Wednesday, April 18, 2012

फिर लौट आया बंगाल में ‘संत्रास काल’


पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी एक के बाद एक जिस तरह से ताबड़तोड़ फैसले कर रही हैं, उसके बाद सियासी फिज़ा में यही सवाल गूंज रहा है कि क्या 1972 के संत्रास यानी आतंक काल की वापिसी हो चुकी है। सरकार के फैसलों के इतर जिस तरह से सूबे में तृणमूल कांग्रेस के समर्थक और मंत्री तांडव कर रहे हैं, उससे इस क़यास को और बल मिल रहा है। शहर में दिन दहाड़े वैज्ञानिक की पिटाई हो रही है। वैज्ञानिक की बेटी की इज्ज़त पर हाथ डाला रहा है और पुलिस फरियाद सुनने से ही इनकार करती है। हद तो ये है कि ऊपर से ममता के मुंहलगे मंत्री खुलेआम वामपंथी नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों को धमका रहे हैं। तुग़लकी फरमान जा कर रहे हैं। ऐसे नेताओं और मंत्रियों पर लगाम कसने की बजाए तृणमूल सुप्रीमो ममता बैनर्जी उल्टे मीडिया को धमका रही हैं। आरोप लगा रही हैं कि मीडिया उनकी छवि ख़राब करने पर लगा है। मीडिया केवल उनकी सरकार की निगेटिव इमेज को जनता के सामने परोस रहा है।
बारूइपुर की एक घटना ने बीस साल पुरानी घटना की याद दिला दी और इसी के साथ महात्मा गांधी को वो सूत्र याद पड़ गया कि किसी की ईमानदारी और वादे को परखना हो तो पहले उसके हाथ में सत्ता दो। नब्बे के दशक में नदिया ज़िले की एक गूंगी और बहरी लड़की के साथ कथित तौर पर बलात्कार हुआ। ममता बैनर्जी तब कांग्रेस में हुआ करती थी और राजीव गांधी की सरकार में राज्य मंत्री हुआ करती थीं। ममता ने आरोप लगाया कि उस लड़की के साथ सीपीएम के स्थानीय नेता ने बलात्कार किया है और सरकार के दबाव में आकर पुलिस कार्रवाई नहीं कर रही। उस समय ज्योति बसु मुख्यमंत्री हुआ करते थे। ममता बनर्जी उस लड़की के अलावा दर्जनों मुंहलगे पत्रकारों के साथ राइटर्स बिल्डिंग पहुंच गईं औऱ बिना अप्वाइनमेंट के मुख्यमंत्री के साथ मिलने की ज़िद पर अड़ गईं। लेकिन जब उन्हें ख़बर लगी कि मुख्यमंत्री नहीं आए हैं तो मौक़े पर मौजूद एक युवा आईपीएस ऑफिसर के गाल पर चांटे रसीद कर दिए। आईपीएसपी भी कम न था। उसकी टीम ने भी तबीयत से ममता की ख़बर ले ली। इसके बाद ममता ने बड़ा बखेड़ा किया।
कहते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। लगभग बाइस चौबीस साल पुरानी घटना फिर घटी। फर्क़ इतना रहा कि केवल पात्र बदल गए। इस बार कोलकाता से सटे दक्षिण चौबीस परगना के बारूइपुर में किराए के घर में रहने वाले वैज्ञानिक डॉक्टर अपरेश भट्टाचार्य के घर पर तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने आधी रात को हमला बोल दिया। उनकी तीस साल की बेटी को घसीटकर घर से बाहर निकाला। बुज़ुर्ग पिता के सामने उसकी बेटी को नंगा किया। बकौल पिता, उनकी बेटी के साथ ‘श्लीलताहानि’ यानी इज्ज़त पर हाथ डाला गया। पढ़े-लिखे वैज्ञानिक को पूरा भरोसा था कि बदली हुई सरकार में उनके साथ पूरा इंसाफ मिलेगा। वो अपनी बेटी के साथ थाने गए। दारोगा को बताया कि वो अपने मकान मालिक के घर ख़रीदना चाहते थे। दो लाख की पेशगी भी दी। लेकिन बाद में पता चला कि दस्तावेज़ फर्ज़ी हैं। उन्होंने असली काग़जात की मांग की तो उनके साथ ये हाल हुआ। लेकिन दारोगा का जवाब सुनकर डॉक्टर साहेब के पैरों तल ज़मीन खिसक गई। थानेदार ने बैरंग लौटा दिया। दूसरे दिन बडे उम्मीदों के साथ ‘मां, माटी, मानुष’ की सरकार की मुखिया ममता बैनर्जी से मिलने चले गए। लेकिन आम लोगों की मुख्यमंत्री ने मिलने से इनकार कर दिया। मुख्यमंत्री के सरकारी बाबुओं ने कोई भी शियाकत लेने से मना कर दिए। वैज्ञानिक साहेब टका सा मुंह लेकर लौट आए। उनके सामने कट्टरवादी वामपंथी सरकार बनाम उदारवादी सरकार का असली चेहरा सामने आ चुका था।
