Wednesday, November 3, 2010

बचपन की बातें................


मेरे एक बहुक पुराने मित्र है कपिल बत्रा। लगभग एक दशक हो गए उनसे मिले हुए। लेकिन उनकी याद बहुत आती है। सुना है आजकल मुंबई में बसते हैं। बड़े चौनलों के लिए मल्टीकैम का सारा बोझ उटाते हैं। ये बहुत कम लोगों को याद होगा कि ये वही कपिल बत्रा हैं जो न्यूज़ एंकर हुआ करते थे। ये ज़ी टीवी के पहले न्यूज़ बुलेटिन की एंकरिंग कर चुके हैं। आज उनके पुराने खतो किताबत को खंगाला। भुली बिसरी बातें यादें आईं। उनका ये संवाद आज बी ज़ेहन में गूंजता है- जब सूरत ढल जाती है तब सीरत काम आता है। इसलिए टीवी के पत्रकारों तकनीकी तौर पर मज़बूत होना चाहिए। पता नहीं टीवी के तकनीक को कितना सीख पाया हूं और कितना साध पाया हूं। लेकिन कपिल बत्रा के साथ मेरे खतो किताबत के कुछ अंश पेश कर रहा हूं।

शायद ज़िंदगी बदल रही है!!
जब मैं छोटा था, शायद दुनिया
बहुत बड़ी हुआ करती थी..
मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक का वो रास्ता
क्या क्या नहीं था वहां,
चाट के ठेले, जलेबी की दुकान,
बर्फ के गोले, सब कुछ,
अब वहां "मोबाइल शॉप",
"विडियो पार्लर" हैं,
फिर भी सब सूना है..
शायद अब दुनिया सिमट रही है...
जब मैं छोटा था,
शायद शामें बहुत लम्बी हुआ करती थीं...
मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,
घंटों उड़ा करता था,
वो लम्बी "साइकिल रेस",
वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना,
अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है
और सीधे रात हो जाती है.
शायद वक्त सिमट रहा है..
जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती
बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना,
वो लड़कियों की बातें,
वो साथ रोना...
अब भी मेरे कई दोस्त हैं,
पर दोस्ती जाने कहाँ है?
जब भी "traffic signal" पे मिलते हैं
"Hi" हो जाती है,
और अपने-अपने रास्ते चल देते हैं,
होली, दीवाली, जन्मदिन और नए साल पर
बस SMS आ जाते हैं,
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..
जब मैं छोटा था,
तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपन छुपाई, लंगडी टांग,
पोषम पा, कट केक,
टिप्पी टीपी टाप.
अब internet, office,
से फुर्सत ही नहीं मिलती..
शायद ज़िन्दगी बदल रही है.
जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है..
जो अक्सर क़ब्रिस्तान के बाहर
बोर्ड पर लिखा होता है...
"मंजिल तो यही थी,
बस जिंदगी गुज़र गई मेरी
यहाँ आते आते"
ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है...
कल की कोई बुनियाद नहीं है
और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है..
अब बच गए इस पल में..
तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में
हम सिर्फ भाग रहे हैं..
कुछ रफ़्तार धीमी करो,
मेरे दोस्त,
और इस ज़िंदगी को जियो...
खूब जियो मेरे दोस्त,
और औरों को भी जीने दो...
चलो दोस्ती के नाम ही सही
इंसानियत की ख़ातिर ही सही
इस दीवाली पर एक दीया
दोस्ती के भी नाम जलाएं
आओ फिर से दोस्ती के दीप जलाएं
इस दीवाली को पहले की तरह
खुशहाल बनाएं
सभी को ज्योतिपर्व मुबारक हो

