Saturday, August 20, 2016

बहुओं से नहीं बल्कि बहन-बेटियों से कराते हैं ‘धंधा’


ये उस आज़ाद भारत की सच्ची कहानी है, जिसका मुखिया रोज़ाना विज्ञापन जारी कर दावा करता है भारत बदल रहा है।लेकिन उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर के इस बस्ती में आने के बाद के बाद देश के मुखिया का नारा खोखला साबित होता है। भारत बदल रहा है का नारा केवल हवा-हवाई लगता है। सूबे के मुखिया का नारा विकास के पथ पर यूपी चुनावी भोंपू साबित होता है। सिद्धार्थनगर ज़िले में एक क़स्बा है बिस्कोहर। ये क़स्बा पहले दुनिया में मंदिरों और कुंओं के लिए दुनियाभर में मशहूर था। कभी इस क़स्बे में 365 मंदिर और 365 कुएं थे। आज बिल्डरों और प्रॉपर्टी डीलरों की मेहरबानी से गिनती भर के मंदिर बचे हैं और कुंओं का तो नामोंनिशान तक नहीं है। आज यही बिस्कोहर देह की मंडी के तौर पर पूरे यूपी भर में बदनाम हैं। अपनी हरारत उतारने के लिए राजधानी लखनऊ समेत आस-पास के ज़िलों के अय्याश बिस्कोहर में जमा होते हैं।
बात आज़ादी से पहले की है। घूमंतू आदिवासी बेड़िया समाज के लोग बिस्कोहर में आकर बस गए। तबके रसिक ज़मींदारों ने इन लोगों को बसने में मदद की। लेकिन रोज़ी-रोज़ागर के नाम पर कुछ नहीं दे पाए। पेट की आग बुझाने के लिए इस समाज की लड़कियों ने दूसरों के बदन की आग को बुझाने का धंधा शुरु कर दिया। आदि-अनादि काल का ये धंधा तेज़ी से चल पड़ा। फिर भी उस दौर के संपन्न और रसूखदार लोगों ने इस समाज को मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश नहीं की। लिहाज़ा पीढ़ी दर पीढ़ी जिस्म फरोशी ही इनका धंधा बन गया। जिस्मफरोशी बेड़िया समाज की अपनी पहचान बन गया। बेड़िया समाज से अपने क़ायदे क़ानून ख़ुद बनाए। तब से ये परंपरा चली आ रही है कि इस बिरादरी की बहन-बेटियां जिस्मफरोशी करती हैं। लेकिन घर की बहुओं को इसकी इजाज़त नहीं है। ये बात ग्राहकों को भी ताक़ीद कर दी जाती है। अगर किसी ग्राहक ने किसी बहू की तरफ आंख उठाकर भी देखा तो फिर उसकी ख़ैर नहीं  
बिस्कोहर उस विधानसभा क्षेत्र में पड़ता है, जहां से समाजवादी पार्टी के माता प्रसाद पांडेय विधायक चुने जाते हैं। वो मौजूदा विधानसभा के स्पीकर भी हैं। लेकिन इलाक़े में विकास की कोई भी झलक दिखाई नहीं पड़ती। सड़कों पर कई- कई फुट गड्ढे हैं। विधानसभा चुनाव सिर पर है। लिहाज़ा इनदिनों सड़क बनाने का काम तेज़ी से चल रहा है। पीने का पानी का संकट यूं ही बरक़रार है। इलाक़े में बेरोज़गारों की बहुत बड़ी फौज है। बेड़िया समाज भी इन्ही में से एक है। बस्ती की बहुत पुरानी नगरवधू रेशमा बताती हैं कि चुनाव के समय सभी पार्टी के नेता हाथ जोड़े दर पर खड़े होते हैं। बड़े-बड़े वादे करते हैं। सपने दिखाते हैं कि वो इस लिजलिजी दुनिया से उन्हें बाहर निकालेंगे। लेकिन चुनाव बीतते ही सब भूल जाते हैं।
नब्बे साल की नसीबन आठवीं पास हैं। अब वो नहीं चाहतीं कि आनेवाली नई पीढ़ी भी इस दलदल में धंसे। उनकी पांच बेटियां थीं। उन्होंने पांचों की शादी कर दी। नसीबन कहती हैं कि शिकायत करें तो किससे। समाज से...नेता से...पुलिस से....सरकार से....। करें तो किससे करें। सब एक ही थैली के चट्टे- बट्टे हैं। दिन के उजाले में सभी अच्छी-अच्छी बातें करते हैं। लेकिन शाम ढलते ही सबको जिस्म की आग जलाने लगती है। नसीबन पापी पेट का हवाला देती है। कहती हैं कि पापी पेट के लिए जिस्मफरोशी ना करे तो क्या करे। कोई काम-धंधा तो देता नहीं। सरकार से सिलाई मशीन मांगी थी ताकि इज्ज़त की दो जून की रोटी खा सके। लेकिन सरकार ने सिलाई मशीन तक नहीं दी। अब किसी तरह अपना और अपने बच्चों का तो पेट पालना ही है। ऐसे में जिस्म का सौदा ना करें तो क्या करें।