उदारवादी सरकार का एक और चेहरे पर ग़ौर फरमाइए। पश्चिम बंगाल के नए खाद्य मंत्री ज्योतिरर्प्रिय मल्लिक ने तुग़लकी फरमान जारी कर दिया। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को हुक़्म जारी कर दिया कि अगर किसी ने वामपंथी नेताओं और ख़ास तौर पर सीपीएम के नेताओं, कार्यकर्ताओं और सनर्थकों के घर में शादी की तो ख़ैर नहीं। टीमीएस का कोई भी आदमी किसी भी वामपंथी के न्योते को स्वीकार नहीं करेगा। यहां तक की कि किसी वामपंथी के बगल में नहीं बैठेगा। कहीं हाट- बाज़ार, सड़क- चौराहे पर मुलाक़ात हो जाए तो दुआ सलाम भी नहीं करेगा। क्योंकि वामपंथियों का सामाजिक बहिष्कार करना है। मंत्री जी को ये कहने में तनिक भी हिचक नहीं हुई और न ही शर्म आई। उन्होने दो टूक दिया कि वामपंथियों के साथ प्रतिशोध लेना है। अगर मेल जोल बना रहा तो प्रतिशोध लेने में दिक्कत आएगी। लोकतंत्र में अगर कोई मंत्री हिंदी फिल्मों की तरह ख़ून के बदले ख़ून का नारा दे रहा हो और पुलिस और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे, तो इससे बड़े बेचारगी भला और क्या हो सकती है। ममता बैनर्जी के मुंहलगे मंत्री के इस चेतावनी और फरमान को वैज्ञानिक पर हुए ज़ुल्म से जोड़ कर देखा जा सकता है।
ज्योतिर्प्रिय मलिक मंत्री हैं। इसलिए उनकी बात दूर तलक फैल गई। लेकिन वो बातें आज भी बड़े फलक पर नहीं आ रहीं , जो पश्चिम बंगाल के दूर दराज़ के गांवों से लेकर महानगर कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस के छोटे-मेट नेता और कार्यकर्ता कर रहे हैं। बंगाल के स्कूल कॉलेजों में शिक्षकों और प्रोफेसरों को लगातार अपमानित किया जा रहा। उन पर ये आरोप लगाया जा रहा है कि वो वामपंथी हैं और स्कूल- कॉलेजों में बच्चों के दिल ओ दिमाग़ में वामपंथ का ज़हर बोया। यही हाल सरकारी अस्पतालों का भी है। तृणमूल के छुटभैय्ये नेता आए दिन तरह तरह के मरीज़ों को भर्ती करने का सिपारिशी पत्र भेज रहे हैं। जो अस्पताल या डॉक्टर उनकी नहीं सुनते हैं तो फिर शामत आ जाती है। डॉक्टरों, कंपाउंडरों, नर्सों और अस्पताल कर्मियों की पिटाई कर अपनी लोकतांत्रिक ताक़त दिखाने का मौक़ा नहीं चूकते।
बंगाल में ये हालात देखकर ये कहना ग़लत नहीं होगा कि जब सैंया भए कोतवाल तो अब डर काहे का। लोकतंत्र में तानाशाही और नादिरशाही रवैया दिखानेवालों पर नकेल कसने के बजाए मुख्यमंत्री उल्टे मीडिया को दोष दे रही हैं। ममता को तकलीफ इस बात की है कि इस तरह की घटनाओं को मीडिया क्यों दिखा और छाप रहा है। कल तक वामपंथी सरकार का पाप को घड़ा दिखाने के लिए ममता मीडिया के सामने बिछी रहती थीं। तब उन्हें भरोसा था कि मीडिया जो दिखाता है, वो सच होता है। लेकिन आज उनका अपना आप पर से ही भरोसा उठ गया है। उन्हें लगता है कि मीडिया सच नहीं दिखाता। वो राइटर्स बिल्डिंग में ये कहने में संकोच नहीं करतीं कि मीडिया केवल सरकार के ग़लत कामों को दिखा रहा औऱ अच्छे कामों पर पर्दा डाल रहा है। सत्ता के मद में चूर ममता ये आरोप लगाने से भी नहीं चुकतीं कि मीडिया उन्हें साज़िश के तहत बदनाम कर रहा है। उल्टे वो झूठा दम भर रही हैं कि उन्होने सूबे के विकास के लिए किए गए तमाम वादों को पूरा कर दिया है। ये दम उस समय ममता भर रही हैं, जब सरकार के पास ग़रीबों को राशन में देने के लिए चावल और गेहूं नहीं है और इसके लिए वो केंद्र सरकार के सामने हाथ फैला रही है।
