Wednesday, February 17, 2021

देवी दुर्गा ही लगा रही हैं ममता की नैय्या पार

 


बिहार के बाद बहुत जल्द ही पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इनमें से पश्चिम बंगाल, असम और केरल के चुनाव राजनीति के हिसाब से बेहद अहम माने जा रहे हैं। इन राज्यों के चुनावी नतीजे केंद्र की भावी राजनीति और मोदी सरकार के भविष्य की दशा दिशा तय करेगा। असम में बीजेपी की मिली जुली सरकार है। असम में घुसैपेठियों के मुद्दे पर चुनाव लड़ने जा रही बीजेपी के लिए सरकार बचाए रखने की चुनौती है तो वहीं पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने अमित शाह और जेपी नड्डा की अगुवाई में पूरी ताकत झोंक रखी हैं। बंगाल में हर पल राजनीति करवट ले रही है। कभी विकास बनाम विनाश का नारा बुलंद किया जाता है तो कभी लड़ाई राम बनाम दुर्गा पर आकर टिक जाती है। टीएमसी नेताओं को लगातार तोड़कर बीजेपी ये संदेश देने की कोशिश कर रही है कि ममता बनर्जी की तानाशाही और मनमानी से पार्टी के लोग ही परेशान हैं। वहीं बेपरवाही दिखाकर सीएम और टीएमसी ममता बनर्जी ये दिखाने की कोशिश कर रही हैं कि इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। वो अपने दम पर सरकार में लौटेंगी। 


बीजेपी की कोशिश है कि बंगाल का चुनाव वो बहुकोणीय बना सके। इसमें वो अपना ज्यादा से ज्यादा फायदा देख रही है। बिहार जीतने के बाद AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी भी हुगली वाले फुरफुरा शरीफ के साथ मिलकर चुनाव लड़ने जा रहे हैं। हांलाकि टीएमसी उन्हें बाहरी बताकर कुछ यूं जताने की कोशिश कर रही है कि मानों ओवैसी का आना उसे अखर रहा है। क्योंकि ओवैसी 35 फीसदी मुस्लिम वोटरों में सेंध लगाकर कहीं ना कहीं से बीजेपी के लिए जीत की राह आसान करने आए हैं। वहीं कभी टीएमसी के साथ मिलकर कभी चुनाव लड़ने का इरादा रखनेवाले ओवैसी अपने ऊपर लगे आरोपों को झुठलाने में मशगूल हैं। फिलहाल बंगाल का चुनाव में तीन बड़े प्लेयर दिखाई दे रहे हैं। सत्ताधारी टीएमसी का मुख्य मुका़बला कमजोर या यूं कहें कि लगभग खत्म हो चुकी लेफ्ट और कांग्रेस की जगह बीजेपी से है। मैदान में कांग्रेस और लेफ्ट का गठबंधन है। अभी फुरफुरा शरीफ और ओवैसी का गठबंधन जमीनी स्तर पर आकार नहीं ले पाया है लेकिन मीडिया में जरुर छाया हुआ है। 

हिंदी पट्टी के राज्यों को जीतने की आदत बना चुकी बीजेपी बंगाल को भी उसी तरह से ट्रीट कर रही है। वो भूल रही है कि ये माटी राम नाम के फसल नहीं देती। इस राज्य में रामनवमी कभी भी उस उत्साह के साथ नहीं मनाया गया जैसा कि बिहार यूपी में होता है। जिस छटी मैय्या को यादकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार के चुनाव में कूदे थे। बावजूद इसके जिस तरह से वो सत्ता में लौटे। वो किसी से छिपा नहीं है। वो छटी मैय्या बंगालियों के लिए कोई गर्व देनेवाला त्यौहार भी नहीं है। बिहार यूपी के लोग वहां पर ये उत्सव जोर शोर से मनाते हैं। बंगाली इसमें सहयोग ज़रुर करता है। लेकिन इसे बिहारियों और मेड़ो (एक तरह से अपशब्द) का पर्व मानता है। 

