Friday, September 14, 2007

टी.वी न्यूज़ के इतिहास में ये पहली बार हुआ

ये कोई सात आठ बरस पहले की बात है। तब टीवी न्यूज़ चैनलों की रेलमपेल नहीं थी। न टीआरपी का दवाब था और न ही सबसे पहले लाल पट्टी पर ब्रेकिंग न्यूज़ लिखकर सबसे पहले ख़बर देने की होड़। गिने - चुने चैनल थे, जिनकी ख़बरों में दम होती थी और कंटेंट पर ख़ासा ज़ोर दिया जाता था। एक बड़े घराने के एक न्यूज़ चैनल में एक मशहूर अंग्रेज़ी अख़बार के संपादक आए। उस समय उनकी उम्र कोई पचास साल के आस-पास रही होगी। बाल खिचड़ी हो चुकी थी। हर समय सिगरेट सुलगाए, कहीं खोए -खोए रहते थे। कुलमिलाकर अंदाज़ दार्शनिक था। देखकर ही ये लगता था कि वो बहुत क़ाबिल - फ़ाज़िल इंसान थे।
की भीड़ में से ख़ास ख़बरें छांटने का अंदाज़ बहुतों को मुरीद बना देता था। अपने साथ अलग - अलग अंग्रेज़ी अख़बारों की पूरी पलटन ले आए थे। अपराध की ख़बरें देखते ही वो उत्साहित हो जाते थे। ख़ास तौर पर उनकी और उनके पलटन की नज़र फौज में होने वाले घपलों पर होती थी।
टीम ने उस चैनल में फौज की बहुत सारी एक्सक्लूसिव ख़बरें ब्रेक की, जो आज तक किसी और चैनल या अख़बार में नज़र नहीं आई। शायद यही उनकी सबसे बड़ी ताक़त थी। जो ख़बर बड़े- बड़े धुरंधर नही सूंघ पाते थे, वो पलक झपकाते ही लपक लेते थे। देर शाम का वक़्त था। मुरीद बना नया - नया चेला फड़कती हुई एक ख़बर लेकर उनके कमरे में दाख़िल हुआ। बहुत देर तक गुफ्तगू हुई। उनके कमरे में उनकी पलटन धमक गई। अंदर क्या बातें हुईं, किसी को नहीं पता। बाहर निकलकर जब उनका चेला डेस्क पर लौटा तो क़िला फतेह करने के अंदाज़ में सबकों आगाह किया- थोड़ी देर में सबको एक बहुत बड़ी ख़बर देने वाला हूं। तैयारी कर ली जाए। हम सबने पूछा कि ख़बरे तो बताओं तभी तैयारी होगी न ! उसने लगभग आदेश दिया- आपलोग पीसीआर रेडी रखें। बाक़ी सब मैं संभाल लूंगा। उसके कहने का अंदाज़ ये था - खबर गोपनीय है। अभी ये बात सिर्फ ख़ास - ख़ास लोगों को मालूम है। दर्शकों के साथ- साथ सभी को ख़बर की जानकारी हो जाएगी।
, मेरी शिफ्ट ख़त्म हो चुकी थी। थैला उठाकर दफ्तर चल दिया। तब शादी हुई नहीं थी। अकेले एक छोटे से फ्लैट में रहता था। समय काटने के लिए ब्लैक डॉग का एक अद्धा ख़रीदकर घर पहुंच गया। तस्सली से दारू पी। मछली - बात खाया औऱ सो गया।
रात के साढ़े ग्यारह बजे के आस-पास फोन की घंटी घनघनाने उठी। नींद में ही फोन उठाया। उधर से सुप्रीम बॉस की आवाज़ थी। हुक़्म आया- फ़ौरन आफिस आओ। मैने कहा- सर, शराब पी रखी है। नहीं आ सकता। जवाह आया- कोई बात नहीं। कोई कुछ नहीं कहेगा। मैं ख़ुद आफिस में शराब पीकर बैठा हूं। इसके बाद मैंने अपने एक - दो दोस्तों को फोन किया तो पता चला कि ऐसा हुक़्म उन्हे भी मिला है।