Monday, October 4, 2010

सोनिया के वंशवाद से लालू का वंशवाद अलग कैसे


ये सवाल पिछले पंद्रह सत्रह सालों से मेरी ज़ेहन में कौंध रहा है कि आरजेडी के अध्यक्ष और गंवई नेता लालू प्रसाद यादव क्यों मीडिया की आंखों की किरकिरी हैं। मुसीबत ये कि लालू कुछ करे तो मीडिया पीछे पड़ जाए। लालू कुछ न करें तो भी मीडिया ने उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जाए। लालू शुरू से ही मीडिया की आंखों की किरकिरी रहे हैं। ये अलग बात है कि लालू ने कारनामे इतने बड़े -बड़े किए कि मीडिया उन्हे दिखाने और छापने के लोभ से बच नहीं पाया। हंसोड़ अंदाज़ में दिया गया लालू का पंद्रह सेकेंड की बाइट बुलेटिन की टीआरपी को सेसेंक्स की तरह उछाल देता था। लालू प्रसाद ने अपने ओजस्वी बेटे तेजस्वी के हवाले अपनी रीजनीति की विरासत दी तो हंगामा बरप गया। सबने चीखना शुरू कर दिया कि बिहार में लालटेन के लेकर चलनेवाले लालू प्रसाद को अपना राजनीतिक वारिस नहीं मिला। सब साथ छोड़कर जा रहे हैं। यहां तक सगे साले भी पिंड छुड़ा चुके हैं। इसलिए लालू ने तेजस्वी को अपना वारिस घोषित किया।
क्या लालू को इतना हक़ नहीं है कि वो अपने बेटे को वारिस घोषत कर सकें। इससे पहले भी जब वो अपनी पत्नी राबड़ी को बिहार की मुख्यमंत्री बनाया था, तब भी बावेला हुआ था। आखिर ये बावेला उस समय मीडिया क्यों नहीं काटता , तब दूसरे राजनेता अपने नाती-पोतों तक को अपना वारिस घोषित करते हैं ? तब मीडिया को क्यों सांप सूघ जाता है? क्या कभी मीडिया ने ये सवाल खड़ा किया कि किस योग्यता के आधार पर सोनिया गांधी अपने राजकुंवर राहुल गांधी को देश का राज पाट सौंपने जा रही हैं। राहुल में ऐसी क्या काबिलियत दिखी कि वो देखते ही देखते पार्टी के महासचिव बन गए। लोकतंत्र ने राहुल गांधी को ऐसी कौन सी चाबी दे दी है कि वो गंभीर मुद्दे पर प्रधानमंत्री से मिलते हैं। और जो सलाह देकर आते हैं, उसकी घोषणा प्रधानमंत्री कर देते हैं ? क्या खुद सोनिया गांधी राजनीतिक विरासत की थाती नहीं खा रही हैं? अगर वो स्वर्गीय राहुल गांधी की पत्नी या फिर इंदिरा गांधी की बहू नहीं होतीं तो भारतीय राजनीति में उनकी हैसियत क्या होती ? फिर राहुल बाबा की हैसियत क्या होती? राहुल की तरह ही वरूण गांधी भी नेहरू गांधी परिवार के चिराग हैं। उन्हे क्यों नहीं देश का नगीना माना जाता है। क्या केवल इसलिए कि उनकी मां मेनका के साथ उनकी सास इंदिरा की कभी नहीं पटी। क्या इसलिए कि इंदिरा ने उन्हे राजनीतिक विरासत के साथ साथ घरेलू विरासत से भी अलग कर दिया था? क्या मीडिया ने मान लिया है कि राहुल की तुलना में वरुण की योग्यता कम है ? अगर ऐसा है तो मीडिया ने इसके लिए क्या पैमाना तय किया?
जब तथाकथित जगत के ताऊ देवीलाल ने अपने जीते जी चौधरी ओम प्रकाश चौटाला को हरियाणा का मुख्यमंत्री बनाया तो मीडिया को वंशवाद क्यों नहीं दिखा। जब शेख अब्दुल्ला ने फारूक को वारिस बनाया तब भी मीडिया चुप था। फारूक ने उमर को वारिस घोषित किया , तब भी मीडिया चुप था। अब फारूक और उमर दोनों ही सत्ता की मलाई चाट रहे हैं। माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया राजनीतक वल्दीयत को संभाल रहे हैं। जितिन प्रसाद के बेटे जितेन प्रसाद भी सत्ता के वारिस हैं। मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद भी सत्ता सुख भोग रहे हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा के बेटे दीपेंदर भी सत्ता सुख ले रहे हैं। ऐसे सैकड़ों नाम हैं। लेकिन इन नामों पर मीडिया की नज़र नहीं जाती। मीडिया की नज़र जाती है कि मुलायम सिंह ने कैसे राम गोपाल, शिवपाल, अखिलेश और डिंपल को राजनीति में उतारा। लालू प्रसाद कैसे अपने बेटे को तैयार कर रहे हैं रामविलास पासवान कैसे बिहार चुनाव में चिराग़ का इस्तेमाल करेंगे। आखिर मीडिया को क्यों इस तरह के नेताओं पर नज़र रहती है। क्या इसलिए कि वो दलित और पिछड़े हैं, और इन्ही की लड़ाई लड़ते हैं। वंशवाद के विरोध की राजनीति कर राजनीति में मक़ाम हासिल किया। या फिर मीडिया आज भी जातिवादी सोच से बाहर नहीं निकल पाया है। वो राहुल की विरारत में स्वातसुखाय का अहसास पाता है।
लालू प्रसाद दरअसल आजकल राजनीति के बियाबान में हैं। जब सत्ता के आभामंडल के पायदना थे, तब चाटुकार पत्रकारों की होड़ लगी रहती है। प्रणामा पाति करने के लिए रोज़ दर्जनों पत्रकार सलामी देते थे। अब ये दीगर बात है कि सत्ता में लालू की हैसियत वैसी ही गई है जैसे कि सब्ज़ी बनने के बाद तेजपत्ते की होती है। लालू को तब से करीब से देख रहा हूं, जब उन पर स्वर्गीय चंद्रशेखर का हाथ था। हांलाकि कई दिग्गज पत्रकार मानते हैं कि लालू को लालू बनाने में देवीलाल का हाथ था। नब्बे की दशक की बात है । दलित औऱ बुज़ुर्ग नेता राम सुंदर दास और लालू के बीच बिहार के मुख्यमंत्री के लिए जंग थी। ये जंग लालू ने जीती और पंद्रह सालों तक बिहार का राज पाट किया। इस राज पाट के दौरान बिहार का विकास हुआ या विनाश- ये बहस का मुद्दा है। लेकिन ये तो साफ है कि इन पंद्रह सालों तक लालू का करिश्मा सिर चढ़कर बोला।
पंद्रह सालों तक राज पाट करना बच्चों का खेल नहीं है। लालू ने इस करिश्में को करके दिखाया। बिहार के पिछड़े और दलितों को एक आवाज़ दी, नई ताक़त दी। बाबरी कांड के बाद लालकृष्ण आडवाणी की रथ को रोककर मुस्लिमों का विश्वास जीता। मंडल कमीशन लागू कर जब वी पी सिंह ने देवीलाल को साधने की कोशिश की तो लालू दीवार के साथ खड़े हो गए। भाषणों में सवर्णों के खिलाफ आग उगलने लगे। खुलेआम भूरा बाल साफ करने की चेतावनी देने लगे। भूरा बाल यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला। बिहार में जो पिछड़से सदियों से अगड़ों के पिच्छलग्गू बने हुए थे, उनको ताकत दी। इस दौरान अंग्रेजी दां लोग जिनती आलोचना लालू की करते थे, लालू उनते ही यकीन के साथ पिछड़ों को समझा लेते थे कि ये उनका नहीं , उन लोगों का अपमान है। लेकिन यही लालू से चूक भी हो गई। देखते ही देखते अगड़ी जातियां लालू प्रसाद के खिलाफ लामबंद हो गईं। उनके साथ केवल मुसलमान और यादव रह गए। सत्त्ता मद में चूर लालू में आक्रामकता आ गई। गरूर भी आ गया। बिहार भूलकर लो केंद्र की सरकार बनवाने और गिराने लगे। केंद्र की राजनीति के लिए वो अपनी पत्नी के हवाले बिहार का राजपाट कर गए। पत्नी आई तो साथ में दो भाई भी सक्रिय हो गए। बिहार में जंगलराज का आरोप लगने लगा। अपराधी सक्रिय हो गए। रोज़गार के लिए नौजवान बिहार छोड़ने लगे। ऐसे में लालू की इमेज को जबरदस्त धक्का लगा।
ख़ैर सवाल ये नहीं है कि लालू ने अपने बाद अपना राज पाट अपनी पत्नी राबड़ी के हवाले क्यों किया। क्योंकि ये परंपरा कांग्रेस में पहले से चली आ रही है। सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष इसलिए नहीं बनी कि उन्होने समाज का कोई बहुत बड़ा काम किया था। वो केवल इसलिए कांग्रेस की अध्यक्ष बनी क्योंकि राजीव गांधी की पत्नी थी। राहुल गांधी भी इसलिए सांसद और महासचिव बने क्योंकि वो सोनिया और राजीव के बेटे थे। फिर लालू के बेटे तेजस्वी को वारिस घोषित कर दिया। फिर इतना कोहरमा क्यों ? भारती राजनीति में लालू पहले आदमी तो नहीं है , जो इस तरह की खानदानी परंपरा क़ायम कर रहे हैं और न ही लोकतंत्र के आखिरी पहरूए। फिर इतना बवाल क्यों ? क्यों नहीं जिस तरह से राहुल बाबा के लिए जयकारा लग रहा है। वैसे ही तेजस्वी के लिए लगे। बाक़ी दोनों की क़िस्मत का फैसला जनता जनार्दन के हाथों में छोड़ दें।

Saturday, June 26, 2010

आज तेरह बरस हो गए.............


