेश
क़िस्मत का है
नाम मगर है
कम है ये दुनियवालों का
फूंक दिया है चमन हमारे ख़्वाबों औऱ ख़्यालों का
जी करता है ख़ुद ही घोंट दें
अपने अरमानों का गला
देखें दुनिया की दीवाली
दिल मेरा चुपचाप जला
दिल मेरा चुपचाप
लता
सौ सौ सदियों से लंबी ये
ग़म की रात नहीं ढलती
इस अंधियारे के आगे अब
ऐ दिल की एक नहीं चलती
हंसते ही लुट गई चांदनी
और उठते ही चांद ढला
देखें दुनिया की दीवाली
दिल मेरा चुपचाप जला
दिल मेरा चुपचाप जला
मुकेश
मौत है बेहतर इस हालत से
नाम है जिसका मजबूरी
लता
कौन मुसाफिर तय कर पाया
दिल से दिल की ये दूरी
मुकेश
कांटों ही कांटों से गुज़रा
जो राही इस राह चला
देखें दुनिया की ये दीवाली
दिल मेरा चुपचाप जला
दिल मेरा चुपचाप जला
लता
लाखों तारे आसमान में
एक मगर ढूंढे ना मिला
देखें दुनिया की दीवाली
दिल मेरा चुपचाप जला
दिल मेरा चुपचाप जला

Saturday, November 3, 2007

फिर छिड़ी है बहस ज़िम्मेदारी की

एक प्राइवेट चैनल पर दिल्ली की स्कूल टीचर उमा खुराना को स्कूली छात्राएं सप्लाई करनेवाली पिंप की तरह दिखाया गया था। बाद में रिपोर्टर के पकड़े जाने पर खुलासा हुआ कि उमा खुराना को फर्ज़ी फंसाया गया है। मामला अदालत में है। लेकिन अदालत ने इस बारे में जो टिप्पणी की है, उससे प्राइवेट चैनल वालों के पेशानी पर बल पड़ गए हैं। अदालत ने पूछा है कि इस गड़बड़झाले के लिए चैनल को क्यों नहीं ज़िम्मेदार माना जाए। आख़िर चूक संपादकीय प्रबंधन की भी तो है। अदालत ने उस दिल्ली पुलिस को भी जवाब तलब किया है कि उसने इस बारेमें चैनल और उसके संपादकीय विभाग के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई की है।
हमेशा आपके साथ रहने का दावा करनेवाली दि्लली पुलिस ने अपनी जांच में उमा खुराना को बेक़सूर पाया। पुलिस की नज़र में रिपोर्टर और उसकी सहेली दोषी है। लेकिन पुलिस की जांच रिपोर्ट में इतना बचपना क्यों है कि उसे चैनल के बड़े अधिकारियों की ग़लती नज़र नहीं आती। प्राइवेट चैनल हो या सरकारी - हर जगह हर ख़बर की स्कैनिंग के लिए टीम होती है। ये नियम इस चैनल पर भी लागू है। चैनल के संपादकीय नीति की कमान ऐसे अनुभवी पत्रकार के हाथ में है, जो कुल जमा बारह साल के अनुभव को सफेद बालों वाले पत्रकारों के अनुभव से तौलता है और अपने अनुभव को हमेशा बीस पाता है। कभी मॉडलिंग की दुनिया में हाथ पैर पटक चुके इस पत्रकार ने पुलिस के सामने भोला भाला बयान दिया कि उसे उसके रिपोर्टर ने गुमराह किया। पुलिस भी इतनी भोली कि उसके बयान को बेदवाक्य की तरह सही मान लिया। लेकिन इस भोलेपन ने परदे के पीछे ऐसे कुछ सवाल छोड़ दिए हैं, जिसका जवाब पाना इस स्टिंग आपरेशन की सच्चाई जानने के लिए ज़रूरी है।
अगर दोष सिर्फ उस रिपोर्टर का था तो फिर चुपके से उस पत्रकार से इस्तीफा क्यों मांग लिया गया, जिसकी नज़र में ये स्टिंग आपरेशन सही था। जिसने इस ख़बर को चलाने में अहम भूमिका निभाई थी। चंद दिनों में वो मन से क्यों उतर गया। चैनल प्रमुख की बात थोड़ी देर के लिए सच मान लेते हैं । फिर चैनल प्रमुख ये बात बताएं कि चैनल के दफ्तर में ऐसे लोगों की भीड़ क्यों जुटाई गई है जो डेस्क संभालते हैं। अगर रिपोर्टर की कोई भी स्टोरी इन लोगों की जानकारी या मर्ज़ी के बग़ैर एयर हो रही है तो ऐसे लोगों की टोली क्या आफिस में एसीकी हवा खा रही है। फॉक्स चैनल का स्लोगन - वी रिपोर्ट , यू डिसाइड का स्लोगन हिंदी में अनुवाद कर - ख़बर हमारी , फैसला आपका का नारा बुलंद करनेवाले क्या कर रहे हैं। भूत प्रेत और नाग नागिन का डांस दिखाने के एक्सपर्ट पत्रकारों की नज़रें इतनी कमज़ोर है कि इस स्टिंग आपरेशन के होनेवाले डंक के असर के मर्म को नहीं समझ पाए। या फिर सस्ती लोकप्रियता औऱ जल्दी आगे बढ़वने की होड़ में एक महिला टीचर की बदनामी करने से भी नहीं घबराए। हर ख़बर पर जनता का मत लेनेवाले मूर्धन्य पत्रकार ये बता सकते हैं कि उनकी बचकानी हरकत से उमा खुराना की जो बदनामी हुई है, जो किरकिरी हुई है, उसकी भरपाई कैसे होगी। फर्ज़ी ख़बर को देखकर उमा खुराना की पिटाई करनेवाले औऱ सरेआम कपड़े नोंचनेवाले ये बता सकते हैं कि क्या माफी मांग लेने या दूसरे के मत्थे ठीकरा फोड़ देने से उमा खुराना को जो जगहंसाई हुई है, वो वापिस हो जाएगी। नहीं लगता कि प्रबुद्ध, मूर्धन्य और अनुभव के बोझ तले उन पत्रकारों में इतनी सत्सहास है कि वो एयर पर बार बार दोहराएं कि हमारी ग़लत ख़बर की वजह से उमा खुराना को तकलीफ हुई है। बदनामी हुई है। जगहंसाई हुई है। पिटाई हुई है।कोर्ट कचहरी का चक्कर लगाना पड़ा है। नौकरी गंवानी पड़ी है। उसे अपनी ईमानदारी के लिए हर चौखट पर सबूत पेश करना पड़ रहा है। हम माफी मांगते हैं। हम शर्मिंदा है। हमने उमा तुझे जीते जी मार दिया। महिला का सबसे बड़ा गहना - इज्ज़त को हमने तार तार कर दिया। हमें अब शर्म आती है। आइंदा हम ये नही कहेंगे कि ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं है। क्योंकि इस ख़बर में बचपने से ज़्यादा अपराध था। हम विज्ञापन से होनेवाली महीने- दो महीने की कमाई तुम्हारे हवाले कर रहे हैं। हम श्रमजीवी पत्रकार, जिनके कंधे पर नैतिकता की ज़िम्मेदारी है, हम उसे समझते हैं। श्रम से कमाई गई रक़म का एक हिस्सा आपके हवाले कर रहे हैं। हम उस रूतबे को वापस तो नही कर सकते लेकिन माली तकलीफ को दूर कर सकते हैं। लेकिन क्या अनुभवों के बोझ तले दबे पत्रकारों की ये टोली ऐसा कोई क़दम उठाएगी। बहस खुली है। क्योंकि यहां सवाल जनमत का है ।

Monday, October 29, 2007

मोदी पर कौन कसेगा लगाम ?

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इतने बेलगाम कैसे हैं ? ये बात सबको मालूम है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। लेकिन अकेले मोदी समाज को तोड़ रहे हैं। देश की गंगा जमुनी तहज़ीब को आग लगा रहे हैं। जा़हिर भले ही न हो लेकिन ये सच है कि मोदी को पाल पोस कर बड़ा करनेवाले लौह पुरूष भले ही पिघल गए हों लेकिन समय के साथ साथ इस देश में लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनकर आया मुख्यमंत्री चट्टान की तरह अडिग हो गया है। उसका इरादा समाज के उस हिस्से को काट कर अलग कर देना है. जो बरसों से हमारे साथ रचे बसे हैं। इस मुख्यमंत्री का इरादा शरीर के उस हिस्से को काटकर निकाल देना है, जिसके बाहर निकलते ही दिल की धड़कन थम जाए और मरघट में बैठकर अट्टाहास करे। दुनिया को ये बता सके कि वो अपने दम पर आत्मा को मर सकता है। शरीर को निर्जीव कर सकता है। क्योंकि वो बेलगाम है। उसकी लगाम थामनेवाले धृतराष्ट्र हो चुके हैं। अंधे, गूंगे और बहरे हो गए हैं।
गुजरात दंगा भड़काने की साज़िश , क़त्लेआम की प्लानिंग , बलात्कार, मुसलमानों को जि़ंदा फूकने की प्लानिंग को उजागर करतनेवाली स्टिंग आपरेशन की भनक लगते हैं लोकतंत्र की दुहाई देनेवालों ने नादिरशाही रवैया अपना लिया है। सरकार के इशारे पर नाचनेवाले पुलिस अफसरों और सफेदपोश बाबुओं ने कुछ घंटे के लिए पूरे गुजरात में कुछ न्यूज़ चैनलों का टेलीकास्ट रूकवा दिया। अगर सरकारी बाबुओं की बात अगर लोकल केबल वाले नहीं सुनते तो उन्हे हिंदी क़ौम का ग़द्दार कहकर मौत के घाट उतार दिया जाता । मोदी सरकार की इस कोशिश को कुछ जायज़ भी ठहराने लगते । आख़िर सवाल हिंदुत्व और उसके नए महानायक की है।
पांच करोड़ गुजरात के लोगों का नारा देकर नरेंद्र मोदी ने एक तरह से गुजरात को देश से काटने का काम किया है। इस मुख्यमंत्री को देश की चिंता नहीं। इस मुख्यमंत्री को समाज की चिंता नहीं। इस मुख्यमंत्री को का़नून की परवाह नहीं। अगर ऐसा होता तो ट्रेन एक्सिडेंट से लेकर प्राकृतिक आपदा पर कांग्रेस सरकार से इस्तीफा की मांग करनेवाली बीजेपी इस मुख्यमंत्री से इस्तीफा ले चुकी होती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बात बात पर महापुरूषों की मिसाल देनेवाली पार्टियों के लोग लाल बहादुर शास्त्री से सबक ले चुके होते।
हर साल देश के किसी बड़े शहर में करोड़ों रूपए फूंककर हिंदुत्व की राजनीति करनेवाली पार्टी की चिंतन बैठक में तानाशाही , बेगुनाहों के ख़ून और बलात्कार पर भी चिंता होती। लेकिन नहीं। इतिहास गवाह है कि देश के प्रधानंमत्री ने गुजरात दंगों के बाद जब मोदी की आलोचना की तो उसके बचाव के लिए लौह पुरूष आगे आए। मुंबई अधिवेशन में प्रधानंम्तरी तनहा नज़र आए। इस मुद्दे पर पार्टी में उन्हे घेर लिया गया था। शायद बीजेपी आलाकमान को मालूम है कि समाज के एक वर्ग को नरेंद्र मोदी एंग्री यंग मैन लगने लगा है। समाज को तोड़नेवालों , मासूमों का ख़ून बहानेवालों, घूंघट में रहनेवाली औरतों को बेपरदा देखनेवालों, इंसान को ज़िंदा जलाकर मज़ा लूटनेवालों और परपीड़ा का सुख लेनेवालों की क़ौम में ये तानाशाह पूजा जाने लगा है। दंगों के बाद हुए चुनाव में मिली जीत से बड़े नेताओं को ये यक़ीन हो गया है कि अगर सत्ता की मलाई खानी है तो इस तानाशाह को बेलगाम करना होगा। हर ग़लत काम में उसके साथ उठकर खड़ा होना होगा। लेकिन ऐसा सोचनेवाले नेता शायद ये भूल रहे हैं कि इस देश में अकेला गुजरात राज्य नहीं हैं। संदेश ग़लत जा रहा है। सत्ता में आने के बाद अयोध्या में राम मंदिर बनाने का वादा करनेवालों ने सत्ता में आते ही कैसा राम को भूला दिया , ये बात देश की जनता भूली नहीं है। याद पड़ता है अयोध्या आंदोलन के समय का बीजेपी को वो नारा- जो कहते हैं, सो करते हैं। अब तो ये साबित हो चुका है कि बीजेपी की आदत बस यही है। जो कहते हैं, सो करते हैं। कह के फिर मुकरते हैं।

