Tuesday, October 23, 2007

अब स्वेटर में वो मुहब्बत कहां ?

इस दशहरे में वैसी सर्दी महसूस नहीं हुई जो पहले हुआ करती थी। बात बहुत पुरानी है । दुर्गा पूजा की शुरूआत होते ही फिज़ा में गुलाबी सर्दी दस्तक दे देती थी। ये सिलसिला बचपन से लेकर जवानी तक चला। लेकिन जब से काली दाढ़ी पर सफेदी ने दस्तक दी है , तब से सर्दी में भी गरमाहट महसूस होने लगी है। तब मैं कोलकाता में रहता था। लंगोट में रहकर दुर्गा पूजा की संस्कृति सीखी। इस सीख का नतीजा था कि अब तक लंगोट का पक्का हूं।
सत्तर के दशक की बात है। दुर्गा पूजा की शुरूआत होते ही बाबा थान का थान ख़रीद कर लेकर आते थे। घर में बच्चों की लंबी चौड़ी फौज थी। चचेरे-ममेरे- फूफेरे भाई -बहनों की संख्या लगभग तीस पैंतीस थी। घर पर दर्ज़ी आता था। सब भाई -बहनों का माप लेता था। शाम को हम दुर्गा पूजा देखने पंडालों में जब निकलते थे , तो पूरा बंगाली मुहल्ला हमें देखता था। हमें शर्म आती थी। लेकिन बाबा की डपट के आगे सबकी घिघ्घी बंध जाती थी। लोग हमें हैरानी से देखते थे। क्योंकि हम सब बैंड पार्टी की तरह दिखते थे। लेकिन बाबा को ख़ुशी मिलती थी, हम सबको को एक ही तरह के कपड़ों में देखकर। ख़ैर , यहीं तक गनीमत थी। क्योंकि हमें स्वेटर अलग अलग रंगों और डिज़ाइन के मिलते थे। वरना दुर्गा पूजा क्या , पूरी सर्दी बैंड पार्टी की तरह गुज़र जाती। वैसे , दिल्ली की तुलना में कोलकाता में सर्दी कम पड़ती है। ये अहसास दिल्ली में बसने के बाद हुआ। लेकिन उस वक़्त वही हल्की सर्दी हमें बहुत भारी पड़ती थी। शारदोत्सव की आहट आते ही हर घर में ऊन और बुनाईवाले कांटें यानी सिलाई बाहर निकल आती थी। ललुआ की दुकान से ऊन के गोले ख़रीद कर आते थे। मां के पास झाड़ू - पोंछा और चूल्हा -चौकी से फुर्सत नहीं होती थी। इसलिए स्वेटर बनाने का काम आजी, बुआ औऱ पड़ोसिनों का होता था। कोई बांह बनाना शुरू करता था। कोई पीठ बनाना शुरू करता था। कोई सामने वाले हिस्सा बनाना शुरू करता था। सबकी अपनी अपनी पसंद होती थी। हर तीसरे -चौथे रोज़ कोई न कोई बुला लेता था माप लेने के लिए। किसी को स्वेटर में एक ऊंगली बड़ी लगती थी तो किसी को डिज़ाइन में वो रंग नहीं फबता था। एक बार फिर उधेड़ा जाता था। फिर गोले बनते थे। फिर सिलाई शुरू होती थी। दस -बारह दिनों में स्वेटर बन कर तैयार हो जाता था। सर्दी की शुरूआत में कट्टी बांह यानी हाफ स्वेटर मिलता था। नवंबर में पूरी बाजू की स्वेटर पहनने को मिलती थी। क्योंकि दुर्गा पूजा के बीतते ही पटाखे फोड़ने की तैयारी होती थी। पटाखे फूटने के बाद छठ पूजा की शुरूआत हो जाती थी। ये पूजा दरिया के किनारे होती है। ढलते सूरज और उगते सूरज की पूजा के लिए दरिया के किनारे खड़े होने पर ठिठुरन ज़्यादा होती थी। इसलिए फूल स्वेटर के साथ साथ ऊनी मफलर भी बनता था। मुब्बत के धागों से बने स्वेटर और मफलर में जो गरमाहट महसूस होती थी , वो आज मय्यसर नहीं। इन्ही कपड़ों के साथ दिल्ली आया। टेलीविज़न की नौकरी शुरू की। नया -नया रिपोर्टर बना था। फिर आया सर्दी का मौसम।
कलकतिया स्वेटर और मफलर में दफ्तर गया। शूट पर जाने का असाइनमेंट मिला। प्रोड्यूसर ने बुलाकर स्वेटर बदलने की हिदायत दी। उसकी नज़र में कढ़ाई बुनाई वाला स्वेटर डाउन मार्केट था। मैने विनम्रता से पूछा - इसमें क्या ख़राबी है। पास पड़ोस में खड़ी अप मार्केट लड़के लड़िकयों ने ठहाके लगाने शुरू कर दिए। तब अहसास हुआ कि ग्लैमर की दुनिया औऱ कांक्रिटों के जंगलों में मुहब्बत की कोई क़ीमत नहीं होती। बाज़ार से मांटो कार्लो, ली कूपर और ली के कई सारे स्वेटर ख़रीद लिए। लेकिन वो गरमाहट नहीं मिली।
अब शादी शुदा बाल बच्चेदार आदमी हूं। मेरी बीवी नेहा मेरी नज़र में दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत महिला है। सर्दी के मौसम में वो मेरे लिए बाज़ार से कई सारे स्वेटर ख़रीद कर लाती है। सब एक से बढ़कर एक। सब स्वेटर बड़ी बड़ी कंपनियों के टैग लगे होते हैं। ज़ाहिर है इस टैग के लिए पर्स अच्छा ख़ासा हल्का होता होगा। लेकिन इन स्वेटरों में ठिठुरन होती है। कुछ ख़ालीपन सा लगता है। शायद मेरी बीवी के पास इतना वक़्त नहीं कि वो कट्टी या पूरी बाजू की स्वेटर न सही एक मफलर बना दे।
इस दुर्गा पूजा में दिल्ली में बैठकर कोलकाता की सर्दी का मज़ा लेना चाहा। बिजोयादोशमी के दिन नेहा से कहा - चलो, बेटी की विदाई का समय हो चला है। चलो विदा कर आएं। शिंदूरखेला ( सिंदूर की होली ) खेल कर आए। उसने साफ इनकार कर दिया। शायद उसे ये पता नहीं चला या अहसास नहीं हुआ - इतने बरस बाद अब वही गर्मी मैं अब फिर तलाश रहा हूं, जो मुझे मां- आजी से मिली। शायद इसी तलाश में लंगोटपन का वो ही दशहरा मिल जाए। लेकिन ज़माना बदल गया है। मेरी सोच ग़लत थी। तेज़ रफ्तार की ज़िंदगी में अगर मैं बरसों पुराना यादें तलाशने जाऊँगा तो आंखों में धूल की पुरानी परतें ही तो पड़ेंगी ! आंखों में धूल के महीन से महीन कण भी जाए तो आंखें गीली तो होंगी ही न !

3 comments:

Anonymous said...

पहले भी कहीं पढ़ा हुआ लग रहा है.

Udan Tashtari said...

संजय भाई शायद रविश जी के कस्बा पर प्रकाशित स्वेटर से क्न्फ्यूज हो रहे हैं.

बहुत बढ़िया/

Sagar Chand Nahar said...

बहुत बढि़या लगा, बचपने के दिन याद दिला दिये आपने।