Saturday, June 26, 2010

आज तेरह बरस हो गए.............


बड़े ग़ौर से सुन रहा था ज़माना तुमको, तुम्ही सो गए दास्तां कहते-कहते
ये शब्द मेरे पिता जी के हैं। पापा की मौत के बाद उनके मुहं से यही निकला था। लोग कहते हैं कि वक़्त सारे घाव भर देता है। लेकिन मैं इसका जीता जागता गवाह हूं। घाव कभी नहीं भरते। जिस पर बीतती है , वही जानता है। हमारे परिवार में ऐसा कोई दिन या लम्हा न होगा, जब परिवार का हर सदस्य उन्हे याद नहीं करता होगा। मेरे परिवार की नियती हो गई है कि मई, जून और जुलाई के महीनों से डर कर रहें। ये महीने हमारे लिए वज्रपात ले कर आते हैं। 1 मई 2007 को मेरी मां का देहांत हुआ। 1 जून 2010 को मेरी दादी जी (आजी) का देहांत हुआ। 14 जुलाई 1996 को दादाजी( बाबा)हमें छोड़कर गए। 27 जून 1997 को पापा चल बसे। पिता जी भी काफी बूढ़े हो चले हैं।
ये दर्द समझना इतना आसान नहीं है। जिस आदमी के सामने उसका छोटा भाई गुज़र गया हो, पत्नी गुज़र गई हो। मां-बाप न हो। वो कितना तन्हा महसूस करता होगा, क्योंकि वो अपने पूरे जीवन में इन्ही चारों पर न्यौछावर रहा। सच मानिए तो मुझे अब किसी त्यौहार या उत्सव में कोई आनंद नहीं आता। सब फीका सा लगता है। पता नहीं क्यों हर त्यौहार और उत्सव पर बीते दिनों की हर छोटी बड़ी बातें दिमाग़ में घूमने लगती हैं। न्यूज़ चैनलों में मैं अब तक बहुत नाट्य रूपांतरण और फ्लैश बैक बहुत दिखाया है। मुझे क्या पता था कि मेरी ही ज़िंदगी में ये असलियत कर तरह चस्पां हो जाएंगी। मेरा परिवार बहुत सिकुड़ गया है।
याद आती हैं कई बातें। लोगों के दिलासे-वादे, अपनापन, पृतभाव का प्रेम- फ्लैश बैक की तरह दिमाग़ में घूमती हैं। पापा के चौथ के बाद पिताजी को कोलकाता लौटना था। राजधानी से रिज़र्वेशन कराया। स्टेशन पर तीन लोग उन्हे छोड़ने आए। उनमे से एक समाजवादी नेता( जब वो मंत्री थे) के बहुत क़रीबी थे। बाक़ी दो सज्जन नामचीन संपादक थे। तीनों ने मुझे समझाया। कहा- हम लोग तुम्हारे साथ हैं। कभी जीवन में ज़रूरत पड़े तो ख़ुद को अकेला मत पाना। हम साथ खड़े मिलेंगे। बहुत पुरानी बात नहीं है। कुछ बरस पहले एसपी सिंह की टीम के एक सदस्य भी मेरे साथ काम करते थे। पद-प्रतिष्ठा में समकक्ष ही थे। लेकिन भौक्काल में नंबर वन। मेरे सामने ही लाला जी को वो बड़ी -बड़ी गोलियां देते थे कि पेट में दर्द होने लगता था। ख़ैर उनकी मेहरबानी से मैं पैदल हुआ। नौकरी की तलाश में था। प्लेटफार्म वाले संपादक बड़े चैनल में बडे़ ओहदे पर थे। मैंने उनको फोन किया। ये सोचकर नहीं कि नौकरी चाहिए। बल्कि 1997 वाले भाव को याद कर। उन्होने कई बार बुलाया। उन्हे सब पता था कि मैं बेरोज़गार हूं, नौकरी की तलाश में हूं। नौकरी का भरोसा भी दिया। लेकिन ये दिलासा बस भरोसा बनकर रह गया। उनका दो नंबरी हमेशा मुझे कहता था कि सीधे