Saturday, June 13, 2009
पापा, मैं और श्मशान घाट
मैं भी दिल्ली आकर पत्रकारिता करने लगा। शुरूआत में मुझे दैनिक आज के श्री सत्य प्रकाश असीम जी, दैनिक हिंदुस्तान के के.के. पांडेय जी और साप्ताहिक हिंदुस्तान के श्री राजेंद्र काला जी ने बेहद प्रोत्साहित किया। लेकिन सहीं मायनों में मुझे श्री आलोक तोमर जी ने करंट न्यूज़ के ज़रिए मुझे ब्रेक दिया। पाक्षिक से साप्ताहिक बनने वाली अमित नंदे की पत्रिका की टीम में मुझे आलोक कुमार, कुमार समीर सिंह , अनामी शरण बबल और फोटोग्राफर अनिल शर्मा जैसे दोस्त मिले। मैं दिल्ली में रहकर भी पापा के साथ नहीं रहता था। शुरू में तकलीफ हुई । लेकिन पापा ने साफ कहा कि जहां मेरी मदद हो आ जाना । लेकिन इस महानगर में तुम्हे अपने पैरों पर खड़ा होना है। तुम्हे आटा –दाल का भाव मालूम होना चाहिए। ख़ैर नब्बे के दशक में मुझे ढ़ाई हज़ार रुपए पगार मिलते थे। पापा ने बस इतना ही कहा था कि कांक्रीट के इस महानगर में राजमिस्त्री भी इतना कमा लेता है। एक अच्छी लाइफ स्टाइल के लिए ये पैसे कम है।
बहरहाल , पापा जब भी कलकत्ता जाते, मुझे पहले ही बता देते कि इस तारीख़ को जा रहा हूं, तुम भी पहुंच जाना। पापा हवाई रास्ते से पहुंचे और मैं अपनी छुक –छुक से उनसे एक दिन पहले पहुंच जाता। ऐसा ही एक वाकया है। मुझे कुर्ता पायजमा पहनने का बड़ा शौक़ हैं। ये शौक़ पापा को भी था। उन्होने मुझे दिल्ली में भी कुर्ता पायज़ामे में देखा था लेकिन कुथ कहा नहीं। इस बार जब वो कोलकाता गए तो एक बैग मेरे हवाले किया। उसमें दर्जन भर से ज़्यादा कुर्ता पायजामा था। मैं बैग खोलते ही हैरान था। इतने में पापा कमरे में आए और कहा- सब डिज़ाइनर्स हैं। पहना करो ऐसा कि अच्छा लगे, दिल को भी और आंखों को भी।
शाम चार बजते ही पापा का बुलावा आया- घूमने जाना है। इस घूमते का मतलब होता था कि चलो बाप-दादाओं ने जो संपत्ति छोड़ गए हैं, उसे देखकर आते हैं। मेरे बाबा ने कोलकाता के गारूलिया में बहुत सारे बाड़ी बनवाए थे। बंगाल में बाड़ी वैसे ही होता है , जैसे कि मुबंई में चॉल। एक –एक बाड़ी में अस्सी सौ कमरे होते थे बरामदों के साथ। साथ में काफी खुला मैदान भी होता था। बीस पच्चीस बाड़ियों का चक्कर लगाने का मतलब होता था- डेढ़ से दौ घंटे। इस दौरान कई लोग पापा से मिलते थे। पापा बेहद खुलकर उनसे बात करते थे। बातचीत भी घर परिवार या समाज या राजनीति की नहीं। कोई मिल गया तो शुरू हो गई शिकायत- मालिक, ज़रा अशरफिया को डांट दीजिए। आज कल वो बिलाटर ( बांग्ला देशी दारू) पीकर मुहल्ले में सबको गाली बकता है। वो इस बात को भी ध्यान से सुनते थे। थोड़ी दूर जाने पर जग्गू रिक्शा वाला मिलता था। उससे मिलकर वो बेहद खुश होते थे। जग्गू बताता था कि उसके घर में आजकल क्या चल रहा है। बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। वो पापा को क्लास मेट था, जो बेरोज़गारी की वजह से रिक्शा चलाता था। रास्ते में सूरज