बड़े ग़ौर से सुन रहा था ज़माना तुमको, तुम्ही सो गए दास्तां कहते-कहते
ये शब्द मेरे पिता जी के हैं। पापा की मौत के बाद उनके मुहं से यही निकला था। लोग कहते हैं कि वक़्त सारे घाव भर देता है। लेकिन मैं इसका जीता जागता गवाह हूं। घाव कभी नहीं भरते। जिस पर बीतती है , वही जानता है। हमारे परिवार में ऐसा कोई दिन या लम्हा न होगा, जब परिवार का हर सदस्य उन्हे याद नहीं करता होगा। मेरे परिवार की नियती हो गई है कि मई, जून और जुलाई के महीनों से डर कर रहें। ये महीने हमारे लिए वज्रपात ले कर आते हैं। 1 मई 2007 को मेरी मां का देहांत हुआ। 1 जून 2010 को मेरी दादी जी (आजी) का देहांत हुआ। 14 जुलाई 1996 को दादाजी( बाबा)हमें छोड़कर गए। 27 जून 1997 को पापा चल बसे। पिता जी भी काफी बूढ़े हो चले हैं।
ये दर्द समझना इतना आसान नहीं है। जिस आदमी के सामने उसका छोटा भाई गुज़र गया हो, पत्नी गुज़र गई हो। मां-बाप न हो। वो कितना तन्हा महसूस करता होगा, क्योंकि वो अपने पूरे जीवन में इन्ही चारों पर न्यौछावर रहा। सच मानिए तो मुझे अब किसी त्यौहार या उत्सव में कोई आनंद नहीं आता। सब फीका सा लगता है। पता नहीं क्यों हर त्यौहार और उत्सव पर बीते दिनों की हर छोटी बड़ी बातें दिमाग़ में घूमने लगती हैं। न्यूज़ चैनलों में मैं अब तक बहुत नाट्य रूपांतरण और फ्लैश बैक बहुत दिखाया है। मुझे क्या पता था कि मेरी ही ज़िंदगी में ये असलियत कर तरह चस्पां हो जाएंगी। मेरा परिवार बहुत सिकुड़ गया है।
याद आती हैं कई बातें। लोगों के दिलासे-वादे, अपनापन, पृतभाव का प्रेम- फ्लैश बैक की तरह दिमाग़ में घूमती हैं। पापा के चौथ के बाद पिताजी को कोलकाता लौटना था। राजधानी से रिज़र्वेशन कराया। स्टेशन पर तीन लोग उन्हे छोड़ने आए। उनमे से एक समाजवादी नेता( जब वो मंत्री थे) के बहुत क़रीबी थे। बाक़ी दो सज्जन नामचीन संपादक थे। तीनों ने मुझे समझाया। कहा- हम लोग तुम्हारे साथ हैं। कभी जीवन में ज़रूरत पड़े तो ख़ुद को अकेला मत पाना। हम साथ खड़े मिलेंगे। बहुत पुरानी बात नहीं है। कुछ बरस पहले एसपी सिंह की टीम के एक सदस्य भी मेरे साथ काम करते थे। पद-प्रतिष्ठा में समकक्ष ही थे। लेकिन भौक्काल में नंबर वन। मेरे सामने ही लाला जी को वो बड़ी -बड़ी गोलियां देते थे कि पेट में दर्द होने लगता था। ख़ैर उनकी मेहरबानी से मैं पैदल हुआ। नौकरी की तलाश में था। प्लेटफार्म वाले संपादक बड़े चैनल में बडे़ ओहदे पर थे। मैंने उनको फोन किया। ये सोचकर नहीं कि नौकरी चाहिए। बल्कि 1997 वाले भाव को याद कर। उन्होने कई बार बुलाया। उन्हे सब पता था कि मैं बेरोज़गार हूं, नौकरी की तलाश में हूं। नौकरी का भरोसा भी दिया। लेकिन ये दिलासा बस भरोसा बनकर रह गया। उनका दो नंबरी हमेशा मुझे कहता था कि सीधे बात क्यों नहीं करते। सबको रख रहे हैं। हर बार मैं यही कहता था कि उन्हे सब मालूम है। सुविधानुसार वो ज़रूर देखेंगे। ये विश्वास लेकर चल रहा था। नौकरी उन्होने दिल खोलकर बांटी। नौकरी पानेवालों की योग्यताओं और अनुभव पर नहीं जाऊंगा। लेकिन अफसोस तो अफसोस ही होता है, जब पीड़ा दिल को छू गई हो। लेकिन उन पर से विश्वास आज भी नहीं डोला है। जिन लोगों ने मुझे दिलासा और भरोसा दिया था, आज भी उनके साथ मैं ईमानदारी से भावनात्माक और रागात्मक तौर पर जुड़ा हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि वो लोग काफी भले हैं।
ख़ैर व्यक्तिगत जीवन पर आता हूं। पत्रकारिता में आने का जुनून पापा को देख कर ही पैदा हुआ। लेकिन वो हमेशा इसके विरोधी रहे। वो हमेशा कहते थे कि पत्रकारिता का स्वरूप बदल रहा है। कुछ और करो। रेलवे की नौकरी ही कर लो। लेकिन मेरे पर तो महान पत्रकार बनने का भूत सवार था। एक तरह से बाग़ी बनकर पत्रकार बन गया। पापा को अच्छा नहीं लगा। लेकिन उन्होने मेरी भावना को भी समझा। उन्हे मुझसे कहा कि अगर पत्रकारिता ही करना चाहते हो तो फिर जामिया से कोर्स करो। मैंने पलटकर जवाब दिया कि टाटा-बिड़ला ने न तो एमबीए की पढ़ाई की थी और न ही धर्मवीर भारती से लेकर एमजे अकबर और आपने पत्रकारिता को कोर्स किया है। उन्होने मेरी बात को धैर्य से सुना। उन्होने एक बात बहुत धीरज के साथ मुझसे कही- पत्रकारिता में कुंठित हो जाओगे। बहुत कुछ बदल गया है। आज मुझे लगता है कि उन्होने भविष्य की पत्रकारिता को समय से भांप लिया था। किसी और से भेल ही न की हो, लेकिन हमारे बीच जो नाता था, उसमें वो बेबाकी से सच कह गए थे। क्योंकि पत्रकारिता का जो मौजूदा चेहरा और स्वरूप है, वो किसी से छिपा नहीं है।
घर पर कई बार रविवार और धर्मयुग के पन्ने पलटता हूं। उनके कई लेख देखता हूं। डाकू घनश्याम पर उदयन शर्मा का लेख पढ़ता हूं। आज के दौर के पत्र -पत्रिकाओं के साथ न्यूज़ चैनल देखता हूं। कई बार ख़ुद से पूछता हूं कि क्या मैं यही पत्रकारिता करने के लिए अपनों से लड़ा था। पत्रकारों के स्वभाव , गुण, चित्त , मनोदशा, आकांक्षा और फितरत को पढ़ने की कोशिश करता हूं तो बार बार यही सवाल उभरता है। ऐसे में मैं अपने बेटे अंश सुरेंद्र के साथ खेलता हूं। उसकी तरफ देखता हूं। मन ही मन बुदबुदाता हूं। कहता हूं- सब कर रहे हैं तो तुम क्या राजा हरिशचंद्र हो? फिर कहता हूं- बेटा , कर ले अब नौकरी। घर चला ले। देश बदलने का सपना छोड़। यहां तो सब ऐसे ही चलता है। तुम रहो या न रहो- देश ऐसे ही चलता रहेगा। इसलिए अब मुझे बड़ा चैनल -छोटा चैनल, बड़े पद या छोटे पद की चिंता ही नहीं होती। शायद लोग हंसे। लेकिन सच है कि मेरे मन बस यही भाव है- चाह गई, चिंता गई, मनुवा बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, वो साहन के साह।

