Tuesday, December 13, 2011

प्रेम ने तोड़ी मज़हबी दीवार


बाला साहेब ठाकरे ताउम्र मुसलमानों का घोर विरोध करते रहे....मुस्लिम विरोध की सियासत करते हुए महराष्ट्र में अपनी सियासी ज़मीन मज़बूत की.....उसी ठाकरे की पोती नेता ने नेहा ने एक मुस्लिम लड़के से शादी कर ली....इसके लिए उसने हिंदू धर्म को छोड़कर मुसलमान भी हो गई....ख़बर बेशक़ चौंकाने वाली हो....लेकिन सोलहों आने सच है....हैरानी इस बात की है कि मुस्लिमों के ख़ून के प्यासे होने का दावा करने वाले बाला ठाकरे भी इस शादी में मौजूद थे....अब ये पता नहीं कि वो कलेजे पर पत्थर रखकर आए थे या फिर पोती की खुशी के लिए मज़हब भूला बैठे थे.....वो अपने साथ पूरे परिवार को लेकर शादी के मंडप में पहुंचे....
बाल ठाकरे के तीन बेटे हैं.....बिंदुमाधव ठाकरे, जयदेव ठाकरे और उद्धव ठाकरे...बिंदुमाधव सबसे बड़े बेटे थे...उनका बहुत पहले देहांत हो गया था....उनकी बेटी नेहा का दिल गुजरात के डॉक्टर मोहम्मद नबी हन्नान पर आ गया था.....नबी के पिता बिंदुमाधव के गहरे दोस्त भी थे...इनदिनों बाल ठाकरे के बाग़ी भतीजे और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे से दोस्ती निभा रहे हैं....दोनों अरसे से चुपके-चुपके ‘दिलजोली’ कर रहे थे....ख़बरों के मुताबिक़, अपने दादा की नीति को देखते हुए दोनों सामाजीक तौर पर ब्याह रचाने से कतरा रहे थे...लेकिन दिल पर ज़ोर नहीं चल रहा था....दोनों ने लगभग तीन महीने पहले कोर्ट में रजिस्टर्ड शादी कर ली....इस शादी की ख़बर जब ठाकरे परिवार को हुई तो हाथों से तोते उड़ गए....लेकिन उनके पास ‘मुस्लिम जमाई राजा’ को अपनाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था....लिहाज़ा इस शादी को मंज़ूरी दे दी...
परिवार ने फैसला किया कि ग्रैंड रिसेप्शन देकर इस शादी को सामाजिक मंज़ूरी दे दी जाए... मुंबई के मशहूर होटलों में से एक होटल ताज लैंड्स एंड में शानदार डिनर दिया गया....इस रिस्पेशन में ठाकरे परिवार से जुड़ी कई हस्तियां मौजूद थीं.....ख़ुद बाल ठाकरे, उद्धव ठाकरे और उनकी पत्नी और बच्चों के अलावा राज ठाकरे भी पूरे परिवार के साथ रिसेप्शन में आए....ठाकरे साहेब एक बहुत बड़े गुलदस्ते के साथ पहुंचे......इस शादी को लेकर तरह तरह की ख़बरें आ रही हैं...ठाकरे घराने से जुड़े लोग दावा कर रहे हैं कि इस शादी के लिए नबी ने अपना धर्म बदल लिया है....जबकि नबी घराने के लोग दावा कर रहे हैं नेहा ने धर्म बदल लिया है...लेकिन दोनों ही ख़बरों की पुष्टि नहीं हो पाई है.....
ठाकरे परिवार की तीसरी पीढ़ी ने प्रेम विवाह कर ठाकरे के पिता केशव सीताराम ठाकरे उर्फ प्रबोधनकार ठाकरे का सपना सच कर दिखाया....ठाकरे भले ही ताउम्र नफरत फैलाने की सियासत करते हों और मुस्लिमों के ख़िलाफ ज़हर उगलकर मराठी अस्मिता का सवाल उटाकर अपनी सियासी मज़बूत करने में सफल हो गए हों....लेकिन उनके पिता ने ताउम्र में प्रेम विवाह का समर्थन किया.....बाला साहेब ठाकरे के पिता प्रबोधनकार ठाकरे अपने समय के बहुत बड़े समाज सुधारक थे....वो महात्मा फूले के विचारों से प्रभावित थे... सत्यशोधक आंदोलन के अगुवा रहे प्रबोधनकार ने बाल विवाह, दहेज, छुआछूत, जातिवाद जैसी घोर सामाजिक कुरूतियों को मिटाने में प्रमुख योगदान दिया। उस जमाने में शादी से पहले प्रेम करने को व्यभिचार समझा जाता था...लेकिन प्रबोधनकार ने समाज और धर्म के ठेकेदारों को चुनौती देते हुए अनेक प्रेमी जोडों की शादियां कराईं....

