Tuesday, June 30, 2009

बाबरी मस्जिद की कहानी – 17 साल बाद उसी की ज़ुबानी


सत्रह साल हो गए मुझे टूटे हुए, भरभराए हुए। इबादत की जगह को पैरों से रौदा गया। नफरत से तोड़ा गया। लेकिन क्या मैं अकेले टूटा हूं ? मैं इन सत्रह सालों में बार –बार यहीं सोचता रहा। मुझे लगता है कि मैं अकेले नहीं टूटा। इस ज़म्हूरी मुल्क की इज्ज़त टूटी। देश का ईमान टूटा। गंगा –जमुनी तहज़ीब टूटी। राम-रहीम की दोस्ती टूटी। एक –दूसरे का एतबार टूटा। रिश्तों की डोर टूटी। दिलों का तार टूटा। अब आप सोचिए क्या मैं अकेले टूटा था ?
मुझे चाहें जिसने भी बनाया हो। जिस भावना से बनाया हो। लेकिन मुझे जगह तो मर्यादा पुरशोत्तम श्रीराम ने ही दी। मैं सैंकड़ों साल से उनके साथ रहा। वो भी मेरे साथ सैकड़ों साल से जुड़े रहा। उनके बगल में मेरे होने से उन्हे कोई तकलीफ नहीं हुई। मेरे साथ उनके होने से मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई। मैं उनकी नज़रों से होली खेलता था। दीवाली के पटाखे फोड़ता था। नवरात्रा मनाता था। दशहरा मनाता था। मेरी नज़रों से वो ईद की मीठी सिवइयां खाते थे। हम दोनों को एक दूसरे से कोई तकलीफ नहीं थी।
मुझे तोड़ने के लिए मुट्ठी भर लोगों ने देश में फतवा जारी किया। वो फतवा किसी मज़हब का नहीं था। किसी ईमान का नहीं था। किसी इंसान का नहीं था। ये फरमान राम का नहीं था। क्योंकि कोई भी मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। ये तो सत्ता के लालची उन उन्मादियों का तुलग़की फ़रमान था, जिन्हे दीन ओ ईमान से कोई मतलब नहीं थी। उन्हे मतलब था तो हम दोनों के सहारे हुक़ूमत की चाबुक पाने से।
मैं टूट रहा था। मुझ पर हमले हो रहे थे। मुझमें हिम्मत थी सब सहने की। मुझे सब सहना भी चाहिए था। ये मुल्क का तक़ाज़ा था। क्योंकि मैं भी इस देश की माटी से बना था। वतन का क़र्ज़ दूध के भी क़र्ज से बड़ा होता है। मैं सह रहा था । दर्द पड़ोसी को हो रहा था। मेरे राम को हो रहा था। वो दिल ही दिल रो रहे थे। सोच रहे थे कि हजारों साल पहले जंग कर जिस रावण का ख़ात्मा कर चुके थे, वो चेहरे फिर से दिखने लगे हैं। जिन्हे दूसरों को तकलीफ देख कर आनंद आता है। वो मुझसे शायद कह रहे थे- घबराना नहीं। टूटना नहीं। सब सहना है । सब सहकर फिर से मुल्क को मजबूत बनाना है। मज़हब की तालीम देनी है। चौपाइयों और दोहों से फिर समझाना हैं कि हमारे बदन का लहू एक जैसा हैं, एक रंग का है। इसलिए हम दोनों का ख़ून भी एक है। लेकिन लोग नहीं समझ रहे थे। रथ जहां –जहां से निकला था, अपने पीछे काला धुआ छोड गया था। इस गुबार में लोगों के ख़ून काले पड़ गए थे और आंखें लाल हो गई थीं। बहुत सी औरतें की चूड़ियां टूटीं। बहुत सी माओं का आंचल सूना हुआ। कई बच्चों के सिर से मां- बाप सका साया उठ गया। बहुत ख़ून बहा- हम दोनों के नाम पर। लेकिन हम दोनों ने तो ऐसा नहीं कहा था । फिर क्यों बहा ख़ून ? किसके लिए बहा ख़ून ?
सबने मुझे टूटते हुए देखा। लेकिन क़ानून को देखने –समझने में सत्रह साल लग गए। सुना था मैंने इंसाफ में देर ज़रूर है, लेकिन मिलता ज़रूर है। सुना है कि क़ानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं, हमसे भी लंबे। सत्रह साल बाद क़ानून को सब पता चल गया। किसने मुझे तोड़ा। क्यों मुझे तोड़ा। लेकिन क्या गुनाहगार सज़ा पाएंगे ? या फिर मेरे और राम के मज़हब में जो लिखा है, वहीं होगा। सबको ऊपर सज़ा मिलेगी। क्योंकि हमारे वार में आवाज़ नहीं होती। लेकिन जाते –जाते आपसे गुज़ारिश है। आप मत टूटना कभी । आप टूटेंगे तो मुल्क टूटेगा, ज़म्हूरी ताक़त टूटेगी, गंगा जमुनी तहज़ीब टूटेगी, मज़हब की तालीम टूटेगी। याद रखिएगा- ग़लतियां बाबर की थी, जम्मन का घर फिर क्यों जले। दफन है जो बात, उस बात को मत छेड़िए।

Monday, June 29, 2009

अगर हमें राहुल बाबा नहीं मिलते तो देश कैसे चलता ?