दफ्तर पहुंचा तो देखा बॉस रिसेप्शन पर बैठे हैं। सोफे पर अपने साथ आफिस का सारा फोन लिए हुए हैं। लगातार घंटियां बज रही हैं। वो हर कॉल का जवाब दे रहे हैं। मैंने जाते ही उनसे पूछा- सर , इतनी रात को क्या काम? उन्होने इशारे से ख़ामोश रहने को कहा। फोन रखने के बाद हुक़्म दिया। फौरन पीसीआर जाओ। कमांड अपने हाथ में ले लो। मेरे अलावा किसी की बात नहीं सुनना। जो कहूं , वहीं ख़बर चलाना। और हां, एंकरों को तैयार रखो। आज सारी रात बुलेटिन जाना है। ताम - झाम संभाले मैं पीसीआर पहुंचा।
पर बॉस का संदेसा आया। ध्यान से सुनो। हमने शाम को ख़बर चलाई थी। एक बहुत बड़े शेयर दलाल के घर पर छापा पड़ा है। इनकम टैक्स वाले ख़बर कंफर्म नहीं कर रहे और शेयर दलाल इसे अफवाह बता रहा है। अब तुम ख़बर चलाओ कि हमने जो ख़बर दिखाई , वो ग़लत थी। इसके लिए हम माफी मांगते हैं। हमारा इरादा किसी को आहत करने का नहीं था। मैने बिन मांगे सलाह दे दी। सर- आज तक किसी चैनल ने माफी नहीं मांगी है। दूसरी बात ये कि अगर इनकम टैक्स कंफर्म नहीं कर रहा तो हम ये चलाएं कि हमें जो जानकारी मिली है , उसके मुताबिक़....बॉस ने डंपट दिया। ज़्यादा ज्ञान मत दो। जितना कहा जाए, उतना करो। इसके बाद हमने बड़ी बेशर्मी से कहना शुरू कर दिया कि जो ख़बर हमने आपको दिखाई थी, वो ग़लत थी। ग़लत ख़बर दिखाने के लिए माफी चाहते हैं। फिर नया आदेश आया। माफीनामे की फ्रिक्वेंसी बढ़ाओ। बार - बार माफी मांगो। इसक आदेश के बाद हम एक सेगमेंट में लगभग चार या पांच बार माफी मांगने लगे। अचानक पीसीआर पैनल पर फोन आया। उधर से त्रिचा शर्मा का फोन था। फोन पर भड़क रही थी। पूछी- कहां - तुम्हारा उल्लू का पट्ठा ? भाषा सुनकर चौंका। पूछा- कौन उल्लू का पट्ठा? उसने कहा-तुम्हारा चैनल हेड। मैने फोन ट्रांसफर कर दिया। थोड़ी देर बाद बॉस भागे - भागे पीसीआर आए। कहा- शेयर दलाल का फोनो लो। वो कुछ कहना चाहता है। शेयर दलाल फोन पर आए। चैनल को जमकर कोसा। पत्रकारों को भला -बुरा कहा। ख़बर करने की तमीज़ बताई। फिर अंतरध्यान हो गए। पौ फटने तक हम माफी मांगते रहे। माफी मांगते-मांगते गला सूखा गया था। बॉस ने कहा- बहुत हो गया। अब सब लोग घर जाओ।
रास्ते में सोचता रहा- त्रिचा तो मेरी दोस्त है। वो मेरे साथ काम कर चुकी थी। अब भले ही वो वाइस प्रेसीडेंट बनकर चैयरमैन के साथ काम करती हो लेकिन उसकी ज़ुबान या बर्ताव तो पहले ऐसा नहीं था। ख़ैर , सोचते -सोचते घर पहुंचा। बहुत नींद आ रही थी। सोने से पहले अख़बार बांचना ज़रूरी समझा। अख़बार की पहली ख़बर देखकर मैं उछल पड़ा। हेडर था- मुंबई में शेयर दलाल के घर पर छापा। करोड़ो बरामद । अंदर लिखा था कि शेयर दलाल के पीछे एक बड़े उद्योगपति हैं। वो मैगज़ीन और टीवी चैनलों के मालिक भी हैं। शेयर बाज़ार में उनका बहुत पैसा लगा है। ख़बर पढ़ने के बाद समझ में आया कि इतनी बार माफी क्यों ? डेस्क पर हुक़्म जारी करनेवाले साथी को फोन किया । उसने फोन नहीं उठाया। आज भी जब वो मिलता है तो उसकी आँखें ख़ुद ब ख़ुद झुक जाती हैं।

Wednesday, September 12, 2007

इतनी कुंठा और नकरात्मक सोच क्यों ?

