Sunday, February 8, 2009

राम का नाम बदनाम न करो !


18 साल बाद बीजेपी को एक बार फिर मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम की याद आई है। ये याद तब आई है, जब लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। ये याद तब आई है, जब पार्टी मुसीबत में है। कहते हैं न कि मुसीबत के समय ही भगवान याद आते हैं। यही हाल लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, वेकैय्या नायडू, अरूण जेटली , सुषमा स्वराज और रविशंकर प्रसदा की है। अगर चुनाव सिर पर नो होता, आंतकवाद, महंगाई जैसे चुनावी चमकदार शस्त्र टूट नहीं गए होते और पार्टी की हालत पतली न होती तो शायद फिर राम याद न आते। क्योंकि बीजेपी ने अपने शासनकाल में एक बार साबित तो कर ही दिया है- बीजेपी के नेता ठाठ में और हमारे राज जी बेचारे हैं टाट में। बीजेपी एक बार फिर लोगों के आंखों में धूल झोंकने आई है। लोगों को एक बार फिर आपस में बांटने आई है। बीजेपी एक बार फिर हमारे संवेदानाओं के साथ खिलवाड़ करने आई है। बीजेपी एक बार फिर हमारे घाव को हरे करने आई है। बीजेपी एक बार फिर काठ की हांडी को चढ़ाने आई है। बीजेपी को एक बार श्री राम की याद सताई है।
समाज के एक बड़े हिस्से की शिकायत है कि अपनी गद्दी बचाने के लिए मांडा के राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन का ब्रम्हास्त्र चलाया था। बात तो की थी कि इससे देश के दबे-कुचले, वंचित-शोषित लोग आगे आएंगे। तो फिर ये आलोचना बीजेपी के लिए क्यों नहीं ? बीजेपी ने भी तो देश को बांटने का काम किया था और आज भी कर रही है। सत्ता की भागीदारी पाने के लिए ( दूसरी तरफ से नाक पकड़कर) लेफ्ट के साथ वी.पी.सिंह की सरकार का साथ दिया था। फिर बीजेपी को लगा कि थोड़ी सी और मेहनत की जाए तो सत्ता की चाबी मिल जाएगी। कथित लौहपुरूष का रथ पूरे देश में निकला। जिधर से भी गुज़रा, अपने पीछे सांप्रदायिकता का काला धुंआ छोड़ गया। जिधर -जिधर से आडवाणी का रथ गुज़रा , उसके गुज़रते ही उस इलाक़े में ज़हर घुल गया। क्या -क्या पापड़ नहीं बेले बीजेपी ने ? अयोध्या में राम मंदिर बनाने का वादा किया, समान क़ानून संहिता और संविधान के अनुच्छेद 371 को ख़त्म करने का वादा किया था। चुनावी मंच से बीजेपी के नेता जब ये वादा करते थे तो लोगों को लगता था कि ये लोग गंगा में खड़े होकर हाथ में तांबे का लोटा, तुलसी का पत्ता, गोबर और गंगा जल लेकर वादा कर रहे हैं। ये लोग नेता नहीं हैं। ये तो अपने हैं, जो अपने दिल की बात कर रहे हैं। ये उन लोगों की सोच थी, जो इस देश में बहुसंख्यक हैं। राम मंदिर बनाने के लिए बीजेपी ने साध्वी ऋतंभरा, साध्वी उमा भारती, विनय कटियार जैसे फायर ब्रांड नेताओं को मंच पर उतारा। शाखाओं से बाहर निकलकर पहली बार मंच से लोगों सं संवाद क़ाय़म करने के लिए इन नेताओं जो शैली और बोली चुनी, वो लोगों के तन बदन में आग लगा देती थी। ऐसे अनगिनमत मंचों , रैलियों और भाषणों का गवाह रहा हूं मैं।
1. राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे।
2. याचना नहीं अब रण होगा, संघर्ष बड़ा भीषण होगा।
3. बाबर के औलादों से ख़ून का बदला लेना है।
ये नारे थे बीजेपी के । समझ सकते हैं आप कि इन नारों ने बहुसंख्यक समाज पर कैसा असर डाला होगा। भाषण भी ऐसे कि एक तबके का लहू खौल जाए। साध्वी की ज़ुबां से - बहुत सहा है। अब नहीं सहेंगे। नहीं चाहिए कटा हुए देश और कटे हुए लोग। इस अंश का अर्थ परिभाषित करने की ज़रूरत है क्या ?