19 जून को इस देश –दुनिया में बहुतेरे का जन्मदिन रहा होगा। लेकिन ख़बर बनी राहुल गांधी के जन्म दिन की। इसी दिन राहुल बाबा इस धरती पर अवतरित हुए थे। अवतार का उनतालिसवां साल था। जश्न का अंदाज़ भी जोशीला था। जन्मदिन के मौक़े पर कई दरबारियों और चारण नीति के समर्थकों ने राजकुंवर राहुल गांधी और राजमाता सोनिया गांधी के घर के बाहर जमकर भांगड़ा पाया। अगर किसी को राजकुंवर या राजमाता शब्द खटके तो उसके आगे लोकतांत्रिक शब्द जोड़ सकते हैं। अतिउत्साही राहुल प्रेमियों ने 139 किलो का केक भी काटा। ये तो गनीमत है कि उम्र के साथ एक सौ किलो का केक काटा। इरादा तो एक हज़ार 39 साल जीने का आशिर्वाद देने का था। लेकिन दिल्ली में फटाफट उन्हे 1039 किलो का केक मिला नहीं होगा। ख़ूब नाचे गाए। तालियां बजा बजाकर जुग जुग जीने का आशिर्वाद दिया। साथ –साथ घोड़ों को भी नचाया। घोड़ा भी ख़ुश होकर नाचा होगा। सोचा होगा- जब प्राणियों में सर्वोच्च मनुष्य दिल खोलकर नाच रहा है तो वो इस पुनीत पावन कर्तव्य का हिस्सा बनकर स्वर्ग जाने का रास्ता पा रहा है।
ये लोकतंत्र हैं। लोकतंत्र में सबको अपनी मर्ज़ी से जीने, करने और बोलने का अधिकार है। इसी लोकतंत्र के लिए हमारे देश के कई लोगों ने अंग्रेज़ों की लाठी-गोलियां खाईं। जान दी। शहीद कहलाए। इसी लोकतंत्र का फायदा राहुल प्रेमियों ने उठाया और राहुल गांधी ने भी। लोकतंत्र में शायद ज़रूरत से ज़्यादा आस्था रखनेवाले राहुल प्रेमियों ने कभी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का 175 किलो का केक काटने का इरादा नहीं दिखाया। शायद उन्हे मालूम है कि लोकतंत्र ने जितनी ताक़त राहुल बाबा को दी है , वो ताक़त भला पीएम में कहां ? उन्होने पीएम को विनती करते हुए सुना है- मैं राहुल जी को मंत्री बनाना चाहता हूं। लेकिन वो मान नहीं रहे हैं। इन प्रेमियों ने इसके अलावा मंत्री के नामों की कांट – छांट करते राहुल के बारे में भी ख़ूब सुना है। राहुल बाबा को पूरे देश में घूमकर अपनी मां के साथ विपक्ष की बखिया उधेड़ते भी देखा है। सत्ता के सुख में मदांध नेहरू –गांधी परिवार को होते देखा है।
ये नज़ारा राहुल बाबा आंखों से नहीं देख पाए। वो तो उस दिन लंदन में छुट्टियां बिता रहे थे। अब पता नहीं वहां कोई भारतीय न्यूज़ चैनल देखा कि नहीं, जिसमें जन्माष्टमी की तरह राहुल चालीसा पढ़ा और दिखाया जा रहा था। देखें होंगे तो यक़ीनन बेहद खुश हुए होंगे। जन्मदिन के मौक़े पर राहुल के लंदन में होने से अपन लोग बेहद खुश हुए। बेचारा राहुल देश को सेक्युलर, मज़बूत सरकार और लोकतंत्र के लिए दिन रात एक किया था। सरकार बनाने के लिए क्या क्या जतन किए। मंत्रियों के नाम तय करने में अपने दिमाग़ का कितना दही किया। इतना सब करने में 39 साल का जवान राहुल बाबा कितना थक गया होगा। बेचारा विलायत में अपनी थकान उतार रहा होगा। खुश होना चाहिए। ठीक वैसे ही, जैसे कि हम उनके परदादा जवाहर लाल नेहरू के कोट फ्रांस से धुल कर आने की ख़बर सुनकर अपन लोग खुश होते थे।