यही शिकायत तवायफों के औलादों को भी है। उन्हें शिकायत है जिस्म के भूखे भेड़ियों से, समाज से, अधिकारियों से, नेताओं से और सरकार से। इन्हीं में से एक है राजा। शिकायत भरे अंदाज़स में वो कहता है कि वो करे भी तो क्या करे। कोई नौकरी-चाकरी देता नहीं। जहां भी जाता है उससे उसके पिता का नाम पूछा जाता है। जब वो अपने पिता के बारे में जानता ही नहीं तो फिर नाम कहां से बताए। ऐसे में जब कोई उससे उसका पिता का नाम पूछता है तो वो जवाब देता है- पैसा। फिर भी उसे नौकरी नहीं मिलती। वो खाली हाथ घर लौट आता है। राजा बताता है कि उसके समाज के भी कई लोग आगे नहीं बढ़ना चाहते। उन्हें बैठकर खाने की आदत पड़ चुकी है। अगर समाज का कोई आगे बढ़ना चाहता है तो वो केंकड़े की तरह टांग पकड़कर नीचे खींचने लगते हैं। राजा अपनी बात बताता है। वो बताता है कि अपनी पहचान छिपाकर उसने देसी दारू की दुकान पर नौकरी हासिल कर ली। ये बात बस्ती के दूसरे लड़कों को पता चली। उन्होंने जाकर दुकान के मालिक के मालिक को उसकी असली पहचान बता दी और उसकी नौकरी छूट गई।
कुछ ऐसी ही कहानी ज़ाकिर की भी है। ग़रीबी की दलदल में फंसे ज़ाकिर को पढ़ाई-लिखाई नसीब नहीं हुई। बड़ा हुआ तो ड्राइवरी सीख ली। फिर भी उसे कहीं काम नहीं मिलता। हर जगह उसकी बिरादरी आड़े आ जाती है। जहां भी नौकरी के लिए जाता है, काम और स्वभाव देखकर बातचीत पक्की हो जाती है। लेकिन जब वो परिचय में अपनी जाति बताता है तो नौकरी देनेवाला कन्नी काट लेता है। आज आलम ये है कि वो किराए पर ऑटो रिक्शा या ई रिक्शा चलाना चाहता है लेकिन रिक्शा मालिक ये कहकर किराए पर देने से मना कर देते हैं कि वो बेड़िया समाज का है।  
समय के साथ बहुत कुछ बदला है। इनकी बस्ती सिकुड़ती जा रही है। बेड़िया समाज की बेटियां शादी कर प्रदेश के दूसरे जगहों पर बस रही हैं। रवायतें टूट रही हैं। लेकिन अफसोस कि पूरी तरह से ख़त्म नहीं हो पा रही हैं। आज भी इस बस्ती में ऐसी अनगिनत लड़कियां मिल जाएंगी, जो बिन ब्याहे मां बन गई हैं। वो ये नहीं जानती कि उनकी औलाद का पिता कौन है। वो बस इतना जानती हैं कि वो जो कर रही हैं, वो केवल पेट की आग बुझाने की ख़ातिर कर रही हैं। वो दिल से कतई नहीं चाहतीं कि उनकी बेटी भी उनकी तरह इस दलदल में फंसकर रह जाए। इसलिए वो बाहर आने के लिए छटपटा रही हैं। लेकिन जब तक उन्हें दलदल से बाहर निकलने की सीढ़ी नहीं मिलती तब तक वो इस नर्क की ज़िंदगी जीने के लिए अभिशप्त हैं।


Monday, February 29, 2016

जेटली की पोटली से ‘सुरसा’ की तरह निकली महंगाई

केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कैबिनेट से हरी झंडी मिलने के बाद साल 2016 का आम बजट संसद में पेश कर दिया, जिसमें उन्होंने दावा किया कि विपरीत वैश्विक परिस्थितियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर में तेज़ी आई है। लेकिन हैरानी की बात है कि जेटली की पोटली से बहुत कुछ मिलने का आस लगाए बैठे लोगों के हाथ कुछ नहीं आया है। उनके बजट से कुछ भी क्रांतिकारी बदलाव नज़र नहीं आया। बजट स्लैब को उन्होंने का तस छोड़ दिया। अलबत्ता इतना ज़रुर किया किया महंगाई की आग में घी डालने का काम ज़रुर किया है। आशंका जताई जा रही है कि जेटली के इस बजट से थोड़े दिनों में महंगाई और सिर उठाएगी। जेटली के इस बजट में होनेवाले विधानसबा चुनावों की आहट भी सुनाई पड़ी। इसलिए बहुत कुछ सस्ता-महंगा करने की जादूगरी दिखाने से वो बच निकले। जेटली की इस कलाकारी से उनकी पार्टी और सरकार के अलावा कोई ख़ुश दिखाई नहीं दे रहा। हालांकि बीजेपी वाले अपनी पीठ ख़ुद थपथपा रहे हैं लेकिन एक्सपर्ट्स इसे बेहद लुंज-पुंज बजट मानकर चल रहे हैं। कई एक्सपर्ट्स की राय में जेटली के बजट में बड़े बदलाव की नहीं बल्कि ‘हाउसकीपिंग’ की झलक दिखाई दी है। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों ने इसे बेहद शर्मनाक बजट माना है। हालांकि इस बजट को लेकर शेयर बाज़ार दिनभर उहापोह में नज़र आया। कभी धड़ाम से नीचे आ गिरा तो कभी आसमान की सैर करता नज़र आया।
जेटली के इस बजट में चुनावी आहट इसलिए भी नज़र आई क्योंकि कई मामलों में उन्होंने नई पीढ़ी को ध्यान में रखा। मिसाल के तौर पर उन्होंने घोषणा कि नई नौकरी करनेवालों का तीन तिहाई प्रॉविडेंट फंड सरकार अगले तीन साल तक भरेगी। इस घोषणा या नीति का अर्थनीति के नज़रिए से औचित्य समझ में नहीं आया। ठीक इसी तरह से किसानों को भी लॉलीपॉप थमाने की कोशिश की गई। दावा किया गया कि अगले दो साल में देश के हर गांव में बिजली पहुंचा दी जाएगी। किसानों को एक लाख रुपए तक का स्वास्थ्य बीमा कराया जाएगा। यूपीए सरकार के समय मनरेगा को पानी पी-पीकर कोसनेवाली बीजेपी अब इसके लिए साढ़े 38 हज़ार करोड़ रुपए दे रही है ताकि गांवों में पांच लाख कुएं औऱ तालाब बनवाएं जा सकें। प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना के तहत साढ़े पांच हज़ार करोड़ आवंटित किए। देशभर में किसानों की आत्महत्याओं की घटनाओं के बीच किसानों का क़र्ज़ कम करने के लिए 15 हज़ार करोड़ का प्रावधान किया गया है। आसमान पर पहुंचे दाल के भाव देखकर सरकार ने दालों की पैदावार के लिए 500 करोड़ रुपए का भी प्रावधान किया है। गांवों के विकास के लिए सरकार 87 हज़ार करोड़ ख़र्च करने को तैयार है। बिना छेड़छाड़ किए शहरी मतदाताओं को भी लुभाने की कोशिश की गई है। विकास के नाम पर सड़क और हाइवेज़ का जाल बिछाने के लिए 97 हज़ार करोड़ रुपए और नेशनल-स्टेट हाइवेज़ हाइवेज़ को 10,000 किलोमीटर और 50 हज़ार किलोमीटर तक बढ़ाने का फैसला सुनाया गया है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत आवंटन बढ़ाकर 19,000 करोड़ रुपए कर दिया गया। साथ ही सरकारी बैंकों के लिए 25000 करोड़ रुपए अलग से रखे गए हैं। बजट में इनकम टैक्स की राह देखनेवाले राहत की सांस ले सकते हैं कि जेटली ने इसे छूने की हिम्मत नहीं दिखाई। सालाना पांच लाख रुपए तक कमाने वालों के लिए अतिरिक्त 3 हज़ार रुपए की राहत तो दी। लेकिन किसी स्लैब को छुआ नहीं। राहतभरी ख़बर ये है कि मकान का किराया 24 हज़ार से बढ़ाकर 60 हज़ार कर दी, जिससे मध्य वर्ग को आसानी होगी। ग़रीबों को एलपीजी कनेक्शन का लॉलीपॉप थमाया गया। दावा किया गया कि ये योजना पांच साल तक चलेगी। सरकार मार्च 2017 तक सस्ते राशन की तीन लाख नई दुकानें खोलेगी। 30 हज़ार सस्ती दवाओं के दुकान खेलेगी। 