Tuesday, May 4, 2010

कांग्रेस क्यों झेल रही है ममता बनर्जी को ?

ममता बनर्जी ने कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया है। ममता ने बग़ैर लाग- लपेट के आरोप लगाया है कि कांग्रेस की नीयत ठीक नहीं है । वो सीपीएम को फायदा पहुंचा रही है। ये समझ में नहीं आता कि ममता बार –बार कांग्रेस पर गंभीर आरोप लगाती हैं। फिर भी कांग्रेस झेल रही है। जबकि कांग्रेस का दावा है कि मनमोहन सिंह की सरकार मजबूरी की नहीं मज़बूती की सरकार है। पहली बार नहीं है जब ममता बनर्जी ने कांग्रेस पर आरोप लगाए हैं। लेकिन कांग्रेस की घिघ्घी बंधी हुई है। सोनिया गांधी के इशारे पर कभी अहमद पटेल मनाने जाते हैं तो कभी केशव राव चिरौरी करने जाते हैं। लेकिन ममता ने सबको एक ही लाठी से हांक कर भगा दिया।
कोलकाता और पश्चिम बंगाल के नगर निगमों के चुनाव को लेकर कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में तलवारें खिंच गईं। बंगाल में ममता की पिछलग्गू बनी कांग्रेस ज़्यादा सीटों की मांग करने लगी। लेकिन ममता ज़्यादा दरियादिली दिखाने के मूड में नहीं थी। उन्होने कांग्रेस को झिड़क दिया। कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी कर दी। इसके बाद ममता ने डंके की चोट पर एलान कर दिया कि राज्य में दोनों पार्टियों का गठबंधन टूट गया है। साथ ही ममता ने कई चौंकानेवाली बातें भी कह दीं। इन बातों को सुनकर ऐसा लगता है कि केंद्र में ममता और सोनिया गांधी की निभ कैसे रही है।
ममता ने मीडिया के सामने आपना दिल खोल कर रख दिया। ममता ने दावा किया कि केंद्र में गठबंधन को बचाए रखने के लिए वो रोज़ ज़हर का घूंट पी रही हैं। ममता का आरोप है कि भूमि अधिग्रहण को लेकर उनकी नीति साफ है। नंदीग्राम और सिंगूर के समय इसके लिए उन्होने हड़ताल भी की थी। लेकिन मनमोहन सरकार उनकी नीति के खिलाफ है। केंद्र की सरकार भी राज्य की वाम मोर्चे की सरकार की तरह काम कर रही है। अब ये समझ से परे हैं कि मनमोहन सरकार भूमि अधिग्रहण के लिए वाम मोर्चा की नीति पर चल रही है। कांग्रेस गुप-चुप तरीक़े से सीपीएम की मदद भी कर रही है। तो फिर ममता क्यों नीलकंठ बन हुई हैं। क्यों नहीं वो केंद्र से अलग हो जा रही हैं। मंत्रिमंडल से बाहर हो कर भी तो सरकार चलाई जा सकती है। या फिर वो मंत्री की कुर्सी का मोह नहीं छोड़ पा रही हैं।
क्या वजह है कि ममता बनर्जी केंद्र में गठबंधन नहीं तोड़ पा रही हैं लेकिन राज्य में एक झटके से रिश्ते तोड़ने का एलान करती हैं। क्या राज्य की कांग्रेस और केंद्र की कांग्रेस अलग –अलग है । ममता बनर्जी ने जो अपनी भड़ास निकाली है, वो कांग्रेस के लिए ख़तरमाक संकेत है। ममता का आरोप है कि वो केंद्र में अपमानित हो रही हैं। मंत्रिमंडल में उनका कोटा पूरा नहीं किया गया। ममता की राजनीति करने की अपनी शैली है। ये शैली आक्रामक है। इसी शैली के तहत उन्होने कांग्रेस को याद दिलाना नहीं भूलीं कि केंद्र में कांग्रेस की अकेले की सरकार नहीं है। मनमोहन सिंह की इस सरकार को करूणानिधि और ममता बनर्जी ही आक्सिजन दे रहे हैं। वरना ये सरकार बेमौत मारी जाती। ममता का हुंकार ख़तरनाक संकेत देता है। ममता बेलौस होकर कहती हैं कि जब तक उनके आत्मस्मान पर चोट नहीं पहुंचती , तब तक मनमोहन सिंह की सरकार को कोई ख़तरा नहीं है।
हैरानी इस बात की है कि ममता खुद अलग अलग बयान दे रही हैं। एक तरफ आरोप लगा रही हैं कि भूमि अधिग्रहण को लेकर केंद्र और वाम मोर्चा की सरकार में कोई अंतर नहीं है। दूसरा आरोप लगा रही हैं कि कांग्रेस सीपीएम का साथ दे रही है। तीसरा आरोप लगा रही हैं कि केंद्र में मंत्रियों का उनका कोटा पूरा नहीं हुआ। चौथा आरोप लगा रही हैं कि वो केंद्र की गठबंधन को बचाए रखने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही हैं। इसलिए सब कुछ सह रही हैं। फिर कहती हैं कि जब तक आत्मसम्मान पर चोट नहीं हुआ तब तक सरकार को कोई ख़तरा नहीं है। सवाल ये है कि पहले की सभी आरोपों को पलभर के लिए सच मान लिया जाए तो फिर आत्मसम्मान पर चोट पहुंचाने के और कौन से तरीक़े बचे हैं। क्या ममता इतनी नादान हैं कि उन्हे कुछ समझ में नहीं आ रहा। या उन्हे अच्छी तरह से मालूम है कि उनके समर्थन वापिसी से सरकार का बाल भी बांका नहीं होने वाला। समर्थन देने के लिए बहुतेरी पार्टियां बैठी हुई हैं। अगर वो सरकार से बाहर हो गई तो राज्य में उनका खेल ख़त्म हो जाएगा। जनता में जो भरोसा बना है कि राज्य सरकार की कान उमठेने के लिए ममता केंद्र पर जब तब दबाव डलवा सकती हैं। अगर वो गठबंधन और मंत्रिमंडल से बाहर हो गईं तो किस दम पर वो सीपीएम नेताओं को हूल देंगी।
दरअसल नगम निगम चुनाव में ममता बनर्जी ने सीट बंटवारों को जानबूझ कर मुद्दा बनाया। ये ममता बनर्जी की राजनीति का हिस्सा है। ममता बनर्जी नहीं चाहतीं कि राज्य में उनकी पिछलग्गू बनी कांग्रेस की ताक़त और हैसियत न बढ़े। ममता बनर्जी का इरादा आनेवाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कम से कम सीटें देने का है। ममता को मालूम है कि अगर नगर निगम चुनाव में उन्होने कांग्रेस को मनमर्ज़ी की सीटें दे दीं। तो फिर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हक़ से भी ज़्यादा सीटें मांगेंगी। इसके अलावा मनमर्ज़ी की सीटों के लिए सुब्रतो मुखर्जी से लेकर प्रणब मुखर्जी तक दबाव बनाएंगे। इसलिए ममता ने कांग्रेस को ज़ोर का झटका धीरे से दिया है। ममता को मालूम है कि कांग्रेस के बग़ैर वो अधूरी हैं। कांग्रेस को भी मालूम है कि ममता के बिना उसकी राजनीतिक हैसियत न के बराबर है। क़यास से ये लगाया जा सकता है कि नगर निगम चुनाव के बाद तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के बीच फिर से गोटी सेट हो जाएगी। क्योंकि विधानसभा चुनाव में दोनों को वोट प्रतिशत का खेल मालूम है। ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनने के लिए कांग्रेस से फिर हाथ मिलाएंगे। उन्हे तब आत्मसम्मान की चिंता नहीं होगी।

