Saturday, March 28, 2009

आई एम ए कॉम्पलैन ब्यॉय

अस्सी कब के पार चुके लालकष्ण आडवाणी पर टीनएजर बनने का शौक़ चर्राया हुआ है। उन्हे किसी ने समझा दिया है कि हिंदुस्तान पर राज करना है तो नौजवानों को साथ लेना होगा। नौजवानों का मूड समझना होगा। नौजवानों के साथ चलना होगा। नौजवानों की तरह चलना होगा। आडवाणी को ये बात मुगली घुट्टी की तरह पिला दी गई है। जवानी का मंत्र समझते ही आडवाणी ने सबसे पहले कहा- या....हू.... यानी याहू पर चैट। कहने को वो टेक्नोफ्रेंडली बने। क्योंकि वो सिर्फ बोलते रहे , टाइप करनेवाले प्राणि और थे। इस चैट में भी आडवाणी ज़्यादातर आड़े-मेड़े, तिरछे सवालों से बचते रहे। बस ये साबित करने की कोशिश करते रहे कि नौजवानों की तरह वो भी इंटरनेटच पर चैट कर सकते हैं। बैल्कबैरी फोन का इस्तेमाल करना जानते हैं। थ्री जी -वी जी सब उनकी जेब में है। ब्लॉग-ब्लॉग भी खेलना उन्हे आता है।
मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी है- बूढ़ी काकी। इसमें एक पंक्ति काफी प्रासंगिक है। लिखा है- बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुर्नागमन होता है। शायद ये बात आडवाणी पर भी लागू होती है। पंद्रहवी लोकसभा चुनाव में वो ये नहीं बोल रहे कि वो देश को आगे ले जाने के लिए औरों से बेहतर क्या कर सकते हैं। उनका कहना है कि देश ने इतना कमज़ोर प्रधानमंत्री ( मनमोहन सिंह को) नहीं देखा। सरकार तो दस जनपथ से सोनिया चला रही हैं। अरे भाई, जब और वाजपेयी मिलकर सरकार चला रहे थे तो सच बोलिए- नागपुर आपलोगों को चलाता था या नहीं। मदनदास देवी जैसे नेता आपलोगों से क्यों मिलने आते थे। गिरिराज किशोर और अशोक सिंघल को क्यों मनाना पड़ता था।
ख़ैर , आप करें तो चमत्कार और मनमोहन करें तो कोई और कार्य.......अब आडवाणी जी ताल ठोंक रहे हैं कि मनमोहन में हिम्मत हो तो टीवी चैनल पर बहस कर दिखाएं। कांग्रेस ने मना कर दिया तो दावा कर रहे हैं कि जो आदमी बहस नहीं कर सकता, वो सरकार क्या चलाएगा। आडवाणी जी, मैं भी इस देश का नागरिक हूं। जितना हक़ आप रखते हैं कि किसी को चैलेंज करने का , उतना ही लोकतांत्रिक हक़ मेरा भी है आपको चैलेज करने का। मुझे ये समझा दीजिए कि गाल बजाने और सरकार चलाने में क्या मेल है। क्या आप ये साबित करना चाहते हैं कि जो ज़्यादा बोलने में उस्ताद होगा, देश -सरकार केवल वहीं चला सकता है। फिर तो कम बोलनेवाले कभी सरकार चला ही नहीं सकते।
आडवाणी जी, आप किसी कुटिया से कोई भी शिलाजीत खाएं, देश को फर्क नहीं पड़ता। आप सिंकारा पिएं या एनर्जिक 32 खाएं, इससे भी देश को फर्क नहीं पड़ता। हार्लिक्स पिए, बॉर्नविटा खाएं या कुछ और - इससे भी अपने जैसे लोगों को फर्क नहीं पढ़ता। आपको नेट पर चैट करना आता है या नहीं, या ब्लॉगिंग में आप माहिर हों या नहीं- अपन जैसे मतदाताओं को फर्क नहीं पड़ता। हमें तो फर्क पड़ता है उससे, जो अच्छी सरकार देने की कोशिश करे। जिसके सरकार में कोई सहयोगी पार्टी प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री पर अंबानी घराने से घूस खाने का आरोप न लगाए। जो सरकार दंगा करानेवालों को बचाव न करती हो। जो सरकार, आतकंवादियों को सिर आंखों पर बिठाकर अफ़गानिस्तान छोड़ने न जाती हो । जिस सरकार का आधा समय कभी ममता बनर्जी और जयललिता को रूठने-मनाने में न जाता हो। जो कभी ये न कहे कि मंदिर वहीं बनेगा, फिर कहे- पार्टी बिल्डिंग बनाने का काम नहीं करती। सरकार , जो कहे , सो करे।
आडवाणी जी एंड पार्टी से विनम्र आग्रह है कि अगर वो इन तमाम बातों को मानेंगे तो देश की जनता उन्हे ताज देगी। अगर 92 की तरह फिर काठ की हांडी चढ़ाने की कोशिश की तो जनता उन्हे बनवास देगी। जनता को फर्क नहीं पड़ता कि आप धोती कुर्ता में हैं या फिर अट्ठारह साल के नौजवान की तरह कैपरी और टी शर्ट में - जिसके सीने पर आसमान ताकती ऊंगली हो और प्यार भर चार अक्षर।
आडवाणी जी, चुनाव भर आपसे ऐसे ही बातें करता रहूंगा।
आपका एक मतदाता