50 लाख रुपए तक के घर खरीदने वालों को 50 हज़ार का छूट देगी। हर बार की तरह से इस बार भी जेटली ने गहनों और गाड़ियों पर बेदर्दी दिखाकर ग़रीबों का हमदर्द होने का संदेश दिया है। सभी चार पहिया गाड़ियों के दाम बढ़ा दिए हैं। डीज़ल वाली गाड़ियों पर भी टैक्स बढ़ाया है। SUV गाड़ियों को भी महंगा किया है। सोने, हीरे के गहनों के साथ रेडिमनेड कपड़े भी महंगे कर दिए हैं। सिगरेट-गुटखा खानेवालों की जेब सरकार ने कतर दी है। सरकार दावा कर रही है कि देश में विदेशी मुद्दा भंडार साढ़े तीन सौ अरब डॉलर का है। अर्थव्यवस्था में साढ़े सात फीसदी की तेज़ी आई है। फिर भी ये बात समझे से परे हैं कि जब पूरी दुनिया में कच्चे तेल के दाम कम हो रहे हैं तो उसके अनुपात में पेट्रोल-डीज़ल के दाम ककरने से मोदी सरकार भाग क्यों रही है। सवाल ये भी है कि कुछ भी महंगा न करने का दावा करनेवाली सरकार ने सर्विस टैक्स क्यों महंगा किया। इस वजह से देश में बहुत कुछ महंगा होगा। सबसे पहले तो रेल किराया ही महंगा हो जाएगा। हवाई यात्रा महंगी होगी। केवल औऱ सिनेमा देखना महंगा होगा। मोबाइल फोन का बिल और बाहर खाना महंगा होगा। जिम जाना महंगा होगा। बीमा पॉलिसी महंगी होगी। फिर भी अमित शाह और यशवंत सिन्हा जैसे नेता दावा कर रहे हैं कि ये शानदार बजट है तो हैरानी होती है।

Thursday, February 25, 2016

फिर भी ‘मनुस्मृति’ को शर्म नहीं आती

रेल बजट से एक दिन पहले संसद में देश की शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी ने JNU और रोहित वेमुला के मुद्दे पर जिस नाटकीय अंदाज़ में बहस की और अपना सिर काटकर बहनजी यानी मायावती के क़दमों में रखने की पेशकश की, उससे भकतजनों का दिल गार्डन-गार्डन हो गया। ख़ास तौर पर भक्तजन सोशल मीडिया पर उन्हें वीरांगना के तौर पर महामंडित करने की मुहिम छेड़े हुए हैं। ‘स्मृतिदोष’ के शिकार हो चुके भक्तजन ये सुनने और मानने को कतई राज़ी नहीं हैं कि लोकतंत्र के सबसे पवित्र मंदिर में खड़ा होकर टीवी की पुरानी कलाकार ने बेहद सफाई के साथ झूठ बोला है। तालियां बजवाई हैं। शाबाशी लूटी है। लेकिन ऐसा करके इस मंत्री ने लोकतंत्र की आत्मा के साथ दुराचार किया है। तथ्यों पर मनुस्मृति का मुखौटा उतारने से पहले फिल्मीअंदाज़ में दिए गए उनके डायलॉग पर मुख़्तसर सी बात हो जाए। मोहतरमा चुनौती भरे अंदाज़ में कहती हैं कि कोई उनकी जाति बता दे। अरे, मोहतरमा, जाति से बाहर शादी करके कोई उदारवादी नहीं बन जाता और न ही जनेऊवाली सोच से पूरी तरह मुक्त हो जाता है। अगर आप जातिवादी का विरोध ही करती हैं तो क्या आपने उस पार्टी में कभी इस पर बात की, जिसकी टिकट पर आप दो-दो बार लोकसभा का चुनाव हारीं। ये अलग बात है कि हारे हुए अरुण जेटली की तरह आप भी मंत्री बन गईं। क्या आपने अपने पार्टी फोरम पर सवाल पूछने की हिम्मत दिखाई कि चुनावों के समय उनके बड़े नेता जाति और धर्म देखकर टिकट क्यों बांटते हैं? अगर वो जातिवादी का इतना ही प्रखर विरोधी हैं तो स्कूल- कॉलेज में जाति और धर्म के कॉलम का विरोध किया? जब वो मां ( इसकी दुहाई वो संसद में दे चुकी है) बनीं तो अस्पताल में भरेजाने वाले फॉर्म में जाति और धर्म वाले खांटे पर विरोध जताया? ख़ैर मनुस्मृति जी और उनके भक्तजन इसे ज़ाति मसला बताकर जवाब देना मुनासिब ना समझें। देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जेएनयू में उपजे विवाद पर अपनी सरकार की बचाव में उतरीं मनुस्मृति ने कहा कि जिस महिषासुर का दुर्गा मां ने वध किया था, उसी दुष्ट राक्षस महिषासुर की वहां पूजा की जाती है। वंदना की जाती है। अगर यही सब कोलकाता में होता तो क्या होता। देश की शिक्षा मंत्री, बीजेपी की नेता और एक्ट्रेस होने के नाते आप कितना भारत घूम पाईं हैं या कितना समझ पाई हैं, ये तो हमें नहीं मालूम। लेकिन इतना तो दावे के साथ कह सकता हूं कि आप हिंदुत्व को नहीं समझ पाईं हैं। आप जिस कोलकाता का ज़िक़्र कर रही हैं, उसी से कुछ सौ किलोमीटर की दूरी बसे उसी राज्य के एक ज़िले पुरुलिया