Saturday, April 10, 2010

आक्रामक ममता बनर्जी को भी कोई नाथ सकता है


दूसरों के नाम में दम भरनेवाली तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी के भी नाक में कोई दम भर सकता है। ये बात अब साबित हो गई है। जादवपुर से तृणमूल कांग्रेस के सांसद कबीर सुमन ने ममता का जीना मुहाल कर दिया है। पहली बार नहीं है जब कबीर सुमन ने बीच बाज़ार में ममता की पगड़ी उछाली हो। हर बार ममता शर्मसार हुई हैं। लेकिन ममता इतनी लाचार हैं कि वो कबीर सुमन के ख़िलाफ कोई कड़ा फ़ैसला नहीं कर सकतीं। यहां तक कि न डांट सकती हैं और झिड़क सकती हैं। ममता बनर्जी अपने सांसद कबीर सुमन को लेकर केवल सुबक सकती हैं। वो अभी सबके सामने नहीं। अकेले में। हैरानी की बात है कि दूसरों को रूलाने का माद्दा रखनेवाली ममता बनर्जी इतनी लाचार क्यों हैं? आख़िर ये कबीर सुमन कौन सी बला है?

जावपुर संसदीय क्षेत्र से इस बार के लोकसभा चुनाव में कबीर सुमन जीत कर आए हैं। उन्होने सीपीएम के दिग्गज सुजन चक्रवर्ती को लगभग 56 हज़ार वोटों से हराया है। जीत के अंतर को देखकर लग सकता है कि कबीर सुमन खेले खाए राजनेता हैं, जिन्होने सीपीएम को दिग्गज को हराया। इस दिग्गज की पश्चिम बंगाल में वैसी ही छवि है, जैसे की बिहार में शहाबुद्दीन या उत्तर प्रदेश में अतीक़ अहमद की है। लेकिन असलियत तो ये है कि कबीर सुमन कोई राजनेता नहीं हैं। पहली बार उन्होने चुनाव लड़ा और भारी बहुमत से चुनाव जीत गए। दरअसल कबीर सुमन एक पत्रकार थे, एक रंगकर्मी हैं और एक गायक हैं। गायक के तौर पर पूरे पश्चिम बंगाल में लोकप्रिय हैं। जब वो गाते हैं, तब ज़माना उन्हे ग़ौर से सुनता है। जब बांग्ला अख़बार के लिए पत्रकारिता करते थे, तब से उनकी ममता बनर्जी से जान-पहचान हुई। लेकिन सिंगूर- नंदीग्राम आंदोलन के समय कबीर सुमन और लोकप्रिय हुए। अपने गानों से उन्होने राज्य की वाम मोर्चा सरकार की बखिया उधेड़ दी। इस आंदोलन की अगुवाई ममता बनर्जी कर रही थीं। आंदोलन में कई पत्रकार, साहित्यकार, रंगकर्मी , नाट्यकर्मी भी शामिल थे। ममता ने लोकसभा का टिकट पकड़ाया और वो लोकप्रियता की ट्रेन पकड़कर दिल्ली पहुंच गए।

कबीर ने फिर इस्तीफा दिया है। इससे पहले भी इस्तीफा दिया था। लेकिन इस बार माज़रा कुछ और है। जावपुर विश्वविद्यालय के छात्र नक्सलियों के ख़िलाफ़ चल रहे आपरेशन ग्रीन हंट का विरोध कर रहे थे। इसके लिए वो जगह- जगह पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। इन छात्रों ने आपरेशन ग्रीन हंट का इसलिए भी विरोध किया क्योंकि पुलिस की गोलियों से विश्वविद्यालय के मेघावी छात्र अभिषेक की मौत हो गई। अभिषेक नक्सली हो गया था। नंदीग्राम-सिंगूर आंदोलन के समय वो सक्रिय रूप से भाग लिया। इसी दौरान वो नक्सिलयों के क़रीब आया। अपने प्रताप और ज्ञान से कुछ ही दिनों में किशनजी का ख़ास बन गया। अभी हाल ही में जब मिदनापुर में आपरेशन ग्रीन हंट के दौरान कोबरा की टीम और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ हुई। उसमें विक्रम नाम के नक्सली के मारे जाने की ख़बर आई। ये विक्रम कोई और नहीं बल्कि अभिषेक ही था। नक्सलियों ने उसे विक्रम नाम दिया था।

छात्रों के इस आंदोलन में कबीर सुमन भी कूद पड़े। उन्होने भी छात्रों के साथ सुर में सुर मिलाकर आपरेशन ग्रीन हंट बंद करने की मांग कर दी। ये ज़िद उन्होने अपनी पार्टी की मुखिया ममता बनर्जी से भी कर दी। लेकिन ममता की मुश्किल ये कि सीपीएम और लेफ्ट ने पहले ही उन पर नक्सली समर्थक होने का आरोप लगाया है। अगर वो अपने सांसद की बात मानकर केंद्र से ऐसी कोई बात करती हैं तो साफ-साफ तौर पर साबित हो जाएगा कि वो नक्सिलयों से हमदर्दी रखती हैं। ऐसे में सीपीएम और लेफ्ट पार्टियां माइलेज लेने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेंगी। दूसरी परेशानी ये कि केंद्रीय गृह मंत्री बेहद ईमानदारी से नक्सलियों के ख़िलाफ़ आपरेशन ग्रीन हंट चलाए हुए हैं। उन्होने साफ तौर पर कहा है कि जह तक नक्सली हिंसा और हथियार छोड़ कर नहीं आते, तब तक उनसे कोई बातचीत नहीं होगी।