बंगाल में दुर्गा, काली और जगद्धार्थी जिस तरह से पूजी जाती हैं और बंगालियों में इन देवियों के लिए जिस तरह से आराध्य हैं। उस तरह बंगाल की धरती पर श्रीराम पूजनीय नहीं है। आराध्य नहीं है। बंगालियों में जिस तरह से दुर्गा और काली के लिए जोश उबाल मारेगा, उस तरह से राम के लिए नहीं। बंगाल में राम के लिए दहाड़नेवाले बीजेपी के चाणक्य अमित शाह को इस मर्म को समझना होगा। बंगाल में उनके राम का नारा मावड़ा (बंगालियों की भाषा में बिहार यूपी के लोग) को उद्वेलित जरुर कर सकता है। लेकिन बंगालियों को नहीं। बंगाली आदीशक्ति देवी दुर्गा के समकक्ष किसी को नहीं मानता। ममता ने श्रीराम के नारे को जय सिया राम में बदलकर ये बताने की कोशिश की है कि राम से परहेज़ नहीं है। लेकिन राम को अगर नारी शक्ति सिया का साथ ना मिला होता तो वो मर्यादा पुरुषोत्तम ना बन पाते। बीजेपी के पास फिलहाल इसका कोई तोड़ नहीं है। बंगाल में राम से कहीं ज्यादा श्रीकृष्ण पूजे जाते हैं। इस्क़ॉन वालों ने कृष्ण का बड़ा मंदिर भी बना रखा है। लेकिन कृष्ण भी दो तीन जिलों में ही बेहद पूजनीय हैं। रही बात देवी दुर्गा की तो बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष राम की महिमा के बखान में देवी दुर्गा के अस्तिव को चुनौती देकर सेल्फ गोल कर चुके हैं। उनका ये बयान साथी शुभेंदु अधिकारी के सीएम की कुर्सी पर दावे को कमजोर करने के लिए था कि वो सबसे बड़े राम भक्त हैं। अपेन इस बयान से वो बड़े रामभक्त तो जरुर बन गए हैं लेकिन बीजेपी को बंगालियों के बीच दुश्मन भी बना गए हैं। दिलीप घोष के बयान के बाद बीजेपी के लिए अब उतना जोरदार माहौल भी नहीं रहा, जो चंद रोज़ पहले तक था। फिलहाल जो सियासी माहौल दिख रहा है, वो मोदी, शाह, नड्डा और संघ की पूरी शक्ति के बाद भी टीएमसी बढ़त पर दिख रही है। 

Thursday, December 31, 2020

सोनिया को हटाने की रणनीति को अमलीजामा पहनाने लगे पवार

शायद राजनीति का ही दूसरा नाम मौकापरस्ती है। क्योंकि ये केवल राजनीति में ही रिवाज है कि जब जहां जिससे फायदा मिले, फौरन उसके गले मिले। फायदा निकल जाने पर उसके सीने पर पैर रखकर उससे बड़े फायदे के लिए किसी और के साथ हाथ मिला ले। भारतीय राजनीति में अगर कोई इस कला की राजनीति का उस्तादों का उस्ताद है तो उनका नाम एनसीपी चीफ शरद पवार है। कभी कांग्रेस की कार्यवाहर अध्यक्ष सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर 1999 में दूसरी बार कांग्रेस छोड़कर अपनी अलग पार्टी बनाने वाले पवार ने बाद के दिनों में फिर से सोनिया का पल्लू थामा। क्योंकि दुश्मनी के बाद दोस्ती में ही भलाई दिखी। अभी तक साथ दिख रहे हैं। वो हर मुश्किल घड़ी में सोनिया के लिए ऐसे संकटमोचक बनकर उभरते हैं कि मानों वो सहयोगी पार्टी की नहीं बल्कि कांग्रेस के नेता हों। हाल के महाराष्ट्र चुनाव में कांग्रेस और एनसीपी जब हार गई तब पवार ने वो कारनामा कर दिखाया जो मुमकिन नहीं था। उन्होंने सूरज और चांद को मिलाने वाली कहावत की तरह कट्टर हिंदुत्व की राजनीति करनेवाली शिवसेना और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली। भले ही वो सरकार लंगड़ा लंगड़ा कर चल रही हो। 