अगर राहुल बाबा न होते तो देश कैसे कलावती को जानता। ये अलग बात है कि बेचारी कलावती नहीं समझती कि राहुल बाबा के पास कितने काम हैं। देश चलाना है। नौजवानों को जगाना है। संगठन खड़ा करना है। राहुल बाबा ने उसे एक पहचान दी है। पूरा देश अब उसे जानता है। लेकिन वो राहुल बाबा से टाइम लिए बग़ैर मिलने दिल्ली आ धमकी। नहीं मिल पाई। उसे बुरा तो बहुत लगा होगा। लेकिन समझ गई होगी कि बेचारे राहुल के पास कितना काम है। इतना काम है कि उन्हे अपनी कलावती से मिलने का वक़्त नहीं मिला। चुनाव से पहले जब उनके पास समय था तो महाराष्ट्र जाकर उससे नहीं मिले थे ! ये अहसान तो वो भूल ही जाती है।
सोचिए , अगर राहुल बाबा नहीं होते तो देश में दलितों का उद्धार कौन करता। कौन उत्तर प्रदेश के गांव में जाकर दलित की चारपाई पर सोता, उनकी रोटी खाता। अगर राहुल बाबा न होते तो कैसे विदेशों के मंत्री उत्तर प्रदेश के गांव और दलित का घर देख पाते। इन विदेशियों ने बड़ी मुश्किल से स्वीकार किया था कि भारत अब सांप-संपेरों का देश नहीं रहा। दिल्ली की चमक और मुंबई की धमक को देखकर मान बैठे थे कि भारत बदल गया है। धन्य हों राहुल बाबा, जो आपने अज्ञानी विदेशी मंत्री को उत्तर प्रदेश के गांव में दलित के घर पहुंचाकर उसका ज्ञानचक्षु खोल दिया।
राहुल बाबा देश को आगे बढ़ाने के लिए कितना काम कर रहे हैं। युवा शक्ति की फौज खड़ी कर रहे हैं। देश युवाओं के हाथ में हो-इसके लिए वो युवाओं को आगे ला रहे हैं। अगर कलावती और राम सरेखन का बेटा-बेटी-बहू पढ़े लिखे होते तो उन्हे भी ज़रूर आगे लाते। अब अनपढ़ भरे पड़े तो वो क्या कर सकते हैं। वो कोशिश तो कर ही रहे हैं। राजेश पायलट के बेटे, माधवराव सिंधिया के बेटे, गनी ख़ान चौधरी की भांजी आदि –आदि को आगे ला रहे हैं। मंत्री बना रहे हैं।
राहुल बाबा को मंत्री नहीं बनना है। वो साफ कहते हैं- टैम ना है। अरे भई, इतना काम कर रहे हैं तो टैम कैसे मिलेगा। राहुल ये जानते हैं कि मंतरी- संतरी बनकर क्या होगा। बनना तो एक दिन पीएम ही है। पापा बने, दादी बनी, परदादा बने। एक दिन वो भी बनेंगे। पीएम की कुर्सी कौन सी भागी जा रही है ससुरी। कई बार तो ऐसा लगता है कि राहुल धार्मिक भी हैं। रामायण ख़ूब पढ़ी होगी। खड़ाऊं पूजन समझते होंगे। तभी तो मां-बेटे ने मिलकर मनमोहन सिंह को पीएम बना रखा है। भले आदमी हैं। सज्जन पुरूष हैं। वो बेईमानी नहीं करेंगे। खड़ाऊ शासन चलाते रहेंगे। जब सम्राट की ईच्छा होगी तो वो ख़ुद तख़्त ओ ताउस संभाल लेगा। सोनिया और राहुल दोनों ही लोकतंत्र और संविधान में अगाध आस्था रखते हैं। संविधान कहता है कि संसदीय दल का नेता ही प्रधानमंत्री होगा। संसदीय दल तय करेगा कि उसका नेता कौन हो। इसके बाद प्रधानमंत्री तय करेगा कि मंत्रिमंडल में कौन –कौन होगा। लेकिन मां- बेटे दोनों को मालूम है कि मनमोहन सिंह भद्र पुरूष हैं। राजनीति के नौसिखिए हैं। वो संसदीय दल को कह नहीं पाएंगे कि मुझे नेता चुनो। मीठा बोलनेवाले मनमोहन सिंह जी किसी को ये कह नहीं सकते कि आपको मंत्री नहीं बना सकता। उन्होने मनमोहन सिंह की इस बारे में भी मदद की है। चुनाव से पहले ही फरमान जारी कर दिया – मनमोहन ही पीएम होंगे। पीएम बनवा कर छोड़ा। आख़िर भले लोगों का साथ कौन नहीं देगा ? इस परिवार ने तो हमेशा देश का भला ही सोचा है। अगर इस परिवार ने आपातकाल नहीं थोपा होता तो जनता को लोकतंत्र का मतलब कैसे पता चलता ? लोकतंत्र पहले से कहीं ज़्यादा और मज़बूत कैसे होता ? हमारे देश के लोग भी जानते हैं कि इसी में उनकी भलाई है। शायद उन्हे भी कुछ मलाई मिल जाए। ऐसे में अगर भांगड़ा पा दिया तो कौन सा आसमान टूट पड़ा।