में आदि-अनादि काल से बंगाली महिषासुर की पूजा करते आ रहे हैं। उत्तर भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण भारत में भी महिषासुर की पूजा होती है। ठीक उसी तरह से जिस तरह से बंगाल में दुर्गा पूजा और महाराष्ट्र में गणेश पूजा। इस देश के कुछ हिस्सों में महिषासुर इस क़दर लोकप्रिय हैं कि लोगों ने उनके नाम पर शहर का नाम रख दिया। कर्नाटक में दूसरे बड़े शहर का नाम महिषुरू ही है। यहां तक पंद्र सालों से बीजेपी शासित राज्य मध्य प्रदेश में भी इसकी पूजा होती है। जेएनयू में संघ और सरकार की करतूत पर पर्दा डालने के लिए और भी आपने कई बड़े झूठ बोले। आपने तर्क दिया कि कन्हैया, उमर खालिद, अनिर्बान भट्टाचार्य और उनके साथियों के देशद्रोह की करतूत के बारे में जेएनयू के सुरक्षाकर्मियों ने जानकारी दी, जो केंद्र सरकार के मातहत नहीं हैं। दूसरी जानकारी आपने जो साझा की, उसके मुताबिक़, जेएनयू के आंतरिक जांच कमेटी (जिसमें शिक्षक शामिल हैं) ने भी प्राइमा फेसी यानी प्रथम दृष्टव्या उन छात्रों को दोषी पाया है। आपने ज़ोर देकर कहा कि इन टीचरों को भी केंद्र ने नियुक्त नहीं किया है बल्कि वाइस चांसलर ने नौकरी दी है। डजहां तक बात जेएनयू के सुरक्षाकर्मियों की है तो मोहतरमा आप जानती होंगी कि वो जेएनयू के अपने सुरक्षाकर्मी नहीं है। यूनिवर्सिटी प्रशासन ने इसका ठेका एक प्राइवेट कंपनी को देकर रखा है। ये ख़ुद विवादों मे हैं। क्योंकि आरोप है कि ऐसा करके प्रशासन ने कैपस में पुलिस को घुसने और केंद्र को दख़ल देने का अधिकार दे रखा है। रही बात जेएनयू के प्रोफसरों की तो ख़ुद वीसी सवालों के घेरे में हैं। उन पर आरोप है कि छात्रों को सुने बिना ही कठोर फैसला सुना दिया।
मनुस्मृति ईरानी का झूठ का पुलिंदा यहीं ख़त्म नहीं होता। राहुल गांधी पर हमला बोलने के क्रम में वो दलित छात्र रोहिता वेमुला पर भी बोलीं। आरएसएस और अपने साथी मंत्री के बचाव में उतरीं शिक्षा मंत्री कांग्रेसी सांसद हनुमंथप्पा राव और मोदी सरकार के मंत्री बंडारू दत्रातेय की चिट्ठियां लहराईं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि दोनों नेताओं की चिट्ठियां अलग-अलग घटनाओं की ओर इशारा कर रही थीं। कांग्रेसी सांसद पत्र लिखकर हैदराबाद यूनिवर्सिटी के भीतर दलित छात्रों के आत्महत्या का मसला उठाया था। तो वहीं उनके साथी मंत्री ने दलित संगठनों के बढ़ते वर्चस्व के आगे पिटते उनके छात्र संगठन एबीवीपी की दुर्दशा का ज़िक़्र किया था। साथी मंत्री ने मांग की थी कि ऐसे दलित छात्रों पर कार्रवाई होनी चाहिए। यहीं नहीं स्मृति ने आरोप जड़ दिया कि रोहित की मौत पर राजनीति हो रही है। रोहित के शव का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार की तरह किया गया। उस बच्चे के पास काफी समय तक कोई नहीं गया। उन्होंने सवाल किया कि वहां डॉक्टर नहीं पहुंचने पर कौन चिकित्सकीय रूप से इतना कुशल था, जिसे वेमूला को मृत घोषित किया। दूसरी बात, उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि रोहित ख़िलाफ़ कार्रवाई करनेवाली शिक्षकों की समिति का गठन पहले की सरकार ने किया था। मोहतरमा, समिति का गठऩ तो पहले की सरकार ने किया होगा, लेकिन कार्रवाई के लिए भी क्या पहले की सरकार बार-बार दबाव दे रही थी? क्या इसमें आपकी कोई भूमिका नहीं थी? क्या आप पर साथी मंत्री का दबाव नहीं था? क्या आपे इस मुद्दे पर विश्वविदयालय के वीसी पर कौई दबाव नहीं डाला? दूसरी बात, आप माहों ने और बच्चे की जान लेने की दुहाई देते