कहते हैं ना कि हाथी के दो दांत होते हैं। खाने के और दिखाने के और। पवार की भी राजनीति में कई मुखौटे हैं। अभी वो दिख तो सोनिया गांधी के साथ रहे हैं। लेकिन पत्ता फेंट रहे हैं कि कैसे सोनिया गांधी की कुर्सी हथिया ली जाए। नब्बे के दशक में राजीव गांधी की मौत के बाद पीएम बबने की हसरत रखनेवाले पवार का सपना सोनिया गांधी ने नरसिम्हा राव को पीएम बना दिया था। जबकि सारे कांग्रेसी सोनिया को चाह रहे थे। पीएम बनने के लिए पवार ने बहुत पापड़ बेले थे। कई कांग्रेसियों को चुनाव में बड़े कॉरपोरेट घराने से मोटी फंडिंग कराई थी। फाइव स्टार होटलों में कई बार दावत भी दी। लेकिन दिल के अरमान आंसुओं में बह गए थे। पवार ेक दिल में वो कसक आज भी बाकी है। 

नरेंदर मोदी की राजनीति के आगे कमजोर हो चुकी कांग्रेस में आज अध्यक्ष और नेतृत्व को लेकर जो संकट और प्रश्नचिन्ह लग रहा है, उसके पीछे भी शरद पवार का ही हाथ है। उनके साथ के ही कांग्रेसी पार्टी में नेहरू गांधी परिवार से बाहर का नया अध्यक्ष खोज रहे हैं। पवार ये भी उकसा रहे हैं कि एक एक सभी नेता सोनिया गांधी के यूपीए अध्यक्ष बने रहने पर सवाल खड़े करें कि जो अपनी पार्टी नहीं संभाल सकती हैं तो कई पार्टियों का समूह यानी यूपीए कैसे संभाल सकती हैं। कई कांग्रेसी कानाफूसी कर भी रहे हैं। लेकिन पवार की नई दोस्त शिवसेना खुलकर ये बात कहने लगी है। 

अस्सी बरस के हो चुके पवार भले अब उतने ऊर्जावान नहीं रह गए हैं, जैसा कि वह 1978 में इंदिरा गांधी और 1999 में सोनिया गांधी से बगावत करते समय थे। लेकिन हसरतें अब भी जवान हैं। थे। वो 1996 96 और 98 की कहानी को दोहराने का इरादा रखते हैं। जब कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन राष्ट्रीय मोर्चा का लीडर टीडीपी सुप्रीमो और आंध्र के सीएम रहे नंदमुरी तारक रामाराव को चुना गया था। इसलिए पवार ऐसा शिगूफा छोड़ रहे हैं कि अगर अतिशक्तिशाली हो चुके नरेंद्र मोदी को हराने के लिए कोई उन तमाम नेताओं को एक मंच पर लाकर मुट्ठी बना सकता है तो वो केवल वहीं है। सोनिया के नाम पर बहुत सारी पार्टियां और नेता नहीं आएंगे। लेकिन वो वो टीएमसी सुप्रीमो ममता बैनर्जी, बीजेडी सुप्रीमो नवीन पटनायक, आरजेडी के लालू यादव, जेडीयू के नीतीश कुमार, यूपी से मुलायम सिंह यादव-अखिलेश यादव, तेलंगाना से असदुद्दीन ओवैसी, असम से पूर्व सीएम प्रफुल्ल महंत, टीआरएस के के चंद्रशेखर राव, वीआईएसआर के जगनमोहन रेड्डी, जेडीएस के एचडी देवगौ़ड़ा को लाकर मोदी का तख्ता पलट सकते हैं। अब देखना है कि पवार का पावर सेंटर के लिए ये नया खेल क्या गुल खिलाता है। 