Friday, October 26, 2007

फिर भी बीजेपी को शर्म नहीं आती

तहलका में गुजरात दंगों का सच आने के बाद से पूरे देश में तहलका है। लेकिन बीजेपी चोरी के बाद सीनाज़ोरी पर उतर आई है। वो बड़े शान से बता रही है कि गुजरात विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के इशारे पर ये ख़बर चलाई गई है। लेकिन बीजेपी के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि कैमरे पर सच्चाई उगलनेवाले भगवा बिग्रेड के लोग सच बोल रहे हैं या फिर झूठ? यहां आकर बीजेपी के मुंह पर ताला लग जाता है। बस रटुआ तोते की तरह बोले जा रही है कि दोषियों को सज़ा मिले लेकिन अदालत से ।
बीजेपी शायद ये भूल गई है कि 1992 में बाबरी मस्जि़द गिरानेवाले लोगों को पूरी दुनिया ने देखा था। फिर भी असलियत जानने के लिए कमीशन बनाया गया। इतिहास के एख सुनहरे पन्ने को नोंचे हुए क़रीब पंद्रह साल हो गए। लेकिन गुंबद और मस्जिद तोड़नेवाले की सूरत साफ नहीं हो पाई है। शायद बाबरी मस्जिद ढहानेवालों की मौत के बाद सच्चाई पर से परदा उठे कि फलां फलां को मस्जिद गिराए जाने का दोषी पाया गया है औऱ उन्हे इतने साल की सज़ा सुनाई जा रही है । सज़ा पाने वाले भले ही स्वर्ग या नर्क पहुंच गए हों। ख़ैर, अपन मुद्दे से भटक रहे हैं।
नरेंद्र मोदी से पहली बार तब मिला था, जब दिल्ली में विधानसभा के चुनाव होनेवाले थे। मुख्यमंत्री के दावेदार मदनलाल खुराना के पीछे खुली जीप में सुषमा स्वराज के साथ जनता का अभिवादन करते देखा था। उस समय भी उनका चेहरा मुझे बेहद निष्ठुर नज़र आया था। पता नहीं क्यों उस सूरत को नहीं भूल सकता। क्योंकि उस मुद्रा में तानाशाह हिटलर की छवि नज़र आती थी। उस तस्वीर को मैंने एक साप्ताहिक पत्रिका के कवर पर छापा था। फिर दूसरी बार तब मुलाक़ात हुई , जब वो बीजेपी की केंद्रीय कमेटी में बड़ी कुर्सी पर बैठे। पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ हिंदुस्तान आए हुए थे। आगरा में अटल बिहारी वाजपेयी से बात चल रही थी। न्यूज़ चैनल पर अरूप घोष और अनुराग तोमर एंकरिंग कर रहे थे और चैनल हेड संजय पुगलिया आगरा में रिपोर्टिंग कर रहे थे। रात के क़रीब दस बजे के आस- पास सबसे पहले संजय पुगलिया ने ख़बर ब्रेक की। ये वाक्य आज तक मुझे याद है। संजय- अरूप, मैं अभी पक्के तौर पर नहीं कह सकता। लेकिन जो ख़बर मेरे पास छन-छनकर आ रही है , उससे लगता है कि बातचीत टूट गई है। वार्ता फेल हो गई है।इतना सुनते ही स्टूडियो में बैठे नरेंद्र मोदी ने आपा खो दिया। लगे अनाप शनाप बकने। उसके चेहरे से , उसके गरजने से तानाशाही की बू आ रही थी। मोदी ने बातचीत टूटने की ख़बर बतानेवालों को देश का दुश्मन करार दिया था। लेकिन बाद में क्या हुआ- सबको मालूम है। ये मेरी मोदी से दूसरी मुलाक़ात थी। तब मेरा शक़ यक़ीन में बदल गया औऱ मन ही मन बुदबुदाया- कौन कहता है कि हिटलर मर गया? तहलका ने छुपे कैमरे से छुपा सच दिखा दिया।
28 फरवरी 2002 को अहमदाबाद के नरौदा पाटिया में भगवा बिग्रेड ने मुसलमानों को ऐसे काट डाला, जैसे कि भेड़ - बकरियों को भी नहीं काटा जाता। इस घटना को सुनकर ही हर हिंदू की आंखें शर्म से झुक जाती है। भले ही हिंदुत्व की रोटी खानेवालों का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है लेकिन आम हिंदुओं के मन में नफरत ही है। नरौदा पाटिया में बीजेपी एमएलए मायाबेन कोडनानी और बजंरग दल के नेता बाबू बजरंगी उस भीड़ की अगुवाई कर रहे थे, जिनके सीने में बरसों से लगनी वाली शाखाओं ने मुसलमानों के लिए नफरत के बीज बोए थे। गुजरात के बाहर से त्रिशुल , तलवार, बंदूके मंगाई गई। बीजेपी नेताओं की फैक्ट्री में ठीक वैसे ही हथियार बनाए गए, जैसे सरहद पार आतंकवादियों को दिए जाते हैं। तहलका के मुताबिक़, बाबू बजरंगी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदीके इशारे पर सूबे में क़त्लेआम करवा रहा था। उसने लाशों का पहाड़ खड़ा करने की क़सम खाई थी। संघ परिवार के लोग खुलकर उसे मदद कर रहे थे। ये राम का हिंदुत्व है या कृष्ण का उपदेश कि नौ महीने की गर्भवती कौसर बानो कापेट चीरकर बच्चे को बाहर निकाला गया और उसे तलवार की नोंक पर रखकर शहर में घुमाया गया। बड़े शान से नारे लगे- जय श्री राम। मुन्ना बजरंगी वीएचपी महासिचव जयदीप पटेल को फोन पर लाशों की संख्या ऐसे बता रहा था कि मानों वो क्रिकेट का स्कोर बता रहा हो। सूबे की क़ानून व्यवस्था जिनके हवाले थी, उस गृह मंत्री गोवर्धन जफड़िया को भी वो ताज़ा आंकडे़ बता रहा था। संघ परिवार के इस घिनौने खेल में राज्य की पुलिस भी बराबरी का पापी बन रही थी। भावनगर में एस पी राहुल शर्मा बलवावियों पर गोली बरसाते हैं तो गृह मंत्री का फोन उन्हे रोकने के लिए आता है। क्योंकि बलवाई हिंदू थे, जो उनके इशारे पर नंग नाच रहे थे।
बजरंगी ख़ुद कहता है कि छारनगर आकर मोदी ने हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों, लूटरों को फूल माला पहनाकर उत्साह बढ़ाया । दंगों के बाद मोदी ने बजंरगी को चार महीने तक छिपने में मदद की। नाटकीय तरीक़े से गिरफ्तार कराया। उसे बाहर निकलवाने के लिए जजों के ट्रांसफर कराए। तब के पुलिस महानिदेशक साफ साफ अपने इमानदार अफसरों को कहते हैं कि ब्यूरोक्रेसी संघी शिविरों में बिक गई है। तब के पुलिस आयुक्त पी सी पांडे पुलिस की खाकी वर्दी और संघियों के खाकी निकर में फ़र्क़ करना भूल जाते हैं। तत्कालीन पुलिस महानिदेशक एन डी गडवी ने ज़िला मंत्री रमेश दवे से क्षत्रियों की तरह वादा किया कि जान जाए पर वचन जाए। चार पांच मुसलमानों कोतो वो ही मरवा देंगे। इस्पेक्टर के जी इर्दा ने मुसलमानों को सुरक्षित बाहर ले जा रही गाड़ी को दंगाइयों के हवाले कर दिए। पुलिस अफसर के आंखों के सामने एक मुसलमान का ख़ून होता है औऱ वो हंसता है। मोदी की शह पर राज्य के जाने माने हिंदू वकील एकजुट होते हैं। सबका इरादा एक है। अदालत से ख़ूनियों, बलात्कारियों , डकैतों को मासूम साबित कर बाहर निकालना है। भले हीवो बेस्ट बेकरी में दर्जनों मुसलमानों को जिंदा जला दें। गुजरात का ये एक ऐसा सच है , जिसे सोचकर आंखे शर्म से झुक जाती हैं।
गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के लिए सिर्फ मोदी ही ज़िम्मेदार नहीं है। केंद्र की सरकार क्या नीरो की तरह बैठी चैन की बंसी बजा रही थी। अगर देश का प्रधानमंत्री इस कुकृत्य के लिए राज्य सरकार की आलोचना और मुख्यमंत्री मोदी को कोसता है तो उसके बचाव के लिए उप प्रधानमंत्री और स्वंयभू लौह पुरूष उठ के खड़ा हो जाता है।
बाबरी मस्जिद की तरह गुजरात दंगों की जांच के लिए भी एक कमीशन है। लेकिन तारीख़ पर तारीख़ जारी है। अब कमीशन ने तहलका के टेप मंगाए है ये कहते हुए कि इसे जांच में शामिल किया जाएगा। क़ानून के जानकर मानते हैं कि अदालत में टेप को सबूत के तौर पर मान लिया जाएगा। क्योंकि टेप की प्रयोगशाला में जांच पड़ताल होगी। लेकिन बीजेपी क्या इसे आसानी से मान लेगी ? बीजेपी के सांसद कैमरे के सामने घूस लेते पकड़े जाते हैं, तब भी बीजेपी गाल बजाती है। कहती है कि टेप से छेड़छाड़ हुई है।वो इस टेप को इतनी आसानी से मान लेगी ?
क्या इस दंगे के लिए आम जनता को माफ किया जा सकता है , जिसने दंगों के बाद हुए चुनावी प्रचार में मोदी को गरजते हुए सुना। जीभर के तालियां बजाई। दिल खोलकर वोट डाले। एक बार फिर दंगाइयों के हवाले राज्य की सरकार कर दी ? ये आम जनता की हौसला अफ़ज़ाई का ही नतीजा था कि संघ का पाला पोसा हुआ हिंदुस्तानी हिटलर के आंकड़े में गुजरात की आबादी सिर्फ पांच करोड़ हिंदुओं की होती है। उसकी जनगणना में मुसलमानों की संख्या शािमल नहीं होती। उसे उस आलाकमान से शाबाशी मिलती है, जिसे हिंदुस्तान को हिंदुस्तान कहने में शर्म आती है। वो बड़े ही शान से हमारे भारत को हिंदुस्थान कहता है। अल सुबह और शाम को लगनेवाली शाखाओं में जिस लौहपुरूष की पूजा की जाती है , वही लोहा राजनीती की आंच में ऐसा पिघलता है कि जिन्ना की मज़ार पर क़सीदे पढ़ने से नहीं चूकता।
मेरा सवाल पाठकों से है। तारीख़ पर तारीख का खेल तो जारी रहेगा। क्या आम लोगों को अब भी यक़ीन है कि जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद ढहाई, जिन्होने गुजरात में ख़ून किया, बलात्कार किया, डाका जाला, राहज़नी और आग़जनी की - उन्हे कभी सज़ा मिल पाएगी ? जिन्होने हमारे और आपके राम को राजनीति के बाज़ार में बेचा , उन्हे कौन सज़ा देगा ? चुनाव आते ही जो राम नाम की रट लगा देते हैं , उन्हे क्या अब भगवान ही सज़ा देगा ?