प्रबोधनकार ठाकरे एक पत्रकार, साहित्यकार, कार्टूनिस्ट औऱ फिल्मी कलाकार भी थे.. केवल चौंतीस साल की उम्र में भाषण कला पर मराठी में किताब लिख दी थी...उस समय इस विषय पर किसी भी भारतीय भाषा में लिखी गई पहली किताब थी....प्रबोधनकार ठाकरे ने कुछ मराठी फिल्मों में भी काम किया था... उनकी प्रतिभा को देखते हुए छत्रपति शाहूजी महाराज ने उनके सामने नौकरी का प्रस्ताव रखा, लेकिन वैचारिक मतभेद के कारण प्रबोधनकार ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया था... वो एक पाक्षिक पत्रिका प्रकाशित करते थे जिसमें वे प्रबोधनकार के नाम से लिखते थे इसलिए उन्हें प्रबोधनकार ठाकरे के नाम से भी जाना जाता है.

जबकि अपने पिता के कृतित्व के विपरीत बाला साहेब ठाकरे मराठी अस्मिता के नाम पर क्षेत्रियतावाद और उग्र हिन्दू-राष्ट्रवाद की राजनीति करते है...इसके तहत उत्तर भारतीयों ख़ासतौर पर बिहारियों को बार-बार निशाना बनाया जाता है....90 के दशक में मुंबई में हिन्दू-मुस्लिम दंगो के पीछे शिवसेना की भूमिका जगज़ाहिर है...ये शिवसेना ही है, जो वेलनटाइन्स डे पर प्रेम करनेवालों को पकड़कर पीटते हैं....और इसे हिंदू सभ्यता और संस्कृति के ख़िलाफ़ बताते हैं....कुछ साल पहले सांगली में शिवसेना कार्यकर्ताओं ने प्यार करने वालों को पकड़ कर गधे से शादी तक करवा दी थी...

बहरहाल, नेहा ने शादी कर ये साबित कर दिया कि उनकी रग़ों में उनके परदादा केशव सीताराम ठाकरे का ख़ून बहता है....जिसनें सारी ज़िंदगी प्रेम विवाह करने वालों के समर्थन में बिता दी.....उन्होने अपने दादा जी की नीति को दूर से ही सलाम कर दिया....शायद उन्होने परिवार को बेहद क़रीब से देखने के बाद ये फैसला किया होगा....पिता की मौत के बाद चाचा जयदेव और चाची स्मिता ठाकरे का झगड़ा और तलाक़ होते देखा....चाचा उद्धव और राज ठाकरे का झगड़ा देखा.....घर में अपने परदादा के क़िस्से सुने होंगे...इसलिए भी मज़हब की दीवार तोड़कर शादी करने में अचड़न नहीं आई होगी...

Tuesday, August 16, 2011

अब अपने पंजे से भी डर लगने लगा है......