Sunday, December 13, 2020

ममता बैनर्जी संभल जाओ-ठाकुरबाड़ी से ये पंगा हर सरकारों को महंगा पड़ा है

अपनी ज़मीन खो चुकी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की चीफ ममता बैनर्जी पूरी तरह से तानाशाही पर आमादा हैं। बीते दिनों जनवरी 2020 में बंद हो चुपके हत्या के एक केस में टीएमसी छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को हराकर सांसद बने अर्जुन सिंह और विधायक सुनील सिंह के घरों पर सात थानों की फोर्स के जरिए छापेमारी की कोशिश की। जबकि एक दिन पहले ही अर्जन के सहयोगी रहे हालीशहर के एक कार्करता की हत्या समेत छह कार्यकर्ताओं को टीएमसी वालों ने घायल कर दिया। इस घटना ने साबित कर दियाय कि ममता बैनर्जी की सरकार एंड ऑर्डर पर पूरी तरह से फेल हो चुकी है। हिंदी भाषी और मुसलमानों का वोट गभग खो चुकी ममता बैनर्जी बीजेपी के बढ़ते असर से पूरी तरह से घबरा गई हैं। इसलिए वो हिंदीभाषियों और मुसलमानों के बड़े नेता बन चुके सुनील सिंह और अर्जुन सिंह पर लगातार वार कर रही हैं। बहुत पुरानी बात नही्ं है जब कांकीनाड़ा में अर्जुन सिंह के घर के बाहर जय श्रीराम का नारा लगा रहे अर्जुन सिंह के समर्थकों पर भड़ गई थीं। गाड़ी से उतर कर यूपी वालों को वापिस भेजने की धमकी दी थी।



आज ममता को अर्जुन और सुनील अपराधी नजर आते हैं। लेकिन वो उस दिन को भूल गईं कि जब उनके कभी राइट हैंड माने वाले वकील विकास बाु की हत्या में अर्जुन और सुनील पर केस ला था। तब ममता को ये दोनों नेता बाहुली नज़र नहीं आए थे। अपना सबसे खास सहयोगी की हत्या के बाद भाी नोयापाड़ा आकर सुनीलल और अर्जुन को टीएमसी में ले गई थीं। क्योकि तब उन्हें ताक़तवर वामपंथिों को हराने के लिए कद्दावर और ताक़वर लोगों का साथ चाहिए था। अब साथ छूट गया तो पिछले डेढ़ सालों में दोनों नेताओं पर डेढ़ सौ ज़यादा मुक़दमें लाद लिए। ममता बैनर्जी भूल रही हैं कि बंगाल काशी और ऋषिकेश से भी ज़्यादा हिंदुओं के लिए पवित्र जगह है। यहां नारा लगतदा रहा है कि सारा तीरथ सौ बार और गंगासागर बस एक बार। ईश्वर इसी जन्म में पाप और पुण्य का फैसला कर देता है। ममता बैनर्जी समय रहते संभल जाएं। वर्ना रघवंशी ठाकुरों का श्राप लगेगा। मई 2021 में महिषासुर वध हो सकता है। बेहतर हो कि ममता अमेटी कॉलेज नोएडा से पढ़कर निकले अपने भतीजे अभिषेक को शेडो सीएम और टीएमसी चीफ बनने से रोकें। उसी की जह से ममता की ये दुर्गति हो रही है। वर्ना ये ठाकुरबाड़ी टीएमसी के सर्वनाश के लिए तैयार बैठी है।

Friday, November 13, 2020

क्यों हो जाते हैं एक्जिट पोल फेल?