आज के इस दौर में क्या सिर्फ ख़बरें ही बदली हैं ? या फिर ख़बर बनानेवाले भी बदल गए हैं ? आज अपन बात करेंगे टीवी पत्रकारिता की। ज़रा एक बार पीछे मुड़कर देखिए। शायद किसी कोने से अप्पन मेनन, एस.पी.सिंह या अजय चौधरी का चेहरा नज़र आ जाए। एक बार दिल टटोल कर देखिए। शायद किसी हिस्से से वो आवाज़ सुनाई पड़े कि आगा-पीछा देखकर ख़बर चलाओ। हड़बड़ी मत करो।
बात सिर्फ ख़बरों की ही नहीं है। दफ्तर के अंदर और बाहर ऐसे लोगों का कैसा बर्ताव होता था ? घर परिवार पर जब संकट आए तो कंधे पर स्नेह का स्पर्श होता था। अगर कोई बीमार पड़ जाए तो अस्पताल में नोटों की गड्डी के साथ ऐसे लोग खड़े मिलते थे। टीवी पर दिखने के बाद उन्हे भले ही स्टारडम का दर्ज़ा मिला हो लेकिन बर्ताव में वो बेहद विनम्र दिखते थे। वो कहते थे कि यार , ये चमक दमक तो टीवी की देन है। हैं तो ख़ालिस पत्रकार, वो भी बुढ़ापे में अख़बार से आया हुआ। नई विधा को साधने की कोशिश इस उम्र में हो रही है।

टीवी में आज जो कमोबेश चेहरे दिख रहे हैं। वो इस तरह से लोगों के साथ पेश नहीं आते। ख़ालिस टीवी के पत्रकार तो बदनाम हैं ही । सीनियरों की ज़ुबान पर गाहे बगाहे ये बात आ ही जाती है - अरे कभी प्रिंट में काम किया नहीं। अगर किया होता तो इस तरह से नहीं करता। लेकिन ऐसे सीनियरों के मुंह पर ताला लग जाता है जब प्रिंट से आए जवान- ज़इफ पत्रकार भी वहीं करते दिखते हैं।
भारत में जब टीवी न्यूज़ की शुरूआत हुई तब प्रिंट के पत्रकार टीवी वालों को हिकारत भरी नज़रों से देखते थे। कुछ थे जो उसी समय आ गए । पाठशाला जानेवाले बच्चों की तरह टीवी का ककहरा सीखा। फिर टीवी को साध लिया और जम गए। कुछ ऐसे भी रहे , जिन्हे बहुत देर से टीवी की तलब हुई। थैला उठाए चले आए। लेकिन अपने साथ कुंठा , अवसाद औऱ नकरात्मक सोच भी लेते आए। ये सबको आजा़दी है कि वो अपनी मर्ज़ी से टीवी न्यूज़ में आए। लेकिन यहां ऐसे लोगों का ज़िक़्र हो रहा है , जो कल तक टीवीपत्रकारों को मतिमुंड , परले दर्ज़े का बेवकूफ करार देते थे। उनकी ये सोच आज भी नहीं बदली है। आकर उसी जमात के साथ बैठते हैं लेकिन गरियाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते। अपनी कुंठा और भड़ास रह रहकर निकालते रहते हैं। उनकी पीड़ा तब औऱ बढ़ जाती है जब संस्थान में उनसे आधी उम्र के किसी लड़के - लड़की की तनख़्वाह उनसे कहीं ज़्यादा दिखने लगती है। कम उम्र के लड़के -लड़कियों को अपने से बड़ी कुर्सी पर बैठे देखकर बिलबिलाने लगते हैं। फिर ये बताने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते - देखों , फलां को देख रहे हो। उसे मैंने इंटर्न बनाया था। ये बताने के पीछे उनकी ये सोच होती है - देखो, मेरे चेले चपाटे कहां पहुंच गए। लेकिन वो एक बार भी दिल में झांककर नहीं देखते कि वो वहां तक क्यों नहीं पहुंच पाए ? उनमें ऐसी क्या कमी है कि कंपनी के अधिकारी उन्हे इस लायक़ नहीं समझते ?