भगवान ने पंजा हमें भले कामों के लिए दिया है....लेकिन ये नामुराद पंजा धरती पर आने के बाद तरह तरह के धतकरम करता है....यक़ीन न हो तो ज़रा सोच कर देखिए...खून, बलात्कार, हत्या, अपरहण, फिरौती जैसी जघन्य घटनाओं के लिए क्या पंजा ज़िम्मेदार नहीं है? देश के धन को कालेधन में बदलने की कलाकारी क्या पंजा नहीं करता है? देश की सरहद की हिफ़ाज़त के लिए शहीद हो जाने वाले फौजियों की बेवाओं के लिए बने घरों में खादी, खाकी और लाल-नीली बत्ती वाले घुसकर बैठ जाएं तो क्या इसके लिए पंजा ज़िम्मेदार नहीं है? खेल में करोड़ों- अरबों रुपया इधर से उधर हो जाए तो क्या पंजे को ख़बर नहीं होगी? दूरसंचार में अगर एक लाख अट्ठहत्तर करोड़ रुपए का घपला हो जाए तो क्या पंजा गुनाहगार नहीं होगा?
हो सकता है कि आप ये कहकर संतोष कर लें कि पंजे का क्या दोष? पंजा तो वहीं करता है, जो उससे दिमाग़ कहता है...वो दिमाग़ का ग़ुलाम भर है....ये बात एक हद तक सही भी है....लेकिन.इंसानी फितरत अलग होती है...वो सोच को नहीं, अपराध करनेवाले को सबसे पहले गुनाहगार मानता है..
आज पंजे को कोसने का दिल चाह रहा है.....हो सकता है कि इस सोच पर भी धारा 144 या फिर कोई और धारा लागू हो जाए.....लेकिन दिल का क्या करें.....तबीयत हुई तो हुई....अब क़ानून की पेंचदिगियों को समझने का वक़्त नहीं है....अब समय आ चुका है ..लोगों को जगाने का....नींद में सोए लोगों को झकझोरने का....गूंगी-बहरी सरकार को हिलाने का.....ताकि तेरी, मेरी, उसकी बात सुनी जाए....सेंसेक्स और शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव के साथ हिचकोले खाती सरकार को अवाम को भी ख़बर लगे..मुट्ठीभर लोगों की चिंता छोड़कर वो अवाम की ख़ातिर सोचे.....उस अवाम के बार में.....जो बीस रुपए की दिहाड़ी पर परिवार पालता है....एख जून की रोटी नसीब हो जाए तो अगले जून की गारंटी नहीं होती...तन पर कपड़ा नहीं होता....बीमार पड़ जाए और किसी खादी वाले की पैरवी न हो तो सफेद कोट वाले कैसे कुत्ते की तरह सलूक करते हैं....मनरेगा में काम मांगने जाते हैं तो सरपंच पहले अपने आदमी का ख़्याल रखता है....और उसे ठेंगे पर...किसी काम के लिए सरकारी दफ्तर चला जाए तो पसीने छूट जाते हैं....
इसलिए तो जनता चीख-चीख कर कह रही है कि देश से भ्रष्टाचार मिटाना है....अवाम की इसी आवाज़ को अन्ना हज़ारे हवा दे रहे हैं....अवाम की ख़ातीर ही आंदोलन छेड़ रहे हैं...क्या यही अन्ना का अपराध है? अन्ना और उनकी टीम ने बस इतना भर गुनाह किया है कि सरकार भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कड़े क़ानून बनाए....चाहें इस देश का जितना भी बड़ा आदमी क्यों न हो...अगर वो भ्रष्ट है तो उसके ख़िलाफड भी कार्रवाई हो....चाहे प्रधानमंत्री हों....मंत्री, सांसद या फिर अदालत....लोकतंत्र में क़ानून सबके लिए बराबर होना चाहिए....
लेकिन सरकार तो सत्ता मद में चूर है....जब उसने कॉमनवेल्थ घोटाले पर कुछ नहीं सुनाई –दिखाई दिया...जब उसे आदर्श घोटाले में कुछ नहीं दिखा....जब उसे टूजी में कुछ नहीं दिखा.. तो फिर वो भ्रष्टाचार कैसे देख ले....ऊपर से अन्ना की हिम्मत कि वो सरकार की आंख में उंगली डालकर भ्रष्टाचार दिखाने का साहस करे...सत्ता मद में चूर सरकार एक अदने से आदमी की बात क्यों मानें? क्या वो किसी पार्टी के अध्यक्ष हैं, जो उन्हे सिर आंखों पर बिठा ले? लोकशाही के बीज से जन्मे राजशाही के वो राजकुमार की तरह हैं अन्ना कि उनके कहने भर से प्रधानमंत्री पानी भरने लगें.... अन्ना उस भारत के निवासी हैं, जो सरकार की प्राथमिकताओं में सबसे बाद में आता है....सरकार की प्राथमिकता में शानिंग इंडिया के लोग बसते हैं.....
तंगेहाल, फटेहाल, भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षित भारत के एक अदले ने निवासी अन्ना और उनकी टीम की इतनी जुर्रत कि वो सरकार को क़नून सिखाए....काम करने का तरीक़ा सिखाए....सरकार का पारा गरम हो गया....खादी का पारा गरम होगा तो खाकी वालों का लाल-पीला होना बनता ही है.....लिहाज़ा अनशन पर आमादा अन्ना को पकड़कर बंद कर दिया....अन्ना की सुर में सुर मिलानेवालों केजरीवाल, सिसोदिया, बेदी जैसे लोगों के भी होश ठिकाने लगाने की कोशिश की...सबको पकड़कर बंद कर दिया...सरकार के इशारे पर चकरघिन्नी की तरह नाच रही पुलिस को इलहाम हो गया कि टीम अन्ना अनशन की ज़िद में धारा एक सौ चवालीस तोड़नेवाली है....अब ये अन्ना लोकशाही के युवराज की तरह तो है नहीं कि किसी में जाकर धारा 144 को तोड़ें- मरोड़ें..और पुलिस खींसे निपोरती रहे....इसलिए पुलिस का ‘पंजा’ टीम अन्ना की गर्दन तक पहुंच गया....
सरकार की दलील देखिए.....क़ानून व्यवस्था को बनाए रखने की चिंता में अन्ना एंड टीम को पकड़ना पड़ा....क़ानून व्यवस्था की फिक्रमंद सरकार अगर इतनी बेताबी रोज़ दिखाती तो क्या दिल्ली में चलती गाड़ी में बलात्कारियों का पंजा आबरू तक पहुंच सकता है? क्या देश की राजधानी में दिन दहाड़े डाका पड़ सकता था.....सरकार साबित कर रही है कि उसकी नज़र में क़ानून व्यवस्था में अवाम की सुरक्षा नहीं है,.....उसके लिए क़ानून व्यवस्था इंडिया के ख़ासमख़ास लोग के लिए हैं....
अन्ना के हाथ में लाठी नहीं है...गोली नहीं है....फिर भी सरकार बौखला रही है....क़ानून के तरह तरह के पाठ पढ़ा रही है.....झपट्टा मारकर पंजे में वोट लेनेवाली सरकार को अभी वो दूसरा पंजा नहीं दिख रहा.....लरज़ती आवाज़ के बाच वो अन्ना के कांपते हुए पंजे की भाषा नहीं पढ़ पा रही है....साल 74 में भी देश ने एक बूढ़े इंसान की लरज़ती हुई सुनी थी....कांपते हुए पंजे देखे थे....आज भी उनकी वो आवाज़ गूंजती है....उस हांड-मांस के बूढ़े आदमी का नाम जयप्रकाश था, जिन्होने पटना की एक रैली में कहा था...’डरो मत....बूढ़ा ज़रुर हो गया हूं लेकिन मरा नहीं हूं..’ इसी के बाद दिल्ली में उद्घोष हुआ था.....रामधारी सिंह दिनकर की भाषा में जनता चीख पड़ी थी.....सिंहासनम खाली करो कि जनता आती है...