गुए पूछ रही थीं कि कुशल था जिसने मौत की पुष्टि की। मोहतरमा, विश्वविद्यालय के वीसी के पास उस डॉक्टर की चिट्ठी है, जिसने सबसे पहले रोहित को देखकर मौत की पुष्टि की थी। मनुस्मृति जी आपने इसे क्यों गोल कर गईं? आख़िर में चंद सवाल आपसे? आपने आरोप लगाया कि आपको लोकतंत्र में चुनाव लड़ने की सज़ा मिल रही है। मेरा सवाल आपसे है। आप तब कांग्रेसियों समाजवादियों बसपाई और वामपंथियों के निशाने पर क्यों नहीं आईं जब आप दिल्ली में कपिल सिब्बल से बुरी तरह से चुनाव हार गईं थीं? बाक़ी पार्टियों में आपके लिए ये वैमनस्य तब क्यों नहीं था? आपने भारतीयता पर भी प्रभावशाली बात कही है। लेकिन भूल गईं कि जिस अंदाज़ में आप भारत और भारतीयता को देख रही हैं, वो पूरा सवा सौ अरब वाला भारत देश नहीं देखता। आप अपना सपना ज़बर्दस्ती दूसरे को दिखा रही हैं। क्या ये ज़रुरी है कि सवा सौ अरब वाले देश की जनता उसी तरह से अपने देश को देखे, जैसा कि कोई पाकिस्तानी, अफग़ानी, जापानी या किसी ईरानी दिखाना चाहे?

Sunday, February 21, 2016

गाय माता के बाद अब भारत माता की शरण में निकरधारी

इतिहास गवाह है कि खाकी निकरधारी और भगवावाले जब-जब कमज़ोर पड़े हैं या जब- जब कोई चुनाव सिर पर मंडराया है, तब-तब उन्हें धर्म और देश की बेसाख्ता याद आई है। बात भी बहुत पुरानी नहीं हुई है। हाल ही में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए। इस चुनाव में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विकास गाथा, मोदी लहर, सुशासन और 56 इंच सीने का नारा जब पिटने लगा तो निकरधारियों को अचानक गाय माता की याद आ गई। सोशल मीडिया पर गाय पूजने का फैशन शुरू हो गया। बिहार जाने के बाद बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह गाय की पूंछ पकड़कर वैतरणी (विधानसभा चुनाव) पार करने की जुगत भिड़ाने लगे तो वहीं कथित देशभक्त सामाजिक संगठन और बीजेपी के पालनहार आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत भी कूद पड़े। ये दीगर बात है कि बिहार की जनता इस बार इनके छलावे में नहीं आई और दूध से मक्खी की तरह इन्हें बिहार से निकाल फेंका। बिहार चुनाव के बाद निकरधारियों के गाय प्रेम, राम प्रेम और देश में ठहराव आ गया। लेकिन तभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट होने लगी। दिल्ली और बिहार में धोबियापाट खाने के बाद बीजेपी को समझ में नहीं आ रहा था कि इन चुनावों के जीतने के लिए इस बार कौन सा हथकंडा अपनाने लगे। निकरधारियों ने फिर से काठ की हांडी चढ़ाने की कोशिश की और रामनामी माला जपने लगे। लेकिन ये नारा उन्हें कारगर होता नहीं दिखा। क्योंकि देश की नई पीढ़ी धर्म और जाति से ऊपर उठकर तरक्की की सीढ़ी पर चढ़ना चाहती है। रही बात पुरानी पीढ़ी की तो उसने देखा है कि कैसे मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम को टाट में भेजने के बाद उनके भक्तजन कैसे ठाठ में रह रहे हैं। भगवा ब्रिगेड ने फिर से मोदी का चेहरा बेचने का इरादा कर लिया। नब्बे की दशक की तरह ‘आज चार प्रदेश, कल सारा देश’ का सपना देख रही बीजेपी किसी भी तरह से इन राज्यों में सत्ता हासिल करना चाहती है। लेकिन मुश्किल ये है कि वो अपनी सरकार की दो साल के काम- काज की असलियत भी जानती है। लेकिन सवाल पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुड्डुचेरी में सत्ता हासिल करने की है। उसने रिस्क लेकर मोदी के दो साल के शासन को हवा में उछाला लेकिन वो औंधे मुंह आ गिरा। घोभगवावालों को दिखने