ज़ाहिर है कि ममता बनर्जी अपने सांसद की बात नहीं मान सकती। सांसद भी अपनी बात से टस से मस होने को तायार नहीं। उन्होने एसएमएस से इस्तीफा भेज दिया। शायद लोकतंत्र में पहली बार किसी सांसद ने एसएमएस से इस्तीफा भेजा होगा। छात्रों की मीटिंग में उन्होने एलान कर दिया कि उन्होने तृणमूल कांग्रेस छोड़ दी। क्योंकि पार्टी नक्सिलयों के खिलाफ हो रही हिंसा को नहीं रूकवाना चाहती। शायद पहली बार ममता ने सार्वजनिक तौर पर अपनी झल्लाहट दिखाई। ममता ने अपने सांसद को सेंसलेस करार दिया। ममता ने अपनी मजबूरी को रोना रोया। ममता दुहाई दे रही हैं कि कबीर के भेजे में बुद्धि डालने के लिए वो दादा प्रणब मुखर्जी के दर पर भी गईं। लेकिन कबीर के भेजे में कुछ नहीं आया।

हैरानी इस बात की है कि जिस दादा से दीदी की नहीं बनती। वो उस दादा के पास क्या सोच कर गई ? पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान टिकट बंटवारे में भी दादा-दीदी ख़ूब झगड़े थे। दीदी का आरोप था कि सीपीएम को फायदा पहुंचाने के लिए दादा टिकट बंटवारे में खेल कर रहे हैं। चुनाव के बाद ऐसा क्या हो गया कि दादा सीपीएम को नुक़सान पहुंचाने वाले प्राणी बन गए ? दूसरी बात ये कि कबीर सुमन अगर बिफरते हैं तो क्या वो सरकार के ख़िलाफ बिफरते हैं? जवाब है नहीं। वो अपनी पार्टी में बग़ावत कर रहे हैं। अपनी पार्टी के मुखिया के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। फिर किस हैसियत से दीदी कबीर को लेकर दादा के पास गईं ? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिसका जवाब फिलहाल दीदी के पास नहीं है।

कबीर सुमन शांत प्रजाति के प्राणी नहीं हैं। इससे पहले भी उन्होने एक बार इस्तीफा दिया था। इस्तीफे से दीदी के पसीने छूट गए थे। कबीर सुमन ने आरोप लगाया था कि तृणमूल कांग्रेस का हर छोटा बड़ा नेता घूसखोर हो गया है। अदना से अदना कार्यकर्ता भी काम के बदले में घूस खा रहा है। ममता ईमानदारी का ढोल बंला में पीट रही हैं। सभाओं और जलसों से ये साबित करने पर तुली हैं कि लेफ्ट फ्रंट की सरकार ने पिछले तीस सालों में पश्चिम बंगाल को बेच खाया है। ममता के इस मुहिम को उनके ही सांसद पलीता लगा रहे हैं। कबीर सुमन के बयान से ऐसा लगता है कि सरकार में शामिल हुए अभी तृणमूल कांग्रेस के जुमा-जुमा चार ही दिन हुए हैं और ये लोग अभी से ही देश को लूट रहे हैं।

विधानसभा चुनाव सिर पर है। आज कबीर सुमन चीख रहे हैं। साबित करने में लगे हैं कि जिस नक्सिलयों की मदद से दिल्ली में दीदी की पार्टी राज पाट कर रही है। आज उसी नक्सलियों को प्रताड़ित किया जा रहा है। इस प्रताड़ना में ममता बनर्जी भी शरीक हैं। वो चाहें तो मनमोहन सरकार को रोक सकती हैं। लेकिन सत्ता की मलाई खाने में लगी ममता को अब नक्सिलयों की फिक्र कहां। दूसरी तरफ , सुमन ये भी साबित करने में लगे हैं कि तृणमूल कांग्रेस के नेता भ्रष्ट हो गए हैं। मंत्री से लेकर संतरी तक रिश्वत खा रहा है। ऐसे में विधानसभा चुनाव में ममता को अपनी साख बचाए रखना बेहद मुश्किल लग रहा है। क्योंकि सीपीएम उनके ही सांसद के बयान को लेकर जनता के बीच जाएगी। हंसते हुए कहेगी कि ये आरोप सीपीएम का नहीं है। ये आरोप उस आदमी का है, जो वर्षों तक ममता के साथ रहा है। ममता की पार्टी का सांसद रहा है। ऐसे मं ज़रूरी है कि बंगाल जीतने का सपना पालनेवाली ममता समय रहते कबीर को क़ाबू कर लें।