Wednesday, June 22, 2011

और कितना झूठ बोलेंगी ममता बैनर्जी?


पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी आजकल दिल्ली में डेरा डाली हुई हैं। दीदी की ईमानदारी और सादगी पर दिल दे चुके पत्रकार हर पल उन्हे घेरे रहते हैं। इस मौक़े का ‘दीदी’ भी भरपूर फायदा उठा रही हैं। जो मन में आ रहा है, मीडिया को बोल रही हैं। मीडिया भी बिना कोई सवाल खड़ा किए उनके जवाब को ज्यों का त्यों छाप देता है। दीदी के बेबाकीपन से कुछ गंभीर सवाल उभरे हैं, जिन पर बहस की पूरी गुंजाइश है। 
ममता दिल्ली में राज्य की ख़स्ताहाल माली हालत का रोना रो रही हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री दादा प्रणब मुखर्जी के सामने खाता बही भी लेकर बैठ चुकी हैं। सरकार को तर्क दे रही हैं कि उनके पास इतना पैसा नहीं है कि वो राज्य की विधवाओं, विकलांगों और बुज़ुर्गों के पेंशन दे सकें। सूबे की कमाई का सत्तानवें फीसदी पैसा सैलरी देने में ही निकल जाता है। ममता आरोप मढ़ रही हैं कि वाममोर्चा ने चौंतीस सालों में बंगाल को लूट खाया है। बंगाल का दीवाला निकल चुका है। उन्हें विरासत में ऐसे राज्य की कमान मिली है, जो गले तक कर्ज़ में है। 
ममता ने ताल ठोककर दावा किया कि उन्हे मनमोहन सरकार से ख़ैरात नहीं चाहिए। वो अपना हक़ मांगने आई हैं। उन्हें सरकार से स्पेशल पैकेज की ज़रुरत नहीं है। ममता का झूठ देखिए अगर उन्हें ख़ैरात या स्पेशल पैकेज नहीं चाहिए तो उनके वित्त मंत्री क्यों ऐसी योजना बनाई है, जिसके ज़रिए केंद्र से बीस हज़ार करोड़ रुपए का पैकेज झटका जा सके। ममता ने केंद्र से राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की मद से पांच सौ करोड़ रुपए की मांग की है। आएला तूफान से बरबाद हुए सुंदरबन के लोगों को आबाद करने के लिए साढ़े चार सौ करोड़ रुपए चाहिए। मोगा टूरिस्ट सर्किट के लिए दो सौ करोड़ रुपए चाहिए। सड़क बनाने के लिए एक सौ पचास करोड़ रुपए चाहिए। तिस्ता सिंचाई योजना के लिए 130 करोड़ रुपए चाहिए। यानी ममता को केंद्र से लगभग चौदह सौ तीस करोड़ रुपए चाहिए। फिर भी ये ख़ैरात नहीं है। 
ममता का दूसरा झूठ देखिए। वित्त मंत्रालय के बाहर दावा किया कि उन्होंने एक महीने में ही अपने पिचहत्तर फीसदी वादे पूरे कर दिए। सिंगूर में चार सौ एकड़ ज़मीन किसानों को लौटा दी। दार्जिलिंग स्वायत्त परिषद का गठन कर दिया। दस हज़ार मदरसों को मान्यता दे दी। जंगलमहल अब नक्सलियों की गोलियों से नहीं थर्राता। दूसरी तरफ वो ये भी दावा कर रही हैं कि वो चाहती हैं कि बंगाल के लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान मिल सके। मुख्यमंत्री खुद मानती हैं कि राज्य की जनता को अभी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिली हैं। फिर भी दावा कर रही हैं उन्होने पिचहत्तर फीसदी वादे पूरे कर दिए। जिस राज्य की जनता भूखी हो, प्यासी हो, रहने को घर न हो, तन ढ़कने को कपड़े न हों- फिर भी पिचहत्तर फीसदी वादे पूरे कर दिए। ममता के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि राज्य में कल कारखाने लगाने के लिए वो क्या कर रही हैं। सब हाथ को कैसे काम देंगी। जो राज्य कभी जूट और कॉटन के लिए मशहूर था, उस शोहरत को वो कैसे लौटाएंगीं। बच्चों को अच्छी शिक्षा कैसे मिलेगी। आम लोगों को सरकारी अस्पतालों में बेहतर और सस्ता इलाज कैसे मिलेगा। ममता के पास कोई जवाब नहीं है। वो केवल सरकारी अस्पतालों के चक्कर लगाती हैं और मीडिया को बुलाकर सबसे बड़े अफसर को सस्पेंड कर देती हैं। टीवी चैनलों और अख़बारों को देखकर जनता मान लेती है कि दीदी वाकई में काम कर रही हैं। 
दरअसल ममता मीडिया के ज़रिए केवल अपनी इमेज चमका रही हैं। वो केवल ढिंढोरा पीट रही हैं। थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि वामोर्चा ने पश्चिम बंगाल का बेड़ा गर्क कर दिया। हम अभी पूरे सूबे की बात न करे औऱ केवल राजधानी कोलकाता की बात करें तो असलियत जानकर हैरानी होगी। पिछले एक साल से कोलकाता नगरपालिका पर तृणमूल कांग्रेस का क़ब्ज़ा है। एक साल काफी होता है किसी नगरपालिका के लिए कि वो कुछ बुनियादी ज़रुरतों को पूरा कर सके। कम से राजधानी को बेहतर सड़क तो दे ही सकता है। बिजली के खंबों पर लाइट तो लगवा ही सकता है। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। पश्चिम बंगाल में झमाझम बारिश के बाद कोलकाता की सड़कों पर घुटने तकर पानी भर गया। कुछ इलाक़ों में पानी गर्दन तक पहुंच गया। यहां तक कि मुख्यमंत्री भी अपनी सरकारी गाड़ी में घंटों फंसी रही। 
सबसे अहम सवाल ये है कि ममता कब तक लोगों को सुनहरे सपने दिखाती रहेंगी। कब वो उन बुनियादी ज़रुरतों के लिए काम करना शुरु करेंगीं, जिसके लिए जनता तरस रही है। बहुत हो गया भाषणबाज़ी..जनता पिछले कई दशकों से यही सुनते आई है। आपने डिलीवरी का वादा किया था। अब समय आ चुका है कि आप डिलीवर करके दिखाएं ताकि जनता को लगे कि काम करने के लिए पांच साल का समय बहुत कम होता है। 

