Tuesday, December 1, 2015

यूपी को ‘बिहार’ बनाना चाहती हैं पार्टियां

विदेश जाकर मोदी केवल ‘उल्लू बनाइंग’


कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा- नीतीश कुमार ने कुनबा जोड़ा। महागटभंदन के तौर पर ये बात बिहार में सही क्या साबित हुई, अब हर कोई इस फॉर्मूले को अपनाना चाहता है। इसके लिए सबसे ज़्यादा बेचैन समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव हैं, जिन्हें अब भी बिहार में महागठबंधन से अलग होने की टीस सालती है। उनके अलावा तमाम धतकरम करके भी मुंह की खानेवाली बीजेपी भी है। दोनों पार्टियों के निशाने पर यूपी के अतिपछड़े लोग हैं, जो इनकी नज़र में केवल एक ज़बर्दस्त वोट बैंक हैं।
अरसे बाद समाजवादी पार्टी और बीजेपी दोनों को ही यूपी के अति पिछड़े लोगों की याद आई है। फिर से इन सत्रह अतिपिछड़ी जातियों को जनजातियों में शामिल कराने की मांग उठने लगी है। हद तो ये है कि इन जातियों की चिंता करनेवाली बीजेपी और समाजवादी पार्टी ने अपने –अपने तरीक़े से गोलबंदी शुरू कर दी है। बीजेपी ने बहुत सोच समझकर इत जातियों का सम्मेलन 6 दिंसबर को करने का फैसला किया है। एक तो उसी दिन भीमराव अंबेडकर महानिर्वाण दिवस है। दूसरा ये कि उसी दिन बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। उस दिन सम्मेलन कर बीजेपी उन लोगों का मुंब बंद करना चाहेगी, जो उस पर सांप्रादियक होने का आरोप लगाते हैं। दूसरा उस दिन बीएसपी के होने वाले कार्यक्रमों में पैठ जमाई जा सकेगी और उसे अहसास कराया जाएगा कि दलित और पिछड़े वोट बैंक उसकी जागीर नहीं है। इसी तरह से समाजवादी पार्टी भी इन अतिपिछड़ी जातियों का सम्मेलन कर अपनी चुनावी नैया पार करने का अभियान चलाने जा रही है।
आख़िर यादवों और मुसलमानों की राजनीति करनेवाली समजावादी पार्टी को अति पिछड़ों की चिंता क्यों होने लगी है। या यूं पूछें कि ब्राह्मणों-बनियों की पार्टी के तौर पर मशहूर या बदनाम ( चाहें जो कह लें) बीजेपी भी इतनी चिंता में क्यों दुबली हुई जा रही है। जवाब साफ है। चुनाव में यूपी में अतिपिछड़ी जातियों की निर्णायक स्थिति  होती है। यूपी में दलितों और पिछड़ों के साथ इनकी आबादी मिला दी जाए तो ये संख्या लगभग 54 फीसदी के आस-पास बैठती है। इसलिए सबकी नज़र अतिपिछड़े वोट बैंक पर लगी है। बिहार विधानसभा चुनाव में पिछड़ी, अतिपिछड़ी जातियों की मजबूत गोलबंदी से इस वोट बैंक का महत्व और बढ़ गया है। बिहार विधानसभा चुनाव में धुर विरोधी रहे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर अतिपिछड़ा का मुद्दा जोरदार ढंग से उठाया और राजनीतिक पंडितों के सारे आकलन को झुठलाते हुए महागठबंधन को जीत दिलाई। बीजेपी और समाजवादी पार्टी भी ठीक वैसा ही करने की कोशिश में हैं।