तक़रीबन सात साल पुरानी बात है। हिंदी अख़बार के एक मंजे हुए रिपोर्टर पत्रकार को एक टीवी चैनल में नौकरी मिली। पद मिला प्रोड्यूसर का। ये दीगर बात है कि उन्हे नौकरी कैसे मिली थी ? बड़े अरमानों के साथ पहले पहले दिन आफिस आए। आते ही चौंक गए। जिन लड़कों को उन्होने निकर में कभी देखा था। उन्हे वो बड़े - बड़े केबिन में बड़ी-बड़ी कुर्सी पर बैठे देख रहे थे। पद- मर्यादा और नक़दी के मामले में कल के छोरे भारी पड़ रहे थे । हालात देखकर उन्हे रोना आ रहा था। उनके दिल में जो बात थी , वो ज़ुबां पर आ गई।बारी आई ख़बर लिखने की। आदत थी अख़बार की। कई पन्नों की ख़बर लिखकर आ गए। न्यूज़ डेस्क को अपनी कॉपी दिखाना शान के ख़िलाफ़ समझा। सीधे चैनल हेड के दरबार में हाज़िर हो गए। उनकी कॉपी देखने के बाद उन्हे सलाह दी गई कि वो टीवी की ज़ुबान सीख लें। इस काम में मदद के लिए उनके साथ किसी को लगाया गया। यही बात उन्हे खटक गई- कल का छोरा मुझे ख़बर लिखने की तमीज़ सिखाएगा। कुंठा बढ़ती गई। ज़ुबान तल्ख़ होती गई। एक दिन ऐसा आया जब वो जिस रास्ते रास्ते से आए थे, उसी रास्ते से लौट गए।
एक ऐसा ही क़िस्सा एक और चैनल का है। प्रिंट के एक सज्जन को बुढ़ापे में टीवी चैनल में काम करने का शौक़ चर्राया। क़िस्मत ने साथ दिया और नौकरी मिल गई। पेशा तो बदल लिया लेकिन अपनी आदत नहीं बदली। टीका - टिप्पणी की आदत बनी रही। दूसरों को टीवी का काम सीख लेने का सबक़ दे रहे हैं। लेकिन उन्हे स्टिंग और मोंटाज का फ़र्क़ नहीं मालूम। न ही वो इसे सीखने के लिए तैयार हैं। उन्हे ये भी नहीं मालूम कि रियल सेट पर क्रोमा या वर्चुअल नहीं हो सकता। लेकिन वो इसे लागू कराने पर आमादा है। शायद किसी दिन सफेद बालों की वजह से एक दिन ये करिश्मा भी हो जाए। अख़बार में बरसों काम किया है। अब टीवी में काम कर रहे हैं। दोनों जगह तो एक ही काम है - लिखना। इसलिए वो तश्चपश्चात, परंतु, हेतु, कदापि शब्दों से बेहद प्यार करते हैं। उन्हे सुप्रीम कोर्ट पसंद नहीं। वो सर्वोच्च न्यायालय लिखने पर ज़ोर देते हैं। उन्हे बीजेपी, बीएसपी , सीपीएम से एलर्जी है। वो माकपा, बसपा को पसंद करते हैं। उन्हे उम्मीद ही नहीं , पूरा एतबार है कि एक न एक दिन सारे लोग इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करेंगे और मरणासन्न शब्दों को नई ज़िंदगी मिलेगी।
वो कहते हैं - सब ' जबरदस्ती भासा बिगार " रहे हैं । उन्हे टीवी पत्रकारों पर भरोसा नहीं। इसलिए डमडमडिगा टाइम्स से टीवी पत्रकारों की नई फौज खड़ी कर रहे हैं।
दोस्तों , ये कहानी भर नहीं है। न ही किसी व्यक्ति विशेष के लिए दुराग्रह है। न ही प्रिंट के लोगों के लिए दिल में कोई मैल। ये लेख इस बहस की शुरूआत के लिए है कि क्या टीवी की पत्रकारिता अख़बारी पत्रकारिता से अलग नहीं है। अगर अलग है तो उस पत्रकारिता को मानने या आत्मसात करने में दिक़्क़त कहां और क्यों है ? उम्र चाहे जो हो, नई विधा को सीखने में परहेज़ क्यों ? उन्हे ये मानने में गुरेज़ क्यों है कि आज की तारीख़ में टीवी पत्रकारिता में ज़्यादातर चेहरे प्रिंट से ही निकले हुए हैं। टीवी का पत्रकार आसमान से नहीं उतरता। उन्हे नई पीढी़ से दिक़्क़त क्यों नहीं होती ? क्या इसलिए कि उन्होने इस विधा को सीख लिया है ? बहस खुली है।