बिहार के चुनाव ने एक बार फिर साबित कर दिया कि सबसे तेज चैनल हो या सबसे पहले वाला चैनल। सबके इलेक्शन प्रीडिक्शन यानी एक्जिट पोल ताश के पत्तों की तरह भरभरा गए। एक बार फिर हर तरह की मीडिया बड़ी बेशर्मी के साथ अपनी गलती पर परदा डालकर बनने वाली अगली सरकार के बहस मुबाहिस में लग गई। लेकिन वो ये भूल गई कि उनके इस धतकरमों से आम जनमानस में मीडिया की साख आज की तारीख़ में कहां पहुंच गई है। एक्ज़िट पोल की रायशुमारी में अपनी राय छिपानेवाला छुप्पा वोटर ये खुलकर कहने में तनिक भी नहीं डरता कि मीडिया तो बिकी हुई है। जो छुप्पा वोटर डर के मारे अगर वो ये नहीं कह पाता कि उसने किसको वोट दिया है या किसको और क्यों देगा। लेकिन मीडिया को खुलेआम दलाल कह पाने की साहस कर पा रहा है। तो यकीनन इसके लिए मीडिया का वो तबका अपराधी है, जो किसी कारणवश चाटुकारिता या भांट चारण की पत्रकारिता करता है। वो जनता को सच नहीं दिखाना चाहता। वो उसे छिपाता है। वो सरकारों और पार्टियों के लिए भोंपू का काम करते हैं। लाइव दिखाते हैं कि फलां साहेब ने पुल का उद्घाटन कर दिया। इस इलाकें में 70 सालों से पुल नहीं था। साहेब ने आज मोर का दाना चुगने को दिया। 70 सालों में आज तक ऐसा किसी ने नहीं किया था। मीडिया अपना राजधर्म भूल जाता है। जबकि होना तो ये चाहिए कि वो सरकारों को बार बार याद दिलाए कि उसने कौन कौन से ऐसे काम हैं, जो नहीं किए। उन बातों को ज़ोर शोर से उठाते रहना चाहिए, जो चुनाव में वादे करके सत्ता में आते हैं। इस नैतिक पतन और एक्जिट पोल के नेपथ्य की कुछ और बातें जल्द ही। 

Friday, October 2, 2020

रेंगनेवाली मीडिया को आज विरोध की आवाज उठाने की ताक़त मिली कहां से?

जैसा कि हर बड़ी घटनाओं के बाद होता आया है कि सरकार अपना नाकामियों को छिपाने के लिए सफेद झूठ बोलती है और जी हुजूरी के आदी अफसर लीपापीती करने में लगे जाते हैं। वो दोषियों को बचाने और आरोपियों की आवाज को अपनी बूट तले कुचलने का हर धतकम करती है। पिछले कुछ चंद सालों में सरकारों ने मीडिया को भी नचाना सीख लिया है। जो सरकार के इशारे पर नाचे, उन्हे भारत से सवाल पूछने का हक मिल जाता है। वो विरोधियों नेताओं का डीएनए निकालने का सरकारी लाइसेंस पा जाते हैं। जो नखरे दिखाते हैं, वो सरकारी विज्ञानों के पैसों की खनक आगे गुलाटी मारने लगते हैं। और जो नैतिकता, आदर्श और सिद्धातों की दुहाई देते हैं, उनके मालिकों-संपादकों को तरह-तरह के मुकदमों में फंसाया जाता है। बाज दफे जेल भी भेज दिया जाता है। 

मीडिया पर नए दौर में ये अघोषित आपातकाल नया नहीं है। देश के सबसे बड़े अंग्रेजी घराने में ये पहली बार हुआ था कि सही खबर छापने के बाद उसे माफी मांगनी पड़ी। प्रिंट में तो छप चुका था। तब भी सरकार के आंख-मुंह और कान रहे एक मोटा भाई को ये खबर रास नहीं आई थी। डिजीटल मीडिया में उल्टी खबर लगाई गई ताकि सरकार खुश हो जाएगा। लेकिन उस दिन शायद टेकनिक साथ नहीं दे रहा था। ऑफिस में तो खबर बदली हुई दिख रही थी लेकिन जब संपादक जी मोटा भाई के पास मोबाइल लेकर जा रहे थे तब खबर पहले वाली ही दिख रही थी। 