मुंगेरिया सखीचंद का कोलकाता में कमाल

तब मैं छोटा बच्चा था। लेकिन कोई शरारत नहीं करता था। मेरी गिनती भोंदू बच्चों में होती थी। मां बताती थीं कि मैं शायद पांच या छह किलो का पैदा हुआ था। ज़्यादातर लोग मुझे गोदी में लेने से कतराते थे। क्योंकि मेरा वज़न उनके गोदी लेने के सलीके पर भारी पड़ता था। जब बचपन की श्वेत- श्याम तस्वीरों को अब देखता हूं तो मुझे भी यक़ीन होने लगता है कि हां मैं मोटा और भोंदू था। बक़ौल मेरी मां मैं अक्सर आस पास के भनसाघरों में पाया जाता था। भनसाघर , जिसे हम और आप रसोई और किचन के नाम से जानते हैं। ऐसा ही एक भनसाघर था सखीचंद का। सखीचंद चाची का मैं दुलारा था। लिहाज़ा बेरोकटोक उनके किचन में जाता था। उनके खाने को अपना समझकर बहुत मन से खाता था। मेरे लिए दूध भी मंगाकर वो रखती थीं। बचपन में मुझे मांसाहार से परहेज़ था। याद है वो दिन जब पहली बार सखीचंद चाचा के यहां बनी मछली का स्वाद लिया था। वो स्वाद अब भी ज़ुबान पर है। चच्चा ने मेरे लिए ही मांगुर मछली बनाया था ताकि मेरे मन से मांसाहार की नफरत दूर हो जाए।
जिस चच्चा ने पहली बार अपने हाथों से मेरे मुंह में मछली का निवाला रखा था, बड़ा होने पर पहली बार उन्होने ही मुझे दारू का जाम थमाया। यानी कोलकाता के गारूलिया क़स्बे का वो आदमी , जो बेशक़ अनपढ़ था लेकिन समय के साथ जेनेरेशन गैप ख़त्म करने की कला जानता था। वैसै सखीचंद चच्चा बहुत कम अपने घर या शहर में मिलते थे। जब भी पूछता था कि कहां जा रहे हैं तो उनका जवाब होता था - ड्यूटी पर। ख़ैर बड़ा होने पर पता चला कि उनकी ड्यूटी क्या थी। दरअसल , सखीचंद चच्चा वैगन ब्रोकर का काम करते थे। यानी रेल की माल गाड़ी के डिब्बे से सामान चोरी करना। पहले पहल तो समझ नहीं आया कि एक बूढ़ा आदमी कैसे इतना सारा माल उड़ाता होगा लेकिन जब दारू की महफिल में उनके दोस्तों से मुलाक़ात होनी शुरू हुई तो सच्चाई परत दर परत साफ होती गई। सखीचंद चच्चा के साथ रेलवे के बाहुओं, टिकिट चेक करनेवालों और टीटी बाबुओं के साथ सांठ गांठ थी। इनकी मदद से सखीचंद चच्चा ने अपनी इस कला को धोनी की बैंटिंग की तरह मांजकर चमका दिया था। सप्ताह में दो तीन दिन उनके घर पर ट्रकों से माल उतरता था। रेशमी साड़ियां, इलेक्ट्रानिक के महंगे महंगे सामान।
चच्चा इन सामान को ख़ुले बाज़ार में बहुत कम दामों में बेच देते थे। लोकल दुकानदारों को एक रूपए का माल अट्ठनी में मिल जाता था। फिर उसे वो हम - आप जैसे ग्राहकों को एख रूपए में बेच देते थे। चच्चा का मुनाफा ये कि बग़ैर पूंजी लगाए वो भी दुकानदारों की तरह मुनाफा कमाते थे। धंधा बहुत चोखा चल रहा था। लेकिन पाप की गठरी कब तक बंधी रहती ? सखीचंद चच्चा का ये धंधा सभी लोगों की जानकारी में थी। सिर्फ पुलिसवालों को ख़बर नहीं थी। एक दिन उन्हे भी भनक लगी।
धमक गए पुलिसवाले चच्चा के घर। सबको लगा कि अब तो चच्चा गए। ऐसा सोचनेवालों की कोई कमी नहीं थी। क्योंकि बिहार के मुंगेर ज़िले में जन्मे सखीचंद चच्चा कोलकाता में बड़े ठाठ से रहते थे। उन लोगों को ज़्यादा जलन होती थी, जिन्होने दूंधमुंहे चच्चा के सिर से बाप का साया उठते देखा था। चच्चा को पालने पोसने के लिए उनकी मां को गोइठा ( उपला) बनाते देखा था। बड़ा होने पर चच्चा ने रोज़ी रोटी के लिए भले ही कोई ग़लत धंधा चुन लिया हो लेकिन ऐसे लोगों की मदद करना नहीं छोड़ा , जिन्होने मुफलिसी में उनकी अम्मा को सहारा दिया था। चच्चा जब भी मंहगा माल उड़ा कर लाते , तो वो उन लोगों के घर ख़ुद पहुंचा कर आते थे। यहां तक उन ग़रीब लोगों के घरों के फर्श पर कारपेट बिछने लगे। मखमली चादर और तकिया नसीब होने लगी। हर दूसरे -तीसे दिन रोहू, हिल्सा, कतला , रुई, मांगुर, कोई, पाब्दा मछली का स्वाद मिलने लगा। आखि़र इतने घरों से दुआओं के लिए उठे हाथ बेअसर थोड़े ही न जाते। जब पुलिसवाले उनके घर से बाहर निकले तो सबके चेहरे पर ख़ुशी थी। क़दमों में लड़खड़ाहट थी। आंखों में चमक थी। ये मुंगेरीलाल के हसीन सपनों का असर था।
अब आए दिन चच्चा के घर पर रेलवे के बाबुओं को अलावा खाकी वालों की महफिल सजने लगी। खादी वालों से बर्दाश्त नहीं हुआ तो उन्होने भी चच्चा के यहां आना जाना शुरू कर दिया। लेकिन चच्चा ने साफ कर दिए वो सिर्फ मेहनतकश लोगों की मदद करेंगे, लूटेरों की नहीं। आहे भरनेवालों के लिए चच्चा ने छापेमारी के कुछ दिनो बाद ही फिल्मी स्टाइल में तोहफा दिया। इस बार बोगी से फौज के लिए जा रही बंदूकों और पिस्तौलों पर हाथ साफ कर दिया। ये ख़बर जब खादी औक खाकी को लगी तो वो भागे भागे आए। कहा -सखीचंद मरवा दोगे। ये फौज का माल है। उन्होने कहा दिया - बिहारी हूं, डरपोक नहीं। जो कर दिया , सो कर दिया । अब अंजाम से क्या डरना । चच्चा ने बग़ैर किसी की मदद के सारे माले औने पौने दामों में बेच दिया। चच्चा की महिफलें सजती रहती। जैसे -जैसे माल बढ़ता गया , महफिलों से घुंघरूओं की खनक तेज़ होने लगी। बड़े बड़े अफसरों की आवाजाही बढ़ गई। अब सखीचंद चच्चा इस दुनिया में नहीं है। लेकिन एक सवाल छोड़ गए हैं। क्या रेलवे में अब कोई सखीचंद नहीं है ? एक बार अपने आस -पास देखिए। शायद कहीं उस बूढ़े की आत्मा मिल जाए।

Tuesday, October 23, 2007

अब स्वेटर में वो मुहब्बत कहां ?

इस दशहरे में वैसी सर्दी महसूस नहीं हुई जो पहले हुआ करती थी। बात बहुत पुरानी है । दुर्गा पूजा की शुरूआत होते ही फिज़ा में गुलाबी सर्दी दस्तक दे देती थी। ये सिलसिला बचपन से लेकर जवानी तक चला। लेकिन जब से काली दाढ़ी पर सफेदी ने दस्तक दी है , तब से सर्दी में भी गरमाहट महसूस होने लगी है। तब मैं कोलकाता में रहता था। लंगोट में रहकर दुर्गा पूजा की संस्कृति सीखी। इस सीख का नतीजा था कि अब तक लंगोट का पक्का हूं।
सत्तर के दशक की बात है। दुर्गा पूजा की शुरूआत होते ही बाबा थान का थान ख़रीद कर लेकर आते थे। घर में बच्चों की लंबी चौड़ी फौज थी। चचेरे-ममेरे- फूफेरे भाई -बहनों की संख्या लगभग तीस पैंतीस थी। घर पर दर्ज़ी आता था। सब भाई -बहनों का माप लेता था। शाम को हम दुर्गा पूजा देखने पंडालों में जब निकलते थे , तो पूरा बंगाली मुहल्ला हमें देखता था। हमें शर्म आती थी। लेकिन बाबा की डपट के आगे सबकी घिघ्घी बंध जाती थी। लोग हमें हैरानी से देखते थे। क्योंकि हम सब बैंड पार्टी की तरह दिखते थे। लेकिन बाबा को ख़ुशी मिलती थी, हम सबको को एक ही तरह के कपड़ों में देखकर। ख़ैर , यहीं तक गनीमत थी। क्योंकि हमें स्वेटर अलग अलग रंगों और डिज़ाइन के मिलते थे। वरना दुर्गा पूजा क्या , पूरी सर्दी बैंड पार्टी की तरह गुज़र जाती। वैसे , दिल्ली की तुलना में कोलकाता में सर्दी कम पड़ती है। ये अहसास दिल्ली में बसने के बाद हुआ। लेकिन उस वक़्त वही हल्की सर्दी हमें बहुत भारी पड़ती थी। शारदोत्सव की आहट आते ही हर घर में ऊन और बुनाईवाले कांटें यानी सिलाई बाहर निकल आती थी। ललुआ की दुकान से ऊन के गोले ख़रीद कर आते थे। मां के पास झाड़ू - पोंछा और चूल्हा -चौकी से फुर्सत नहीं होती थी। इसलिए स्वेटर बनाने का काम आजी, बुआ औऱ पड़ोसिनों का होता था। कोई बांह बनाना शुरू करता था। कोई पीठ बनाना शुरू करता था। कोई सामने वाले हिस्सा बनाना शुरू करता था। सबकी अपनी अपनी पसंद होती थी। हर तीसरे -चौथे रोज़ कोई न कोई बुला लेता था माप लेने के लिए। किसी को स्वेटर में एक ऊंगली बड़ी लगती थी तो किसी को डिज़ाइन में वो रंग नहीं फबता था। एक बार फिर उधेड़ा जाता था। फिर गोले बनते थे। फिर सिलाई शुरू होती थी। दस -बारह दिनों में स्वेटर बन कर तैयार हो जाता था। सर्दी की शुरूआत में कट्टी बांह यानी हाफ स्वेटर मिलता था। नवंबर में पूरी बाजू की स्वेटर पहनने को मिलती थी। क्योंकि दुर्गा पूजा के बीतते ही पटाखे फोड़ने की तैयारी होती थी। पटाखे फूटने के बाद छठ पूजा की शुरूआत हो जाती थी। ये पूजा दरिया के किनारे होती है। ढलते सूरज और उगते सूरज की पूजा के लिए दरिया के किनारे खड़े होने पर ठिठुरन ज़्यादा होती थी। इसलिए फूल स्वेटर के साथ साथ ऊनी मफलर भी बनता था। मुब्बत के धागों से बने स्वेटर और मफलर में जो गरमाहट महसूस होती थी , वो आज मय्यसर नहीं। इन्ही कपड़ों के साथ दिल्ली आया। टेलीविज़न की नौकरी शुरू की। नया -नया रिपोर्टर बना था। फिर आया सर्दी का मौसम।
कलकतिया स्वेटर और मफलर में दफ्तर गया। शूट पर जाने का असाइनमेंट मिला। प्रोड्यूसर ने बुलाकर स्वेटर बदलने की हिदायत दी। उसकी नज़र में कढ़ाई बुनाई वाला स्वेटर डाउन मार्केट था। मैने विनम्रता से पूछा - इसमें क्या ख़राबी है। पास पड़ोस में खड़ी अप मार्केट लड़के लड़िकयों ने ठहाके लगाने शुरू कर दिए। तब अहसास हुआ कि ग्लैमर की दुनिया औऱ कांक्रिटों के जंगलों में मुहब्बत की कोई क़ीमत नहीं होती। बाज़ार से मांटो कार्लो, ली कूपर और ली के कई सारे स्वेटर ख़रीद लिए। लेकिन वो गरमाहट नहीं मिली।
अब शादी शुदा बाल बच्चेदार आदमी हूं। मेरी बीवी नेहा मेरी नज़र में दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत महिला है। सर्दी के मौसम में वो मेरे लिए बाज़ार से कई सारे स्वेटर ख़रीद कर लाती है। सब एक से बढ़कर एक। सब स्वेटर बड़ी बड़ी कंपनियों के टैग लगे होते हैं। ज़ाहिर है इस टैग के लिए पर्स अच्छा ख़ासा हल्का होता होगा। लेकिन इन स्वेटरों में ठिठुरन होती है। कुछ ख़ालीपन सा लगता है। शायद मेरी बीवी के पास इतना वक़्त नहीं कि वो कट्टी या पूरी बाजू की स्वेटर न सही एक मफलर बना दे।
इस दुर्गा पूजा में दिल्ली में बैठकर कोलकाता की सर्दी का मज़ा लेना चाहा। बिजोयादोशमी के दिन नेहा से कहा - चलो, बेटी की विदाई का समय हो चला है। चलो विदा कर आएं। शिंदूरखेला ( सिंदूर की होली ) खेल कर आए। उसने साफ इनकार कर दिया। शायद उसे ये पता नहीं चला या अहसास नहीं हुआ - इतने बरस बाद अब वही गर्मी मैं अब फिर तलाश रहा हूं, जो मुझे मां- आजी से मिली। शायद इसी तलाश में लंगोटपन का वो ही दशहरा मिल जाए। लेकिन ज़माना बदल गया है। मेरी सोच ग़लत थी। तेज़ रफ्तार की ज़िंदगी में अगर मैं बरसों पुराना यादें तलाशने जाऊँगा तो आंखों में धूल की पुरानी परतें ही तो पड़ेंगी ! आंखों में धूल के महीन से महीन कण भी जाए तो आंखें गीली तो होंगी ही न !