Tuesday, September 11, 2007

ख़बरों से खेलना बच्चों का खेल नहीं !!!

बहुत दिनों से एक मुहावरा सुन रहा था- ख़बरों से खेलना बच्चों का खेल नहीं। ये संवाद सुनकर खुशी हो रही थी। क्योंकि आज के दौर में अब ये मान लिया गया है कि ख़बरें तो बच्चे कर लेंगे। ये फार्मूला अब हर जगह अपनाया जा रहा है। सबकी सोच लगभग ऐसी हो चुकी है कि अनुभव के नाम लंबी चौड़ी टीम खड़ी कर क्यों तिजोरी हलकी की जाए। इस नए मुहावरे ने नई ताक़त दी और ख़बरों में परिपक्वता और अनुभव का अहसास दिलाया। लेकिन दिल्ली की स्कूली टीचर उमा खुराना के स्टिंग आपरेशन के बाद यक़ीन हो गया कि चमकदार मुहावरे से हमें छला गया।
एक स्टिंग आपरेशन में ये दिखाया गया कि दिल्ली की सरकारी स्कूल की एक टीचर छात्राओं से देह का धंधा करा रही है। ख़बर देखने के बाद पीड़ा हुई। ये सोचने पर मजबूर हुआ कि कल जब मेरी औलाद स्कूल में होगा तो उसके साथ क्या होगा? आंख मूदकर अपनी औलाद का भविष्य जिन टीचरों के हाथ में दे देते हैं, वो कल क्या सीख कर निकलेंगे? ये सोच सिर्फ मेरी नहीं थी। बहुत लोगों के ख़्याल ऐसे थे। बहुतों का ग़ुस्सा फूटा। कई स्कूल धमक गए। स्कूल के बाहर टीचर उमा खुराना के साथ हाथापाई की गई। कपड़े तार-तार किए गए। सबकी नज़र में वो स्कूली लड़कियों से धंधा करानेवाली महिला थी। भला हो दिल्ली पुलिस का , जो समय पर धमक गई और खुराना की जान बच गई। सब जगह ये खबर फैल गई। नज़ारा लगभग दंगे जैसा हो गया। भड़के लोगों ने पुलिस तक को नहीं बख़्शा। पुलिस की गाड़ियां फूक दीं। ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं का नारा देनेवाले पत्रकारों ने पुलिसवालों की ख़बर लेनी शुरू कर दी। ये साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि पुलिसवालों को सब ख़बर थी। लेकिन उनकी कोई मजबूरी थी। महान पत्रकारों ने नई विचारधारा देने का दावा भी कर दिया।
असलियत कुछ घंटों में सामने आ गई। स्टिंग आपरेशन ही फर्ज़ी साबित हो गया।पुलिस को पता चल गया कि जिस लड़की को स्कूली छात्रा बताकर देह व्यापार में शामिल बताया गया था , वो असल में रिपोर्टर थी। उसे नौकरी का झांसा दिया गया था। उसके साथ एक लड़का रिपोर्टर भी था। पुलिस ने उसे भी दबोच लिया। इसके बाद मुहावरेवाले भाई साहेब ने अपना पल्ला झाड़ लिया। कहने लगे - सारा दोष रिपोर्टर का है। उसी का सब किया धरा है। वो किसी और चैनल में जब काम करता था तो वहां से स्टिंग चोरी करके ले आया था।