Tuesday, June 23, 2009

हर पल , हर लम्हा याद आते हैं पापा


सत्ताइस जून को पापा को हमसे बिछड़े बारह साल पूरे हो जाएंगे। इन बारह साल के दौरान एक भी पल ऐसा नहीं रहा होगा, जब पापा की याद न आई हो। हर मोड़ पर पापा याद आए। चाहें वो मौक़ा ख़ुशी का रहा हो या फिर ग़म का। कभी अकेले में बैठकर सोचता हूं तो लगता है कि दुनिया में कितना अकेला हूं। एक –एक कर के वो सब साथ छोड़ गए, जिसकी कभी मैंने कल्पना नहीं की। चाहें वो मेरी बुआ ( बाबा की बुआ) हों, बाबा हों, पापा हों, नाना हों या फिर मम्मी।
अभी हाल की बात है। कोलकाता में कुछ लोग पापा का जन्मदिन मना रहे थे। इसके बाद एक मूर्धन्य पत्रकार ने एक वेब साइट पर स्टोरी की। एसपी की याद में हुई संगोष्टी में वक्ता आठ और सुनने वाले पांच। मैंने उस ख़बर में पाया कि पापा का जन्म दिन की तारीख़ वो नहीं हैं, जिसे वो मना रहे हैं। ये अलग बात है कि पापा ने जीते जी कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया। उनका मानना था कि धरती पर आकर कोई महान काम नहीं किया है, जो इसका जश्न मनाऊं। ये ढकोसला, दिखावा और आडंबर है। पापा का जन्मदिन मनानेवाले अगर उनके क़रीबी होते तो शायद उनकी भावना को समझकर जन्म दिन नहीं मनाते।
इस ख़बर को देखकर मैंने अपनी आपत्ति भेजी। इसके बाद महोदय का मेल आया कि हम पहली बार नहीं मना रहे हैं। इसमें एम.जे.अकबर आ चुके हैं। इसमें पापा के बड़े भाई नरेंद्र प्रताप भी आ चुके हैं। इसमें सीपीएम के दिग्गज मोहम्मद सलीम और न जाने कितने तरह के बुद्धिजीवी आ चुके हैं। महोदय ने ये भी दावा किया कि एसपी तो उनके असली हीरो हैं। वो उनके जीवन के नायक हैं। मैंने उन्हे कुछ दस्तावेज़ भेजे। वो महोदय सक्रिय पत्रकार नहीं हैं। शायद साहित्य से उनका कोई नाता है। अचरज है कि जो पत्रकार दिन रात पापा के साथ रहे । उन्हे अपना आदर्श मानते रहे। उन्होने तो कभी पापा के अपनों की ख़बर नहीं ली। लेकिन इस पेशे से इतर कोई पापा के अपनों की ख़बर रखता है। मैंने उन महोदय से ये पूछा कि आप जन्मदिन मनाएं। मुझे एतराज़ नहीं क्योंकि उन्होने मीडिया में सार्वजनिक संपत्ति तो पहले ही बनाया जा चुका है। लेकिन आप ये बताएं कि आप एस पी को अपना रियल लाइफ हीरो मानते हैं तो कुछ किलमीटर चल कर आपने अपने हीरो के अपनों की ख़बर ली ? आपके हीरो की मां कैसी हैं? किस हाल में हैं ? पापा की जो सबसे क़रीबी जीवन की रहीं हैं वो हैं मेरी मम्मी यानी उनकी भाभी। आपने क्या उनकी कभी सुध ली। महोदय का जवाब इस पर नहीं आया।
ख़ैर , कई मौक़ों पर पापा बेसाख्ता याद आए। जब मेरी शादी हो रही थी तो ठीक उससे पहले मैं, मेरी मम्मी, मुझे जन्म देने वाले पिता और छोटा भाई ख़ूब रोए। शादियों के मौक़ों पर नाच-गाना होता है। मेरे घर में मातम मन रहा था। सबको पापा की याद आ रही थी। हम इसलिए नहीं रो रहे थे कि पापा होते तो नौकरी देते। तरक्की देते। ग्लैमर का रास्ता खोलते। या आगे बढ़ने का मौक़ा देते। हम इसलिए रो रहे थे कि अगर मेरी शादी से सबसे ज़्यादा ख़ुशी किसी को होती तो वो पापा ही होते। मम्मी ये कह कर रो रही थीं कि कितना अच्छा होता कि सुरेंदर बहू को मुंह दिखाई देता। ससुर बनता। देखती कि साहेब बना सुरेंदर बहू से घूंघट करवाता है कि नहीं? जब मेरा बेटा हुआ तो एक बार फिर सब रोए । फिर वहीं ग़म । पापा होते तो अपने पोते को देख फूले नहीं समाते। इस बार अस्पताल में ही मम्मी ने पूछा कि बेटे का कुछ नाम सोचे हो? मैंने कहा कि मम्मी , अभी नहीं। इस