हालांकि उत्तर प्रदेश में बिहार की तरह जातिगत और वर्गीय ध्रुवीकरण टेढ़ी खीर की तरह है। सच तो ये भी है कि सोशल इंजीनियरिंग का नमूना दिखा चुकीं मायावती और मुलायम सिंह यादव जब तक हात नहीं मिलाते तब तक यूपी में बिहार जैसा चमत्कार कर पाना असंभव है। यूपी में बीजेपी, बीएसपी, एसपी को अच्छी तरह पता है कि पिछड़ों में अत्यन्त पिछड़े निषाद, मल्लाह, केवट, राजभर, कुम्हार, बिन्द, धीवर, कहार, गोड़िया, मांझी आदि जातियों की संख्या निर्णायक हैं। इतिहास गवाह है कि इन जातियों का झुकाव जिस पार्टी की ओऱ भी हुआ है, वो बाकियों से आगे निकल गई है। मिसाल के तौर पर अगर हम केवल तीन विधानसभा चुनावों का ही जातिगत विश्लेषण करें तो बात आइनें की तरह साफ हो जाती है। साल 2002, 2007  और 2012 के विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखें तो पाएंगे कि केवल दो से साढ़े तीन फीसदी के अंतर मात्र से यूपी में सरकारें बनती और बिगड़ती रही हैं। विधानसभा में संख्या गणित की बात छोड़ दें तो केवल तने ही फीसदी मतों के हेर-फेर से या तो समाजवादी पार्टी की सरकार बनी है या फिर बीएसपी की।
मुलायम सिंह यादव, मायावती और ओम माथुर को भी अच्छी तरह पता है कि 17 अतिपिछड़ी जातियों के पास सत्ता की चाबी है।  इसलिए सभी मिशन-2017 केलिए अतिपिछड़ी जातियों को अपने पाले में करने की कवायद में जुट गए है। बीजेपी, बीएसपी, कांग्रेस में अभी से ही इनके लिए हमदर्दी जताने का खेल शुरू हो गया है। बीजेपी को भी पता है कि जब-जब अति पिछड़ों ने बीजेपी का साथ दिया है, उसे सत्ता नसीब हुई है। ये बात तब भी लागू होती है, जब उसने किसी के साथ गठबंधन किया है। इसलिए बीजेपी भी अतिपिछड़ों को अपने पाले में करने के लिए गहन मंथन में जुटी है।
अगर वोट बैंक के नज़रिए से भी देखें तो ये प्रदेश अतिपिछड़ी जातियों का एक बड़ा वोट बैंक है।  43 फीसदी से अधिक गैर यादव पिछड़ों में कुर्मी, लोधी, जाट, गूजर, सोनार, गोसाई, कलवार, अरक आदि, लगभग सवा 10  फीसदी और मल्लाह, केवट, किसान, कुम्हार, गड़ेरिया, काछी, कोयरी, सैनी, राजभर, चैहान, नाई, भुर्जी, तेली आदि लगभघ सवा 33 फीसदी संख्या वाली अत्यन्त पिछड़ी हिस्सेदारी वाले इस वोट बैंक पर हर दल की नजर है।
उत्तर प्रदेश की सत्ता हथियाने की कवायद में जुटी बीजेपी इन जातियों को 7.5 फीसदी विशेष आरक्षण कोटा देने व सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू करने का मुद्दा उछाल रही है। बीजेपी प्रदेश की कमान किसी अतिपिछड़े को देने की सुगबुगाहट है। वहीं कांग्रेस भी इनको गोलबन्द करने की कोशिश में है। साफ है कि अगर  उत्तर प्रदेश में तीन कोणीय संघर्ष होता है ( जो फिलहाल नहीं दिखता) तो अत्यन्त पिछड़ी और उसमें भी 17 अतिपिछड़ी जातियों की भूमिका अहम रहेगी। दूसरे नज़रिए से देखें तो देश में और हाल के कुछ राज्यों में हुए चुनावों ने संकेत दिए हैं कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता लोकसभा चुनाव जैसी नहीं रह गई है। ऐसे में ये कहना अभी ग़लत नहीं होगा कि यूपी में बीजेपी केवल शहरी इलाक़ों में ही संघर्ष करती दिखाई दे रही है। कांग्रेस कहीं मैदान में नज़र भी नहीं आती। ऐसे में ज़मीनी लड़ाई बीएसपी और समाजवादी पार्टी की होगी। और अगर ऐसा हुआ तो ये सत्रह जातियों का खेल सारा खेल बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है।