Tuesday, October 2, 2007

मायावती की पुलिस सवालों के कटघरे में

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से कहीं ज़्यादा उनकी पुलिस जल्दी में दिखाई दे रही है। हाल के दो घटनाओं को ग़ौर से देंखे तो यही लगता है। इन घटनाओं से उत्तर प्रदेश की पुलिस की किरकिरी तो हुई है। साथ में उत्तर प्रदेश सरकार की जो फ़ज़ीहत हुई है, सो अलग। लेकिन इन दोनों घटनाओं पर मायावती ने चुप्पी साध रखी है। उनकी इस ख़ामोशी से बहुत सारे सवाल खड़े होते हैं। अगर मायावती पुलिस बेदाग है तो मुख्यमंत्री को बयान देने में हिचक क्यों हैं ? अगर पुलिस वाले सवालों के कठघरे में खड़े हैं तो उनके ख़िलाफ़ क़दम उठाने में सरकार के क़दम क्यों लड़खड़ा रहे हैं ? इन सवालों का जवाब या तो मायावती दे सकती हैं या फिर कोई स्वतंत्र जांच एजेंसी। क्योंकि लोगों का भरोसा मायावती पुलिस पर से उठ चुका है।
सबसे पहले सबसे ताज़ा घटना की बात करें। उत्तर प्रदेश सरकार ने एक बार फिर सात हज़ार चार सौ पुलिसवालों को नौकरी से निकाल दिया। सरकार का आरोप है कि पिछली सरकार ने गड़बड़झाला करके इन्हे पुलिस की वर्दी दी थी। नौकरी के लिए फर्ज़ी दस्तावेज़ जमा कराए गए थे। सबसे बड़े जांच अधिकारी शैलजाकांत मिश्र ने सीना तानकर बताया कि एडीजी बी.के.भल्ला समेत सात आईपीएस अफसरों पर भी गाज गिरी है। भर्ती बोर्डों के इकसठ पीपीएस और वायरलेस अफसरों के ख़िलाफ़ जांच शुरू कर दी है। शैलेजाकांत मिश्र के मुताबिक़, नौकरी के नाम पर महिला पुलिसकर्मियों का यौन शोषण हुआ। कैसे हुआ, कब हुआ, किसने किया- ये सब बात अभी शैलेजाकांत ने नहीं बताई है। उन्होने बस इतना भर कहा कि इस कर्मकांड में पिछली सरकार के एक नेता के हाथ होने के सबूत मिले हैं। मायावती की सरकार ने अब तक क़रीब अट्ठारह हजा़र पुलिसवालों को नौकरी से अलग कर दिया है। शैलेजाकांत मिश्र के बयान के बाद ही लखनऊ में कुछ महिला पुलिसकर्मी सड़कों पर उतर आईं। उनके ख़िलाफ़ नारेबाज़ी हुई। सबने एक सुर में कहा- शैलेजाकांत झूठ बोल रहे हैं। शैलेजाकांत ने यौन शोषण की बात कुछ महिला पुलिस कर्मियों से बातचीत के आधार पर कही थी। शैलेजाकांत ने बताया कि उन्हे कुछ महिलाओं ने बताया कि नौकरी दिलाने के नाम पर यौन शोषण हो रहा था। जो राज़ी हुईं, उन्हे नौकरी मिल गई। जो नहीं मानीं, उन्हे वर्दी नसीब नहीं हुई। अब ये शैलेजाकांत मिश्र ही बता सकते हैं के ये जानकारी उनके हाथ कहां से लगी ? लेकिन महिला पुलिसकर्मियों का आंदोलन, धरना -प्रदर्शन और नारेबाज़ी ये इशारा करता है कि दाल में कहीं काला है। दूसरा बड़ा सवाल ये है कि अगर शैलेजाकांत मिश्र के पास पुख़्ता जानकारी या सबूत है तो यौन शोषण से जुड़े पिछली सरकार के नेता के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई कर रहे हैं ? अगर सबूत है तो उस नेता को अब तक पकड़ा क्यों नहीं गया है ? क्या पुलिस बहुत जल्दी में है ? या फिर वो किसी दबाव में है ? अगर जांच कमेटी के अगुवा शैलेजाकांत मिश्र के पास यौन शोषण के ठोस सबूत हैं तो सड़कों पर उतरकर सरकार की धज्जियां उड़ानेवाली महिला पुलिस कर्मियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती ? कार्रवाई तो दूर,यौन शोषण की बात मीडिया को बतानेवाले अधिकारी ख़ामोश क्यों हैं ? सवाल बहुत सारे कुलबुला रहे हैं। लेकिन जवाब अभी तक नहीं मिला है।
दूसरी घटना राजधानी लखनऊ से दूर बनारस की है। तेरह सितबंर को शहर के जाने -माने डॉक्टर देवेंद्र प्रताप सिंह यानी डी.पी.सिह की दिन -दहाड़े हत्या कर दी गई। इस घटना से शहर में सन्नाटा पसर गया। जितनी मुंह , उतनी बातें। ज़्यादातर लोगों की ज़ुबान पर बस यही बात थी कि अगर शहर में जाने-माने डॉक्टर की जान महफूज़ नहीं तो आम लोगों का क्या होगा ? क्या इस हत्या के पीछे रंगदारी या फिरौती का कोई मामला तो नहीं है ? इस हत्या से स्तब्ध पूरबिया डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी। डॉक्टरों की इस हड़ताल की असर सीधे पुलिस - प्रशासन पर पड़ा। पुलिस ने आनन- फानन में केस सॉल्व कर देने का दावा पेश कर दिया। कुछ बदमाशों को पकड़ कर लाई। मीडिया के सामने ये ख़ुलासा किया कि हत्या किसी और ने नहीं बल्कि डी.पी.सिंह की पत्नी शिल्पी राजपूत ने ही कराई है। शिल्पी भी शहर की जानी मानी डॉक्टर हैं और वो अपना एक नर्सिंग होम चलाती है। पुलिस बहुत दूर की कौड़ी खोज कर लाई थी। पुलिस के मुताबिक़, शिल्पी और देवेंद्र में नहीं पटती थी। घटना के कुछ दिनों पहले डॉक्टर देंवेद्र ने डॉक्टर शिल्पी को पीटा था। इस घटना से शिल्पी बौखला गई थी। उसने अपने फुफुरे भाई से बात की। भाई ने भरोसा दिलाया। पुलिस की मानें तो फुफुरे भाई ने कांट्रेक्ट किलरों से बात की। सौदा तय हो गया। सौदे के तहत सुबह -सुबह तीन बदमाश डॉक्टर देवेंद्र के पास आए और पता पूछने के बहाने उन्हे बीच राह में रोककर गोलियों से छलनी कर दिया। पुलिस को सारे बदमाश एक साथ हाथ लगे थे। बदमाशों के पास से पुलिस को हथियार भी मिल चुका था। ये सारे उस समय पुलिस के हाथ लगे , जब वो सारे एक साथ एक ही गाड़ी में सवार होकर बनारस से कहीं दूर भागने की फिराक़ में थे। पुलिस ने डॉक्टर शिल्पी को गिरफ्तार कर लिया। शायद पुलिस पर केस जल्दी सॉल्व कर लेने का दबाव था। एक तो शहर के डॉक्टरों का रूख़ कड़ा था। दूसरी बात ये इस ख़बर देश के बड़े -बड़े अख़बारों और टीवी चैनलों की नज़र थी। पुलिस ने चुटकी बजाकर केस सॉल्व कर लेने का दावा कर दिया। लेकिन पुलिस ही अंतिम सत्य नहीं। पुलिस का काम जहां से ख़त्म होता है, वहीं से अदालत का काम शुरू हो जाता है। अदालत ने डॉक्टर हत्याकांड की सुनवाई के दौरान पुलिस पर ही सवाल खड़े कर दिए। इसके बाद से ही पुलिस एक बार फिर सवालों के कठघरे में है।
ज़िला और सत्र न्यायाधीश डॉक्टर चंद्रदेव राय ने केस की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराने की सलाह दी। अदालत ने अपने पांच पन्नों के फैसले की कॉपी ज़िलाधिकारी और गृह सचिव को भेजने का निर्देश दिया। अदालत ने डॉक्टर शिल्पी राजपूत की ज़मानत तो मंज़ूर की ही। अदालत ने साफ कहा कि सुनाई के दौरान उमड़ी भीड़ और जनभावना का हवाला देकर कहा - इस केस की जांच स्वतंत्र एजेंसी से ही कराना बेहतर होगा। अदालत में अभियोजन पक्ष ठोस सबूत और गवाह नहीं पेश कर सका। उलटे डॉक्टर देंवेंद्र के पिता और बेटे ने भरी अदालत में डॉक्टर शिल्पी के पक्ष में बयान दिया। अदालत को डॉक्टर शिल्पी की गिरफ्तारी की जगह और समय में झोल दिखा। वादी ने अदालत में यहा कर कहा कि उसे पांच दिनों तक थाने में रखा गया। इस दौरान कुछ कोरे कागज़ पर पुलिस ने दस्तख़त करा लिए। अदालत में पुलिस ने जिस गवाह को पेश किया था, अदालत ने उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया। क्योंकि गवाह का कहना था - वो अपनी पत्नी का इलाज कराने नर्सिंग होम गया था। लेकिन वो अदालत में दवा की पर्ची से लेकर बीमारी तक के कोई दस्तावेज़ पेश नहीं कर पाया। जज ने जब इस बारे में पूछा तब पुलिस बगले झांकने लगी।
ये दूसरी घटना है , जब मायावती की पुलिस सवालों के कठघरे में है। पुलिस ने इस केस में भी हड़बड़ी दिखाई है। अदालत की राय को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। क्योंकि अदालत की नज़र में कोई गड़बड़ी पकड़ में आई होगी। तभी इस केस की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराने की सलाह दी गई होगी। इस केस में भी बहुत सारे सवाल है। क्योंकि इस केस में बहुत सारे पेंच दिख रहे हैं। ऐसे में मायावती की पुलिस की विश्वसनीयता पर सवाल होना लाज़िमी है।

Friday, September 14, 2007

टी.वी न्यूज़ के इतिहास में ये पहली बार हुआ

ये कोई सात आठ बरस पहले की बात है। तब टीवी न्यूज़ चैनलों की रेलमपेल नहीं थी। न टीआरपी का दवाब था और न ही सबसे पहले लाल पट्टी पर ब्रेकिंग न्यूज़ लिखकर सबसे पहले ख़बर देने की होड़। गिने - चुने चैनल थे, जिनकी ख़बरों में दम होती थी और कंटेंट पर ख़ासा ज़ोर दिया जाता था। एक बड़े घराने के एक न्यूज़ चैनल में एक मशहूर अंग्रेज़ी अख़बार के संपादक आए। उस समय उनकी उम्र कोई पचास साल के आस-पास रही होगी। बाल खिचड़ी हो चुकी थी। हर समय सिगरेट सुलगाए, कहीं खोए -खोए रहते थे। कुलमिलाकर अंदाज़ दार्शनिक था। देखकर ही ये लगता था कि वो बहुत क़ाबिल - फ़ाज़िल इंसान थे।
की भीड़ में से ख़ास ख़बरें छांटने का अंदाज़ बहुतों को मुरीद बना देता था। अपने साथ अलग - अलग अंग्रेज़ी अख़बारों की पूरी पलटन ले आए थे। अपराध की ख़बरें देखते ही वो उत्साहित हो जाते थे। ख़ास तौर पर उनकी और उनके पलटन की नज़र फौज में होने वाले घपलों पर होती थी।
टीम ने उस चैनल में फौज की बहुत सारी एक्सक्लूसिव ख़बरें ब्रेक की, जो आज तक किसी और चैनल या अख़बार में नज़र नहीं आई। शायद यही उनकी सबसे बड़ी ताक़त थी। जो ख़बर बड़े- बड़े धुरंधर नही सूंघ पाते थे, वो पलक झपकाते ही लपक लेते थे। देर शाम का वक़्त था। मुरीद बना नया - नया चेला फड़कती हुई एक ख़बर लेकर उनके कमरे में दाख़िल हुआ। बहुत देर तक गुफ्तगू हुई। उनके कमरे में उनकी पलटन धमक गई। अंदर क्या बातें हुईं, किसी को नहीं पता। बाहर निकलकर जब उनका चेला डेस्क पर लौटा तो क़िला फतेह करने के अंदाज़ में सबकों आगाह किया- थोड़ी देर में सबको एक बहुत बड़ी ख़बर देने वाला हूं। तैयारी कर ली जाए। हम सबने पूछा कि ख़बरे तो बताओं तभी तैयारी होगी न ! उसने लगभग आदेश दिया- आपलोग पीसीआर रेडी रखें। बाक़ी सब मैं संभाल लूंगा। उसके कहने का अंदाज़ ये था - खबर गोपनीय है। अभी ये बात सिर्फ ख़ास - ख़ास लोगों को मालूम है। दर्शकों के साथ- साथ सभी को ख़बर की जानकारी हो जाएगी।
, मेरी शिफ्ट ख़त्म हो चुकी थी। थैला उठाकर दफ्तर चल दिया। तब शादी हुई नहीं थी। अकेले एक छोटे से फ्लैट में रहता था। समय काटने के लिए ब्लैक डॉग का एक अद्धा ख़रीदकर घर पहुंच गया। तस्सली से दारू पी। मछली - बात खाया औऱ सो गया।
रात के साढ़े ग्यारह बजे के आस-पास फोन की घंटी घनघनाने उठी। नींद में ही फोन उठाया। उधर से सुप्रीम बॉस की आवाज़ थी। हुक़्म आया- फ़ौरन आफिस आओ। मैने कहा- सर, शराब पी रखी है। नहीं आ सकता। जवाह आया- कोई बात नहीं। कोई कुछ नहीं कहेगा। मैं ख़ुद आफिस में शराब पीकर बैठा हूं। इसके बाद मैंने अपने एक - दो दोस्तों को फोन किया तो पता चला कि ऐसा हुक़्म उन्हे भी मिला है।