बारे में घर में जाकर बात करेंगे। मैं अपनी मां से कैसे कहता कि मेरे बेटे की जान ख़तरे में है। पैदा होते ही उस पर मौत मंडराने लगा है। अस्पताल में इस दौरान मैं अकेले में बार –बार यही सोचता था कि क्या यहीं मेरी नियती है कि पापा भी नहीं और बेटा भी नहीं ? बच्चे की मां बार बार कहती कि बेटे का कहां रखा हैं। मैं उस बार दिलासा दिलाता- अभी तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। तुम्हारी तबीयत ठीक होते ही उसे तुम्हारे पास ले आऊंगा। मम्मी पूछती थीं कि इतने दिनों तक डॉक्टर बच्चे को जच्चे से अलग नहीं रखते । ये कैसा अस्पताल और डॉक्टर है, जो बच्चे को जच्चे से दूर रख रहे हैं ? मैं दिल्ली के उन तमाम मंदिरों, मस्जिदों, गिरजघरों और मज़ारों पर गया। ये सब वहीं जगहें हैं, जहां मैं पापा की ज़िंदगी की दुआओं के लिए कई बार गया था। इस बार मेरे साथ नंदलाल थे। नंदलाल को बहुत कम लोग जानते होंगे। नंदलाल पापा की गाड़ी चलाया करते थे। बहुत लंबे समय तक। ख़ैर , डॉक्टरों ने बच्चे को सुरक्षित घोषित कर दिया। इसके बाद बारी आई – बच्चे की नाम की। पारिवारिक परंपराओं से उलट मैंने बेटे का नाम तय करने का फैसला किया। घरवालों ने नाम सुना तो बेहद ख़ुश हुए। सबका बस एक ही सुझाव था- इसके नाम में जात-पात न हो। इसका सरनेम सुरेंद्र हों। आख़िरकार मेरे बेटे का नाम रखा गया अंश सुरेंद्र ।
अस्पताल में सबने लाख जतन किए कि किसी तरह पापा बच जाएं। ख़ून के रिश्तों से भी बढ़कर दिबांग ने दिन रात एक कर दिया था। क़मर वहीद नक़वी जी दिलासा देते थे कि नक्षत्र बताते हैं कि वो जल्द ही अस्पताल से ठीक होकर लौंटेंगे। संजय पुगलिया का अस्पताल आकर कोने में कुछ देर तक ख़ामोश खड़े रहना। अमित जज, नंदिता जैन, रामकृपाल जी और कमेलश दीक्षित का लगातार आना-जाना। राम बहादुर राय जी की कोशिश - पूजा पाठ और हवन के ज़रिए अनहोनी को टाला जाए। सबसे मिलकर लगता था कि नहीं , पापा लौटेंगे। मुझे विवेक बख़्शी दिलासा दिलाता था कि सब ठीक हो जाएगा। रात को कई बार मैं दीपक चौरसिया, आशुतोष, अंशुमान त्रिपाठी, राकेश त्रिपाठी और धर्मवीर सिन्हा रूकते थे। इस विश्वास के साथ कि पापा लौंटेंगे। लेकिन सब बेकार।
जब उनके पार्थिव शरीर को लेकर हम घर आने लगे तो मैं थरथरा रहा था। मैंने रामकृपाल चाचा से आग्रह किया कि वो मेरे साथ बैठें। मेरे अंदर हिम्मत नहीं है। सहीं में, पापा के बग़ैर ये सोचकर ही हिम्मत जवाब दे गई थी। मैं फूट फूटकर रो नहीं पा रहा था। जिसका मैं अंश था , उसे ही मैं जलाने जा रहा था। श्मशान में पापा के बगल में बैठकर ख़ूब रोया। ख़ैर, मैं तो उनका अंश था। मैंने एम जे अकबर और सीतराम केसरी को भी फूट- फूटकर रोते देखा। मेरे साथ दिबांग ने भी एक तरह से पुत्र धर्म का निर्वाह किया। पापा को धू- धू जलते देख मैं बौखला उठा। मेरे पिता मेरे पास आए और कहा- ये सच है। तुम्हारा बाप मर गया। बाप वो नहीं होता, जो जन्म देता। बाप वो होता , जो उसे लायक बनाता है। बस इतना याद रखना – भले ही अपने बाप की इज्ज़त न बढ़ा सको लेकिन बट्टा मन लगाना।
कोशिश कर रहा हूं कि अपने वादे पर खरा उतरूं। दुनिया को ख़ामोशी के साथ बदलते देख रहा हूं। ऐसे में पापा और ज़्यादा याद आते है। वो अक्सर अकेले में समझाया करते थे कि अगर झूठ नहीं बोल सकते तो दिल्ली में बोलना बंद कर दो। सफल रहोगे। ये दिल्ली है। लेकिन क्या करूं। हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के अपनी बात कहने की आदत नहीं रही।

