Tuesday, August 14, 2018

काहे की आज़ादी और किसकी आजा़दी!

यक़ीन मानिए कि ये वाक्य लिखते वक़्त हाथ कांप रहे हैं और आत्मा रो रही है। लेकिन मन कह रहा है कि सच लिखना बंद मत करो। भले ही मुट्ठी भर लोग आपको देशद्रोही, समाजवादी या वामपंथी करार दें। ये वाक्य देश की असली सच्चाई को उजागर करती है। क्योंकि आजादी के बाद सत्तर सालों तक कांग्रेस की सरकारें थीं तो कई बार भगवा और गैर कांग्रेसी की सरकारें रहीं। लेकिन दिल पर हाथ रखकर कहिए कि इस देश में क्या बदला। सड़कें चौड़ी हो गईं। सड़कें चमकदार और घुमावदार हो गईं। सिर के ऊपर से दनादन हवाई जहाज़ों के गुज़रने की संख्या ज़्यादा हो गई। आज़ादी से पहले वाली रेलगाड़ियां अब चमकदार हो गईं। आप सोच रहे होंगे कि इतना कुछ बदलने की बात मैं खुद कर रहा हूं तो फिर ऐसी आज़ादी पर सवाल खड़े कर रहा हूं।
ये बात इसलिए लिख रहा हूं कि क्योंकि कान में देवरिया और मुज़्ज़फ़रनगर की अबोध बालिकाओं की चीखें गूंजती है। दिन में मानवता की बात करनेवाले कैसे सूरज के मुंह चुराते ही असली चेहरों के साथ छोटी-छोटी बालिकाओं को दिखते होंगे। पार्टियां चाहें कोई भी हों। झंडों का रंग चाहें कोई भी हो। लेकिन फितरत सबकी एक जैसी है। सत्ता में होते हैं तो जांच बिठाने का नाटक करते हैं और जब सत्ता से बाहर होते हैं तो हाथों में तख्तियां, बैनर और मोमबत्ती के साथ नज़र आते हैं। याद कीजिए उस दौर को जब देश में निर्भया कांड हुआ था। उस दौर में जिस तरह से देश की मुट्ठियां भींच गई थीं तो लगा था कि समाज अब किसी रावण को पैदा नहीं होने देगा। कानून बदला गया। बड़ी बड़ी बातें की गईं। लेकिन आज भी हर राज्य में आबरू महफूज़ नहीं है। सिर्फ आबरु ही क्यों! जि़ंदगी तक महफूज़ नहीं है।

जो सत्तर साल में नहीं हुआ, वो आज हो रहा है। सत्ता की चाबी दे दो भ्रष्टाचार मिटा दूंगा। ग़रीबों के साथ डटकर खड़ा रहूंगा। ये नारा देनेवाली दोनों ही पार्टियां यानी बीजेपी और आम आदमी पार्टी दिल्ली पर काबिज़ है। फिर भी उस नगरी में तीन बच्चियां भूख से तड़प कर दम तोड़ देती हैं। अभी इस शोरगुल और लीपापोती का शोर खत्म भी नहीं होता है कि ग़ाज़ियाबाद में भी भूख से एक मौत हो जाती है। बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इस तरह के वाकए आए दिएन सुनने को मिलते हैं। लेकिन सरकारें और विपक्ष अपने अपने फायदे और नुक़सान के लिहाज़ से तथ्यों को तोड़ मरोड़ देते हैं। इन घटनाओं को देखकर मुझे रिपोर्टिंग का वो दौर याद आता है। ओड़ीशा में एक जगह बालासोर। वहां पर मैंने एक जनजाति के लोगों को भूख मिटाने के लिए चींटियां खाते हुए देखा था। ये रिपोर्ट एक साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। बिहार में एक जनजाति है। उसे मूसहर कहते हैं। इस जाति के लोग मूस यानी चूहा खाकर अपनी भूख मिटाते हैं। ये उस प्रदेश की सूरत हैं, जहां सुशासन बाबू की सरकार है। सबका साथ सबका विकास का नारा देनेवाली पार्टी भी सत्ता में है। उस राज्य में परिवर्तनकारी लालू यादव और कांग्रेस की सरकारें रही हैं। लेकिन जो तस्वीर सदियों पहले थीं, वो आज भी बदस्तूर है। ये उस देश की भयावह तस्वीर है, जहां लाखों-करोड़ों अनाज भंडारण के सही रख-रखाव के अभाव में सड़ जाते हैं।

आज भी हमारे देश की पार्टियां, नेता और सरकारें मूल समस्याओं पर बात करने को तैयार नहीं होतीं। अगर भूख की बात कीजिए तो पलटकर सुनने को मिलता है गौ माता की पूजा करो। रोज़गार की बात कीजिए तो सुनने को मिलता है सबसे पहले देश। लॉ एंड ऑर्डर की बात कीजिए तो नारा आता है कि राम राज्य आ गया। अब तो बस मंदिर बनना बाक़ी है। हमारी सरकारें बताती हैं कि सिर्फ दिल्ली ही दिल्ली में पचास फीसदी से ज़्यादा लोग अमीर है। मुंबई में साढ़े छह हज़ार करोड़पति बसते हैं। शेयर बाज़ार लगातार कुलांचे भर रहा है। जीडीपी तो बस आसमान छूने को बेताब है। हमारा सीना फूलकर इतना कूप्पा हो गया है कि पाकिस्तान और चीन को तो छोड़िए दुनिया का सबसे ताक़तवर देश अमेरिका का राष्ट्रपति भी कोर्निश करने को बेताब रहता है। हम दुनिया के छठे सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति हैं। एक तरफ चमकदार नारे हैं। टीवी चैनलों और अख़बारों में बदल चुके भारत की ख़बरों की ज़़ेर ए बहस है। दूसरी तरफ मुंह चिढ़ाती कड़वी सच्चाई है। इसलिए बहुत दुखी मन से खुद से ही ये सवाल कर रहा हूं कि ये कैसी आज़ादी है। ये काहे की आज़ादी है। हमारे पुरखों ने खून से सींचकर जो आज़ादी हमें दिलाई, उसकी मलाई कौन काट रहा है।