Saturday, December 13, 2008

कांग्रेस को मरवा देंगे मोइली


कांग्रेस के नेता वीरप्पा मोइली बहुत दूर की कौड़ी खोज कर लाएं हैं। लेकिन उनकी कौड़ी को देखकर ऐसा लगता है कि वो कांग्रेस की ही वोट बैंक की मटकी फोड़ने के लिए है। विधानसभा चुनावों से पहले यूपीए सरकार ने वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किया था। इन सिफारिशों को लारने के पीछे सरकार की क्या सोच होगी। सीधे-सीधे इसका मतलब वोट बैंक की राजनीति से था। सरकार कर्मचारियों की तनख़्वाह बढ़ाकर अपना वोट बैंक बढ़ाने का इरादा रखती थी। लेकिन लगता है कि कांग्रेस के पुराने दिग्गज वीरप्पा मोइली कांग्रेस की ही लुटिया डूबो देंगे। वो जिस तरह की सिफारिश लेकर हाज़िर हुए हैं, वो सरकारी कर्मचारियों को ख़ून ख़ौलाने के लिए काफी है।
सरकारी कर्माचारी अपनो काम काज के तौर तरीक़ों , बर्ताव, आचरण और दफ्तर को कितना समय देते हैं- ये सब जानते हैं। ये आज से नहीं, आदि -अनादि काल से चला आ रहा है। सरकारी कर्मचारियों की इमेज रही है कि वो न तो समय पर आफिस जाते हैं और न ही समय से आफिस से निकलते हैं। रेल मंत्री लालू प्रसाद ख़ुद इसके गवाह हैं। वो आफिस टाइम पर रेल भवन के गेट पर खड़े हो गए थे। मीडियावाले भी थे। देर से आनेवालों को ख़ूब फटकार लगाई। कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी। फिर हुआ क्या। कितनी बार रेल मंत्री फिर से रेल भवन के गेट पर खड़े मिले। सच उन्हे भी मालूम है। वो भी बेहतर नतीजे चाहते हैं। लेकिन कोई न कोई ऐसी मजबूरी है कि उनके हाथ पांव बंध गए हैं। मोइली साहेब चाहते हैं कि हर कर्मचारी का चौदह साल पर काम काज की समीक्षा हो। अगर उसका काम काज और बर्ताव संतोषजनक नही है तो इस बारे में उस कर्माचारी को बताया जाए। फिर 20 साल बाद उसकी काम काज की समीक्षा हो। अगर वो पैमाने की कसौटी पर ख़रा नहीं उतरता है तो उसे नौकरी से निकाल दिया जाए। मोइली चाहते हैं कि जिस तरह से प्राइवेट कंपनियों के कर्मचारी काम करते हैं, उसी अंदाज़ में सरकारी कर्मचारी काम करें।
लेकिन क्या संभव है। आप वाकई प्राइवेट कंपनियों की तरह रिज़ल्ट चाहते हैं तो प्राइवेट कंपनियों की पॉलिसी को अपनाएं। सालाना इंक्रेमेंट का इंतज़ाम करें , जो कर्मचारी के काम काज और व्यवहार के आधार पर हो। क्या सरकार ऐसा कर पाएगी। पहला रिव्यू चौदह साल पर ही क्यों। हर छह महीने या साल भर पर क्यों नहीं। मोइली राम के वनवास की तरह चौदह साल की सूई पर क्य़ों अटके हैं। मोइली की चले तो वो आईएएस, आईपीएस और आईआरएस में भी व्यवस्था ठीक कर दें। वो नहीं नहीं चाहते कि सिविल सर्विस की परीक्षा देनेवाला तीस साल के ऊपर का हो। वो नहीं चाहते कि जनरल कैटेगरी के उम्मीदवार 25 साल की उम्र के बाद सिविल सर्विस की तैयारी में दिखे। उनकी नज़र एससी, एसटी और ओबीसी के भी उम्मीदवारों पर है। उनकी चलें तो वो उन बालिकाओं के सपनों की हत्या कर दें जो पहली बार या दूसरी बार या तीसरी बार मंज़िल नहीं पा लेते तो भी हौसला नहीं खोते । वो कोशिश करते रहते हैं। मोइली जी इन कोशिशों पर विराम लगाने के पक्षधर हैं। मोइली से पहले मोरारजी देसाई ने भी कई सिफारिशें की थीं। उनका क्या हश्र हुआ। एससी, एसटी और ओबीसी की आरक्षण को लेकर बी पी मंडल ने भी सिफारिशें तैयार की थी। लंबे समय तक वो सरकारी दफ्तरों में धूल फांकती रही। अगर राजनीतिक मजबूरी नहीं होती तो वो सिफारिशें भी लागू नहीं होतीं, जिसे लोग मंडल कमीशन के तौर पर याद करते हैं।
मोइली साहेब ऐसे समय सिफारिशों का पिटारा लेकर आए हैं, जब कांग्रेस तीन राज्यों विधानसभा चुनाव जीती है। इस जीत से पहले सरकार को वेतन आयोग की सिफारिशों को कर सरकारी कर्मचारियों को ख़ुश करना पड़ा था। अब लोकसभा चुनाव सिर पर है। ऐसे में क्या आपको लगता है कि सरकार खेले खाए नेता वीरप्पा मोइली की सिफारिशों को माल लेगी और अपनी सरकार की क़ुर्बानी दे देगी ?

Tuesday, December 9, 2008

जो कहा था, वहीं हुआ दिल्ली में

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मित्रों, एक बार फिर हाज़िर हूं एक नए लेख के साथ। नया कहना तो ग़लत होगा। लेकिन उसी बात को मैं फिर से कहने जा रहा हूं लेकिन अपने कुछ मित्रों की प्रत्रिक्रियाओं के साथ , जिन्होने मेरा लेख पढ़कर ईमानदारी से अपनी बात कही थी।
मैने जो लेख लगभग सवा दो महीने पहले लिखा था, उसके पीछे चिंतन था, विश्लेषण था, भूत , वर्तमान और भविष्य का समिश्रण से निकला परिणाम था। मेरा ये शुरू से मानना रहा है कि देश की राजधानी दिल्ली में बीजेपी का समर्थन करनेवाले ऐसे कई सारे कट्टर मतदाता हैं, जो भीड़ में ख़ूब बीजेपी के लिए तर्क करते हैं। कैमरे और गनमाइक के सामने ख़ूब भाषण देते हैं। अपने बुज़ुर्ग पिता को संघ के शाखा में जाने के लिए ख़ूब प्रेरित करते हैं। लेकिन मतदान के दिन ऐसे कट्टर समर्थक पप्पू बन जाते हैं। रज़ाई ओढ़कर ख़ूब सोते हैं। उन्हे लगता है कि लोकतंत्र के महापर्व को सफल बनाने के लिए उन्होने अपने भाषणों से अपना काम कर लिया है। इनमें ज़्यादातर ऐसे लोग हैं, जिन्हे काम से बहुत कम फुर्सत मिलती है। मतदान का दिन अगर शुक्रवार या शनिवार पड़ गया तो भाग्य खुल गए। पैसा तो ख़ूब कमाया लेकिन परिवार के साथ समय बांटने का समय नहीं मिला। ऐसे समय को अपने परिवार के लिए देते हैं और आस पास के ख़ूबसूरत शहरों में छुट्टियां मनाने चले जाते हैं। यही रह जाती है बीजेपी की कोशिशें धरी की धरी। इस बार के चुनाव में हर जगह लड़ाई विकास बनाम नकारात्मक प्रचार के बीच था। बीजेपी कहती थी कि कांग्रेस शासन में आतंकवाद फल फूल रहा है। लचर क़ानून है। फिर सवाल ये कि बीजेपी के शासन काल में राजस्थान, गुजरात , लोकतंत्र के स्तंभ संसद , लालक़िला, - कहां कहां नहीं आतंकवादी हमले हुए। पोटा का सोटा भी था। फिर बीजेपी ने क्या कर लिया। क्यों बीजेपी के दिग्गज लौह पुरूष की अगुवाई में ख़तकनाक आंतकवादियों को छोड़े। सवाल ये कि बीजेपी कैसे आतंकवाद को क़ाबू करेगी। बीजेपी के तमाम तर्क पढ़े लिखे लोगों को नहीं हज़म हुए। मंहगाई रोकने के लिए उनके पास कौन सा जादू का डंडा चलाएगी। बीजेपी के पास जवाब नहीं था। हर रोज़ इतवार नहीं होता। हर चुनाव में धार्मिक भावनाएं भड़काकर और उन्माद पैदा कर वैतरणी पार नहीं होती। दूसरी सोच ये थी कि पूरी दिल्ली में लोग बीजेपी -बीजेपी कर रहे थे। लेकिन पश्चिम दिल्ली के अलावा उनकी कहीं हवा नहीं लग रही थी। बाहरी दिल्ली में जो भी वोट बीजेपी को मिले, वो नाराज़ किसानों के ते। कंझावला के मुआवज़े को लेकर वो शीला सरकार से खुश नहीं थे। इसलिए बीजेपी को वोट दिया। मैंने अपने पहले के लेख में जो आंकड़ा दिया था, नतीजा भी लगभग वहीं है। मैंने कम से 42 और और ज़्यादा से ज़्यादा 45 सीटों का अनुमान लगाया था। नतीजा बी 42 सीटों का है। नीचे आप उस समय का लेख पढ़ सकते हैं, जिसमें मैने बीजेपी के नए महाजन अरूण जेटली का भी ज़िक्र किया था और विजय कुमार मल्होत्रा के नेतृत्व का भी।