एस.पी.सिंह


ये तस्वीर उन दिनों की है, जब पापा रविवार में थे। लगभग 32 साल पुरानी तस्वीर है।

Monday, June 22, 2009

एस.पी. सिंह


ये तस्वीर मुझे बेहद पसंद है। इसलिए ये तस्वीर साझा कर रहा हूं।

Saturday, June 13, 2009

पापा, मैं और श्मशान घाट


मैं भी दिल्ली आकर पत्रकारिता करने लगा। शुरूआत में मुझे दैनिक आज के श्री सत्य प्रकाश असीम जी, दैनिक हिंदुस्तान के के.के. पांडेय जी और साप्ताहिक हिंदुस्तान के श्री राजेंद्र काला जी ने बेहद प्रोत्साहित किया। लेकिन सहीं मायनों में मुझे श्री आलोक तोमर जी ने करंट न्यूज़ के ज़रिए मुझे ब्रेक दिया। पाक्षिक से साप्ताहिक बनने वाली अमित नंदे की पत्रिका की टीम में मुझे आलोक कुमार, कुमार समीर सिंह , अनामी शरण बबल और फोटोग्राफर अनिल शर्मा जैसे दोस्त मिले। मैं दिल्ली में रहकर भी पापा के साथ नहीं रहता था। शुरू में तकलीफ हुई । लेकिन पापा ने साफ कहा कि जहां मेरी मदद हो आ जाना । लेकिन इस महानगर में तुम्हे अपने पैरों पर खड़ा होना है। तुम्हे आटा –दाल का भाव मालूम होना चाहिए। ख़ैर नब्बे के दशक में मुझे ढ़ाई हज़ार रुपए पगार मिलते थे। पापा ने बस इतना ही कहा था कि कांक्रीट के इस महानगर में राजमिस्त्री भी इतना कमा लेता है। एक अच्छी लाइफ स्टाइल के लिए ये पैसे कम है।
बहरहाल , पापा जब भी कलकत्ता जाते, मुझे पहले ही बता देते कि इस तारीख़ को जा रहा हूं, तुम भी पहुंच जाना। पापा हवाई रास्ते से पहुंचे और मैं अपनी छुक –छुक से उनसे एक दिन पहले पहुंच जाता। ऐसा ही एक वाकया है। मुझे कुर्ता पायजमा पहनने का बड़ा शौक़ हैं। ये शौक़ पापा को भी था। उन्होने मुझे दिल्ली में भी कुर्ता पायज़ामे में देखा था लेकिन कुथ कहा नहीं। इस बार जब वो कोलकाता गए तो एक बैग मेरे हवाले किया। उसमें दर्जन भर से ज़्यादा कुर्ता पायजामा था। मैं बैग खोलते ही हैरान था। इतने में पापा कमरे में आए और कहा- सब डिज़ाइनर्स हैं। पहना करो ऐसा कि अच्छा लगे, दिल को भी और आंखों को भी।
शाम चार बजते ही पापा का बुलावा आया- घूमने जाना है। इस घूमते का मतलब होता था कि चलो बाप-दादाओं ने जो संपत्ति छोड़ गए हैं, उसे देखकर आते हैं। मेरे बाबा ने कोलकाता के गारूलिया में बहुत सारे बाड़ी बनवाए थे। बंगाल में बाड़ी वैसे ही होता है , जैसे कि मुबंई में चॉल। एक –एक बाड़ी में अस्सी सौ कमरे होते थे बरामदों के साथ। साथ में काफी खुला मैदान भी होता था। बीस पच्चीस बाड़ियों का चक्कर लगाने का मतलब होता था- डेढ़ से दौ घंटे। इस दौरान कई लोग पापा से मिलते थे। पापा बेहद खुलकर उनसे बात करते थे। बातचीत भी घर परिवार या समाज या राजनीति की नहीं। कोई मिल गया तो शुरू हो गई शिकायत- मालिक, ज़रा अशरफिया को डांट दीजिए। आज कल वो बिलाटर ( बांग्ला देशी दारू) पीकर मुहल्ले में सबको गाली बकता है। वो इस बात को भी ध्यान से सुनते थे। थोड़ी दूर जाने पर जग्गू रिक्शा वाला मिलता था। उससे मिलकर वो बेहद खुश होते थे। जग्गू बताता था कि उसके घर में आजकल क्या चल रहा है। बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। वो पापा को क्लास मेट था, जो बेरोज़गारी की वजह से रिक्शा चलाता था। रास्ते में सूरज चौधरी मिलते थे। पापा उससे भी बहुत घुलकर बात करते थे। वो भी पापा के बहुत पुराने दोस्त थे। नगरपालिका में वॉरमैन का काम करते थे। वो सुबह चार बजे जाकर पानी का बटन आन करते थे और सुब नौ बजे आफ । फिर सुबह 10 बजे आन करने थे और दोपहर बारह बजे आफ। फिर शाम को चार बजे आन करते थे और रात नौ बजे आफ। शहर में पानी आने और न आने के लिए अगर कोई ज़िम्मेदार था तो वो सूरज चचा थे। इस बात को गारूलिया शहर का बच्चा जानता था। पापा उन्हे प्यार से सूरजा कहते थे। सूरज चचा खेल के भी बेहद शौकीन थे। वो अपने समय में स्थानीय क्लब की ओऱ से श्याम थापा और सुब्रतो बनर्जी जैसे फुटबालरों के खिलाफ भी खेल चुके थे। बचपन में हम सूरज चचा को देधकर डरते थे। क्योंकि उनका वो सवा छह फीट लंबे और वेस्ट इंडीज के खिलाड़ियों वाले रंग के थे। सूरज चचा से बतियाने के बाद पापा श्मशान घाट पहुंचते थे। श्मशान से सटा ज़मीन का एक बड़ा टुकड़ा भी हमारा था, जहां बच्चे खेलते थे।
श्मशान में घुसते ही बड़ा से पीपल और बरगद का पेड़ था। तब .ये हमारे इलाक़े का इकलौता श्मशान घाट था। लकड़ी से लाशें जलाई जाती थीं। इसी श्मशान में हमनें अपनी बुआ का अंतिम संस्कार किया था। वही बुआ, जिन्होने मुझे , मेरे पापा और मेरे बाबा को पाला था। यहां पहुंचते ही मुझे बुआ याद आती थीं और पापा को ? केवल बुआ ही नहीं , उनके बाबा भी याद आते थे। ये वो लम्हा होता था ,जब पापा मेरे कंधे पर हाथ रख कर खड़े होते थे। क्योंकि उस समय मेरे परिवार में किसी भी बेटे की इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि वो अपने पिता के बराबर या सामने खड़ा हो सके। पापा मेरे कंधे पर हाथ रखकर श्मशान को देखते थे। आसमान को देखते थे। फिर पीपल के नीचे बने चबूतरे पर हम दोनों बैठ जाते थे। यूं ही लगभग पांच –दस मिनट। हममें कोई बातचीत नहीं होती थी। हम दोनों विपरीत दिशाओं में देखते थे। अचानक पापा अठकर खड़े होते थे और मैं उनके पीछे- पीछे घर की ओऱ चल देता था। इसी तरह मेरी पापा से आख़िरी मुलाक़ात श्मशान घाट में ही हुई। लोदी रोड का श्मशान घाट। जहां इससे पहले मेरे परिवार से किसी का अंतिम संस्कार नहीं हुआ था। दाह संस्कार के बाद मैं इस बार पापा को छोड़कर अकेले घर लौटा। मेरे साथ पापा नहीं थे। श्मशान सच हैं।