Monday, January 18, 2010

सोनिया का त्याग मजबूरी थी और ज्योति बाबू का त्याग आदर्श


अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि ज्योति बसु को इतिहास किस तरह से याद करेगा। क्योंकि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु के व्यक्तित्व बहुत सारे आयाम हैं। इनमें से किसी एक को केंद्र में रखकर ज्योति बसु का ख़ाका तैयार करना आसान नहीं है। ज्योति बसु के व्यक्तित्व, प्रशासन और पार्टी में में नेतृत्व क्षमता का आंकलन करना सहज नहीं है। लेकिन इतना तो तय है कि इतिहास के पन्नों में वो प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकरानेवाले पहले और आख़िरी राजनेता के तौर पर याद किए जाएंगे। वैसे प्रधानमंत्री की कुर्सी तो सोनिया गांधी ने भी ठुकराई। लेकिन उसकी तुलना ज्योति बसु से नहीं की जा सकती। क्योंकि सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री को लेकर विरोध था। सोनिया ने बेशक़ प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकराई हो। लेकिन उन्हे मालूम था कि इस पद के लिए उनके सामने कई ब्रेकर हैं। कभी पार्टी के अंदर ही विदेशी मूल का मुद्दा झेल चुकी सोनिया गांधी विपक्ष के भी निशाने पर थीं। लेकिन ज्योति बाबू के सामने कोई अवरोध नहीं था। वो चाहते तो प्रधानमंत्री बन सकते थे। दुनिया कुर्सी के पीछे भागती है और ज्योति बसु के पीछे प्रधानमंत्री की कुर्सी भाग रही थी। लेकिन पार्टी के अनुशासन में बंधे ज्योति बसु ने मोह तजना ही बेहतर समझा।
देश अभी खिचड़ी सरकार का अनुभव ले रहा था। इस तरह का अनुभव देश ने मोरारजी देसाई और चरण सिंह के भी दौर में देखा था। लेकिन 1996 का दौर काफी बदल चुका था। देश ने दो और समाजवादियों की खिचड़ी सरकार का अनुभव हासिल कर लिया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर की सरकारों से जी खट्टा हो चुका था। देवेगौड़ा की मजबूरियों को भी लोगों ने देखा। ऐसे में सबको समझ में आया कि अगर ज्योति बसु के हाथ में देश की कमान दी जाए तो वो आसानी से सरकार चला लेंगे। लोगों को ये भरोसा उनके मुख्यमंत्रित्व काल से हो गया था। जब कई पार्टियों की मिल जुली सरकार कुछ ही महीने में भरभरा जाती थीं। तब ये बंगाल का लाल बड़ी शान से कई पार्टियों की बाहें थामें नया रेकॉर्ड बना रहा था। ये हुनर ज्योति बसु में ही था कि आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक औऱ सीपीआई को साथ लेकर बग़ैर किसी टांय-टांय के सरकार चला लें। ज्योति बसु की इस इमेज के लिए प्रमोद दास गुप्ता, सरोज मुखर्जी, शैलेन दासगुप्ता औऱ अनिल बिश्वास ने भी ख़ूब मेहतन की। ज्योति बसु का क़द संगठन से भी बड़ा बनाने की कोशिश हुई। लेकिन जिस पार्टी ने ज्योति बसु की इमेज पार्टी से भी बड़ा करने के लिए दिन- रात एक की, उसी पार्टी ने रातों –रात अपने महानायक दो देश की सत्ता की सबसे बड़ी कुर्सी ठुकराने को कहा। ज्योति बसु में भी इतना सत्साहस था कि उन्होने पार्टी के आदेश को सिर माथे से लगाया। लेकिन साथ ही चेता भी दिया कि पार्टी ने ऐतिहासिक भूल की है।
ज्योति बसु की फितरत थी सत्ता से टकराने की। उनकी ये ख़ासियत थी कि सत्ता से टकराने के बावजूद सत्ताधारी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उनसे सलाह लेने के लिए चल कर आते भी थे। ज्योति बसु से पहले और बाद में ये सुख किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को नसीब नहीं हुआ है। देश में चाहें इंदिरा गांधी की सरकार रही हो, राजीव गांधी की रही हो, नरसिम्हा राव की रही हो या फिर वीपी सिंह या चंद्रशेखर की सरकार रही। सबको कभी न कभी ज्योति बसु के पास चल कर आना ही पड़ा है।
टकराने की ये आदत ज्योति बसु की बहुत पुरानी रही है। 1957 से लेकर 1967 तक के दौरान टकराने की शैली ने उनका क़द बाक़ी नेताओं से बड़ा कर दिया था। कांग्रेस से अलग होने के बाद बनी मिली जुली सरकार में उन्हे पहली बार मंत्री बनने का सुख मिला। पद मिला श्रम मंत्री का। श्रम की अहमियत को ज्योति बाबू ने ख़ूब समझा। मंत्री होने के बावजूद ज्योति बाबू ने उद्योगपतियों को नकले कस दी। मेहनतकश मज़दूरों के हक़ की लड़ाई लड़ी। ज्योति बाबू की पहचान घेराव मंत्री की हो गई। इसके बाद अगली सरकार में उनका विभाग बदला दिया गया। उन्हे परिवहन मंत्री बनाया गया। परिवहन मंत्री बनने के बाद कोलकाता ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन का नक्शा बदलने की बीड़ा उठाया। राज्य आज भी उस परिवहन आंदोलन को याद करता है। सोच आगे की थी इसलिए सत्ता से टकराने में कभी हिचकिचाए नहीं। राजीव गांधी सरकार से हल्दिया पेट्रो केमिकल्स के लिए मदद मांगी। अपने समय की दूरगामी और अतिमहात्वाकांछी अभियान था। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने राज्य की वान मोर्चा सरकार को मदद करने से मना कर दिया। इसके बाद ज्योति बाबू ने जो कर दिखाया, उसे देखकर कांग्रेस भी शर्मिंदा हुई। इस परियोजना के लिए ज्योति बसु ने लोगों से मदद की अपील की। लोगों ने ख़ून बेचकर सरकार को पैसा दिया। सरकारी और ग़ैर सरकारी कर्मचरारियों के एक दिन की पगार दी। आख़िरकार हल्दिया पेट्रोकेमिकल बन कर तैयार हो गया। ये अलग बात है कि वो ज्योति बाबू के सपने को साकार नहीं कर सका।