आज जब हाथरस में मीडिया के उन तमाम हस्तियों को पीड़िता के परिवार से मिलनेसे रोका गया, तो ये पहली बार हुआ कि मीडिया गोदी से उतर गई। वो उन पुलिसवालों से सवाल करने का हिम्मत जुटा पाई कि उन्हें किस धारा या का कानून के तहत मिलने से रोका जा रहा है। कल तक गोदी में बैठकर न्यूज़ दिखानेवाली मीडिया ये भूल गई कि अपराधों को ना देख पानी वाली जब अंधी हो गई तो भला वो इस घटना पर मीडिया के सीधे सवालों का जवाब कैसे दे सकती थी। वो तो गूंगी भी हो चुकी है और बहरी भी। हर घटना में सरकार कहती है कि ये अपराध हुआ ही नहीं। भारत से सवाल पूछने वाले एक सज्जन दूर की कौड़ी खोज लाए। सरकारी भाषा में बोलने लगा कि पीडिता के साथ रेप हुआ ही नहीं। उनसे कोई ये पूछे कि रेप की बात तो भूल जाइए। कम से कम इस पर तो बोलने की हिम्मत कीजिए कि केस दर्स करने में दस दिन क्यों लगे। और अगर अपराध हुआ नहीं तो सरकार ने क्यों लाखों के केस भेजे। क्यों मीडिया को घरवालों से मिलने रोका गया। क्यों डीएम साहेब को ये कहने की जरुरत पड़ी कि मीडिया आज नहीं तो कल चल जाएगी। लेकिन आपको रहना तो मेरे साथ ही पड़ेगा। कहते हैं ना कि जब की खुद की दाढ़ी में आग लगती है तो कोई पड़ोसी की दाढ़ी का आग पहले नहीं बुझाता। हाथरंसस कांड में टीआरपी है। विज्ञापन है। मुनाफा है। जब सरकार ने मीडिया की इंट्री बैन कर दी तो कमाई में अंधे हो चुके मालिकों ने कथित पत्रकारों को हड़काया होगा। तभी शायद गोदी में बैठकर न्यूज़ दिखानेवाली मीडिया अकबकाते हुए सरकार से सवाल पूछने का साहस दिखा पाई। क्योंकि अगर वो ऐसा नहीं करती तो अगले महीने एक महीने को जीरो बैलेंस वाले अकाउंट में पैसे कहां से आते।    

Wednesday, September 9, 2020

फिल्म स्टार की मौत में मीडिया का महागिद्ध भोज!

एक्टर सुशांत सिंह राजपूत मामले में मीडिया ने जिस तरह से रिपोर्टिंग की है, उससे ये सवाल उठना लाजिमी है कि क्या मीडिया अपनी हदें भूल गया है। क्या वो जान बूझकर नैतिकता की सारी लक्ष्मणरेखा को पार कर रहा है। सुशांत सिंह राजपूत की मौत और रिया चक्रवर्ती के ड्रग्स कनेक्शन को लेकर मीडिया ने जिस तरह से रिपोर्टिंग की है, उससे मीडिया की साख को गहरा धक्का लगा है। कुछेक न्यूज़ चैनल खुद ही जांच एंजेसी बन बैठे। खुद ही अदालत बन गए। खुद ही फैसला सुना दिया। टीआरपी की इस अंधी दौड़ में चैनलों ने रोज नई कहानियां गढ़ी। कभी किसी को विलेन बना दिया। कभी किसी को हीरो बना दिया। उन्होंने इस बात की भी कतई परवाह नहीं की कि उनकी इस तरह के गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता से किसी की छवि तार तार हो रही है या उसके परिवार की इज्जत बीच चौराहे पर नीलाम हो रही होगी। उन्हे मतलब था तो सिर्फ टीआरपी। टीआरपी यानी शुद्ध मुनाफा। 

टीवी न्यूज़ के इतिहास में आज तक किसी के मौत पर मीडिया का महागिद्ध भोजन नहीं देखा थी। लेकिन सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर मीडिया ने ये महागिद्ध भोजन भी देख ले लिया। नंबर और टीआरपी गेम में लगे कुछ चैनल्स ने एक्टर की मौत के बाद अपने विज्ञापनों के रेट भी बढ़ा दिए हैं। इनदिनों दिल्ली की सड़कों पर टीआरपी के दावों को लेकर होर्डिंग्स पटे पड़े हैं। राजपूत की मौत और रिया को लेकर अपनी रिपोर्टिंग शैली से चुछ चैनलों ने शूचिता की मर्यादा को तार तार कर रख दिया। खबर बताते-बताते रिपोर्टर, एंकर और संपादक गण ऐसे चीखने लगते हैं, मानो कि दौरा पड़ गया हो। 