अब सवाल ये है कि क्या पश्चिम बंगाल की जनता ने व्यक्तिगत दुश्मनी निभाने के लिए ममता सरकार को जनादेश दिया था। या फिर जनता ने इसलिए ममता बैनर्जी को सरकार की चाबी सौंपी थी ताकि जो काम पिछले 34 साल में वामपंथी सरकार नहीं कर पाई। वो काम अब ग़ैर वामपंथी सरकार करके दिखाए। लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि जिस वादे और भरोसे के साथ ममता बैनर्जी सरकार में आई थीं, आज उसी को ठेंगा दिखा रही हैं। खुद ममता स्वीकार कर चुकी हैं, उन्हें ख़ज़ाना खाली मिला है। सूबे के विकास के लिए धेले भर भी पैसा वामपंथी सरकार ने नहीं छोड़ा। इसके लिए उन्होंने विशेष पैकेज की मांग कर केंद्र पर दबाव भी बनाया। लेकिन ये मांग भी दिखावे का ही साबित हुआ। क्योंकि जल्द ही वो सब कुछ भूल गईं और विशुद्ध तौर पर सियासत में मशगूल हो गईं।
सरकार बनने को एक साल पूरे होने जा रहे हैं। लेकिन इन महीनों में ममता बैनर्जी बतौर मुख्यमंत्री अपना छाप छोड़ पाने में नाकाम रहीं। आज भी उनकी छवि एक सियासी सौदेबाज़ के तौर पर ही बनी रही। एक ऐसे राजनेता की छवि बनी जो बात-बात पर तुनक जाता है और बेसिर पैर की शर्तें केंद्र सरकार के सामने रखता है । राज्य क़र्ज़ में डूबा है। बेरोज़गारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। जो कारखाने बंद हो गए, वो आज भी ताला खुलने की राह देख रहे हैं। नक्सली समस्या आज भी बरक़रार है। राजनीतिक हिंसा आज भी बंद नहीं हुई है। शिक्षा का स्तर अब भी नहीं सुधरा है। लेकिन सौ फीसदी लक्ष्य हासिल कर लेने का दावा करनेवाली ममता इन तमाम मुद्दों को हाशिए पर रखकर डिज़िइलटल के दौर में जा रहे टीवी के सैट टॉप बॉक्स की राजनीति कर रही हैं।
दरअसल, कमज़ोर विपक्ष की वजह से ममता बैनर्जी निरंकुश हो चुकी हैं। उन्हें लगता है कि जिस तरह से जनता ने उन्हें जनादेश देकर सरकार में बिठाया, उसके बाद वो कुछ भी करने के लिए आज़ाद हैं। जनता उनके फैसले पर सवाल खड़े नहीं करेगी, क्योंकि वो ये कहकर उनका मुंह बंद कर देंगी, कि 34 सालों में वामपंथियों ने जो कबाड़ा किया था, उसे दुरूस्त करने में वक्त लगेगा और इसके लिए उन्हें कठोर फैसले भी लेने पड़ेंगे, जो लोगों को नागवार भी गुज़र सकते हैं। लेकिन वो ये तमाम क़दम इसलिए उठा रही हैं ताकि राज्य और आम आदमी का भला हो सके। लेकिन ममता के ये क़दम ‘मां, मांटी और मानुष’ वाले राज्य के लोगों को हजम नहीं हो रहा। क्योंकि ये राज्य कभी अपने पड़ोसी राज्यों के सियासी अक्खड़पन और लाचारी पर हंसता था। इस राज्य के लोग ये देखकर खुश होते थे कि केंद्र में चाहें किसी की भी सरकार हो लेकिन जब भी कोई राष्ट्रीय मुद्दे की बात आई तो सलाह के लिए प्रधानमंत्री ख़ुद चलकर कोलकाता आए और मुख्यमंत्री से मिले। चाहें इंदिरा गांधी रही हों या फिर वी पी सिंह या चंद्रशेखर । केंद्र की हर सरकारों ने बड़े मुद्दे पर इस छोटे से राज्य से सलाह मशविरा किया और उन्हें माना। बंगाल इस पर नाज़ करता था। लेकिन आज बंगाल ये देखकर हैरान है कि आज छोटी सी छोटी बात के लिए भी केंद्र के सामने बंगाल की छवि एक ब्लैकमेलर सरकार के तौर पर बन रही है। ममता को अहसास हो चला है कि जिस तेज़ी से उन्होंने लोकप्रियता हासिल की थी, आज उसी तेज़ी के साथ उनकी लोकप्रियता गिर रही है। क्योंकि उनके पास लोगों को दिखाने के लिए कोई काम नहीं है। वो खम ठोक कर ये नहीं कह सकतीं कि इतने कल कारखाने खुलवा दिए या नए लगवा दिए। इनतने हज़ार करोड़ रुपए का पूंजी निवेश हुआ है। या फिर इनते हज़ार, लाख या करोड़ लोगों को रोज़गार दिए हैं। ज़ाहिर ये सब न कर पाने की मजबूरी में आकर ममता इनदिनों और आक्रामक हो गई हैं। और अपनी छवि बनाए रखने के लिए ऐसे फैसले और बयटान दे रही हैं, जो उनकी छवि को सुधारने की बजाए और धूल धूसरित कर रहा है।