दफ्तर पहुंचा तो देखा बॉस रिसेप्शन पर बैठे हैं। सोफे पर अपने साथ आफिस का सारा फोन लिए हुए हैं। लगातार घंटियां बज रही हैं। वो हर कॉल का जवाब दे रहे हैं। मैंने जाते ही उनसे पूछा- सर , इतनी रात को क्या काम? उन्होने इशारे से ख़ामोश रहने को कहा। फोन रखने के बाद हुक़्म दिया। फौरन पीसीआर जाओ। कमांड अपने हाथ में ले लो। मेरे अलावा किसी की बात नहीं सुनना। जो कहूं , वहीं ख़बर चलाना। और हां, एंकरों को तैयार रखो। आज सारी रात बुलेटिन जाना है। ताम - झाम संभाले मैं पीसीआर पहुंचा।
पर बॉस का संदेसा आया। ध्यान से सुनो। हमने शाम को ख़बर चलाई थी। एक बहुत बड़े शेयर दलाल के घर पर छापा पड़ा है। इनकम टैक्स वाले ख़बर कंफर्म नहीं कर रहे और शेयर दलाल इसे अफवाह बता रहा है। अब तुम ख़बर चलाओ कि हमने जो ख़बर दिखाई , वो ग़लत थी। इसके लिए हम माफी मांगते हैं। हमारा इरादा किसी को आहत करने का नहीं था। मैने बिन मांगे सलाह दे दी। सर- आज तक किसी चैनल ने माफी नहीं मांगी है। दूसरी बात ये कि अगर इनकम टैक्स कंफर्म नहीं कर रहा तो हम ये चलाएं कि हमें जो जानकारी मिली है , उसके मुताबिक़....बॉस ने डंपट दिया। ज़्यादा ज्ञान मत दो। जितना कहा जाए, उतना करो। इसके बाद हमने बड़ी बेशर्मी से कहना शुरू कर दिया कि जो ख़बर हमने आपको दिखाई थी, वो ग़लत थी। ग़लत ख़बर दिखाने के लिए माफी चाहते हैं। फिर नया आदेश आया। माफीनामे की फ्रिक्वेंसी बढ़ाओ। बार - बार माफी मांगो। इसक आदेश के बाद हम एक सेगमेंट में लगभग चार या पांच बार माफी मांगने लगे। अचानक पीसीआर पैनल पर फोन आया। उधर से त्रिचा शर्मा का फोन था। फोन पर भड़क रही थी। पूछी- कहां - तुम्हारा उल्लू का पट्ठा ? भाषा सुनकर चौंका। पूछा- कौन उल्लू का पट्ठा? उसने कहा-तुम्हारा चैनल हेड। मैने फोन ट्रांसफर कर दिया। थोड़ी देर बाद बॉस भागे - भागे पीसीआर आए। कहा- शेयर दलाल का फोनो लो। वो कुछ कहना चाहता है। शेयर दलाल फोन पर आए। चैनल को जमकर कोसा। पत्रकारों को भला -बुरा कहा। ख़बर करने की तमीज़ बताई। फिर अंतरध्यान हो गए। पौ फटने तक हम माफी मांगते रहे। माफी मांगते-मांगते गला सूखा गया था। बॉस ने कहा- बहुत हो गया। अब सब लोग घर जाओ।
रास्ते में सोचता रहा- त्रिचा तो मेरी दोस्त है। वो मेरे साथ काम कर चुकी थी। अब भले ही वो वाइस प्रेसीडेंट बनकर चैयरमैन के साथ काम करती हो लेकिन उसकी ज़ुबान या बर्ताव तो पहले ऐसा नहीं था। ख़ैर , सोचते -सोचते घर पहुंचा। बहुत नींद आ रही थी। सोने से पहले अख़बार बांचना ज़रूरी समझा। अख़बार की पहली ख़बर देखकर मैं उछल पड़ा। हेडर था- मुंबई में शेयर दलाल के घर पर छापा। करोड़ो बरामद । अंदर लिखा था कि शेयर दलाल के पीछे एक बड़े उद्योगपति हैं। वो मैगज़ीन और टीवी चैनलों के मालिक भी हैं। शेयर बाज़ार में उनका बहुत पैसा लगा है। ख़बर पढ़ने के बाद समझ में आया कि इतनी बार माफी क्यों ? डेस्क पर हुक़्म जारी करनेवाले साथी को फोन किया । उसने फोन नहीं उठाया। आज भी जब वो मिलता है तो उसकी आँखें ख़ुद ब ख़ुद झुक जाती हैं।

Wednesday, September 12, 2007

इतनी कुंठा और नकरात्मक सोच क्यों ?

आज के इस दौर में क्या सिर्फ ख़बरें ही बदली हैं ? या फिर ख़बर बनानेवाले भी बदल गए हैं ? आज अपन बात करेंगे टीवी पत्रकारिता की। ज़रा एक बार पीछे मुड़कर देखिए। शायद किसी कोने से अप्पन मेनन, एस.पी.सिंह या अजय चौधरी का चेहरा नज़र आ जाए। एक बार दिल टटोल कर देखिए। शायद किसी हिस्से से वो आवाज़ सुनाई पड़े कि आगा-पीछा देखकर ख़बर चलाओ। हड़बड़ी मत करो।
बात सिर्फ ख़बरों की ही नहीं है। दफ्तर के अंदर और बाहर ऐसे लोगों का कैसा बर्ताव होता था ? घर परिवार पर जब संकट आए तो कंधे पर स्नेह का स्पर्श होता था। अगर कोई बीमार पड़ जाए तो अस्पताल में नोटों की गड्डी के साथ ऐसे लोग खड़े मिलते थे। टीवी पर दिखने के बाद उन्हे भले ही स्टारडम का दर्ज़ा मिला हो लेकिन बर्ताव में वो बेहद विनम्र दिखते थे। वो कहते थे कि यार , ये चमक दमक तो टीवी की देन है। हैं तो ख़ालिस पत्रकार, वो भी बुढ़ापे में अख़बार से आया हुआ। नई विधा को साधने की कोशिश इस उम्र में हो रही है।

टीवी में आज जो कमोबेश चेहरे दिख रहे हैं। वो इस तरह से लोगों के साथ पेश नहीं आते। ख़ालिस टीवी के पत्रकार तो बदनाम हैं ही । सीनियरों की ज़ुबान पर गाहे बगाहे ये बात आ ही जाती है - अरे कभी प्रिंट में काम किया नहीं। अगर किया होता तो इस तरह से नहीं करता। लेकिन ऐसे सीनियरों के मुंह पर ताला लग जाता है जब प्रिंट से आए जवान- ज़इफ पत्रकार भी वहीं करते दिखते हैं।
भारत में जब टीवी न्यूज़ की शुरूआत हुई तब प्रिंट के पत्रकार टीवी वालों को हिकारत भरी नज़रों से देखते थे। कुछ थे जो उसी समय आ गए । पाठशाला जानेवाले बच्चों की तरह टीवी का ककहरा सीखा। फिर टीवी को साध लिया और जम गए। कुछ ऐसे भी रहे , जिन्हे बहुत देर से टीवी की तलब हुई। थैला उठाए चले आए। लेकिन अपने साथ कुंठा , अवसाद औऱ नकरात्मक सोच भी लेते आए। ये सबको आजा़दी है कि वो अपनी मर्ज़ी से टीवी न्यूज़ में आए। लेकिन यहां ऐसे लोगों का ज़िक़्र हो रहा है , जो कल तक टीवीपत्रकारों को मतिमुंड , परले दर्ज़े का बेवकूफ करार देते थे। उनकी ये सोच आज भी नहीं बदली है। आकर उसी जमात के साथ बैठते हैं लेकिन गरियाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते। अपनी कुंठा और भड़ास रह रहकर निकालते रहते हैं। उनकी पीड़ा तब औऱ बढ़ जाती है जब संस्थान में उनसे आधी उम्र के किसी लड़के - लड़की की तनख़्वाह उनसे कहीं ज़्यादा दिखने लगती है। कम उम्र के लड़के -लड़कियों को अपने से बड़ी कुर्सी पर बैठे देखकर बिलबिलाने लगते हैं। फिर ये बताने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते - देखों , फलां को देख रहे हो। उसे मैंने इंटर्न बनाया था। ये बताने के पीछे उनकी ये सोच होती है - देखो, मेरे चेले चपाटे कहां पहुंच गए। लेकिन वो एक बार भी दिल में झांककर नहीं देखते कि वो वहां तक क्यों नहीं पहुंच पाए ? उनमें ऐसी क्या कमी है कि कंपनी के अधिकारी उन्हे इस लायक़ नहीं समझते ?

