Thursday, November 8, 2007

ख़बरदार, जो वेश्या कहा

बिहार में अब वेश्या को वेश्या कहना महंगा पड़ेगा। वर्दी और डंडे के जो़र पर अच्छों -अच्छों को लाइन पर लानेवाली पुलिस भी अपनी आदत बदलेगी। आइंदा से जब वो वेश्याओं को गिरफ्तार करेगी, तो थाने में उसके साथ बहुत अच्छा बर्ताव करेगी। हो सकता है कि बिहार पुलिस वेश्याओं की ख़ातिरदारी करते मिले। पुलिस को ये सब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हुक़्म पर करना पड़ेगा। पक्के समाजवादी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने के लगभग ढाई साल बाद वेश्याओं का ख़्याल आया। नीतीश कुमार का कहना है कि कोई शौक़ से वेश्या नहीं बनती। ग़रीबी, मजबूरी औऱ दबंगों की वजह से उन्हे देह का धंधा करना पड़ता है। इसलिए अब जब भी पुलिस वेश्याओं को पकड़े तो उन्हे आरोपी न बनाए। उन्हे पीड़ित बताए। क्योंकि तमाम तरह की पीड़ाओं को झेलकर ही वो देह का सौदा करने पर मजबूर हुई है। इसलिए पुलिस उसे वेश्या न माने। वेश्याओं का दर्द सीने में दबाए नीतीश कुमार का ये बयान उन वेश्याओं की मांग से ज़्यादा दमदार और मार्मिक है, जो देहव्यापार को मज़दूरी का दर्ज़ा देने की मांग करती आ रही हैं और संसद से लेकर सड़क तक पर आंदोलन कर ही है।
नीतीश कुमार ने सही फरमाया है। कोई शौक़ से देह व्यापार का अपराध थोड़े ही करता है। ठीक वैसे ही, जैसे कि कोई चोरी शौक़ से नहीं करता। तफरीह के लिए डाका नहीं डालता। प्यास बुझाने के लिए किसी का ख़ून नहीं बहाता । सबकी अपनी- अपनी मजबूरियां होती हैं। सबकी मजबूरियों को बिहार पुलिस समझे। ताकि देश के बाक़ी राज्यों को सबक मिले। सरकारें समझें कि अपराधी के अपराध के पीछे छिपे सामाजिक मजबूरी को समझें। उस मजबरी को दूर करें। अपराध ख़ुद ब ख़ुद ख़त्म हो जाएगा।
नीतीश कुमार जानते हैं कि गांधीगिरी का उनका ये तरीक़ा देसी राजनीति की कीचड़ में फंसकर गंदा हो जाएगा। इसलिए उन्हे इसे अमल में लाने के लिए उन्हे फिरंगियों की ज़रूरत आन पड़ी। यूनाएटेड आफिस आन ड्रग्स एंड क्राइम की मदद से उन्होने नई शुरूआत की है। मानव तस्करी निरोध कोषांग बना दिया है। शुरूआत कोषांग पटना, गया और मुज्जफरपुर से होगी। सफलता मिलने पर पूरे सूबे में काम करेगा। नीतीश कुमार को उम्मीद है कि वेश्यावृति ख़्तम करने का उनका ये फार्मूला जब हिट होगा तो पूरे देश में इसे लागू किया जाएगा। जिस तरह से रेल मंत्री रहने के दौरान किए गए काम काज की आज भी तारीफ होती है । ठीक वैसे ही वेश्यावृति मिटान में उनके योगदान को याद रखा जाएगा। नीतीश जी की जय हो। धन्य हैं अपने नीतीश बाबू जी की।

Wednesday, November 7, 2007

मित्रों, फिर आई है दीवाली। इस दीवाली में मुझे एक पुराना मुखड़ा याद पड़ा। सोचा , क्यों न दीवाली के बहाने अपने मित्रों को इस गीत की फिर से याद दिला दूं। हरियाली और रास्ता फिल्म में मुकेश औऱ लता मंगेशकर ने इसे गाया था। शायद , ये गीत दिल के उस कोने को छू जाए, जहां अब भी कोई टीस हो। बोल कुछ इस तरह से हैं....