Friday, June 12, 2009

27 जून को पापा की बरसी


बड़ी मुश्किल होती है, जब किसी बेइंतहा क़रीबी के बारे में लिखना पड़े। कुछ यही हाल मेरा है। पुष्कर पुष्प जी ने एस. पी. सिंह यानी पापा के बारे में मुझे कुछ लिखने को कहा। मैं बिलकुल वैसा ही काम रहा हूं , जैसा कि किसी आंधी तूफान में बरगद का बड़ा पेड़ उखड़ जाए । इसके बाद लोग उसकी फुनगी से पूछें कि ये कैसे हुआ ?
एसपी को मैं पापा कहता हूं। वो मेरे सगे पापा नहीं हैं। न हीं उन्होने समाज के सामने ढोल पीटकर और न ही लिखा-पढ़ी कर मुझे बेटा बनाया। रिश्तों की उलझन में समझना चाहें तो वो मेरे चाचा थे। जब मैं बोलना सीख रहा थी तब मेरे बाबा ( दादाजी), आजी ( दादी जी) और मम्मी ने कहा कि ये पापा हैं। तब से उन्हे पापा कह रहा हूं। बचपन में बड़ी मुश्किल होती थी सगे पापा और पापा के संबोधन को लेकर। लेकिन घरवालों ने इसका भी तोड़ निकाल दिया। पापा बंबई में नौकरी करने लगे और दोनों पापा की पहचान अलग करने के लिए मुझे सिखा दिया गया—कहो, बंबईया पापा। जब मैं थोड़ा समझदार हुआ तो ख़ुद ही इस संबोधन से बंबइया को निकाल दिया।
पापा ने कभी मुझे चाचा का प्यार नहीं दिया। मुझे हमेशा बेटे का ही प्यार और दुलार मिला। हम दोनों को रिश्ते में कभी ये अहसास नहीं रहा कि वो मेरे सगे पापा नहीं हैं, वो केवल चाचा हैं। ये तो दिल्ली वालों की देन हैं, जो मुझे बेटे के तौर पर नहीं, भतीजे के तौर पर जानने लगे। मुझे याद है कि पापा एक बार बीबीसी के नरेश कौशिक जी के साथ गप्पे लड़ा रहे थे। नरेश जी लंदन से आए हुए थे। मैं कमरे में दाख़िल हुआ तो नरेश कौशिक ने मेरे बारे में पूछा तो पापा ने कहा – बेटा है। उनकी आंखे हैरत से फैल गईं। पूछा- एसपी, तुम्हारा इतना बड़ा बेटा ? पापा ने हंसकर कहा- बेटे और भतीजे में कोई फ़र्क़ होता है क्या? एक बार सुहासिनी अली घर पर पर आईं। मुझे देखते ही कहा कि अरे, ये तो जवानी का एसपी है। पापा से मज़ाक का रिश्ता रखनेवाले किसी ने जवाब दिया- हमारे यहां, पड़ोसियों से शक्ल नहीं मिलती।
मेरे बाबा चार भाई थे। मेरे बाबा तीसरे नंबर पर थे। चार में से तीन बाबा कोलकाता में ही रहते थे। लेकिन सबसे बड़े बाबा कभी भी ग़ाज़ीपुर छोड़ने को राज़ी नहीं हुए। ये तीनों बाबा कभी ग़ाज़ीपुर बसने को राज़ी नहीं हुए। बड़का बाबा साल छह महीने में कोलकाता घूमने के लिए आते थे। हम बच्चे चारों को बाबा ही कहते थे। लेकिन कई बार आजियों को समझ में नहीं आता कि हम किस बाबा की बात कर रहे हैं। रिश्तों के इस उलझन को दूर करने का रास्ता निकाला गया। सबसे बड़े बाबा का नाम बड़का बाबा। दूसरे वाले बाबा का नाम दुकनिया बाबा। ये नाम इसलिए क्योंकि बड़े अफसर बनने से पहले अपने जवानी में वो मोटर गाड़ियों और गहनों के दुकान के मालिक थे। सबसे छोटे बाबा का नाम रखा गया बुच्ची बाबा। उनकी भाभियां उन्हे प्यार से घर में बुच्ची बुलाती थीं। इससे सब बाबाओं का संबोधन साफ हो गया। अब तीन बाबा तो रहे नहीं, सबसे छोटे बाबा की उम्र ख़ासी हो गई है। बाबा के चारों भाइय़ों के अलगाव का होश तो मुझे नहीं हैं लेकिन इसका दर्द मैंने हमेशा अपने पापा और बाबा दोनों में ही पाया।
