Wednesday, September 9, 2020

फिल्म स्टार की मौत में मीडिया का महागिद्ध भोज!

एक्टर सुशांत सिंह राजपूत मामले में मीडिया ने जिस तरह से रिपोर्टिंग की है, उससे ये सवाल उठना लाजिमी है कि क्या मीडिया अपनी हदें भूल गया है। क्या वो जान बूझकर नैतिकता की सारी लक्ष्मणरेखा को पार कर रहा है। सुशांत सिंह राजपूत की मौत और रिया चक्रवर्ती के ड्रग्स कनेक्शन को लेकर मीडिया ने जिस तरह से रिपोर्टिंग की है, उससे मीडिया की साख को गहरा धक्का लगा है। कुछेक न्यूज़ चैनल खुद ही जांच एंजेसी बन बैठे। खुद ही अदालत बन गए। खुद ही फैसला सुना दिया। टीआरपी की इस अंधी दौड़ में चैनलों ने रोज नई कहानियां गढ़ी। कभी किसी को विलेन बना दिया। कभी किसी को हीरो बना दिया। उन्होंने इस बात की भी कतई परवाह नहीं की कि उनकी इस तरह के गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता से किसी की छवि तार तार हो रही है या उसके परिवार की इज्जत बीच चौराहे पर नीलाम हो रही होगी। उन्हे मतलब था तो सिर्फ टीआरपी। टीआरपी यानी शुद्ध मुनाफा। 

टीवी न्यूज़ के इतिहास में आज तक किसी के मौत पर मीडिया का महागिद्ध भोजन नहीं देखा थी। लेकिन सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर मीडिया ने ये महागिद्ध भोजन भी देख ले लिया। नंबर और टीआरपी गेम में लगे कुछ चैनल्स ने एक्टर की मौत के बाद अपने विज्ञापनों के रेट भी बढ़ा दिए हैं। इनदिनों दिल्ली की सड़कों पर टीआरपी के दावों को लेकर होर्डिंग्स पटे पड़े हैं। राजपूत की मौत और रिया को लेकर अपनी रिपोर्टिंग शैली से चुछ चैनलों ने शूचिता की मर्यादा को तार तार कर रख दिया। खबर बताते-बताते रिपोर्टर, एंकर और संपादक गण ऐसे चीखने लगते हैं, मानो कि दौरा पड़ गया हो। 

वैसे मीडिया की ये गिरावट की पराकाष्ठा है, जिसकी स्क्रिप्ट उसी दिन से लिखनी शुरू हो थी, जब एक विशेष राजनीतिक दल की विचारधारा को समर्थन करनेवाले चैनल में नाग-नागिन की संभोग कथा, भूत प्रेत का साया, मौत का लाइव दिखाकर टीआरपी हासिल करने की सस्ता हथकंडा अपनाया। ये प्रयोग सफल रहा तो देखा-देखी और भी कूद पड़े। हाल के दिनों में पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम को पुलिस गिरफ्तार करने गई तो एक चैनल पर कथित संपादक-एंकर अति उत्साह में आकर चिल्लाने लगे- देखो देखो, चोर जा रहा है। इस सरकार में अब एक भी चोर बच नहीं पाएगा। अब आप सोचिए कि पुलिस उन्हे अभी जेल लेकर जा रही है अदालत नहीं, जहां उनके दोषी होने या ना होने का फैसला होगा। लेकिन जनाब खुद ही अदालत बन बैठे। क्या यही पत्रकारिता है।

पत्रकारिता में गिरावट पर बहस अरसे से चल रही है। कांधार हाईजैक कांड के समय एक चैनल ने एक अपहरकर्ता का इंटरव्यू दिखाया था। तब इस बात पर बहस छिड़ी कि क्या उस चैनल को ऐसा करना चाहिए था। उसके बाद ऐसे कई मौके आए, जब मीडिया अपनी सीमाओं को भूलता रहा। मसलन, आरुषि तलवार हत्याकांड में उसके मां-बाप डॉक्टर राजेश तलवार और डॉक्टर नुपूर तलवार के नाम आए। सीबीआई जांच शुरू हुई। उसके बाद महीनों तक मीडिया रोज नई नई कहानियां दर्शकों के सामने परोसता रहा। सुशांत सिंह राजपूत की मौत और रिया की गिरफ्तारी के दौरान कुछ चैनलों ने ये साबित कर दिया कि उनके लिए मान-सम्मान, नैतिकता, आदर्श और सिद्धांत की कोई कीमत नहीं। वो बस मीडिया की आड़ में अपनी विचारधारा, किसी दल या नेता के लिए अगाध आस्था का प्रकटीकरण करने में भरोसा रखते हैं।