तक़रीबन सात साल पुरानी बात है। हिंदी अख़बार के एक मंजे हुए रिपोर्टर पत्रकार को एक टीवी चैनल में नौकरी मिली। पद मिला प्रोड्यूसर का। ये दीगर बात है कि उन्हे नौकरी कैसे मिली थी ? बड़े अरमानों के साथ पहले पहले दिन आफिस आए। आते ही चौंक गए। जिन लड़कों को उन्होने निकर में कभी देखा था। उन्हे वो बड़े - बड़े केबिन में बड़ी-बड़ी कुर्सी पर बैठे देख रहे थे। पद- मर्यादा और नक़दी के मामले में कल के छोरे भारी पड़ रहे थे । हालात देखकर उन्हे रोना आ रहा था। उनके दिल में जो बात थी , वो ज़ुबां पर आ गई।बारी आई ख़बर लिखने की। आदत थी अख़बार की। कई पन्नों की ख़बर लिखकर आ गए। न्यूज़ डेस्क को अपनी कॉपी दिखाना शान के ख़िलाफ़ समझा। सीधे चैनल हेड के दरबार में हाज़िर हो गए। उनकी कॉपी देखने के बाद उन्हे सलाह दी गई कि वो टीवी की ज़ुबान सीख लें। इस काम में मदद के लिए उनके साथ किसी को लगाया गया। यही बात उन्हे खटक गई- कल का छोरा मुझे ख़बर लिखने की तमीज़ सिखाएगा। कुंठा बढ़ती गई। ज़ुबान तल्ख़ होती गई। एक दिन ऐसा आया जब वो जिस रास्ते रास्ते से आए थे, उसी रास्ते से लौट गए।
एक ऐसा ही क़िस्सा एक और चैनल का है। प्रिंट के एक सज्जन को बुढ़ापे में टीवी चैनल में काम करने का शौक़ चर्राया। क़िस्मत ने साथ दिया और नौकरी मिल गई। पेशा तो बदल लिया लेकिन अपनी आदत नहीं बदली। टीका - टिप्पणी की आदत बनी रही। दूसरों को टीवी का काम सीख लेने का सबक़ दे रहे हैं। लेकिन उन्हे स्टिंग और मोंटाज का फ़र्क़ नहीं मालूम। न ही वो इसे सीखने के लिए तैयार हैं। उन्हे ये भी नहीं मालूम कि रियल सेट पर क्रोमा या वर्चुअल नहीं हो सकता। लेकिन वो इसे लागू कराने पर आमादा है। शायद किसी दिन सफेद बालों की वजह से एक दिन ये करिश्मा भी हो जाए। अख़बार में बरसों काम किया है। अब टीवी में काम कर रहे हैं। दोनों जगह तो एक ही काम है - लिखना। इसलिए वो तश्चपश्चात, परंतु, हेतु, कदापि शब्दों से बेहद प्यार करते हैं। उन्हे सुप्रीम कोर्ट पसंद नहीं। वो सर्वोच्च न्यायालय लिखने पर ज़ोर देते हैं। उन्हे बीजेपी, बीएसपी , सीपीएम से एलर्जी है। वो माकपा, बसपा को पसंद करते हैं। उन्हे उम्मीद ही नहीं , पूरा एतबार है कि एक न एक दिन सारे लोग इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करेंगे और मरणासन्न शब्दों को नई ज़िंदगी मिलेगी।
वो कहते हैं - सब ' जबरदस्ती भासा बिगार " रहे हैं । उन्हे टीवी पत्रकारों पर भरोसा नहीं। इसलिए डमडमडिगा टाइम्स से टीवी पत्रकारों की नई फौज खड़ी कर रहे हैं।
दोस्तों , ये कहानी भर नहीं है। न ही किसी व्यक्ति विशेष के लिए दुराग्रह है। न ही प्रिंट के लोगों के लिए दिल में कोई मैल। ये लेख इस बहस की शुरूआत के लिए है कि क्या टीवी की पत्रकारिता अख़बारी पत्रकारिता से अलग नहीं है। अगर अलग है तो उस पत्रकारिता को मानने या आत्मसात करने में दिक़्क़त कहां और क्यों है ? उम्र चाहे जो हो, नई विधा को सीखने में परहेज़ क्यों ? उन्हे ये मानने में गुरेज़ क्यों है कि आज की तारीख़ में टीवी पत्रकारिता में ज़्यादातर चेहरे प्रिंट से ही निकले हुए हैं। टीवी का पत्रकार आसमान से नहीं उतरता। उन्हे नई पीढी़ से दिक़्क़त क्यों नहीं होती ? क्या इसलिए कि उन्होने इस विधा को सीख लिया है ? बहस खुली है।

Tuesday, September 11, 2007

ख़बरों से खेलना बच्चों का खेल नहीं !!!

बहुत दिनों से एक मुहावरा सुन रहा था- ख़बरों से खेलना बच्चों का खेल नहीं। ये संवाद सुनकर खुशी हो रही थी। क्योंकि आज के दौर में अब ये मान लिया गया है कि ख़बरें तो बच्चे कर लेंगे। ये फार्मूला अब हर जगह अपनाया जा रहा है। सबकी सोच लगभग ऐसी हो चुकी है कि अनुभव के नाम लंबी चौड़ी टीम खड़ी कर क्यों तिजोरी हलकी की जाए। इस नए मुहावरे ने नई ताक़त दी और ख़बरों में परिपक्वता और अनुभव का अहसास दिलाया। लेकिन दिल्ली की स्कूली टीचर उमा खुराना के स्टिंग आपरेशन के बाद यक़ीन हो गया कि चमकदार मुहावरे से हमें छला गया।
एक स्टिंग आपरेशन में ये दिखाया गया कि दिल्ली की सरकारी स्कूल की एक टीचर छात्राओं से देह का धंधा करा रही है। ख़बर देखने के बाद पीड़ा हुई। ये सोचने पर मजबूर हुआ कि कल जब मेरी औलाद स्कूल में होगा तो उसके साथ क्या होगा? आंख मूदकर अपनी औलाद का भविष्य जिन टीचरों के हाथ में दे देते हैं, वो कल क्या सीख कर निकलेंगे? ये सोच सिर्फ मेरी नहीं थी। बहुत लोगों के ख़्याल ऐसे थे। बहुतों का ग़ुस्सा फूटा। कई स्कूल धमक गए। स्कूल के बाहर टीचर उमा खुराना के साथ हाथापाई की गई। कपड़े तार-तार किए गए। सबकी नज़र में वो स्कूली लड़कियों से धंधा करानेवाली महिला थी। भला हो दिल्ली पुलिस का , जो समय पर धमक गई और खुराना की जान बच गई। सब जगह ये खबर फैल गई। नज़ारा लगभग दंगे जैसा हो गया। भड़के लोगों ने पुलिस तक को नहीं बख़्शा। पुलिस की गाड़ियां फूक दीं। ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं का नारा देनेवाले पत्रकारों ने पुलिसवालों की ख़बर लेनी शुरू कर दी। ये साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि पुलिसवालों को सब ख़बर थी। लेकिन उनकी कोई मजबूरी थी। महान पत्रकारों ने नई विचारधारा देने का दावा भी कर दिया।
असलियत कुछ घंटों में सामने आ गई। स्टिंग आपरेशन ही फर्ज़ी साबित हो गया।पुलिस को पता चल गया कि जिस लड़की को स्कूली छात्रा बताकर देह व्यापार में शामिल बताया गया था , वो असल में रिपोर्टर थी। उसे नौकरी का झांसा दिया गया था। उसके साथ एक लड़का रिपोर्टर भी था। पुलिस ने उसे भी दबोच लिया। इसके बाद मुहावरेवाले भाई साहेब ने अपना पल्ला झाड़ लिया। कहने लगे - सारा दोष रिपोर्टर का है। उसी का सब किया धरा है। वो किसी और चैनल में जब काम करता था तो वहां से स्टिंग चोरी करके ले आया था।
अब सवाल ये है कि क्या ये एक रिपोर्टर की ग़लती थी?क्या वो किसी का मातहत नहीं था ? क्या दफ्तर बैठे सफेद बालों वाले संपादक प्रजाति के प्राणि लोग सिर्फ एसी का हवा खाने आते थे ? क्या चैनल में ब्यूरो चीफ नहीं होता ? खबर चलाने से पहले किसी ने सच्चाई पता करने की कोशिश नहीं की ? किसी और चैनल का स्टिंग उठाकर अपने चैनल में चला देना नैतिकता है ? क्या ख़बर से खेलने से पहले अनुभव का इस्तेमाल नहीं किया गया ? या बच्चों को ख़बरों से खेलने का मौक़ा दे दिया गया ? या फिर उस मैनेजमेंट का दोष है, कम लागत में ज़्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में अनुभवहीन लोगों की फौज खड़ा करती है। ऐसे पदों पर लाकर बच्चों को बिठा देती है , जिस पर अगर कोई अनुभवी व्यक्ति बैठे तो इस तरह की चूक न हो। एक छोटी सी ग़लती की सज़ा उमा खुराना को,उसके घरवालों और रिश्तेदारों को, समाज को और हर मां बाप को नहीं मिलती। टीआरपी पाने के लिए ऐसी ओछी हरकत नहीं की जाती और अपनी ग़लती छिपाने के लिए तरह तरह के तर्क नहीं गढ़े जाते। एक व्यक्ति से हुई ग़लती की सज़ा पूरे क़ौम को , पूरी बिरादरी को नहीं मिलती। मीडिया पर अंकुश लगाने का बहाना खोज रहे कुछ नेताओं और अफसरों को बैठे बिठाए हल्ला मचाने का मौक़ा मिल गया। पत्रकारों और स्टिंग आपरेशन पर जनता जो एतबार कर रही थी , वो पल भर में मटियामेट हो गया। सवाल ये है कि किसी एक व्यक्ति या कंपनी की ग़लती की सज़ा पूरी बिरादरी को क्यों मिलनी चाहिए। ग़लती जिसने की है , सज़ा भी उसे मिले। लेकिन एक केस के बुनियाद पर स्टिंग आपरेशन को ही कटघरे में खड़ा कर देना कहां तक जायज़ है ? पुलिस के पास अगर दोषियों के ख़िलाफ़ सबूत हैं, तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करे।
सबसे अहम सवाल ये है कि जिन लोगों ने अपने फायदे के लिए स्कूली टीचर उमा खुराना की मिट्टीपलीद कर दी, उनके साथ क्या सलूक किया जाए। क्या समाज उन पत्रकारों को वहीं सज़ा देने की हिम्मत औऱ हैसला रखता है, जो उसने उमा खुराना को दी थी ? ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं का नारा देनेवालों के कपड़े भी तार तार करने के लिए समाज तैयार है ? क्या एक या दो रिपोर्टर को सज़ा देकर या उन्हे सस्पेंड करके अधिकारी दोषमुक्त हो सकते हैं ? क्या अधिकारी इस सवाल का जवाब दिल पर हाथ रखकर दे सकता है कि अगली बार जब किसी कुकर्मी, बेइमान, भ्रष्ट अफसर या नेता या पुलिस वाले की पोल पट्टी खोलने के लिए स्टिंग आपरेशन किया जाएगा तो जनता उस पर भरोसा करेगी या नहीं ? अगर नहीं तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को मज़बूत बनाने में जिन लोगों ने अपना ख़ून पसीना बहाकर और पुलिस - सरकार के हर जुल्म सहकर जो आदर्श औऱ सिद्धांत अगली पीढ़ी को सौंप गए थे, उसकी बरबादी की ज़िम्मेदारी किसकी होगी ?समय आ गया है कि लोग अपनी ग़लती का अहसास करें। अपनी ग़लती किसी और पर न थोंपे। क्योंकि समाज ये बरसों से जानता है- ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं ।

Saturday, August 25, 2007

इ है शिव की नगरिया , तू देख बबुआ

एक ब्लॉग पर अपने " परम " राजकमल और अनिल पांडेय का एक लेख पढ़ा। इस लेख पढ़ने के बाद लगा कि बनारस के बदलने की कहानी ने इस क़दर दिल को चोट पहुंचाई है कि रग़ों में बहनेवाला ख़ून अब रास्ता बदलकर बाहर निकल रहा है। बनारस के बदलने पर राजकमल के आंखों में उतर आए ख़ून के भाव पढ़ने के बाद मुझे ये लगा कि आइना दिखाया जाए। राजकमल औऱ पंडित अनिल लिखते हैं कि बनारस पूरा बदल गया। अब पहले जैसी बात नहीं रही। मैं उन्हे ये बताना चाहता हूं कि बनारस नहीं बदला। अगर कुछ बदला है तो उनकी नज़र। और कुछ नहीं।
अभी हाल में बनारस हो कर लौटा हूं। जिस बात के लिए बनारस मशहूर और बदनाम दोनों हैं, वो सारे गुण - अवगुण मुझे बनारस मिले। बनारस के घाटों के किनारे पंडितों के बने गेस्ट हाउस और लॉज उसी ठसक के साथ चल रहे हैं। गोरी चमड़ी के सामने रिरयाते लोग अब भी दिखते हैं। शुरूआत करता हूं बनारस के उस क़स्बे से, जो कालीन बनाने के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है।
उस क़स्बे में समसू चच्चा अब भी रहते हैं। हां, अब काफ़ी बूढे हो गए हैं। चश्मे का शीशा औऱ मोटा हो गया है। बाल तो पहले से सफ़ेद थे ही, अब झुर्रियां भी लटकने लगी हैं।बचपन में उन्हे एक झोपड़ी में पूरे परिवार के साथ रहते देखा था। ये क़रीब उनतालीस साल पहले की बात है। झोपड़ी अब भी है। हां, थोड़ी बहुत उसकी शक़्ल बदल गई है। झोपड़ी के सामने प्लास्टिक की चादर तानकर एक और कमरा बना दिया गया है। इसे बनाने में बहुत ज़्यादा ख़र्च नहीं आया होगा। ख़ैर , ये ख़र्च उठाने की ताक़त समसू चच्चा में अब नहीं है। वो तो भला हो समाज सुधारकों का , जिनकी नज़र चुनाव के समय समसू चच्चा पर पड़ी। ग़रीबी पर तरस आया। आख़िर ग़रीबी मिटाने का नारा लेकर ही वो सड़क पर उतरे हैं। इसलिए समसू चच्चा की क़िस्मत बदल गई है। घर के बाहर ही चांपाकल (हैंडपंप) लग गया है। अब चच्ची को पानी भरने पांडे चाचा के दुआरे नहीं जाना पड़ता और न ही लाइन में लगकर किसी की बक बक झक झक सुननी पड़ती है। इसलिए चच्ची भी बहुत ख़ुश है। चच्ची खुश है तो चच्चा भी ख़ुश है और उन साइकिल वालों को ख़ूब दुआएं देते हैं, जो बुढ़ापे में सही- झोपड़ी का विस्तार , चांपाकल का मज़ा और नगरपालिका की हुड़की से दूर रख गए।
साइकिलवालों की नज़र चच्चा पर तब पड़ी, जब उन्हे ख़बर लगी कि चच्चा जुलाहे हैं और उनके ख़ानदान में ही कम से कम डेढ़-दो सौ वोट है। लेकिन साइकिल वाले भी आख़िर कितना करें। चच्चा की ग़रीबी तो पूरी तरह से नहीं मिटा सकते। ताउम्र कालीन बुन कर चच्चा ने चार बेटियों की शादी कर दी। पांच बेटे को पढ़ाने की बहुत कोशिश की। लेकिन वो बचपन से ही इस ज़िद पर अड़े थे कि हाथ में कुछ भी थामकर ज़िंदगी काट लेंगे लेकिन कलम नहीं थामेंगे। पांच बेटों में से एक बटय्या पर खेती करता है। चौथा वाला बेटा कमरू अब्बा के साथ काम करता है। बाक़ी तीन बेटे कलकत्ता जाकर किसी जूट मिल में नौकरी करते हैं। साल में जब दो तीन बार कोलकाता में मज़दूरों के लिए क्रांति लाई जाती है, तो उन दिनों वो बेरोज़गार हो जाते हैं। फिर उन्हे याद आती है अब्बू की और वो उनसे मिलने बनारस चले आते हैं।
आजकल चच्चा फिर परेशान हैं। निज़ाम की बड़ी बेटी शहीदा बड़ी हो गई है। कई जगहों पर शादी की बात चलाई। लेकिन कमबख़्त लड़केवाले अब दहेज में पल्सर मोटरसाइकिल मांग रहे हैं। दहेज में अपनी बेटियों को हरकूलियस साइकिल देकर थक चुके हरचच्चा अब बुढ़ापे में पल्सर लाएं तो कहां से ? बेटों से मदद मांगने जाते हैं तो मायूसी ही हाथ लगती है। जूट मिलवाले बेटे ये कहते हैं कि अब्बू अब तुम ही कुछ करो। शहर में कमाई कम है और ख़र्चा ज़्यादा। अब आप ही हो आसरा। गांव वाला बेटा कहता है कि इस बार मौसम ने दग़ा दे दिया। अब क्या करें। चच्चा मन ही मन गाली बकते रहते हैं- जिसे मैंने पैदा किया, उसे तो पार लगा दिया। लेकिन अब बेटों के भी औलादों को भुगतो।
कुलमिलाकर समसू चच्चा की ज़िंदगी औऱ घर परिवार वैसे ही चल रहा है, जैसे कि बरसों पहले
चच्चा क्या - दियरा में रहनेवाले रामसरेखन की हालत कहां बदली है। हां पहले उसकी ज़िंदगी रामनगीना सिंह के ओसारे में बीती है। अब ज़िंदगी थोड़ी सी बदली है। जब से हाथी की सवारी की है तब से थोड़ी ज़िंदगी बदली है। पहले लोग उसे रामसरेखना कहकर बुलाते थे। अब लोग थोड़ी इज्ज़त से बुलाते हैं। उसे रामसरेखन मूसहर कहते हैं। रामसरेखन पहले भी मूस यानी चूहा पकड़कर खाता था। अब भी खाता है। लेकिन चुनाव - उनाव को जब मौसम आता है, तब उसकी चांदी हो जाती है। कई बार महुआ के अलावा अंग्रेज़ी शराब भी हाथ लग जाती है। हाथीवाले बड़े शान से इलाक़े में बताते हैं कि देखिए रामसरेखन को - पहले की ज़िंदगी और अब की ज़िंदगी में कितना बदलाव आया है। रामसरेखन खुश है, बिरादरी भी और घर के लोग भी। डीआईजी कॉलोनी में रहनेवाले प्रोफेसर गिरीश कुमार सिंह की भी ज़िंदगी नहीं बदली है। वो आज भी पुरानी स्कूटर पर नाती पोतों के साथ कचहरी जाते हैं। झुल्लन की दुकान से लाल पेड़ा ख़रीदते हैं। पहले वो अपनी बेटियों और दामादों के लिए लाल पेड़ा लाते थे। अब लाल पेड़े पर हक़, गुट्टू,चिंकी और अंश का होता है। आज बी वो बस उतने ही बजे आती है, जैसे पहले । अब भी वो बस में सवार होकर सुबह सुबह ग़ाज़ीपुर पढ़ाने जाते हैं। सफ़र में अब भी वैसे ही लोग दिखते हैं, जिन्हे वो बरसों से देखते आ रहे हैं। आज भी मिट्ठू मियां अपने दोस्तों के साथ हवाखोरी करने निकलते हैं।
अगर बनारस में कुछ बदला है तो मुहब्बत करने का अंदाज़। पहले लोग साम झलते ही घाट किनारे जाते हैं। जोड़ों को देखने के लिए लहेड़ों की झुंड उमड़ती थी। अब शहर में एक नया मॉल खुला है। अब इस मॉल में जोड़ों की भीड़ जुटती है। मॉल वालों की भी चांदी हो गई है। वो मॉल में घुसने के बदले में पैसे लेते हैं और वो भी टिकिट देकर। चौका घाट पर अब भी भांग छनती है। आज भी बनारस के उन घरों से घुंघरू की आवाज़ आती है। लेकिन इन जगहों पर अगर नहीं दिखता तो वो चेहरे, जो बरसों तक इन इलाक़ों के लिए बहुत जाने पहचाने थे। लोग बताते हैं कि ये चेहरे अब छोटे शहरों में नहीं दिखते। उन्हे अगर देखना हो तो दिल्ली- मुंबई का रूख़ कीजिए। बनारस के घाट घाट का पानी पी चुके इन इलाक़ों में दिखनेवाले नए चेहरे भी देर सबेर बड़े शहरों में दिखेंगे। आहें भरेंगे । कहेंगे कि बनारस में पहले जैसी बात नहीं रही। लेकिन उन्हे कौन समझाए- रांड, सांढ़, सीढ़ी, सन्यासी और इससे बचे तो सेवे काशी।

Wednesday, July 25, 2007

पत्रकार पर हमला यानी देश पर हमला

अभी हाल की बात है। दो टीवी चैनलों के पत्रकारों को दिल्ली के कनॉट प्लेस में कुछ मनचलों ने धुलाई कर दी। हुआ यूं कि कुछ रईसज़ादे अपनी आदत और शगल के मुताबिक़, आधी रात के बाद हवाखोरी करने निकले। ये मनचले रईसज़ादे हर शनिवार और रविवार की आधी रात के बाद दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस पर राज करते हैं। दो पहियों पर सवार होकर मस्ती करते हैं। कलंदरों की तरह हरकत करते हैं। बाइक को हवा में उछालते हैं। खड़े होकर मोटरसाइकिल चलाते हैं। इसी में इन्हे आंनद आता है। कई बार हल्की फुल्की झड़प भी होती है।
पर हवाखोरी करनेवालों का ताल्लुक़ किसी रिक्शेवाले या पानेवाले के ख़ानदान से नहीं होता। बड़े घरों के औलाद होते हैं। शौक़ भी बड़े होते हैं। आधी रात की मस्ती के लिए सुरूर के जाम में डूबे होते हैं। सुरूर जब सिर चढ़कर बोलने लगता है तब गोलियां दागने में भी पल भर की देरी नहीं लगाते। बाली उम्र है। बाइक के साथ ज़ंजीर, सरिया ,रॉड, हाकी स्टिक औऱ लाठी से लैस रहते हैं। ये सब ख़ाकी वरदी के सामने होता है। लेकिन ख़ाकी वर्दी भी करे तो क्या करे ? आख़िर ख़ाकी और खादी ने ही तो इन्हे इतना ताक़तवर बनाया है। वरना हमारी- आपकी ये हिम्मत हो सकती है कि इस तरह से खुलेआम सड़क पर निकल पड़े। अख़बार बताते हैं कि अगर आप अपनी बहन बेटी को भी कहीं छोड़ने जाएं तो पुलिस वाले ख़बर ले लेते हैं। अगर वर्दी वाले भी सुरूर में हों तो छेड़छाड़ भी करने का अधिकार रखते हैं। आज के अख़बारों में छपी ख़बर इस बात को सच साबित करती हैं। बहरहाल , ख़बरिया चैनलों के तुरत फुरत पत्रकारों को ख़बर लगी तो उन्हे लगा कि बड़ा स्कूप हाथ लग गया है। शायद ऐसी घटना देश की राजधानी में पहली बार हो रही है। मनचलों ने भी शुरू में ख़ूब कॉपरेट किया। कलंदरों की तरह उछल कूद मचाते रहे और रिपोर्टर उसे शूट करता रहा। अचानक दोनों के बीच तालमेल लड़खड़ाता है और मनचलों की टोली पत्रकारों की धुलाई कर देती है।मनचलों को ख़लल इतना नागवार गुज़रा कि कुछ पुलिसवालों की भी धुलाई कर दी। फिर पल में सारा सुरूर काफूर हो जाता है। देखते ही देखते मनचलों की टोली नौ दो ग्यारह हो जाती है। बस चालीस- पचास धरे जाते हैं। अब तक इसे मस्ती मान रहे लोगों को अचानक ये सब गुंडागर्दी लगने लगता है। अपनी पहचान और वजूद बचाने की कोशिश में लगे एक चैनल के अधिकारियों ने अस्पताल जाकर आसमान सिर पर उठा लिया। एक क़ौम विशेष को निशाना बनाकर ग़ुस्से में बयानबाज़ी करने लगे। वहां भी नोंक झोंक हो गई। गनीमत थी कि उस क़ौम विशेष के कुछ लोग समझदार थे। दो टूक कह दिया - पांचो उंगलियां एक जैसी नहीं होती। दोषी को सज़ा दो, पूरे क़ौम को नहीं । बहरहाल , उस चैनल ने अपनी भूमिका बदली और वो अदालत बन गया। सुबह से ख़बरें चलनी शुरू हो गईं। सड़क पर गुंडागर्दी, गुंडाराज , पुलिस की नाकामी और लाचारी जैसे विशेषणों के साथ ख़बरें दिखाई जाने लगीं। पूरी बिरादरी ने इस घटना को लोकतंत्र और देश पर चोट माना। बयान आने लगे। आख़िर देश लहुलूहान हो रहा था। ये मनचले जो इतने बरसों से दिल्ली की सड़कों पर खुलेआम राज कर रहे थे, खटकने लगे। इन मनचलों ने इतने बरसों तक आम लोगों को तंग किया था वो हिंदी सिनेमा की तरह फ्लैश बैक की तरह दिखने लगा। हां तब इन मनचलों ने देश या लोकतंत्र पर वार नहीं किया था। ये तो इस बार हुआ था। लिहाज़ा जनहित में सभी सहमत चैनल हो गए। सबके कैमरे उन घरों में पहुंच गए, जो बरसों से इनकी मनमानी से तंग आ चुके थे। ख़ाकी वर्दी से फरियाद कर करके थक चुके थे। कैमरे की चमक ने उनकी आंखे खोल दी। उन्हे लगने लगा - अब पाप का अंत होगा। क्योंकि वो आम आदमी थे। आम आदमी की ताकत भी आम होती है। उसकी आवाज़ भी आम होती है। इस बार इन मनचलों ने सीधे देश पर हमला किया है। देश यानी लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला। इस स्तंभ में जार्ज बुश की तरह ताक़त है। सद्दाम हुसैन जैसी आवाज है। लिहाज़ा अब इंसाफ मिलेगा। देश के बाइट मंत्री ने भी भरोसा दिला दिया। दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्रवाई होगी। दोषियों को बख़्शा नहीं जाएगा। जांच की जाएगी। ये बाइट मंत्री का भरोसा है। शांति बनी रहेगी। किसी पत्रकार पर हमला नहीं होगा। होगा भी तो ख़ाकी चौकन्नी रहेगी। ये खादी का हुक़्म है। आख़िर ये देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है। अब लोगों का तो पता नहीं लेकिन इस बात की गारंटी है कि लोकतंत्र महफूज़ रहेगा।