मेरे पिता जी तीन भाई। सबसे बड़े मुझे जन्म देनेवाले पापा ( नरेंद्र प्रताप) , उसके बाद पापा ( सुरेंद्र प्रताप ) और उसके बाद छोटे चाचा ( सत्येंद्र प्रताप) । मेरे अलावा एक और भाई है। मुझे पालने पोसने में घर के जिन लोगों ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई, वो थे मेरे बाबा । उन्होने मेरी पढ़ाई लिखाई का सारा बोझ उठाया। इसके अलावा हमारे घर में बुआ थीं। वो मेरे बाबा की बुआ थी, जो विधवा होने के बाद बाबा के साथ यानी हमारे साथ रहती थीं। उन्होने केवल मुझे ही नहीं, बल्कि मुझसे पहले के पीढ़ी के लोगों को पाला पोसा। उन्होने पापा को भी पाला था। मुझे याद हैं, मैं सोया रहता था तो वो फूल ( पीतल या कांसे की तरह के बर्तन) के एक बड़े से कटोरे में ढ़ेर सारा दूध, गुढ़ की भेली और रोटियां मीसकर मुझे खिलाती थी। मैं नींद में ही खाते रहता था। मेरी मां घर का सारा काम काज करती थीं।
मेरे समय में कोई प्ले स्कूल था नहीं। मुहल्ले में ही एक प्राइमरी स्कूल था। जिसमें कुल चार जमात तक पढ़ाई होती थीं। उसमें मेरा दाख़िला करा दिया गया। मैं गदहिया गोल ( नर्सरी ) में जाने को तैयार नहीं था। रो रहा था। ख़बर बाबा को लगी। बाबा आए। बग़ैर किसी पूछताछ के गाल पर ज़ोरदार तमाचा रसीद किया। बगल में खड़ी मेरी सबसे छोटी बुआ ने मेरी ऊंगली पकड़कर स्कूल पहुंचा दिया। बाबा ने मुझे पहली और आख़िरी बार थप्पड़ मारा। मेरे बाबा सारा जीवन फैशन परस्ती और दिखाने से नफ़रत करते रहे। अगर घर में कोई भी लेटेस्ट फैशन के कपड़े या बालों में दिख जाए तो समझिए मुसीबत टूट पड़ी। बाबा की सोच थी कि फैशन से बिगड़ने का रास्ता बेहद क़रीब होता है। ज़िंदगी में मैंने जो पहली पतलून पहनी , वो मेरे मामा ने पहनाया। ज़िंदगी में जो पहली जींस पहनी , वो पापा ने दिए। जो पहली घड़ी पहनीं, वो भी पापा की दी हुई थी। पापा जब भर आते , तो वो मेरे छोटे भाई के लिए तरह तरह के उपहार लाते। इसमें वॉकमैंन से लेकर साइकिल तक शामिल है। लेकिन मुझे हमेशा तोहफे में किताबें मिलीं। इसमें कई किताब लल्ला जी ( योगेंद्र कुमार लल्ला, संयुक्त या सहायक संपादक, रविवार) भेजते थे। पापा ने मेरे छोटे भाई को मसूरी को स्कूल में पढ़ाया भी। पापा, मेरे छोटे भाई को बेहतरीन स्कूलों में पढ़ाते रहे और मैं सरकारी स्कूलों और कॉलेज में पढ़कर पापा के पेशे में आ गया। पापा , हमेशा मुझे पत्रकारिता में आने से रोकते रहे। कहते रहे कि कुछ और करो। लेकिन मुझ पर तो सनक सवार थी- पत्रकार बनने की। ख़ैर पापा ने मुझे रास्ता दिखाया। दो टूक में कह दिया – पत्रकार बनने का विरोध नहीं करूंगा लेकिन मुझसे कभी नौकरी की उम्मीद नहीं करना। वो अपने वचन पर आख़िरी वक़्त तक क़ायम रहे। करियर में मुझे शैलेश जी मिले, जिन्होने मुझे टीवी पत्रकार बनाया और बहुत बाद में श्री संजय पुगलिया मिले, जिन्होने मुझे आगे बढ़ाया।

27 जून को एस. पी.सिंह की पुण्यतिथि हैं। अगर आपके पास एसपी से जुड़ी कोई याद या तस्वीर है तो हमें ज़रूर भेजें।