Monday, October 4, 2010

सोनिया के वंशवाद से लालू का वंशवाद अलग कैसे


ये सवाल पिछले पंद्रह सत्रह सालों से मेरी ज़ेहन में कौंध रहा है कि आरजेडी के अध्यक्ष और गंवई नेता लालू प्रसाद यादव क्यों मीडिया की आंखों की किरकिरी हैं। मुसीबत ये कि लालू कुछ करे तो मीडिया पीछे पड़ जाए। लालू कुछ न करें तो भी मीडिया ने उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जाए। लालू शुरू से ही मीडिया की आंखों की किरकिरी रहे हैं। ये अलग बात है कि लालू ने कारनामे इतने बड़े -बड़े किए कि मीडिया उन्हे दिखाने और छापने के लोभ से बच नहीं पाया। हंसोड़ अंदाज़ में दिया गया लालू का पंद्रह सेकेंड की बाइट बुलेटिन की टीआरपी को सेसेंक्स की तरह उछाल देता था। लालू प्रसाद ने अपने ओजस्वी बेटे तेजस्वी के हवाले अपनी रीजनीति की विरासत दी तो हंगामा बरप गया। सबने चीखना शुरू कर दिया कि बिहार में लालटेन के लेकर चलनेवाले लालू प्रसाद को अपना राजनीतिक वारिस नहीं मिला। सब साथ छोड़कर जा रहे हैं। यहां तक सगे साले भी पिंड छुड़ा चुके हैं। इसलिए लालू ने तेजस्वी को अपना वारिस घोषित किया।
क्या लालू को इतना हक़ नहीं है कि वो अपने बेटे को वारिस घोषत कर सकें। इससे पहले भी जब वो अपनी पत्नी राबड़ी को बिहार की मुख्यमंत्री बनाया था, तब भी बावेला हुआ था। आखिर ये बावेला उस समय मीडिया क्यों नहीं काटता , तब दूसरे राजनेता अपने नाती-पोतों तक को अपना वारिस घोषित करते हैं ? तब मीडिया को क्यों सांप सूघ जाता है? क्या कभी मीडिया ने ये सवाल खड़ा किया कि किस योग्यता के आधार पर सोनिया गांधी अपने राजकुंवर राहुल गांधी को देश का राज पाट सौंपने जा रही हैं। राहुल में ऐसी क्या काबिलियत दिखी कि वो देखते ही देखते पार्टी के महासचिव बन गए। लोकतंत्र ने राहुल गांधी को ऐसी कौन सी चाबी दे दी है कि वो गंभीर मुद्दे पर प्रधानमंत्री से मिलते हैं। और जो सलाह देकर आते हैं, उसकी घोषणा प्रधानमंत्री कर देते हैं ? क्या खुद सोनिया गांधी राजनीतिक विरासत की थाती नहीं खा रही हैं? अगर वो स्वर्गीय राहुल गांधी की पत्नी या फिर इंदिरा गांधी की बहू नहीं होतीं तो भारतीय राजनीति में उनकी हैसियत क्या होती ? फिर राहुल बाबा की हैसियत क्या होती? राहुल की तरह ही वरूण गांधी भी नेहरू गांधी परिवार के चिराग हैं। उन्हे क्यों नहीं देश का नगीना माना जाता है। क्या केवल इसलिए कि उनकी मां मेनका के साथ उनकी सास इंदिरा की कभी नहीं पटी। क्या इसलिए कि इंदिरा ने उन्हे राजनीतिक विरासत के साथ साथ घरेलू विरासत से भी अलग कर दिया था? क्या मीडिया ने मान लिया है कि राहुल की तुलना में वरुण की योग्यता कम है ? अगर ऐसा है तो मीडिया ने इसके लिए क्या पैमाना तय किया?
जब तथाकथित जगत के ताऊ देवीलाल ने अपने जीते जी चौधरी ओम प्रकाश चौटाला को हरियाणा का मुख्यमंत्री बनाया तो मीडिया को वंशवाद क्यों नहीं दिखा। जब शेख अब्दुल्ला ने फारूक को वारिस बनाया तब भी मीडिया चुप था। फारूक ने उमर को वारिस घोषित किया , तब भी मीडिया चुप था। अब फारूक और उमर दोनों ही सत्ता की मलाई चाट रहे हैं। माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया राजनीतक वल्दीयत को संभाल रहे हैं। जितिन प्रसाद के बेटे जितेन प्रसाद भी सत्ता के वारिस हैं। मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद भी सत्ता सुख भोग रहे हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा के बेटे दीपेंदर भी सत्ता सुख ले रहे हैं। ऐसे सैकड़ों नाम हैं। लेकिन इन नामों पर मीडिया की नज़र नहीं जाती। मीडिया की नज़र जाती है कि मुलायम सिंह ने कैसे राम गोपाल, शिवपाल, अखिलेश और डिंपल को राजनीति में उतारा। लालू प्रसाद कैसे अपने बेटे को तैयार कर रहे हैं रामविलास पासवान कैसे बिहार चुनाव में चिराग़ का इस्तेमाल करेंगे। आखिर मीडिया को क्यों इस तरह के नेताओं पर नज़र रहती है। क्या इसलिए कि वो दलित और पिछड़े हैं, और इन्ही की लड़ाई लड़ते हैं। वंशवाद के विरोध की राजनीति कर राजनीति में मक़ाम हासिल किया। या फिर मीडिया आज भी जातिवादी सोच से बाहर नहीं निकल पाया है। वो राहुल की विरारत में स्वातसुखाय का अहसास पाता है।
लालू प्रसाद दरअसल आजकल राजनीति के बियाबान में हैं। जब सत्ता के आभामंडल के पायदना थे, तब चाटुकार पत्रकारों की होड़ लगी रहती है। प्रणामा पाति करने के लिए रोज़ दर्जनों पत्रकार सलामी देते थे। अब ये दीगर बात है कि सत्ता में लालू की हैसियत वैसी ही गई है जैसे कि सब्ज़ी बनने के बाद तेजपत्ते की होती है। लालू को तब से करीब से देख रहा हूं, जब उन पर स्वर्गीय चंद्रशेखर का हाथ था। हांलाकि कई दिग्गज पत्रकार मानते हैं कि लालू को लालू बनाने में देवीलाल का हाथ था। नब्बे की दशक की बात है । दलित औऱ बुज़ुर्ग नेता राम सुंदर दास और लालू के बीच बिहार के मुख्यमंत्री के लिए जंग थी। ये जंग लालू ने जीती और पंद्रह सालों तक बिहार का राज पाट किया। इस राज पाट के दौरान बिहार का विकास हुआ या विनाश- ये बहस का मुद्दा है। लेकिन ये तो साफ है कि इन पंद्रह सालों तक लालू का करिश्मा सिर चढ़कर बोला।
पंद्रह सालों तक राज पाट करना बच्चों का खेल नहीं है। लालू ने इस करिश्में को करके दिखाया। बिहार के पिछड़े और दलितों को एक आवाज़ दी, नई ताक़त दी। बाबरी कांड के बाद लालकृष्ण आडवाणी की रथ को रोककर मुस्लिमों का विश्वास जीता। मंडल कमीशन लागू कर जब वी पी सिंह ने देवीलाल को साधने की कोशिश की तो लालू दीवार के साथ खड़े हो गए। भाषणों में सवर्णों के खिलाफ आग उगलने लगे। खुलेआम भूरा बाल साफ करने की चेतावनी देने लगे। भूरा बाल यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला। बिहार में जो पिछड़से सदियों से अगड़ों के पिच्छलग्गू बने हुए थे, उनको ताकत दी। इस दौरान अंग्रेजी दां लोग जिनती आलोचना लालू की करते थे, लालू उनते ही यकीन के साथ पिछड़ों को समझा लेते थे कि ये उनका नहीं , उन लोगों का अपमान है। लेकिन यही लालू से चूक भी हो गई। देखते ही देखते अगड़ी जातियां लालू प्रसाद के खिलाफ लामबंद हो गईं। उनके साथ केवल मुसलमान और यादव रह गए। सत्त्ता मद में चूर लालू में आक्रामकता आ गई। गरूर भी आ गया। बिहार भूलकर लो केंद्र की सरकार बनवाने और गिराने लगे। केंद्र की राजनीति के लिए वो अपनी पत्नी के हवाले बिहार का राजपाट कर गए। पत्नी आई तो साथ में दो भाई भी सक्रिय हो गए। बिहार में जंगलराज का आरोप लगने लगा। अपराधी सक्रिय हो गए। रोज़गार के लिए नौजवान बिहार छोड़ने लगे। ऐसे में लालू की इमेज को जबरदस्त धक्का लगा।
ख़ैर सवाल ये नहीं है कि लालू ने अपने बाद अपना राज पाट अपनी पत्नी राबड़ी के हवाले क्यों किया। क्योंकि ये परंपरा कांग्रेस में पहले से चली आ रही है। सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष इसलिए नहीं बनी कि उन्होने समाज का कोई बहुत बड़ा काम किया था। वो केवल इसलिए कांग्रेस की अध्यक्ष बनी क्योंकि राजीव गांधी की पत्नी थी। राहुल गांधी भी इसलिए सांसद और महासचिव बने क्योंकि वो सोनिया और राजीव के बेटे थे। फिर लालू के बेटे तेजस्वी को वारिस घोषित कर दिया। फिर इतना कोहरमा क्यों ? भारती राजनीति में लालू पहले आदमी तो नहीं है , जो इस तरह की खानदानी परंपरा क़ायम कर रहे हैं और न ही लोकतंत्र के आखिरी पहरूए। फिर इतना बवाल क्यों ? क्यों नहीं जिस तरह से राहुल बाबा के लिए जयकारा लग रहा है। वैसे ही तेजस्वी के लिए लगे। बाक़ी दोनों की क़िस्मत का फैसला जनता जनार्दन के हाथों में छोड़ दें।