मुझे याद है कि बीजेपी का ये सपना बहुसंख्यक समाज का सपना हो गया था। जूट मिल में जिस मज़दूर की दिहाड़ी अस्सी से सौ रुपए की थी, उसने भी पांच सौ रूपए का योगदान दिया था। संघ और बीजेपी के कार्यकर्ता आम लोगों को समझाने में क़ामयाब हो गए थे कि इन्ही ईंटों से उनके राम की मंदिर बनाई जा रही है। एक ईंट की क़ीमत पांच सौ रूपए हैं। ऐसे अनगिनत पैसे बीजेपी और संघ के पास ताकि "अजोधा" राम मंदिर बन सके।
बीजेपी सरकार में आई। पहले अपनी तेरहवीं मना कर विदा हुई और फिर तेरह महीने के फेरे में पड़ कर बाहर हुई। लोगों को लगा कि अगर बीजेपी को जनादेश पूरा मिला होता तो शायद उनका सपना अब तक पूरा हो गया होता। इसके बाद के चुनाव में लोगों ने और उत्साह के साथ बीजेपी को वोट दिया। बीजेपी अपने सहयोगियों के साथ मिलकर पांच साल सरकार चलाने में क़ामयाब रही। लोगों को लगा कि इस मर्तबा उनका सपना पूरा होगा।
राम जन्म भूमि न्यास के तब के मुखिया महंत परमहंस जी ने चेतावनी दे दी कि अगर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने मंदिर का काम शुरू नहीं कराया तो प्राण तज देंगे। उनकी ज़िद और लोकप्रियता का अंदाजा़ बीजेपी नेताओं को था। क्योंकि उनके इसी सपने को सत्ता के लिए बीजेपी ने नारे में बदल दिया था। प्रधानमंत्री के विशेष दूत भागे-भागे अयोध्या गए। महंत को समझाने बुझाने का प्रयास किया। लेकनि वो टस से मस नहीं हुए। तब के उप प्रधानमंत्री ( मुझे याद नहीं कि तब तक वो " लौह पुरूष " बन पाए थे या नहीं) लाल कृष्ण आडवाणी ने दो टूक कह दिया कि मंदिर नहीं बन सकता। क्योंकि केंद्र में बीजेपी की सरकार नहीं है। केंद्र में मिली -जुली सरकार है। केंद्र में बीजेपी की नहीं , एनडीए की सरकार है। इस मुद्दे ( राम मंदिर ) पर सबकी राय एक नहीं है। अब पता नहीं कि आज की तारीख़ में आडवाणी या शिष्य ये न कह दें कि उन्होने ऐसा नहीं कहा। मीडिया ने उनकी बातों को तोड़ा- मरोड़ा। उनके कहने का ये मतलब नहीं था। उनके कहने का गडलत मतलब निकाला गया। महंत परमहंस जी इस दुनिया से विदा हो गए । लेकिन उनका सपना पूरा नहीं हो पाया।
बीजेपी इस बार भी अकेले चुनाव नहीं लड़ रही। इस बार भी उनके संग एनडीए है। क्या इस बार एनडीए राम मंदिर बनाने के लिए मान गया है ? क्या ओम प्रकाश चौटाला, नीतीश कुमार , बीजू पटनायक आदि से इस बारे में बात हो गई है ? अगर नहीं तो बीजेपी इस बार भी मंदिर कैसे बनाएगी ? क्या एनडीए के सहयोगी दलों को एतराज़ नहीं होगा ?
नागपुर में बीजेपी कहती है कि राम मंदिर बनाने के लिए तमाम अड़चनों को दूर करेगी। सरकार में आते ही फास्ट ट्रैक कोर्ट बना देगी। ताकि जल्द ही विवाद का हल निकल जाए। यानी बीजेपी ये मान कर चल रही है कि वो जो फास्ट ट्रैक कोट्र बनाएगी, उसका जज ये फैसला देगा कि जिस जगह पर बीजेपी चाहती है , वहीं पर मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम का जन्म हुआ था। आतातायी बाबर ने मंदिर ने तोड़कर मस्जिद बना दिया था। फास्ट ट्रैक कोर्ट वही सब कहेगी , जो बीजेपी चाहती है। क्या इस लोकतांत्रिक देश में ये संभव है ?
बीजेपी अगर सत्ता में आने के बाद कहती कि वो राम मंदिर बनाने के लिए कोशिश कर रही है, तो उन लोगों को बुरा नहीं लगता, जो राम मंदिर बनते हुए देखना चाहते हैं। लेकिन चुनाव से पहले एक बार फिर मंदिर बनाने का गदा भांजकर बीजेपी ने मंदिर भक्तों के मन में एक बार फिर शक़ के बीज बो दिए और वो लोग सोचने को मजबूर हो गए हैं कि हर चुनाव के पहले ही बीजेपी को राम की याद क्यों आती है ?