Monday, May 30, 2011

हिंदी पत्रकारिता दिवस के मौक़े पर पत्रकार और मीडिया कर्मी की परिभाषा तय हो

आज यानी 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस है। कम से कम आज के दिन ये बहस ज़रूर होनी चाहिए थी कि आज हिंदी पत्रकारिता किस मोड़ पर है। ज़रूरी नहीं कि इस विषय पर चर्चा के लिए सुनामधन्य पत्रकार अपने न्यूज़ चैनलों पर आदर्श पैकेजिंग ड्यूरेशन के तहत 90 सेकेंड की स्टोरी ही दिखाते या अधपके बालों वालों धुरंधरों को बुलाकर बौद्धिक जुगाली करते या फिर हिंदी पत्रकारिता की आड़ में अंग्रेज़ी पत्रकारिता को कम और पत्रकारों को ज़्यादो कोसते। टीवी वालों को क्या दोश दें । बौद्धिक संपदा पर जन्मजात स्वयंसिद्ध अधिकार रखनेवाले प्रिंट के पत्रकारों ने भी डीसी, टीसी तो छोड़िए , सिंगल कॉलम भी इस दिवस की नहीं समझा। कहीं कोई चर्चा नहीं कि क्या सोचकर पत्रकारिता की शुरूआत हुई थी और आज हम कर क्या रहे हैं।
ग्लोबलाइज़ेशन के इस दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी, तकवी शकंर पिल्ले, राजेंद्र माथुर,सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय की ज़माने की पत्रकारिता की कल्पना करना मूर्खता होगी। लेकिन इतना तो ज़रूर सोचा जा सकता है कि हम जो कर रहे हैं , वो वाकई पत्रकारिता है क्या। सब जानते हैं कि भारत में देश की आज़ादी के लिए पत्रकारिता की शुरूआत हुई। पत्रकारिता तब भी हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा कई भाषाओं में होती थी। लेकिन भाषाओं के बीच में दीवार नहीं थी। वो मिशन की पत्रकारिता थी। आज प्रोफोशन की पत्रकारिता हो रही है। पहले हाथों से अख़बार लिखे जाते थे। लेकिन उसमें इतनी ताक़त ज़रूर होती थी कि गोरी चमड़ी भी काली पड़ जाती थी। आज आधुनिकता का दौर है। तकनीक की लड़ाई लड़ी जा रही है। फोर कलर से लेकर न जाने कितने कलर तक की प्रिटिंग मशीनें आ गई हैं। टीवी पत्रकारिता भी सेल्युलायड, लो बैंड, हाई बैंड और बीटा के रास्ते होते हुए इनपीएस, विज़आरटी, आक्टोपस जैसी तकनीक से हो रही है। लेकिन आज किसी की भी चमड़ी पर कोई फर्क नहीं पड़ता। शायद चमड़ी मोटी हो गई है।
आख़िर क्यों अख़बारों और समाचार चैनलों से ख़बरों की संख्या कम होती जा रही है। इसका जवाब देने में ज़्यादातर कथित पत्रकार घबराते हैं। क्योंकि सत्तर –अस्सी के दशक से कलम घिसते –घिसते कलम के सिपाही संस्थान के सबसे बड़े पद पर बैठ तो गए लेकिन कलम धन्ना सेछ के यहां गिरवी रखनी पड़ी। कम उम्र का छोरा ब्रैंड मैनेजर बनकर आता है और संपादक प्रजाति के प्राणियों को ख़बरों की तमीज़ सिखाता है। ज़रूरी नहीं कि ब्रैंड मैनेजर पत्रकार हो या इससे वास्ता रखता हो। वो मैनेजमैंट पढ़कर आया हुआ नया खिलाड़ी होता है। हो सकता है कि इससे पहले वो किसी बड़ी कंपनी के जूते बेचता हो। तेल, शैंपू बेचता हो। वो ख़बर बेचने के धंधे में है। इसलिए उसके लिए ख़बर और अख़बार तेल , साबुन से ज़्यादा अहमियत नहीं रखते। वो सिखाता है कि किस ख़बर को किस तरह से प्ले अप करना है। सब बेबस होते हैं। क्योंकि सैलरी का सवाल है। ब्रैंड मैनेजर सेठ का नुमाइंदा होता है। उसे ख़बरों से नहीं, कमाई से मतलब होता है। अब कौन पत्रकार ख़्वामखाह भगत सिंह बनने जाए।
कुछ यही हाल टीवी चैनलों का भी है। ईमानदारी से किसी न्यूज़ चैनल में न्यूज़ देखने जाइए तो न्यूज़ के अलावा सब कुछ देखने को मिल जाएगा। कोई बता रहा होगा कि धोना का पहले डेढ़ फुट का था अब बारह इंच का हो गया है। ये क्या माज़रा है – समझने के लिए देखिए ..... बजे स्पेशल रिपोर्ट। कोई ख़बरों की आड़ में दो हीरोइनों को लेकर बैठ जाता है और दर्शकों को बताता है कि देखिए ये पब्लिसिटी के लिए लड़ रही हैं। ये लेस्बियन हैं। ये लड़ाई इस उम्मीद से दिखाई जाती है ताकि दर्शक मिल जाए और टीआरपी के दिन ग्राफ देकर लाला शाबाशी दे। कोई किसी ख़ान को लेकर घंटो आफिस में जम जाता है। सबको पता है कि उसकी फिल्म रिलीज़ होने वाली है। ये सब पब्लिसिटी का हिस्सा है। लेकिन वो अपने धुरंधरों के साथ जन सरोकार वाले पवित्र पत्रकारिता की मिशन में लगा होता है।
इसमें कोई शक़ नहीं कि हिंदी पत्रकारिता समृद्ध हुई है। इसकी ताक़त का दुनिया ने लोहा माना है। अंग्रेज़ी के पत्रकार भी थक हार कर हिंदी के मैदान में कूद गए। भले ही उनके लिए हिंदी पत्रकारिता ठीक वैसे ही हो, जैसा कहावत है- खाए के भतार के और गाए के यार के। लेकिन ये हिंदी की ताक़त है। लेकिन इस ताक़त की गुमान में हमने सोचने समझने की शक्ति को खो दिया। एक साथ, एक ही समय पर अलग अलग चैनलों पर कोई भी हस्ती लाइव दिख सकता है। धरती ख़त्म होनेवाली है- ये डरानेवाली लाल- लाल पट्टी कभी भी आ सकती है।
ये सच है कि एक दौर था जब अंग्रेजी की ताक़त के सामने हिंदी पत्रकारिता दोयम दर्जे की मानी जाती थी। मूर्धन्य लोग पराक्रमी अंदाज़ में ये दावा करते थे- आई डोंट नो क , ख ग आफ हिंदी बट आई एम एडिटर आफ..... मैगज़िन। लेकिन तब के हिंदी के पत्रकार डरते नहीं थे। डटकर खड़े होते थे और ताल ठोककर कहते थे- आई फील प्राउड दैट आई रिप्रजेंट द क्लास आफ कुलीज़ , नॉट द बाबूज़। आई एम ए हिंदी जर्नलिस्ट। व्हाट वी राइट, द पीपुल आफ इंडिया रीड एंड रूलर्स कंपेल्स टू रीड आवर न्यूज़। आज इस तरह के दावे करनेवाले पत्रकारों के चेहरे नहीं दिखते। लालाओं को अप्वाइनमेंट लेकर आने को कहनेवाले संपादक नहीं दिखते। नेताओं को ठेंगे पर रखनेवाले पत्रकार नहीं मिलते। कलम को धार देनेवाले पत्रकार नहीं मिलते । आज बड़ी आसानी से मिल जाते हैं न्यूज़रूम में राजनीति करते कई पत्रकार। मिल जाते हैं उद्योगपतियों के दलाली माफ कीजिएगा संभ्रात शब्दों में लाइजिंनिंग करनेवाले पत्रकार। नेताओं के पीआर करते पत्रकार। चुनाव में टिकट मांगनेवाले पत्रकार। ख़बर खोजनेवाले पत्रकारों को खोजना आज उतना ही मुश्किल है, जितना कि जीते जी ईश्वर से मिल पाना। इसलिए आज 30 मई के दिन हिंदी पत्रकारिता के मौक़े पर ऐसे पत्रकारों को नमन करें , जिन्होने हिंदी को इतनी ताक़त दी कि आज हम अपनी दुकान चला पा रहे हैं। बेशक़ इसके लिए हमें रोज़ी रोटी और पापी पेट की दुहाई देनी पड़ी। लेकिन आज भी शायद हिंदी पत्रकारिता को बचाए रखने का रास्ता बचा हुआ है। खांटी पत्रकारिता करनेवालों को हम आदर सहित हिंदी पत्रकार कहें और दूसरे लंद फंद में लगे सज्जनों को मीडियाकर्मी कहकर पहचानें और पुकारें।

Monday, May 2, 2011

लादेन ने उतार दिया पाकिस्तान का मुखौटा


मरते –मरते ओसामा बिन लादेन ने पाकिस्तान का मुखौटा उतार दिया। अमेरिकी ड्रोन हमले में लादेन उस जगह पर मारा गया, जहां पर पाकिस्तान हुकूमत का एक छत्र राज है। पाकिस्तान अब ये कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकता कि राजधानी इस्लामाबाद से लगभग साठ किलोमीटर दूर पर बसे शहर अबोटाबाद पर क़बालियों का क़ब्ज़ा है। पाकिस्तान दुनिया से अपना असली चेहरा छिपाए घूम रहा था। वो ताल ठोंककर दावा कर रहा था कि वो आतंकवाद का ख़ात्मा करना चाहता है। वो अपनी सरज़मीं का इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा। यही दुहाई देकर पाकिस्तान अरसे से अमेरिका से तोल मोल कर अपनी माली हाली हालत को बचाए रखे हुए था।
भारत बार- बार दुनिया को पाकिस्तान का असली चेहरा दिखा रहा था। लेकिन अपने आका अमेरिकी की मेहरबानियों से पाकिस्तान अपने काले चेहरे पर परदा डाल लेता था। अमेरिकी नेता भी भारत आकर भारत की बात करते थे और पाकिस्तान पहुंचते ही उनका सुर बदल जाता था। फिर भी भारत ने हिम्मत नहीं हारी। धीरज और सब्र के साथ अमेरिका को समझाने में लगा रहा कि वो जिस पाल पोस रहा है, वो काला नाग है। एक दिन वो उसी को डस लेगा।
मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद बारत ने पूरी दुनिया को सबूत दिए कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ हैं। लेकिन पाकिस्तान ये दुहाई देता रहा कि वो खुद आतंकवादी से लड़ रहा है। वो दूसरे मुल्क में कैसे दहशतगर्दी फैला सकता है। भारत ने फिर कहा कि इकलौते ज़िंदा पकड़े गए आतंकवादी अजमल क़साब का नाता पाकिस्तान से है। भारत के इस बयान के बाद एक पाकिस्तानी चैनल भी क़साब के घर को दिखाया। उसके मां बाप से बात की। लेकिन पाकिस्तान इस सच को मानने के लिए राज़ी ही नहीं हुआ। वो अपने आका अमेरिका के क़दमों में गिरकर यही रोना रोत रहा कि मुंबई हमले से उसका कोई वास्ता नहीं हैं।
मुंबई हमले ही नहीं, कांधार प्लेन हाईजैक के आतंकवादी भी पाकिस्तान में छुट्टे घूम रहे हैं। मज़हब की आड़ में लोगों को भारत के ख़िलाफ भड़का रहे हैं। उनकी तस्वीरें, उनके भाषण भारत ने पाकिस्तान को दिए। लेकिन पाकिस्तान ने इसे भी मानने से इनकार कर दिया। बात बात परक सच पर परदा डालने में माहिर पाकिस्तान अब किस मुंह से कहेगा कि दुनिया का सबसे ख़रतनाक आतंकवादी उसके देश में कैसे छिपा बैठा था। क्या उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई को ख़बर तक नहीं थी। क्या ऐसा मुमक़िन है कि खुफिया एजेंसी को भनक तक न हो या सरकार को इसका अहसास तक न हो। ओसामा जिस जगह पर मारा गया, वो फौजी इलाक़ा है। क्या फौज की इजाज़त के बग़ैर लादेन वहां बस सकता था? अगर फौज को अपने रिहाइशी इलाक़े के बारे में भी जानकारी नहीं थी तो फिर वो सरहद पार की जानकारी कैसे रखती होगी? पाकिस्तान सरकार हर आरोप से इनकार करेगी। लेकिन इस सच को दफन नहीं किया जा सकता कि लादेन की मौत उस ठोर पर हुई है, जहां चांद- सितारे वाला सब्ज़े रंग का परचम लहराता है। इस परचम के अंदर क़ैद है पाकिस्तान का असली चेहरा, ख़ूनी चेहरा, दहशतगर्द चेहरा, जो अब तक अमेरिका को मासूम नज़र आता था। लेकिन क्या इसके बाद भी अमेरिका को पाकिस्तान का चेहरा मासूम नज़र आएगा?

