1 मई - इसे पूरी दुनिया मज़दूर दिवस के तौर मनाती है। छात्र और युवा राजनीति के दौरान मैंने भी वर्ग संघर्ष को लेकर ख़ूब नारे लगाए थे। लोगों को याद दिलाता था कि बुर्जुआ और सामंत कभी भी मेहनतकश मज़दूरों को उनका हक़ नहीं देता। ये लाल रंग का झंडा केवल रंग नहीं है। ये झंडा ख़ून से सना हुआ है। ये झंडा इंक़लाब की याद दिलाता है- उठो, बढ़ो और पूंजीपंतियों से अपना हक़ छीन लो। ये लड़ाई आज भी जारी है। लेकिन इस तारीख़ के साथ एक और भी याद जुडी़ हुई है। मेरे हाथ में अब लाल झंडा तो नहीं है लेकिन मेरा दिल लहुलूहान है। 1 मई 2007 - इसी दिन मैंने अपनी मां को खोया। लंबी बीमारी, जो डायबटीज़ ने उन्हे दी, के बाद वो मज़दूर दिवस के दिन हमें अकेला छोड़ गईं। समयचक्र को देखता हूं तो किसी अदृश्य शक्ति का अहसास होता है। 14 जुलाई 1996 को बाबा यानी दादाजी का देहांत हुआ। अगले ही साल 27 जून 1997 को पापा का देहावसान हुआ। इनकी मौत के सदमे से अभी उबर भी नहीं पाए थे कि ठीस दस साल बाद एक बार फिर मौत ने चुपके से दस्तक दी। वो दिन था- 1 मई 2007। हैरानी की बात है कि एक न्यूज़ चैनल की नौकरी छोड़ने के बाद दूसरी नौकरी पर जाना था। वो चौनल एक बिल्डर का था। बात पक्की हो चुकी थी। दूसरी नौकरी ज्वाइन करने से पहले मैंने घूमने फिरने का कार्यक्रम बनाया। अचानक एक ज्योतिष से मुलाक़ात हुई। उन्होने बताया कि वो चैनल आपके लिए शुभ नहीं है। क्योंकि वो चैनल ही शुभ नहीं है। क्योंकि आप उसे ज्वाइन कर चुके हैं इसलिए आपका जीवन ख़तरे में हैं। या तो किसी हादसे में आपकी मौत होगी या फिर आपकी मौत तभी टलेगी जब कोई आपका बेइंतहा क़रीबी वो मौत अपने सिर ले ले। नई नई शादी हुई थी। बहुत छोटा बच्चा था। मैंने सोचा - कौन है वो जो मेरी मौत को अपने सिर लेगा। फिर मैंने ज्योतिष की बात को यूं ही मानकर पहले दिन नौकरी के लिए घर से निकल पड़ा। सोसाइटी के गेट के बाहर पहुंचते ही हादसे का शिकार हो गया। सुब सुबह नशे में चूर एक महिला रॉंग साइड से फुल स्पीड कार लिए चली आ रही थी। संभलने से पहले कार मेरे ऊपर से गुज़र चुकी थी। होश आया तो ख़ुद को फॉर्टिस अस्पताल में पाया। आंख के ठीक ऊपर चश्मे का एक शीशा आधा अंदर धंसा हुआ था। डॉक्टर मुझे होश में लाने की कोशिश कर रहे थे। कॉस्मेटिक सर्जन डॉक्टर दुधानी एमआरआई का कराने की सलाह दे रहे थे। उन्हे डर था कि कहीं ब्रेन स्ट्रोक न हो गया हो। वो साथियों से कह रहे थे कि अगर ये होश खो बैठा तो बहुत मुश्किल होगी। आंख खोलते ही वो तरह तरह के सवाल पूछने लगे। सर्जरी के बाद डॉक्टरों ने मुझे फिट घोषित कर दिया। एलान कर दिया कि मौत टल चुकी है। लेकिन इसके हफ्ते भर बाद ख़बर आई कि मां नहीं रहीं। देखो मां, मेरी मौत तो तुम अपने सिर ले गई। देखते ही देखते चार साल बीत गए न! हर बार तुम्हे डांटता था कि फलां काम करने के लिए तुमसे किसने कहा था। कुछ हो जाता तो। आज जो होना था, वो हो चुका है। लेकिन अफसोस तुम्हे डांट नहीं पा रहा हूं। वरना कहता- क्या ज़रूरत थी तुम्हे ये सब करने की। लेकिन शायद यही नियति है। क्योंकि ज़िंदगी अपनी रफ्तार से चलती रहती है।
yahoo detector, limewire
No comments:
Post a Comment