Monday, February 2, 2009

क़समें, वादे, प्यार- वफ़ा सब- बातें हैं , बातों क्या फ़िज़ा


बदली की ओट में चांद क्या छिपा, फ़िज़ा ही बदल गई है। फ़िज़ की ज़िंदगी में जब बहार की जगह अमावस की रात होगी तो वो बदलेगी ही। हरियाणा के पूर्व डिप्टी सीएम चंद्रमोहन उर्फ चांद मोहम्मद और अनुराधा बाली उर्फ फ़िज़ा की मोहब्बत को नज़र लग गई। अब चांद मोहम्मद कुछ कह रहे हैं और फिज़ा कुछ और। ऐसे हालात में फ़ैज़ अहमद फैज़ बेसाख़्ता याद आते हैं। उन्होने लिखा है-

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग
मैंने समझा था इक तू है तो दरख़्शां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म ए दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सोहबत
तेरी आंखों के सिवाए दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निग़ाह हो जाए
यूं ना था मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाए

फ़ैज़ अहमद फैज़ की इस कृति की कुछ आख़िरी पंक्तियां यूं है-

लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्नमगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवाए
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवाए

अब इसे पढ़ने के बाद चांद मोहम्मद और फिज़ा की मोहब्बत भरी दास्तां पर टूटी सितम का अंदाज़ा लगा सकते हैं। अभी कुछ महीने भी नहीं बीते थे कि चंद्रमोहन ने अपनी अनुराधा बाली के लिए घर बार, पत्नी, बच्चा, मां- बांप, भाई -बहन - सबको तज दिया था। यहां तक कि हरियाणा के डिप्टी सीएम की कुर्सी भी। अनुराधा ने भी अपने चंद्रमोहन के लिए पति छोड़ा। सरकारी वकील की बड़ी नौकरी छोड़ी। यहां तक कि औरत का सबसे बड़ा गहना - लाज को भी मुहब्बत के लिए तिलांजलि दे दी। शादी में आनेवाली बाधाओं को दूर करने के लिए मज़हब तक बदल लिया। चंद्रमोहन चांद बन गया और अनुराधा बन गई चांद की फ़िज़ा। दोनों बाहों में बाहें डाले दुनिया के सामने आए। चांद ने कहा कि पहली पत्नी सीमा के रहते ज़िंदगी में घुटन आ गई थी। कहने का कुछ यूं अंदाज़ था कि जिंदगी में अब तो बहार आई है। अब इसी फिज़ा में ज़रा सुक़ून तो लेने दो। फ़िज़ा भी फूले नहीं समा रही थी। बरसों बाद आंचल में प्यार बरस रहा था। दोनों की मुहब्बत भरी कहानी ने मटुकनाथ और जूली की कहानी को भी पीछे छोड़ दिया। सबसे हॉटेस्ट लव स्टोरी बनी फ़िज़ा