लगा कि घोषणापत्र के वादे जनता की नज़रों में टांय-टांय फिस्स साबित हो रहे हैं। महंगाई पर सरकार नाकाम दिख रही है। बेरोज़गारी मिटाने के वादे पर भी वो खरी नहीं उतर पा रही है। ग़रीबों की सरकार होने का दावा करने वालों के राज में जनता ने अडानी और अंबानी को फलते-फूलते और क़र्ज़ माफी की मलाई खाते देख रही है। सत्ता में आने से पहले 56 इंचा का सीना दिखाकर दुश्मन देश का मुंह काला करने का दम भरनेवाले प्रधानमंत्री की सरकार में चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश की सीनाज़ोरी देख रही है। प्रधानमंत्री को अपने देश में कम और परदेस में समय बिताते ज़्यादा देख रही है। लोगों में मोदी सरकार के लिए निराशा का भाव देखा तो भगवाधारियों को ऐसे मुद्दे की तलाश होने लगी, जो उसकी गिरती साख को थाम सके और चुनावी राज्यों में उसे जीत दिला सके। देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जवाहर लाल नेहरू यानी जेएनयू प्रकरण को भी इसी संदर्भ से जोड़कर देखा जाना चाहिए। अभी तक ये साबित नहीं हो पाया है कि जेएनयू के छात्रों ने पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाए थे भी या नहीं। लेकिन भक्तजन चैनल और अख़बरों की ख़बरें ज़रूर संदेह के दायरे में आ गई हैं। कन्हैया पर देशद्रोह की धारा लगानेवाले दिल्ली पुलिस के प्रमुख बस्सी पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं कि आख़िर क्यों वो अदालत में ‘देशद्रोही कन्हैया’ की ज़मानत का विरोध नहीं करना चाहते। थोड़ी देर के लिए (तर्क के लिए ही सही) भगवा वालों का आरोप सच मान लिया जाए कि जेएनयू में मुट्ठीभर अतिउत्साही अतिरेक में बहते नौजवान भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थित नारे लगा रहे थे, तो भी ये विशुद्ध तौर पर क़ानून- व्यवस्था का मामला बनता था। इस मसले को बेहद व्यवस्थित तरीक़े से शालीनता के दायरे में रहते हुए उन ‘मुट्ठीभर देशद्रोही छात्रों’ को गिरफ्तार किया जा सकता था और न्यायिक प्रक्रिया के तहत दंड दिया जा सकता था। लेकिन भगवावालों और भक्तजनों के मन में तो कुछ और ही अरमान पल रहे थे। चुनाव जीतने की छटपटाहट में उन्होंने इसे फौरन ‘देशभक्ति बनाम देशद्रोह का मुद्दा बना डाला। संघ परिवार और बीजेपी ने इसे देशभक्ति का मसला बनाने के लिए पूरी तरह से कमर कस ली। इसके लिए छात्र संगठन को भी झोंक डाला। मीडिया में कथित तौर पर पत्रकारिता करने आए भक्तजन पत्रकारों, छी न्यूज़ जैसे चैनलों, भगवाप्रेमी अख़बारों के सांसद मालिकों और सोशल मीडिया पर मौजूद अपने भक्तजनों की ड्यूटी इसे सुलगाने में लगा दिया। इसी बहाने बीजेपी और संघ परिवार ने एक तीर से दो निशाने भी साधने की कोशिश की। अव्वल, पाकिस्तान के बहाने हित देशभक्ति का उन्माद पैदा करने की कोशिश की। दोयम, बीजेपी के एक मंत्री की वजह से हैदराबाद में आत्महत्या करने पर मजबूर हुए दलित छात्र रोहित वेमुला मुद्दे को क़ब्र में दफनाने की कोशिश। फिलहाल दोनों ही मुद्दे पर भगवा ब्रेगड को सफलता मिलती नहीं दिख रही। निकरधारियों की इस आक्रामक देशभक्तिजनित रणनीति के पीछे उनकी मजबूरी को समझना होगा। लोकसभा चुनाव के बाद जब चार राज्यों में चुनाव हुए तब नरेंद्र मोदी का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था। इसलिए महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में पार्टी को जीत मिली। लेकिन उसके बाद के हुए चुनावों ने साबित कर दिया कि मोदी का बुलहुला फूट रहा है। दिल्ली में आप के अरविंद केजरीवाल ने