टकराने की इसी आदत से बंगाल मीडिया का एक बड़ा तबका उनसे खुश नहीं रहता था। ज्योति बसु ने कभी इसकी परवाह भी नहीं की। ज्योति बसु का मानना था कि उनका राफ्ता जनता से है। ऐसे में उन्हे किसी को माध्यम बनाने की ज़रूरत नहीं है। ज्योति बसु का यही बेबाकीपन मीडिया का सालता रहा। मीडिया ने ज्योति बसु की आलोचना करने का कोई मौक़ा गंवाया भी नहीं। अस्सी के दशक के आख़िरी दिनों की बात है। बंगाल के एक बहुत बड़े अख़बार घराने के एक पत्रकार संस्थान से अलग होने के बाद अपना एक अख़बार शुरू किया। धीरे-धीरे अख़बार चल पड़ा। इस अख़बार ने नारा ही दिया था कि वो केवल भगवान से डरता है। अख़बार ने सरकार, सीपीएम और ख़ास तौर पर ज्योति बसु को निशाना बनाना शुरू किया। आज की एक महिला केंद्रीय मंत्री तबके कांग्रेस नेता सुब्रतो मुखर्जी नामक बरगद के सहारे बेल बनकर फल फूल रही थीं। अख़बार का उस नेत्री के साथ अच्छा राफ्ता बन गया। बात जब हद से आगे बढ़ गई तब ज्योति बसुने ख़ुलासा किया कि बड़े घराने के अख़बार समह से निकलने के बाद वो पत्रकार-संपादक महोदय उनके पास मदद मांगेन आए थे। उन्होने उसे सस्ती दर पर न केवल सरकारी ज़मीन दी। बल्कि प्रिटिंग प्रेस खोलने के लिए बैंक से लोन दिलाने में मदद भी की। ज्योति बसु के इस बयान के बाद अख़बार ने माना कि वो मुख्यमंत्री के पास मदद के लिए गया था। लेकिन पत्रकारिता के उद्देश्य से न भटकने की बात की। वो अख़बार 1987 से लगातार हर बार वाममोर्चा के हारने और महिला नेता के मुख्यमंत्री बनने की मुहिम छेड़ता है। ज्योति बसु के निधन के बाद भी उस अख़बार ने पहले पन्ने पर ये सवाल खड़ा किया कि सीपीएम को अब आक्सिजन कौन देगा ? क्योंकि ज्योति बसु के आक्सिजन से पार्टी चलती थी। ज्योति बसु भी आख़िरी के सत्रह दिनों आक्सिजन के सहारे ज़िंदा रहे।
मीडिया के इसी रोल से ज्योति बसु लगातार चिढ़ते रहे। एक बार सार्वजनिक मंच से उन्होने मीडिया के लिए अपशब्द कहे थे। मीडिया को बहुत बाद में अहसास हुआ कि उन्होने संस्कृत में उन्हे अपशब्द कहे हैं। एक बार ऐसे ही एक महिला नेता राइटर्स बिल्डिंग पहुंच गई। तब वो केंद्र में राज्य मंत्री थीं। सचिवालय पहुंचकर उन्होने हंगामा शुरू कर दिया। एक सीनियर आईपीएस अफसर ने रोकने की कोशिश की तो मंत्री का हूल देते हुए उसे थप्पड़ मार दिया। मीडिया का एक भी कैमरा मार खाते अफसर के लिए नहीं चमका। लेकिन जब उस अफसर ने महिला मंत्री की पिटाई शुरू की तो दनादन फ्लैश चमकने लगे। आपा खो चुके अफसर ने मीडिया को भी नहीं बख़्शा। बहुतों के हाथ –पैर टूटे। मीडिया ने सरकार से माफी मांगने को कहा। दी –तीन दिनों तक धरना-प्रदर्शन भी किया। लेकिन सरकार ने माफी मांगने से साफ इनकार कर दिया।
ज्योति बाबू ने व्यक्तिगत जीवन में समझौता नहीं किया। ज्योति बसु ने कभी धर्म-कर्म में यक़ीन नहीं किया। वो धर्म के विरोधी नहीं थे। लेकिन कट्टर धार्मिकता के घोर विरोधी थे। एक बार उनकी पत्नी कमला बोस ने तारकेश्वर जाकर पूजा करने की ठानीं। ज्योति बसु ने उन्हे रोका नहीं। लेकिन सरकारी गाड़ी देने से मना कर दिया। कमला बसु को लोकल ट्रेन से तारकेश्वर जाकर पूजा करनी पड़ी। अख़बारों ने इस बात को ख़ूब उछाला कि कॉमेरेड ज्योति बसु की पत्नी ने पूजा की। लेकिन किसी अख़बार ने ये नहीं छापा कि मुख्यमंत्री की पत्नी लाल बत्ती वाली या किसी और गाड़ी से तारकेश्वर क्यों नहीं गई ?
ज्योति बाबू पर मीडिया ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाने का कोई मौक़ा भी नहीं छोड़ा। सबेस पहले तो ये अभियाना चलाया गया कि पूरे राज्य को कॉमरेड बनाने का बीड़ा उठानेवाले ज्योति बसु अपने इकलौते बेटे को कॉमेरड क्यों नहीं बना पाए ? चंदन बसु क्यों उद्योगपति बन गए ?
हद तो तब हो गई जब राज्य के लोक निर्माण मंत्री और आरएसपी नेता जतिन चक्रवर्ती ने आरोप लगा दिया कि ज्योति बसु की जानकारी में बंगाल लैंप घोटाला हुआ है। मीडिया महीनों बसु के पीछे पड़ा रहा। रोज़ नए-नए घोटाले खोजे जाने लगे। लेकिन बसु ने सफाई नहीं दी। विधानसभा के अंदर तब के कांग्रेस नेताओं (अब के तृणमूल नेताओं ) ने हंगामा किया। ज्योति बसु सयंत रहे। लेकिन जब कांग्रेस विधायकों का शोर कम नहीं हुआ तो उन्होने सदन के अंदर साफ-साफ कहा कि अंदर आपलोग मेरे बेटे के लिए हंगामा करते हो। बाहर उससे दोस्ती निभाते हो। उन्होने सख़्त लहज़े में कहा कि उन्हे मालूम है कि चंदन बसु के साथ कौन-कौन नेता कहां शाम गुज़ारता है। लेकिन वो बोलेंगे नहीं। इतना सुनता ही विधानसभा में सन्नाटा पसर गया। एक दिन ज्योति बसु ने जतिन चक्रवर्ती को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया। जतिन उर्फ जैकी दा ज्योति बाबू के अच्छे दोस्तों में से थे। मरने से पहले उन्होने एक इंटरव्यू में साफ कहा कि बंगाल लैंप घोटाले में ज्योति बाबू का कोई लेना –देना नहीं था। उनका बेटा टेंडर भरने आया था। वो उसे बचपन से जानते हैं। उन्होने चंदन बसु को टेंडर दिलाने में मदद की। लेकिन ये सब ज्योति बसु की जानकारी या निर्देश के बग़ैर हुआ। यानी जो दाग़ मीडिया ने ज्योति बाबू पर लगाए थे, उसे जैकी दा ने जाते-जाते साफ कर दिया।
ज्योति बाबू उत्तर चौबीस परगना के सतगछिया विधानसभा से लगातार चुनाव जीतते रहे। ममता बनर्जी ने कई बार उन्हे अपने ख़िलाफ लड़ने के लिए दक्षिण कोलकाता बुलाया। लेकिन ज्योति बाबू ने इसका जवाब देना भी ज़रूरी नहीं समझा। ममता ने अपनी सबसे ख़ासम ख़ास सहेली सोनल को सतगछिया से मैदान में उतार दिया। सोनल के उम्मीदवार बनने के बाद ज्योति बसु ने बयान दिया कि अब वो प्रचार करने भी नहीं जाएंगे। अब जनता को तय करना है कि वो किसे अपना नुमाइंदा बनाना चाहती है। ममता और कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं ने सतगछिया में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। नतीजे चौंकाने वाले आए। इतनी कोशिश के बाद भी ममता की ख़ास सहेली बहुत भारी मतों के अंतर से चुनाव हार गई थीं।
भारतीय राजनीति में कई कारणों से ज्योति बाबू को हमेशा याद किया जाएगा। जिस राज्य में जहां कभी कांग्रेस का एक छत्र राज होता था। उस राज्य से कांग्रेस का नामो निशान मिट गया। कांग्रेस को वो राज हासिल करने के लिए ममता बनर्जी का सहारा लेना पड़ रहा है। ये वही ममता हैं, जो कभी बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार में मंत्री भी रह चुकी हैं। ज्योति बाबू एक ईमानदार राजनेता और मुख्यमंत्री के तौर पर याद किए जाएंगे, जिन्होने एक पैसा भी अपने लिए नहीं बनाया। ज्योति बाबू प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकराने के लिए भी याद किए जाएंगे। क्योंकि उनका त्याग यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से बिलकुल अलग था।