वैसे मीडिया की ये गिरावट की पराकाष्ठा है, जिसकी स्क्रिप्ट उसी दिन से लिखनी शुरू हो थी, जब एक विशेष राजनीतिक दल की विचारधारा को समर्थन करनेवाले चैनल में नाग-नागिन की संभोग कथा, भूत प्रेत का साया, मौत का लाइव दिखाकर टीआरपी हासिल करने की सस्ता हथकंडा अपनाया। ये प्रयोग सफल रहा तो देखा-देखी और भी कूद पड़े। हाल के दिनों में पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम को पुलिस गिरफ्तार करने गई तो एक चैनल पर कथित संपादक-एंकर अति उत्साह में आकर चिल्लाने लगे- देखो देखो, चोर जा रहा है। इस सरकार में अब एक भी चोर बच नहीं पाएगा। अब आप सोचिए कि पुलिस उन्हे अभी जेल लेकर जा रही है अदालत नहीं, जहां उनके दोषी होने या ना होने का फैसला होगा। लेकिन जनाब खुद ही अदालत बन बैठे। क्या यही पत्रकारिता है।

पत्रकारिता में गिरावट पर बहस अरसे से चल रही है। कांधार हाईजैक कांड के समय एक चैनल ने एक अपहरकर्ता का इंटरव्यू दिखाया था। तब इस बात पर बहस छिड़ी कि क्या उस चैनल को ऐसा करना चाहिए था। उसके बाद ऐसे कई मौके आए, जब मीडिया अपनी सीमाओं को भूलता रहा। मसलन, आरुषि तलवार हत्याकांड में उसके मां-बाप डॉक्टर राजेश तलवार और डॉक्टर नुपूर तलवार के नाम आए। सीबीआई जांच शुरू हुई। उसके बाद महीनों तक मीडिया रोज नई नई कहानियां दर्शकों के सामने परोसता रहा। सुशांत सिंह राजपूत की मौत और रिया की गिरफ्तारी के दौरान कुछ चैनलों ने ये साबित कर दिया कि उनके लिए मान-सम्मान, नैतिकता, आदर्श और सिद्धांत की कोई कीमत नहीं। वो बस मीडिया की आड़ में अपनी विचारधारा, किसी दल या नेता के लिए अगाध आस्था का प्रकटीकरण करने में भरोसा रखते हैं।   

Tuesday, February 11, 2020

दिल्ली के जनादेश की धमक बिहार-बंगाल में भी सुनाई देगी

देश की राजधानी दिल्ली ने एक बार फिर आम आदमी पार्टी यानी आप को प्रचंड जीत का जनादेश दिया है। कांग्रेस की दिवंगत शीला दीक्षित की तरह ही आप के संयोजक और सीएम अरविंद केजरीवाल ने हैट्रिक बना ली। दिल्ली के इस चुनाव को केवल आप की जीत या बीजेपी-कांग्रेस की हार के तौर पर ही नहीं तौला जाना चाहिए। इस चुनावी नतीजों ने दशकों पुराने मिथकों को तोड़ा है और सियासत की नई इबारत लिखने की कोशिश की है। उम्मीद की जा सकती है कि साल 2020 में पढ़े लिखों का शहर माने जानेवाली दिल्ली से चली ये चुनावी हवा धीरे-धीरे पूरे देशभर में फैलेगी।   