मोदी, बीजेपी और आरएसएस को एक साथ चित्त कर दिया। बिहार में भगवा वालों ने मोदी की विकास गाथा और दलित प्रेम के साथ गाय की पूंछ पकड़ी फिर भी जनता ने नकार दिया। भगवा ब्रिगेड को ऐसे मुद्दे की तलाश थी, जो उसके मंसूबों को पूरा कर सके। इसी दौरान दो ऐसी घटनाएं घटीं, जिसे निकरधारियों को अपने अरमान पूरे होते दिखे। पठानकोट पर हुए आतंकवादी हमले और सियाचिन में बर्फीले तूफान में फंसकर मरे सेना के जवानों की घटना के बाद जब उसने लोगों में देशभक्ति का उबाल देखा तो उसने फौरन रणनीति बना ली कि इस बार गाय माता की पूंछ छोड़कर भारत माता का दाम थामना है। आनन- फानन में भगवाधारियों और भक्तजनों ने जेएनयू को भारत विरोधी गतिविधियों का अड्डा बताने और इसे बंद करने की मुहिम छेड़ दी। सोशल मीडिया पर ‘शट जेएनयू’ की मुहिम की बाढ़ आ गई। टीवी चैनलों और अखबारों में बीजेपी नेताओं और पूरे मामले को देशभक्ति बनाम देशद्रोह में बदल दिया। भारत माता के अपमान को किसी भी कीमत पर सहन न किए जाने के बयानों की झड़ी लग गई। कन्हैया कुमार की पेशी के दौरान कोर्ट में मीडिया और दूसरे लोगों पर दो दिनों तक हुए हिंसक हमलों ने देशभक्ति की एक नई परिभाषा गढ़ दी। मामला इतना गंभीर हो गया कि सुप्रीम कोर्ट को सीधे दखल देना पड़ा। बीजेपी अब ये मानकर चल रही है कि वो अपनी इस रणनीति में काफी हद तक सफल हो चुकी है। इसलिए अब वो इस मुद्दे को अपने जन संगठनों के ज़रिए देश भर में ले जाने की तैयारी में है। सड़कों पर होर्डिंगों, बैनरों, पोस्टरों के जरिए देशभक्त बनाम देशद्रोही के मुद्दे को गरम किया जाएगा। राहुल गांधी जैसे नेताओं पर भी देशद्रोह का मुक़दमा दायर कर बीजेपी इस तैयारी में है कि वो जनता में ये संदेश दे सके कि कांग्रेसी और कम्युनिस्ट भारत विरोधी हैं और देश की एकता- अखंडता को केवल वही बचा सकती है। कुल मिलाकर बीजेपी आने वाले विधानसभा चुनावों में आक्रामक राष्ट्रवाद को अपना प्रमुख मुद्दा बनाएगी। बावजूद इन तमाम धतकरमों के इसके बीजेपी की राह विधानसभा चुनावों में आसान नहीं होगी। ये बात बीजेपी भी जानती है क्योंकि इन राज्यों में उसका मुक़ाबला क्षत्रपों से है। मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी से दो-दो हाथ करने हैं, जहां कभी उसने बांग्लादेशी घुसैपैठियों का मुद्दा बनाकर मुस्लिमों के प्रति अपना विरोध जताया था। उस राज्य में मुस्लिमों की आबादी लगभग 29 फीसदी है। ममता का मुक़ाबला करनेवाला वाममोर्चा हाशिए पर है। फिर भी बीजेपी की कोई लहर नहीं। क्योंकि लोगों ने देखा है कि ग़ैरबीजेपी सरकारों ने बंगाल की एक इंच ज़मीन भी बांग्लादेश को नहीं दी लेकिन नरेंद्र मोदी कई बीघा सौंप आए। बंगाल में तपन सिकदर जैसे नेता भी नहीं रहे, जो अपने दम पर बीजेपी को लड़ाई में ला सकते। अब तो बंगाल बीजेपी हीरो-हीरोइनों के हवाले है, जो भीड़ तो जुटा सकते हैं लेकिन वोट नहीं। इसी तरह से तमिलनाडु में लड़ाई जयललिता और करुणानिधि के बीच ही होती है। ये सिर्फ कहानियों में ही होता है कि दो बिल्लियों की लड़ाई में रोटी बंदर ले जाए। असम में भी बीजेपी ने घुसपैठ का मुद्दा बनाया है। लेकिन वहां उससे भी बड़ा एक मुद्दा आज भी ज़िंदा है औऱ वो है बोडोलैंड का। सत्ता की लालच में बीजेपी ये बात बार-बार भूल जाती है कि न तो पूरा देश अंधा राष्ट्रभक्त नहीं है और न ही पूरा देश जाति-पाति से ओत-। इसलिए बीजेपी को ये भ्रम है कि अगर भगवा का विरोध करनेवालों को देशद्रोही और पाकिस्तान का दलाल साबित करके उसे सत्ता सुख हासिल होगा।