चौधरी मिलते थे। पापा उससे भी बहुत घुलकर बात करते थे। वो भी पापा के बहुत पुराने दोस्त थे। नगरपालिका में वॉरमैन का काम करते थे। वो सुबह चार बजे जाकर पानी का बटन आन करते थे और सुब नौ बजे आफ । फिर सुबह 10 बजे आन करने थे और दोपहर बारह बजे आफ। फिर शाम को चार बजे आन करते थे और रात नौ बजे आफ। शहर में पानी आने और न आने के लिए अगर कोई ज़िम्मेदार था तो वो सूरज चचा थे। इस बात को गारूलिया शहर का बच्चा जानता था। पापा उन्हे प्यार से सूरजा कहते थे। सूरज चचा खेल के भी बेहद शौकीन थे। वो अपने समय में स्थानीय क्लब की ओऱ से श्याम थापा और सुब्रतो बनर्जी जैसे फुटबालरों के खिलाफ भी खेल चुके थे। बचपन में हम सूरज चचा को देधकर डरते थे। क्योंकि उनका वो सवा छह फीट लंबे और वेस्ट इंडीज के खिलाड़ियों वाले रंग के थे। सूरज चचा से बतियाने के बाद पापा श्मशान घाट पहुंचते थे। श्मशान से सटा ज़मीन का एक बड़ा टुकड़ा भी हमारा था, जहां बच्चे खेलते थे।
श्मशान में घुसते ही बड़ा से पीपल और बरगद का पेड़ था। तब .ये हमारे इलाक़े का इकलौता श्मशान घाट था। लकड़ी से लाशें जलाई जाती थीं। इसी श्मशान में हमनें अपनी बुआ का अंतिम संस्कार किया था। वही बुआ, जिन्होने मुझे , मेरे पापा और मेरे बाबा को पाला था। यहां पहुंचते ही मुझे बुआ याद आती थीं और पापा को ? केवल बुआ ही नहीं , उनके बाबा भी याद आते थे। ये वो लम्हा होता था ,जब पापा मेरे कंधे पर हाथ रख कर खड़े होते थे। क्योंकि उस समय मेरे परिवार में किसी भी बेटे की इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि वो अपने पिता के बराबर या सामने खड़ा हो सके। पापा मेरे कंधे पर हाथ रखकर श्मशान को देखते थे। आसमान को देखते थे। फिर पीपल के नीचे बने चबूतरे पर हम दोनों बैठ जाते थे। यूं ही लगभग पांच –दस मिनट। हममें कोई बातचीत नहीं होती थी। हम दोनों विपरीत दिशाओं में देखते थे। अचानक पापा अठकर खड़े होते थे और मैं उनके पीछे- पीछे घर की ओऱ चल देता था। इसी तरह मेरी पापा से आख़िरी मुलाक़ात श्मशान घाट में ही हुई। लोदी रोड का श्मशान घाट। जहां इससे पहले मेरे परिवार से किसी का अंतिम संस्कार नहीं हुआ था। दाह संस्कार के बाद मैं इस बार पापा को छोड़कर अकेले घर लौटा। मेरे साथ पापा नहीं थे। श्मशान सच हैं।
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3 comments:
आप लेख पढ़कर अच्छा लगा। पिता ऐसे ही होते हैं। पिता हमको दुनियादारी सिखाते हैं, ताकि बुरे वक्त में हम डोले नहीं। पिता की छवि को संवारता लेख मैंने भी लिखा। अगर हो सके तो कुलवंत हैप्पी पर क्लिक कर पढ़ना जरूर...
आपने महादेवी वर्मा की याद दिला दी|
mein aapka lekh padkar sach mein kuch aise dundhdale yaadin mein khogya tha,jahan par mujeh unh haathon ki garamaahaat ki kami ka ehsaas hota hai jo aaj mujse kafi dur chale gaye hai..
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