और चांद की लव स्टोरी। इस जोड़ी को देखने के लिए मीडिया की भी बेताबी देखते बन पड़ती थी। याद आता है इस जोड़े के प्रेस क्लब में बुलाया गया था। इस जोड़े की ख़बर लेने मेरे साथ मेरे वरिष्ठ सहयोगी उमेश जोशी और साथी रोहिल पुरी भी गए। मेरे आदरणीय परवेज़ अहमद साहेब ने प्रेस क्लब में चचा ग़ालिब को याद करते हुए दुआएं दी थी। शायद चचा की आड़ में वो इस जोड़े को ताक़ीद भी कर रहे थे। उनके स्वागत करने का तरीक़ा कुछ यूं था- ये इश्क़ नहीं आसां ग़ालिब बस यूं समझ लीजिए, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। इस दौरान दोनों ने साथ जीने मरने की क़समें खाई। मज़हब बदलने पर सफ़ाई दी। हुस्न के जुनून में खोए राजनेता को ये स्वीकारने में भी गुरेज नहीं था कि दिल की बाज़ी जीतने में वो कुर्सी की बाज़ी हार गए हैं। वो बस फिज़ा को निहार रहे थे। दुनिया को दिखा रहे थे कि देखो, मेरे पास मलिका ए हुस्न है।
फिर एक दिन यकायक चांद कहीं खो गया। फिज़ा बदल गई। फिज़ा ने कहा- मेरे शौहर को मार पीट कर अगवा किया गया है। ये काम उनके छोटे भाई कुलदीप विश्नोई ने किया है। कुलदीप ने आरोप को नकारा। शाम क धर्म की नगरी हरिद्वार में चांद निकला। चांद का कहना था कि वो अपनी मर्ज़ी से हरिद्वार में उग आया है। वो धर्मयात्रा पर है। वो कोई बच्चा नहीं, जो कोई उसे अगवा कर लेगा। शायद ये बेवफाई, ये जुदाई फ़िज़ा से बर्दाश्त नहीं हुई। उसने बहुत सारी नींद की गोलियां खा ली। वो अपनी मुहब्बत को शायद रूसवा होते नहीं देखना चाहती थी। उसे उम्मीद थी कि चांद उसके आंगन में ज़रूर लौटकर आएगा। क्योंकि उसकी चांदनी से चमकता है। लेकिन चांद नहीं आया। उसने खुलकर बेवफाई की बात करने लगी। दुनिया को मोबाइल पर प्रेम रस दिखाया। रोई, ज़ार-ज़ार रोई। दिल से रोई। फफक कर रोई। क्योंकि उसका चांद उससे दूर जा चुका था। चोट काई नागिन की तरह उसने एलान कर दिया- चांद ने फ़िजा की केवल मुहब्बत देखी है, दूसरा चेहरा नहीं देखा। सच कहा फ़िज़ा ने। महबूबा के दो चेहरे होते हैं। ये हर आशिक़ जानता है। एक वो जब वो हर लम्हा चंद्रमुखी दिखती है और अपने अंदर सूरजमुखी छिपाए रखती है।
चांद और फिज़ा की इस लव स्टोरी, जिसका नाम है- कमबख़्त इश्क़ 2008। शायद इसी तरह के अंजाम को देखकर कभी ये लिखा गया होगा-
क़िस्मत को देखिए , कहां टूटी कमंद
जबकि दो -चार हाथ लमे बाम रह गया