पहली बात तो ये है कि दिल्ली नमे सांप्रदायिकता के मुद्दे को नाले में बहा दिया है। इसमें अच्छी बात ये भी है कि सांप्रदायिकता को नकारने वालों में उन प्रदेशों के लोग भी शामिल हैं, जो आज भी राम मंदिर-मस्जिद, मजहब और जाति के जंजीरों से आजाद नहीं हो पाई है। दिल्ली में बस बिहार-यूपी के वोटरों ने साल 2020 के चुनाव में इस जड़ता को तोड़ा है। साथ ही दिल्ली के वोटरों ने ये भी साबित किया है कि ज्यादा चालाकी कई बार बहुत भारी पड़ जाती है। सीएए लागू होने के बाद पहली बार हो रहे किसी चुनाव में आप विकास के नाम पर जब वोट मांगने निकली। तो केंद्रीय गृह मंत्री और बीजेपी के अध्यक्ष रहे अमित शाह ने बेहद चालाकी से शाहीनबाग के धरने को गद्दारी और देशभक्ति से जोड़ने की कोशिश की। उन्हें उम्मीद थी कि देशभक्ति और राष्ट्रवाद के चाशनीभरे नारों को दिल्ली की जनती गटक लेगी। लेकिन दिल्ली के लोगों ने अपने जनादेश से जता दिया कि उनके लिए शाहीनबाग, गाली, गोली, पाकिस्तान, इमरान, हिंदू-मुसलमान और गद्दारी को गोली नहीं चलेगी।
दिल्ली के जनता ने केवल फ्री वालों नारों पर भी मतदान नहीं किया है। हां ये सच है कि फ्री वाला नारा एक बड़ा फैक्टर जरुर बना है। लेकिन उसका आंकलन कुछ दूसरे तरीकों से भी किया जा सकता है। दो सौ यूनिट तक बिजली फ्री ने वोटरों में करंट जरुर पैदा किया। लेकिन वो वोटर भी आप के साथ जुड़े जो पहले की सरकारों में बिजली के भारी भरकम बिलों से परेशान थे। इस चुनाव ने ये भी साबित किया कि विकास के नाम पर चुनाव लड़ा भी जा सकता है और जीता भी। दिल्ली के डिप्टी सीएम और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने सरकारी स्कूलों में हुए सुधार और पढ़ाई की गुणवत्ता को आधार बनाया। सीएम केजरीवाल ने फ्री सफर, मुहल्ला क्लीनिक, कच्ची कॉलोनियों में डेवलमेंट जैसी तस्वीरें दिखाई और जनता ने उसे स्वीकारा भी। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि दिल्ली की जनता ने नफरत की आंधी के खिलाफ मशाल जलाने की दिलेरी दिखाई है। दिल्ली की जनता ने बताया है कि उसे विकास चाहिए। उसे अच्छी शिक्षा चाहिए। बेहतर स्वाथ्य सेवाएं चाहिए। बुनियादी और मौलिक सहूलियतें चाहिए। उन्हें मीठी गोली को जरुरत नहीं है कि भारत की हैसियत इतने ट्रिलियन की हो जाएगी। सबके खाते में पंद्रह लाख आ जाएंगे। अब पीओके लेकर रहेंगे। जो सत्तर सालों में नहीं हुआ, वो ऐतिहासिक गलितयों को सुधारने का कड़ा फैसला ले रहे हैं। हमारे सामने पाकिस्तान-अमेरिका गया तेल लेने। आदि-आदि। देश की राजधानी ने सड़ांध की राजनीति को अलविदा कह दिया है। तो क्या उम्मीद की जा सकती है कि दिल्ली की तरह बंगाल और बिहार के होनेवाले चुनावों में वहां के वोटर नक्सलियों को दफन कर देंगे और बांग्लादेशियों को भगा देंगे जैसे गुमराह करनेवाले नारों के झांसे में ना आकर उस पार्टी को वोट देंगे, जो वाकई उनके हित के लिए काम करने का इरादा रखती है। हां, इतना तो तय हो गया है कि दिल्ली के चुनाव में जो फॉर्मूला केजरीवाल ने सेट किया है, वो दूसरे राज्यों में भी मिसाल बनने लगा है। मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल सरकार 75 यूनिट तक बिजली फ्री देने जा रही है तो महाराष्ट्र सरकार सौ यूनिट तक बिजली फ्री देने का विचार कर रही है।