मुकेश-
लाखों तारे आसमान में
एक मगर ढूंढे ना मिला
देखें दुनिया की दीवाली
दिल मेरा चुपचाप जला
दिल मेरा चुपचाप जला
लता-
लाखों तारे आसमान में
एक मगर ढूढें ना मिला
एक मगर ढूंढे ना मिला
मुकेश
क़िस्मत का है
नाम मगर है
कम है ये दुनियवालों का
फूंक दिया है चमन हमारे ख़्वाबों औऱ ख़्यालों का
जी करता है ख़ुद ही घोंट दें
अपने अरमानों का गला
देखें दुनिया की दीवाली
दिल मेरा चुपचाप जला
दिल मेरा चुपचाप
लता
सौ सौ सदियों से लंबी ये
ग़म की रात नहीं ढलती
इस अंधियारे के आगे अब
ऐ दिल की एक नहीं चलती
हंसते ही लुट गई चांदनी
और उठते ही चांद ढला
देखें दुनिया की दीवाली
दिल मेरा चुपचाप जला
दिल मेरा चुपचाप जला
मुकेश
मौत है बेहतर इस हालत से
नाम है जिसका मजबूरी
लता
कौन मुसाफिर तय कर पाया
दिल से दिल की ये दूरी
मुकेश
कांटों ही कांटों से गुज़रा
जो राही इस राह चला
देखें दुनिया की ये दीवाली
दिल मेरा चुपचाप जला
दिल मेरा चुपचाप जला
लता
लाखों तारे आसमान में
एक मगर ढूंढे ना मिला
देखें दुनिया की दीवाली
दिल मेरा चुपचाप जला
दिल मेरा चुपचाप जला