Saturday, April 30, 2011

समय कितना जल्दी बीत जाता है-"है न मां"

1 मई - इसे पूरी दुनिया मज़दूर दिवस के तौर मनाती है। छात्र और युवा राजनीति के दौरान मैंने भी वर्ग संघर्ष को लेकर ख़ूब नारे लगाए थे। लोगों को याद दिलाता था कि बुर्जुआ और सामंत कभी भी मेहनतकश मज़दूरों को उनका हक़ नहीं देता। ये लाल रंग का झंडा केवल रंग नहीं है। ये झंडा ख़ून से सना हुआ है। ये झंडा इंक़लाब की याद दिलाता है- उठो, बढ़ो और पूंजीपंतियों से अपना हक़ छीन लो। ये लड़ाई आज भी जारी है। लेकिन इस तारीख़ के साथ एक और भी याद जुडी़ हुई है। मेरे हाथ में अब लाल झंडा तो नहीं है लेकिन मेरा दिल लहुलूहान है। 1 मई 2007 - इसी दिन मैंने अपनी मां को खोया। लंबी बीमारी, जो डायबटीज़ ने उन्हे दी, के बाद वो मज़दूर दिवस के दिन हमें अकेला छोड़ गईं। समयचक्र को देखता हूं तो किसी अदृश्य शक्ति का अहसास होता है। 14 जुलाई 1996 को बाबा यानी दादाजी का देहांत हुआ। अगले ही साल 27 जून 1997 को पापा का देहावसान हुआ। इनकी मौत के सदमे से अभी उबर भी नहीं पाए थे कि ठीस दस साल बाद एक बार फिर मौत ने चुपके से दस्तक दी। वो दिन था- 1 मई 2007। हैरानी की बात है कि एक न्यूज़ चैनल की नौकरी छोड़ने के बाद दूसरी नौकरी पर जाना था। वो चौनल एक बिल्डर का था। बात पक्की हो चुकी थी। दूसरी नौकरी ज्वाइन करने से पहले मैंने घूमने फिरने का कार्यक्रम बनाया। अचानक एक ज्योतिष से मुलाक़ात हुई। उन्होने बताया कि वो चैनल आपके लिए शुभ नहीं है। क्योंकि वो चैनल ही शुभ नहीं है। क्योंकि आप उसे ज्वाइन कर चुके हैं इसलिए आपका जीवन ख़तरे में हैं। या तो किसी हादसे में आपकी मौत होगी या फिर आपकी मौत तभी टलेगी जब कोई आपका बेइंतहा क़रीबी वो मौत अपने सिर ले ले। नई नई शादी हुई थी। बहुत छोटा बच्चा था। मैंने सोचा - कौन है वो जो मेरी मौत को अपने सिर लेगा। फिर मैंने ज्योतिष की बात को यूं ही मानकर पहले दिन नौकरी के लिए घर से निकल पड़ा। सोसाइटी के गेट के बाहर पहुंचते ही हादसे का शिकार हो गया। सुब सुबह नशे में चूर एक महिला रॉंग साइड से फुल स्पीड कार लिए चली आ रही थी। संभलने से पहले कार मेरे ऊपर से गुज़र चुकी थी। होश आया तो ख़ुद को फॉर्टिस अस्पताल में पाया। आंख के ठीक ऊपर चश्मे का एक शीशा आधा अंदर धंसा हुआ था। डॉक्टर मुझे होश में लाने की कोशिश कर रहे थे। कॉस्मेटिक सर्जन डॉक्टर दुधानी एमआरआई का कराने की सलाह दे रहे थे। उन्हे डर था कि कहीं ब्रेन स्ट्रोक न हो गया हो। वो साथियों से कह रहे थे कि अगर ये होश खो बैठा तो बहुत मुश्किल होगी। आंख खोलते ही वो तरह तरह के सवाल पूछने लगे। सर्जरी के बाद डॉक्टरों ने मुझे फिट घोषित कर दिया। एलान कर दिया कि मौत टल चुकी है। लेकिन इसके हफ्ते भर बाद ख़बर आई कि मां नहीं रहीं। देखो मां, मेरी मौत तो तुम अपने सिर ले गई। देखते ही देखते चार साल बीत गए न! हर बार तुम्हे डांटता था कि फलां काम करने के लिए तुमसे किसने कहा था। कुछ हो जाता तो। आज जो होना था, वो हो चुका है। लेकिन अफसोस तुम्हे डांट नहीं पा रहा हूं। वरना कहता- क्या ज़रूरत थी तुम्हे ये सब करने की। लेकिन शायद यही नियति है। क्योंकि ज़िंदगी अपनी रफ्तार से चलती रहती है।





















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