बात क्यों नहीं करते। सबको रख रहे हैं। हर बार मैं यही कहता था कि उन्हे सब मालूम है। सुविधानुसार वो ज़रूर देखेंगे। ये विश्वास लेकर चल रहा था। नौकरी उन्होने दिल खोलकर बांटी। नौकरी पानेवालों की योग्यताओं और अनुभव पर नहीं जाऊंगा। लेकिन अफसोस तो अफसोस ही होता है, जब पीड़ा दिल को छू गई हो। लेकिन उन पर से विश्वास आज भी नहीं डोला है। जिन लोगों ने मुझे दिलासा और भरोसा दिया था, आज भी उनके साथ मैं ईमानदारी से भावनात्माक और रागात्मक तौर पर जुड़ा हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि वो लोग काफी भले हैं।
ख़ैर व्यक्तिगत जीवन पर आता हूं। पत्रकारिता में आने का जुनून पापा को देख कर ही पैदा हुआ। लेकिन वो हमेशा इसके विरोधी रहे। वो हमेशा कहते थे कि पत्रकारिता का स्वरूप बदल रहा है। कुछ और करो। रेलवे की नौकरी ही कर लो। लेकिन मेरे पर तो महान पत्रकार बनने का भूत सवार था। एक तरह से बाग़ी बनकर पत्रकार बन गया। पापा को अच्छा नहीं लगा। लेकिन उन्होने मेरी भावना को भी समझा। उन्हे मुझसे कहा कि अगर पत्रकारिता ही करना चाहते हो तो फिर जामिया से कोर्स करो। मैंने पलटकर जवाब दिया कि टाटा-बिड़ला ने न तो एमबीए की पढ़ाई की थी और न ही धर्मवीर भारती से लेकर एमजे अकबर और आपने पत्रकारिता को कोर्स किया है। उन्होने मेरी बात को धैर्य से सुना। उन्होने एक बात बहुत धीरज के साथ मुझसे कही- पत्रकारिता में कुंठित हो जाओगे। बहुत कुछ बदल गया है। आज मुझे लगता है कि उन्होने भविष्य की पत्रकारिता को समय से भांप लिया था। किसी और से भेल ही न की हो, लेकिन हमारे बीच जो नाता था, उसमें वो बेबाकी से सच कह गए थे। क्योंकि पत्रकारिता का जो मौजूदा चेहरा और स्वरूप है, वो किसी से छिपा नहीं है।
घर पर कई बार रविवार और धर्मयुग के पन्ने पलटता हूं। उनके कई लेख देखता हूं। डाकू घनश्याम पर उदयन शर्मा का लेख पढ़ता हूं। आज के दौर के पत्र -पत्रिकाओं के साथ न्यूज़ चैनल देखता हूं। कई बार ख़ुद से पूछता हूं कि क्या मैं यही पत्रकारिता करने के लिए अपनों से लड़ा था। पत्रकारों के स्वभाव , गुण, चित्त , मनोदशा, आकांक्षा और फितरत को पढ़ने की कोशिश करता हूं तो बार बार यही सवाल उभरता है। ऐसे में मैं अपने बेटे अंश सुरेंद्र के साथ खेलता हूं। उसकी तरफ देखता हूं। मन ही मन बुदबुदाता हूं। कहता हूं- सब कर रहे हैं तो तुम क्या राजा हरिशचंद्र हो? फिर कहता हूं- बेटा , कर ले अब नौकरी। घर चला ले। देश बदलने का सपना छोड़। यहां तो सब ऐसे ही चलता है। तुम रहो या न रहो- देश ऐसे ही चलता रहेगा। इसलिए अब मुझे बड़ा चैनल -छोटा चैनल, बड़े पद या छोटे पद की चिंता ही नहीं होती। शायद लोग हंसे। लेकिन सच है कि मेरे मन बस यही भाव है- चाह गई, चिंता गई, मनुवा बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, वो साहन के साह।