Friday, July 13, 2007

एक था अंगद

ये कहानी मेरे एक दोस्त की है, जो मैंने किसी और दोस्त की ज़ुबान से सुनी है। कोलकाता में मेरे एक मित्र है गुड्डू उपाध्याय। वैसे मां बाप ने बचपन में उनका नाम उनका स्वभाव देखकर कर रखा था- सिद्धार्थ। लेकिन ज्यों ज्यों वो बड़े होते गए वो अपने नाम की सार्थकता को भूलते गए। उनकी पढ़ाई लिखाई कोलकाता के मशहूर स्कूल कॉलेजों से हुई है। बात उन दिनों की है जब वो क्लास आठ या नौ में पढ़ते रहे होंगे। उस दौरान उनके मित्र मंडली को जॉगिंग का शौक़ चर्राया। दोस्तों ने तय कर लिया कि कल सुबह से जॉगिंग पर निकलना है। मित्र मंडली में अंगद पांडे भी थे। उनके पिता कोलकाता पुलिस में हवलदार थे। तनख़्वाह की बात करें तो उनके बेटे को उस स्कूल में पढ़ने की हैसियत नहीं थी। लेकिन भला हो कोलकाता में फल फल रहे मार्क्सवाद की कि उनके पिता ने अपने बेटे को पालने पोसने के लिए कभी तनख़्वाह की परवाह नहीं की। नेताओं और मंत्रियों के साथ घूमने फिरनेवालों के कर्मकांडों के भरोसे उनके घर में राम राज था। रहनेवाले बिहार के छपरा थे। पत्नी गांव में ही रहती थीं। ख़ैर में भटक गया था। बात अंगद की हो रही थी। दोस्तों ने तय किया कि जब जॉगिंग ही करनी है तो क्यों न ट्रैक सूट ख़रीद ली जाए। लिहाज़ा अगले दिन से सभी दोस्तों ने न जॉगिंग की शुरूआत कर दी। कई दिनों तक एक ही रास्ते पर कसरत करने के बाद सब का जी भर गया। अंगद पाड़े ने सलाह दी कि कल से उनके इलाक़े में जॉगिंग हो। सैर के साथ साथ आंखों को सुकून मिलेगा। अगल दिन सभी मित्र सुबह सुबह अंगद पांड़े के घर धमक गए। एक साथ इतने सारे लड़कों को देखकर अंगद पांड़े के पिता घबरा गए। उन्होने पूछा- का जी, एतना बिहाने केन्ने निकल रहे हो। मंडली में सबसे समझदार गुड्डू ने मोर्चा संभाला। अंकल , आजकल हम लोग सेहत बना रहे हैं। वो घर के बरामदे में कंधे पर लाल गमछा रखकर हिंदी अख़बार पढ़ रहे थे। अचानक उठकर खड़े हो गए। तोंद पर हाथ फेरते हुए आवाज़ लगाई- ए अंगद, तुम्हरा दोस्त लोग आया है जी। आके मिल लो। जॉगिंग सूट में अंगद को बाहर निकलते देख उसके पापा की आंखें हैरत से फैल गई। पूछा- का जी, कहवां जा रहे हो। पाप, जॉगिंग करने जा रहा हूं। पापा- जागिंग करके का होता है। अंगद- पापा, सेहत बनती है। पापा- ...... सेहत बना के ...... करोगे। अचानक अंगद के पिता के तेवर बदल गए। बस कमी थी उनके बदन पर कोलकाता पुलिस की वर्दी की। शेर की तरह झपट्टा मार कर अंगद को बरामदे में गिरा दिया। लात घूंसों से अंगद की पिटाई करने लगे। सभी दोस्त सकते में थे। अचानक ये क्या हो गया। तभी अंगद के पिता पिटाई के साथ साथ रामलीला शैली में संवाद भी करने लगे। गुड्डू से पूछा- सिगरेट, बीड़ी पीते हो। गुड्डू- नहीं अंकल। इ साला पीता है। दारू , बीयर पीते हो। गुड्डू- नहीं , अंकल। इ साला पीता है। गांजा , भांग खाते हो। गुड्डू- नहीं , अंकल। इ साला सब करता है। जॉगिंग का भूत सबके सिर से उतर चुका था। दोस्तों के सामने पिता से लात जूता खाकर अंगद सिर झुकाए खड़ा था। समय के साथ सभी दोस्त इस हादसे को भूल चुके थे। अब सभी दोस्त कॉलेज पहुंच चुके थे। लेकिन उसी समय गुड्डू के अंदर खोजी पत्रकारिता का कीड़ा कुलबुलाया। उसे अंगद की घटना याद आई। खोजी पत्रकार गुड्डू ने सनसनीख़ेज़ ख़बर दोस्तो को दी। दरअसल,बहुत दिनों से पत्नी सुख से वंचित अंगद के पिता की दोस्ती कोलकाता की एक भद्र महिला से हो गई थी। दोनों बेहद क़रीब हो गए थे। जब इस बात की भनक अंगद को लगी तो उसने अपने अंदाज़ में अपने पिता को रास्ते पर लाने का फ़ैसला किया। उसने भी उसी महिला से दोस्ती कर ली। वो दोनों बेहद क़रीब हो चुके थे। जब इस बात की भनक उसके पिता को लगी तो वो भड़क गए। अपने बेटे को सबक सीखाने के लिए बहाना खोजने लगे। उन्हे ये मौक़ा बैठे बिठाए जॉगिंग के भूत से मिल गया। उस दिन उन्होने अपनी भड़ास निकाल ली। सुना है कि अंगद के पिता रिटायर होने के बाद छपरा में अपनी पत्नी के पास हैं। और अंगद.... वो अब दो बच्चों का बाप है। जब भी पुराने दोस्तों से मिलता है तो बस इतना ही कहता है... यार , उस दिन की मत करो यार....अब मैं बाल बच्चेदार आदमी हूं। बीवी को ख़बर लग गई तो घर में कोहराम हो जाएगा। प्लीज़ यार......

Thursday, July 12, 2007

हड़बड़ी और गड़बड़ी

हम सभी अपने अपने काम में लगे थे। अचानक न्यूज़ रूम में हड़कंप मच गया। रिपोर्टर ने ख़बर फ्लैश की थी- संसद पर आतंकवादी हमला। पल भर में न्यूज़ रूम में अफ़रा तफरी का माहौल। हम सभी पीसीआर( प्रोडक्शन कंट्रोल रूम ) भागे। समाचार संपादक अपने रिपोर्टर पर बरसने लगा। फौरन वॉकथ्रू करके भेजो। सबसे तेज़ होना है। रिपोर्टर फौरन संसद भागा। फोन पर वो बताने लगा। संसद में कई आतंकवादी घुस आए है। दनादन गोलियां दाग रहे हैं। सुरक्षाकर्मी भी इधर उधर भाग रहे हैं। सभी नेता सुरक्षित है। कुछ नेता फलां मंत्री के कमरे में छिपे हैं। फिर ख़बर आई। सुरक्षाकर्मियों ने आंतकवादियों को घर लिया है। बच के निकलना उनका मुश्किल है। संसद के अंदर जान बचाते भागे भागे फिर रहे नेताओ के फ़ोन पल भर में आन हो गए। वो भी बताने लगे कि अंदर क्या हो रहा है। दोपहर बाद ख़बर आनी शुरू हो गई - एक एक कर आतंकवादियों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। संसद से टेप आने लगा था। उस पर आदर्शवादी पत्रकारिता की मुहर लाइव का बग लिखकर दिखाया जाने लगा। रिपोर्टर ने फोन पर चहक कर बताया। सभी आतंकवादी मारे जा चुके हैं। वो आख़िरी सीन था- जब असलहों से लदे बैग को लेकर एक आतंकवादी गिर पड़ा औऱ सुरक्षाकर्मियों की गोलियां उसे छलनी कर रही थीं। संपादक बार बार अपने रिपोर्टर को कह रहा था- संभल कर रहना। एहतियात बरतना। इस भागमभाग में किसी ने उस कैमरामैन की सुध नहीं ली , जो जान पर खेलकर रीयल लाइफ़ को रील लाइफ में बना रहा था। थोड़ी देर में सब कुछ शांत हो गया। एक समाजवादी नेता अपनी नई पजेरो कार को दिखा कर बता रहे थे- गोलियों से गाड़ी कैसे छलनी हो गई है। लेकिन चेहरे पर विजयी मुस्कान थी। देश के नाम लाखों रूपयों की गाड़ी क़ुर्बान करने की। तभी पीसीआर में फोन की घंटी घनघना उटती है। कैमरामैन चीख पड़ता है- आतंकवादियों के चेहरे की तस्वीर सिर्फ उसी ने क़ैद की है। दोपहर में ही वो फुटेज भेज चुका है। फिर वो शॉट क्यों नहीं दिखा रहे। इतने सुनते ही फिर से भागमभाग शुरू हो गई। आपरेशन- टेप खोजो अभियान। बॉस सबको गालियां बक रहा था। किसी को एक्सक्लूसिव फुटेज की अहमियत नहीं नहीं मालूम। ये फुटेज दिखाकर चैनल रातों रात बुलंदी छू सकता है। तभी चपरासी भागते हुए टेप लेकर आता है। सर- ये टेप। बॉस फिर उबल पड़ता है। ये टेप किसके पास से मिली। उसे लात मार कर आफिस से निकाल दो। उसे फुटेज की अमहमियत नहीं मालूम। उसे ख़बर की तमीज़ नहीं। चपरासी घिघयाते हुए सफाई देता है- सर , ये आपके टेबल से लेकर आ रहा हूं। बॉस हक्का बक्का। फिर संभला। बस इतना ही कहा- ख़बर आते ही वो ख़ुद पर कंट्रोल नहीं रख पाए। पीसीआर औऱ न्यूज़ रूम के बीच भागमभाग करते रहे। ऐसे प्रेशर में उन्हे ये टेप कब औऱ कैसे दे गया- याद नहीं रहा। वो पीसीआर से बाहर निकलते हुए आदेश दे गए- ये एक्सक्लूसिव फुटेज सभी चैनलों को दो। ये देश हित में है। सभी एक दूसरे का चेहरा ताक रहे थे।

टीवी का पहला पाठ

न्यूज़ रूम मेरी मुलाक़ात रिद्धि शतपथी से हुई। सुंदर थी। हिंदी चैनल के दफ़्तर में उसे हिंदी बोलने में कठिनाई होती थी। बहुत बाद में पता चला कि उसे हिंदी से तकलीफ़ क्यों होती है। समय के साथ हमारे बीच संवाद क़ायम हुआ। तब जाकर पता चला कि देवनागरी में वो अपने नाम की वर्तनी नहीं लिख पाती है। इस दौरान ख़बरों को लेकर मालिकानों के साथ मेरे संबंध बिगड़े। उन्हे पार्टी विशेष से लगाव था। मेरे लिए सब धान बाइस पसेरी। वो मालिकानों की प्रिय थी। मुझे कहा गया कि अब से उसे रिपोर्ट करो। मैंने उसे साथ काम करना शुरू कर दिया। लेकिन वो मेरे साथ सहज नहीं थी। बात बात पर झिड़कना, कई लोगों के बीच मुझे ज़लील करना- अब ये उसकी आदत थी। एक दिन सब्र का प्याला छलक गया। मैंने तुनक कर कहा- जिस दिन सूरत ढल जाएगी, उस दिन से सीरत की क़द्र होने लगेगी। ज़ाहिर ये बात उसे नागवर ग़ुज़री। मेरी शिकायत हुई। डांट पड़ी सो अलग। समय बीतता गया। मालिकानों से मेरे रिश्ते सुधरने लगे। उसे अहसास हो चुका था कि ये दूरी किसने औऱ क्यों बढ़ाई हैं। मेरा तबादाला फिर से न्यूज़ में कर दिया गया। एक दिन मैंने उस संस्थान की नौकरी छोड़ दी। वो तब भी वहां बनी रही। मालिकों को उस पर बहुत नाज़ था। वो खुलकर कहते थे- इस चेहरे की वजह से उनका बुलेटिन हर घर में देखा जाता है। एक दिन मालिक का नाज़ टूट गया। उसने मालिकों का साथ छोड़ दिया। उसे दूसरे सेठ ने ज़्यादा पैसे दिए। तब से वो अब उस चैनल की शान है। एक दिन उसे उसी चैनल पर हिंदी में कविताएं पढ़ते देखा। कविता में दर्द था। उसे स्कूली बच्चों के मारे जाने की ख़बर रूला रही थी। आंखों में आंसू थे। चेहरा ग़मगीन था। उसे अब ख़बरें विचलित करने लगी हैं। मुझे याद आता है उसका ये कहना- आई एम नॉट ए जर्नलिस्ट।एंड आई डोंट वांट टू बी जर्नलिस्ट। अब मैं उसके इस नए चेहरे के पीछे चेहरे को तलाशता हूं। क्या अब उसने मुखौटा पहन लिया है या जो मैंने बरसों पहले चेहरा देखा था- वो मुखौटा था। ये बदलाव की पहली कड़ी है।