Saturday, November 3, 2007

फिर छिड़ी है बहस ज़िम्मेदारी की

एक प्राइवेट चैनल पर दिल्ली की स्कूल टीचर उमा खुराना को स्कूली छात्राएं सप्लाई करनेवाली पिंप की तरह दिखाया गया था। बाद में रिपोर्टर के पकड़े जाने पर खुलासा हुआ कि उमा खुराना को फर्ज़ी फंसाया गया है। मामला अदालत में है। लेकिन अदालत ने इस बारे में जो टिप्पणी की है, उससे प्राइवेट चैनल वालों के पेशानी पर बल पड़ गए हैं। अदालत ने पूछा है कि इस गड़बड़झाले के लिए चैनल को क्यों नहीं ज़िम्मेदार माना जाए। आख़िर चूक संपादकीय प्रबंधन की भी तो है। अदालत ने उस दिल्ली पुलिस को भी जवाब तलब किया है कि उसने इस बारेमें चैनल और उसके संपादकीय विभाग के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई की है।
हमेशा आपके साथ रहने का दावा करनेवाली दि्लली पुलिस ने अपनी जांच में उमा खुराना को बेक़सूर पाया। पुलिस की नज़र में रिपोर्टर और उसकी सहेली दोषी है। लेकिन पुलिस की जांच रिपोर्ट में इतना बचपना क्यों है कि उसे चैनल के बड़े अधिकारियों की ग़लती नज़र नहीं आती। प्राइवेट चैनल हो या सरकारी - हर जगह हर ख़बर की स्कैनिंग के लिए टीम होती है। ये नियम इस चैनल पर भी लागू है। चैनल के संपादकीय नीति की कमान ऐसे अनुभवी पत्रकार के हाथ में है, जो कुल जमा बारह साल के अनुभव को सफेद बालों वाले पत्रकारों के अनुभव से तौलता है और अपने अनुभव को हमेशा बीस पाता है। कभी मॉडलिंग की दुनिया में हाथ पैर पटक चुके इस पत्रकार ने पुलिस के सामने भोला भाला बयान दिया कि उसे उसके रिपोर्टर ने गुमराह किया। पुलिस भी इतनी भोली कि उसके बयान को बेदवाक्य की तरह सही मान लिया। लेकिन इस भोलेपन ने परदे के पीछे ऐसे कुछ सवाल छोड़ दिए हैं, जिसका जवाब पाना इस स्टिंग आपरेशन की सच्चाई जानने के लिए ज़रूरी है।
अगर दोष सिर्फ उस रिपोर्टर का था तो फिर चुपके से उस पत्रकार से इस्तीफा क्यों मांग लिया गया, जिसकी नज़र में ये स्टिंग आपरेशन सही था। जिसने इस ख़बर को चलाने में अहम भूमिका निभाई थी। चंद दिनों में वो मन से क्यों उतर गया। चैनल प्रमुख की बात थोड़ी देर के लिए सच मान लेते हैं । फिर चैनल प्रमुख ये बात बताएं कि चैनल के दफ्तर में ऐसे लोगों की भीड़ क्यों जुटाई गई है जो डेस्क संभालते हैं। अगर रिपोर्टर की कोई भी स्टोरी इन लोगों की जानकारी या मर्ज़ी के बग़ैर एयर हो रही है तो ऐसे लोगों की टोली क्या आफिस में एसीकी हवा खा रही है। फॉक्स चैनल का स्लोगन - वी रिपोर्ट , यू डिसाइड का स्लोगन हिंदी में अनुवाद कर - ख़बर हमारी , फैसला आपका का नारा बुलंद करनेवाले क्या कर रहे हैं। भूत प्रेत और नाग नागिन का डांस दिखाने के एक्सपर्ट पत्रकारों की नज़रें इतनी कमज़ोर है कि इस स्टिंग आपरेशन के होनेवाले डंक के असर के मर्म को नहीं समझ पाए। या फिर सस्ती लोकप्रियता औऱ जल्दी आगे बढ़वने की होड़ में एक महिला टीचर की बदनामी करने से भी नहीं घबराए। हर ख़बर पर जनता का मत लेनेवाले मूर्धन्य पत्रकार ये बता सकते हैं कि उनकी बचकानी हरकत से उमा खुराना की जो बदनामी हुई है, जो किरकिरी हुई है, उसकी भरपाई कैसे होगी। फर्ज़ी ख़बर को देखकर उमा खुराना की पिटाई करनेवाले औऱ सरेआम कपड़े नोंचनेवाले ये बता सकते हैं कि क्या माफी मांग लेने या दूसरे के मत्थे ठीकरा फोड़ देने से उमा खुराना को जो जगहंसाई हुई है, वो वापिस हो जाएगी। नहीं लगता कि प्रबुद्ध, मूर्धन्य और अनुभव के बोझ तले उन पत्रकारों में इतनी सत्सहास है कि वो एयर पर बार बार दोहराएं कि हमारी ग़लत ख़बर की वजह से उमा खुराना को तकलीफ हुई है। बदनामी हुई है। जगहंसाई हुई है। पिटाई हुई है।कोर्ट कचहरी का चक्कर लगाना पड़ा है। नौकरी गंवानी पड़ी है। उसे अपनी ईमानदारी के लिए हर चौखट पर सबूत पेश करना पड़ रहा है। हम माफी मांगते हैं। हम शर्मिंदा है। हमने उमा तुझे जीते जी मार दिया। महिला का सबसे बड़ा गहना - इज्ज़त को हमने तार तार कर दिया। हमें अब शर्म आती है। आइंदा हम ये नही कहेंगे कि ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं है। क्योंकि इस ख़बर में बचपने से ज़्यादा अपराध था। हम विज्ञापन से होनेवाली महीने- दो महीने की कमाई तुम्हारे हवाले कर रहे हैं। हम श्रमजीवी पत्रकार, जिनके कंधे पर नैतिकता की ज़िम्मेदारी है, हम उसे समझते हैं। श्रम से कमाई गई रक़म का एक हिस्सा आपके हवाले कर रहे हैं। हम उस रूतबे को वापस तो नही कर सकते लेकिन माली तकलीफ को दूर कर सकते हैं। लेकिन क्या अनुभवों के बोझ तले दबे पत्रकारों की ये टोली ऐसा कोई क़दम उठाएगी। बहस खुली है। क्योंकि यहां सवाल जनमत का है ।