अब सवाल ये है कि क्या ये एक रिपोर्टर की ग़लती थी?क्या वो किसी का मातहत नहीं था ? क्या दफ्तर बैठे सफेद बालों वाले संपादक प्रजाति के प्राणि लोग सिर्फ एसी का हवा खाने आते थे ? क्या चैनल में ब्यूरो चीफ नहीं होता ? खबर चलाने से पहले किसी ने सच्चाई पता करने की कोशिश नहीं की ? किसी और चैनल का स्टिंग उठाकर अपने चैनल में चला देना नैतिकता है ? क्या ख़बर से खेलने से पहले अनुभव का इस्तेमाल नहीं किया गया ? या बच्चों को ख़बरों से खेलने का मौक़ा दे दिया गया ? या फिर उस मैनेजमेंट का दोष है, कम लागत में ज़्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में अनुभवहीन लोगों की फौज खड़ा करती है। ऐसे पदों पर लाकर बच्चों को बिठा देती है , जिस पर अगर कोई अनुभवी व्यक्ति बैठे तो इस तरह की चूक न हो। एक छोटी सी ग़लती की सज़ा उमा खुराना को,उसके घरवालों और रिश्तेदारों को, समाज को और हर मां बाप को नहीं मिलती। टीआरपी पाने के लिए ऐसी ओछी हरकत नहीं की जाती और अपनी ग़लती छिपाने के लिए तरह तरह के तर्क नहीं गढ़े जाते। एक व्यक्ति से हुई ग़लती की सज़ा पूरे क़ौम को , पूरी बिरादरी को नहीं मिलती। मीडिया पर अंकुश लगाने का बहाना खोज रहे कुछ नेताओं और अफसरों को बैठे बिठाए हल्ला मचाने का मौक़ा मिल गया। पत्रकारों और स्टिंग आपरेशन पर जनता जो एतबार कर रही थी , वो पल भर में मटियामेट हो गया। सवाल ये है कि किसी एक व्यक्ति या कंपनी की ग़लती की सज़ा पूरी बिरादरी को क्यों मिलनी चाहिए। ग़लती जिसने की है , सज़ा भी उसे मिले। लेकिन एक केस के बुनियाद पर स्टिंग आपरेशन को ही कटघरे में खड़ा कर देना कहां तक जायज़ है ? पुलिस के पास अगर दोषियों के ख़िलाफ़ सबूत हैं, तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करे।
सबसे अहम सवाल ये है कि जिन लोगों ने अपने फायदे के लिए स्कूली टीचर उमा खुराना की मिट्टीपलीद कर दी, उनके साथ क्या सलूक किया जाए। क्या समाज उन पत्रकारों को वहीं सज़ा देने की हिम्मत औऱ हैसला रखता है, जो उसने उमा खुराना को दी थी ? ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं का नारा देनेवालों के कपड़े भी तार तार करने के लिए समाज तैयार है ? क्या एक या दो रिपोर्टर को सज़ा देकर या उन्हे सस्पेंड करके अधिकारी दोषमुक्त हो सकते हैं ? क्या अधिकारी इस सवाल का जवाब दिल पर हाथ रखकर दे सकता है कि अगली बार जब किसी कुकर्मी, बेइमान, भ्रष्ट अफसर या नेता या पुलिस वाले की पोल पट्टी खोलने के लिए स्टिंग आपरेशन किया जाएगा तो जनता उस पर भरोसा करेगी या नहीं ? अगर नहीं तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को मज़बूत बनाने में जिन लोगों ने अपना ख़ून पसीना बहाकर और पुलिस - सरकार के हर जुल्म सहकर जो आदर्श औऱ सिद्धांत अगली पीढ़ी को सौंप गए थे, उसकी बरबादी की ज़िम्मेदारी किसकी होगी ?समय आ गया है कि लोग अपनी ग़लती का अहसास करें। अपनी ग़लती किसी और पर न थोंपे। क्योंकि समाज ये बरसों से जानता है- ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं ।