Monday, September 29, 2008

राम अवतार गुप्ता होने का मतलब


हम भारतीयों की एक आदत है। ये आदत बहुच अच्छी है, कमावल की है। आज मैं आपलोगों को एक बहुत पुरानी बताने जा रहा हूं। भड़ास वेबसाइट से जानकारी मिली कि रामअवतार गुप्ता नहीं रहे। हिंदी पत्रकारिता से जुडे़ लोगों को बताने की ज़रूरत नहीं कि गुप्ता जी कौन थे और हिंदी पत्रकारिता में उनका क्या योगदान रहा है। ये सच है कि पश्चिम बंगाल में हिंदी बेहद कमज़ोर हालत में है। इस हालत के लिए तीन बाते मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार हैं। पहली बात- राज्य सरकारों ने कभी भी हिंदी का साथ नहीं दिया। जब से वाम मोर्चा की सरकार आई तो उसने बहुत ही सोची समझी रणनीति के तहत हिंदी को खोखला करने काम किया। लेफ्ट फ्रंट के नेताओं को लगता है कि हिंदी बोलनेवाले लोग लाल झंडे को वोट नहीं देते। इसलिए पश्चिम बंगाल के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई तो बेशक़ हिंदी में होती है। लेकिन जब दसवीं का इम्तिहान होता है, वो अंग्रेज़ी में होता है। सरकार का कुतर्क है कि कॉपियां जांचने के लिए इतनी संख्या में हिंदी टीचर नहीं हैं। पिछले तीस सालों में सरकार को हिंदी टीचर क्यों नहीं मिले, ये सोचने की बात है। क्योंकि इस देश में बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है। लेकिन वाम मोर्चा की सरकार को हिंदी के टीचर नहीं मिलते। अंग्रेज़ी, बांग्ला, तेलगू और उर्दू के मिल जाते हैं।

दूसरी बात, सरकारी फंड से हिंदी के विकास के लिए कई दुकानें खुल गईं। इन दुकानों में वहीं बैठते ही , जिनकी दुकानदारी हिंदी के नाम पर होती है। हिंदी के विकास के लिए रत्ती भर भी काम नहीं किया। कभी हिंदी टीचरों की बहाली के लिए कोई आंदोलन नहीं छेड़ा। बस कविता , कहानियां लिखकर धंधा जमाए हुए हैं। प्रभात ख़बर के ओम प्रकाश अश्क जी ने इस बारे में कई लेख भी लिखे हैं।

तीसरी बात- पत्रकार, बुद्धिजीवि और जनता - तीनों ने ही ज़ुबान पर ताला लगाए रखा। और बहुसंख्यक लोग हिंदी बोलनेवालों को मेड़ो बोलकर अपमानित करने का सिलसिला चलाते रहे। वैसे तो मेड़ो शब्द बहुसंख्यक लोगों ने मारवाड़ियों को ध्यान में रख कर बनाया था, जिसका इस्तेमाल गाली के तौर पर होता है। लेकिन बाद में ये शब्द हर हिंदी बोलनेवालों के लिए इस्तेमाल होने लगा। पश्चिम बंगाल के किसी भी रेलवे स्टेशन पर चले जाइए। किसी भी स्टेशन पर नाम की जो पीली पट्टी होती है, उस पर बांग्ला और अंग्रेज़ी में तो स्टेशन का नाम है, लेकिन हिंदी पर कालिख पोत दी गई है। ऐसे स्टेशनों पर आमारा बांगाली संस्था के पोस्टर मिल जाएंगे।

जिस राज्य में ऐसे हालात हों, वहां हिंदी में अख़बार निकालना और उसे लोकप्रिय बनाना - कोई कम हिम्मत की बात नहीं है। राम अवतार गुप्ता ने ये साहस करके दिखाया। सन्मार्ग अख़बार को कोलकाता और पूरे राज्य का सबसे पढ़ा जानेवाला अख़बार बनाया। पहले तो केवल आठ पन्नों का ये अख़बार आता था लेकिन बाद में समय के थपेड़ों ने इसे भी पन्ने बढ़ाने पर मजबूर किया। अब बात राम अवतार गुप्ता जी और उनके अखबार के गुणवत्ता की।

संपन्न औऱ संभ्रात घरानों में सन्मार्ग को कभी अच्छी नज़रों से नहीं देखा गया। तब अंग्रेज़ी में द टेलीग्राफ भी नहीं आया था। घर के बड़े बुज़ुर्ग द स्टेट्समैन पढ़ने की हिदायत दिया करते थे। क्योंकि उस समय में ये अख़बार चाय की दुकानों , कुलियों और मज़दूरों में बेहद लोकप्रिय था। ख़बरों की गुणवत्ता पर नज़र डालें तो आंनद बाज़ार, आजकाल , वर्तमान, जुगांतर, अमृत बाज़ार,विश्वामित्र, छपते-छपते जैसे अख़बारों से इसकी ख़बरें अलग होती थीं। यूं कह सकते हैं कि दिल्ली में अभी सबसे ज़्यादा बिकने और पढ़नेवाले हिंदी अख़बार की जो छवि अभी है, वही सन्मार्ग की हुआ करती थी। नवभारत टाइम्स और जनसत्ता ने पाठकों की इस भूख को मिटाने की कोशिश की। लेकिन वो सफल नहीं पाए। नवभारत टाइम्स को कोलकाता से बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। जनसत्ता केवल मारवाड़ियों का अख़बार बन कर रह गया। लेकिन सन्मार्ग हर हिंदी भाषी का चहेता अख़बार बना रहा।

ये बात बहुत पुरानी है। एक न्यूज़ एजेंसी से रिटायर होने के बाद सुदामा प्रसाद सिन्हा ने संपादक का काम काज संभाल लिया। हालांकि प्रिंट लाइन में गुप्ता जी का ही नाम संपादक के तौर पर जाता रहा। लेकिन संपादकीय विभाग की जिम्मेदारी सुदामा जी संभाल रहे थे। दिल्ली में ब्यूरो का लालमुनी चौबे जी संभाल रहे थे। उन्ही दिनों नैहाटी के एक सज्जन समाचार संपादक का काम कर रहे थे। संपादक और समाचार संपादक में बनती नहीं थी, इसका अहसास शुरू में ही मुझे हो गया था। बाद में इसका खुलासा कई और कर्मियों ने किया। उन दिनों मैं बेरोज़गार था। सुदामा जी से नौकरी के लिए मिला। दो तीन बार की मुलाक़ात के बाद उन्होने मुझे काम देने का वादा किया। कहा- अभी नौकरी तो नहीं है। लेकिन तुमसे रिपोर्टर की तरह काम कराऊंगा और ठीक -ठाक पैसे का इंतज़ाम करा दूंगा। इस वादे के साथ उन्होने मुझे उत्तर चौबीस परगना ज़िला से रोज़ ख़बरें देने का कहा। मैंने ये काम शुरू कर दिया। ये सिलसिला महीनों चला। मेरी भेजी गईं ख़बरें लगती रहीं। लेकिन मुझे कभी बाइ लाइन नहीं मिला। हमेशा ये छपता था- निज प्रतिनिधि, निज संवाददाता, एक संवाददाता। जब मैंने सुदामा से इस बारे में बात की कि तो उन्होने कहा कि थोड़े दिनों में सब ठीक हो जाएगा। ऐसे ही महीनों बीत गए। ख़बरों के लिए भागा-दौड़ी में जो जेब में पैसे थे, सब ख़त्म हो गए। इस बार में फिर सुदामा जी से मिला और ख़स्ताहाली के बारे में बताया। उन्होने कहा- कोई बात नहीं । तुम अपनी ख़बरों के प्रकाशन तिथि को लिखकर दे दो, पेमेंट मिल जाएगा। लेकिन मुझे फिर भी पैसे नहीं मिले। मैं फिर गया सुदामा जी के पास। उन्होने मुझसे कहा - गुप्ता जी से मिल लो। मैं गुप्ता जी से मिलने चला गया। गुप्ता जी की कमरे में दो लोगों की बैठने की व्यवस्था थी। घुसते ही बाईं ओर गुप्ता जी और दाईं ओर कोई सज्जन बैठते थे। गुप्ता जी फोन पर किसी से बतिया रहे थे। प्रणामा पाति के बाद गुप्ता जी से मैंने मिलने की वजह बताईं। उन्हनो ग़ौर से सुना । फिर तपाक से पूछा- आपके काम करने से क्या मेरा अख़बार एक कॉपी भी ज़्यादा बिका है? मैंने कहा-पता नहीं। फिर उन्होने पूछा- आपके आने से क्या मुझे एक सेंटीमीटर भी ज़्यादा का एड मिला है? मैंने कहा- पता नहीं। मुझे नहीं लगता कि शायद इन कामों के लिए मुझे रखा गया था। उन्होने पूछा - आपको रखा कौन? मैंने कहा -सुदामा जी। उन्होने पूछा- पहले से जानते हैं? मैंने कहा- नहीं। मैं नौकरी मांगने आया था। गुप्ता जी ने कहा- फिर आप सुदामा जी से मिल लीजिए। मैंने बेहद विनम्रता से उन्हे नमस्कार किया और चित्तरजंन एवेन्यू के उस दफ्तर से बाहर निकल गया। इसके बाद कोलकाता जाना कई बार हुआ। लेकिन मैं कभी चित्तरंजन एवेन्यू नहीं गया। आज ये मैं लेख इसलिए लिख रहा हूं कि मेरे परम श्रद्धेय वरिष्ठ पत्रकार मित्र और दैनिक राष्ट्रीय महानगर के संपादक श्री प्रकाश चंडालिया जी ने गुप्ती जी की याद में हुई संगोष्टी पर एक लेख लिखा है। उसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि गुप्ता जी के साथ बिताए गए कुछ पलों को एक बार फिर ताज़ा किया जाए। बेशक गुप्ता जी से मुझे पेमेंट न मिला हो लेकिन बेबाकीपन उनसे सीखने को ज़रूर मिला। इसलिए गुप्ताजी मुझे हमेशा याद आते रहेंगे।

Monday, September 15, 2008

और आप देख रहे हैं टोटल टीवी

आतंकवादी घटनाएं कभी शुभ नहीं होती। लेकिन आतंकवादी घटनाओं के बाद कई बातें खुलकर समाने आ जाती हैं। मसलन, दिल्ली में सीरियल बम ब्लास्ट के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुलासा किया कि उनके पास इस तरह की जानकारी पहले से ही थी। उन्होने इस बारे में पहले ही प्रधानमंत्री , गृह मंत्री औऱ रक्षा मंत्री को आगाह कर दिया था। लेकिन गुजरात धमाकों से केंद्र सरकार ने कोई सबक नहीं लिया हैं। नकेंद्र मोदी के ये आरोप सच हैं या नहीं , ये अभी पता पाना बेहद मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि आतंकवादी घटनाओं के बाद ख़ुफिया एजेंसियों के काम काज को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं, जो पहले भी होते रहे हैं। फ़र्क़ इतना है कि पहले विपक्ष आरोप लगाता था कि ख़ुफिया एजेंसी नाकाम रही है। इस बार मनमोहन सरकार के मंत्री लालू प्रसाद ने ही इसे खुफिया एजेंसियों को दो कौड़ी का बता दिया है। खुफिया एजेंसी गृह मंत्रालय के मातहत है। यानी सारी ग़लती गृहमंत्री शिवराज पाटिल के सिर पर। ये वो सच्चाई है, जो बम धमाकों के गुबार से छंटकर दिखने लगी है।
बम धमाकों के बाद ऐसी ही सच्चाई टीवी न्यूज़ चैनलों की निकलकर सामने आई है। करोड़ों –अरबों का सेटअप लगाकर दर्जनों चैनल चल रहे हैं। ख़बरों के दुनिया के महापराक्रमी इन चैनलों को चला रहे हैं। अपने प्रोमो में ये साबित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते कि बाक़ी के सारे चैनल पिद्दी हैं। बस वही महान हैं। वो अपंरपार हैं। उनके पास महाभारतकालीन संजय की आंखें हैं। उनके पास विदपर जैसे नीति निर्धारक हैं। उनके पास दुनिया की सबसे मॉर्डन टेक्नोलॉजी है। दुनिया के सबसे महंगे इक्यिपमेंट हैं। देश –दुनिया के सबसे पराक्रमी, तेजस्वी, ओजस्वी उर्जावान, प्रकांड विद्वान, जोश-होश और अनुभव से लबरेज़ टीम है। वो देश –दुनिया की किसी भी ख़बर को फटाफट, पलक झपकते ही आप तक पहुंचा देंगे। इस दावे के साथ ये तमाम प्राक्रमी योद्धा सड़कों पर होर्डिंग लगाते हैं। बस और मेट्रो स्टेशनों पर विज्ञापन लगवाते हैं। सबके अलग –अलग चमकदार मुआवरे हैं। कोई कहता है कि सब भ्रम है। कोई कहता है – हक़ीक़त जैसी, ख़बर वैसी। कोई कहता है खबर हमारी पैसला आपका। ख़बरों की दुनिया में चमत्कार लानेवाले महान योद्धा ख़बरों को छुरी बनाकर अंधरे को चीरते हैं ताकि दर्शकों को सच्चाई की रौशनी दिखे।
लेकिन जब दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस के बाराखंबा रोड पर आतंकवादियों ने धमाके किए , तब सारे न्यूज़ चैनलों के दावों के चीथड़े उड़ गए। अमेरिका, इंग्लैंड , फ्रांस, इज़राइल और न जाने कैसे देशों से ग्राफिक्स और लुक्स बनवानेवालों के चैनलों पर बस एक ही चैनल दिख रहा था। हर तरफ टोटल ही टोटल था। क्या इंडिया टीवी, क्या स्टार न्यूज़, क्या आईबीएन और क्या न्यूज़ 24। यहां तक का देश का पहला प्राइवेट चैनल ज़ीन ने भी बड़ी उदारता के साथ टोटल टीवी में दिखाई जा रही तस्वीरों को दर्शकों तक दिखाया। सिर्फ यही नहीं, तस्वीरों तक गनीमत थी। भाई लोगों ने टोटल टीवी के न्यूज़ एंकर को भी दिखाया। ग़लती का अहसास होते ही लपभर में उसे सुधारा। हमारे रिपोर्टरों की पलटन की ख़बरों को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझकर ख़ूब दिखाया। मनीष मासूम, अमित शुक्ला, विवेक सिन्हा, मधुरेंद्र कुमार, रोहिल पुरी, रमन ममगई, विवेक वाजपेयी, संदीप मिश्र, लोकेश सिंह, शमां क़ुरैशी और दिल्ली के कोने-कोने में पैले हमारे संवाददाताओं की रिपोर्ट की उदार उद्दत बाव से दिखाया। रिपोर्टरों की पीटीसी को भी दिखाने से गुरेज़ नहीं किया। हमारे रिपोर्टर टोटल टीवी के गन माइक के साथ घायलों की मदद भी करते रहे। साथ ही ये अपने काम के ज़रिए ये जताते भी रहे है कि महंगे इक्विपमेंट्स, टेक्नोलॉजी, ग्राफिक्स, लुक्स, प्रकांडता और अहंकार के बग़ैर भी टीवी पत्रकारिता की जा सकती है। ये ज्ञान इस आदमी के समझ में ज़रूर आ जानी चाहिए जो अपनी टीम से बड़ी शान से कहता है कि अरे, उनकी तरह मत करो यार। बेचारा, अपनी दुकान चलाने के लिए सारे हथियारों का ताक पर रखकर घंटों टोटल टीवी का फुटेज भीख में मांग कर चलाने को मजबूर हुआ।

Thursday, September 11, 2008

मुजरिम को अदालत में इतना सम्मान क्यों?


सुशील और गोपाल अंसल को मैं जान बूझकर मुजरिम कह रहा हूं। ये बात मैं पूरे होशो-हवाश में कह रहा हूं। मुझे क़ानून की इतनी समझ है कि जब तक सबूतों और गवाहों की रौशनी में कोई आरोपी दोषी साबित नहीं हो जाता तब तक उसे मुजरिम नहीं, मुलज़िम ही कहा जाए। लेकिन मुझे सुशील और गोपाल को हत्यारा कहने में कोई गुरेज और हिचक नहीं है। क्योंकि मेरी नज़र में ये दोनों सबसे बड़े गुनाहगार हैं। मैंने पीड़ितों को इकट्ठा कर कोई संस्था नहीं खोली है। लेकिन मैं भी चाहता हूं कि इन हत्यारों को कड़ी से कड़ा सज़ा मिले। हो सके तो इनेहे सरेआम सूली पर लटकाने से पहले चाबुक से पिटाई की जाए। ताकि देश के दूसरे मुनाफाखोरों को सबक मिले। क्योंकि मैं भी उपहार कांड का पीड़ित हूं। इस अग्निकांड में मैंने अपना सबसे क़रीबी खोया है।
शर्म आती है जब 59 लोगों की हत्या के आरोपियों को अदालत में सम्मान मिले। हमारे देश के क़ानून ने हमे ये अधिकार नहीं दिया है कि हम अदालत के बारे में कुछ लिख सकें। कुछ बोल सकें। इससे अदालत की अवमानना होती है। मैं इसका ख़्याल रखते हुए ये बात पूरे दम के साथ कहना चाहता हूं कि इसका भी ख़्याल रखना चाहिए कि दूसरों की भावनाएं आहत न हों।
1997 से क़ानून से आंख मिचौली कर रहे अंसल बंधुओं को देश की सबसे बड़ी अदलात ने कहा कि अब साम चार बजे तक सरेंडर करना ही होगा। असंल बंधुओं के पास कोई चारा भी नहीं बचा था। पैसे और वकीलों के दम पर अब तक क़ानून की आंखों में धूल झोंकनेवाले सुशील और गोपाल को अदालत में सरेंडर करना ही पड़ा। लेकिन अफसोस इन भगोड़े अपराधियों के साथ सम्मानभरा सलूक मैं हज़म नहीं कर सकता। जिनकी वजह से 60 लोग मरे। उनको इतना सम्मान ? 59 नहीं 60 इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इस हादसे की सदमे की वजह से मेरे पिता को ब्रेन हमैरेज हुआ था। इसी घटना ने उनकी जान ले ली थी। हमेशा फौलाद की तरह खड़े रहनेवाले मेरे पिता हादसे के बाद फूट-फूटकर रोए थे। और इसकी ज़िम्मेदारी सुशील और गोपाल अंसल के अलावा उन सरकारी बाबुओं की भी है, जो घूस खाकर इन्हे ग़ैरक़ानूनी काम करने की इजाज़त दी। 1997 में बार्डर देखने गए लोग आग लगने के बाद सिनेमा हाल से बाग नहीं पाए। क्योंकि भागने का रास्ता नहीं मिला। क्योंकि मुनाफाखोर अंसल बंधुओं ने इमरजेंसी रास्ते को बंद कर रखा था। बचने का कोई रास्ता न देख अंसल बंधु अदालत में सरेंडर करने गए। अपराध करने में शर्म न करनेवाले इन भाइयों को मीडिया से नज़र मिलाने में शर्म आने लगी। उन्हे उस रास्ते से अदालत में लाया गया, जिस गेट से परम आदरणीय जज आते हैं। इन अपराधियों के साथ उनके नाते-रिश्तेदार और सत्तर –अस्सी कर्मचारी भी उसी रास्ते अंदर गए। इनके कहने पर सुनवाई के दौरान मीडिया को अदालत से बाहर कर दिया गया । लेकिन इनके नाते-रिश्तेदार और कर्मचारियों को बाहर नहीं किया गया। क्या क़ानून है? अदालत अपराधी की शर्ते मानती है। अपराधियों के साथ आनेवाले लोग अदालत में बैठे होते हैं। अपराधियों को उस रास्ते अंदर आने दिया जाता है, जिस रास्ते से जज साहिबान आते हैं। आख़िकर इन अपराधियों को वीआईपी रास्ते से क्यों अंदर जाने दिया गया ? लेकिन ये सवाल पूछने का हक़ किसी को नहीं है। ये हमारे मौलिक अधिकार में नहीं है। क्योंकि इससे अदालत की अवमानना होगी। भले ही अपराधी को वीआईपी सम्मान देने से पीड़ित परिवार ख़ून के आंसू रोए।