Saturday, December 13, 2008

कांग्रेस को मरवा देंगे मोइली


कांग्रेस के नेता वीरप्पा मोइली बहुत दूर की कौड़ी खोज कर लाएं हैं। लेकिन उनकी कौड़ी को देखकर ऐसा लगता है कि वो कांग्रेस की ही वोट बैंक की मटकी फोड़ने के लिए है। विधानसभा चुनावों से पहले यूपीए सरकार ने वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किया था। इन सिफारिशों को लारने के पीछे सरकार की क्या सोच होगी। सीधे-सीधे इसका मतलब वोट बैंक की राजनीति से था। सरकार कर्मचारियों की तनख़्वाह बढ़ाकर अपना वोट बैंक बढ़ाने का इरादा रखती थी। लेकिन लगता है कि कांग्रेस के पुराने दिग्गज वीरप्पा मोइली कांग्रेस की ही लुटिया डूबो देंगे। वो जिस तरह की सिफारिश लेकर हाज़िर हुए हैं, वो सरकारी कर्मचारियों को ख़ून ख़ौलाने के लिए काफी है।
सरकारी कर्माचारी अपनो काम काज के तौर तरीक़ों , बर्ताव, आचरण और दफ्तर को कितना समय देते हैं- ये सब जानते हैं। ये आज से नहीं, आदि -अनादि काल से चला आ रहा है। सरकारी कर्मचारियों की इमेज रही है कि वो न तो समय पर आफिस जाते हैं और न ही समय से आफिस से निकलते हैं। रेल मंत्री लालू प्रसाद ख़ुद इसके गवाह हैं। वो आफिस टाइम पर रेल भवन के गेट पर खड़े हो गए थे। मीडियावाले भी थे। देर से आनेवालों को ख़ूब फटकार लगाई। कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी। फिर हुआ क्या। कितनी बार रेल मंत्री फिर से रेल भवन के गेट पर खड़े मिले। सच उन्हे भी मालूम है। वो भी बेहतर नतीजे चाहते हैं। लेकिन कोई न कोई ऐसी मजबूरी है कि उनके हाथ पांव बंध गए हैं। मोइली साहेब चाहते हैं कि हर कर्मचारी का चौदह साल पर काम काज की समीक्षा हो। अगर उसका काम काज और बर्ताव संतोषजनक नही है तो इस बारे में उस कर्माचारी को बताया जाए। फिर 20 साल बाद उसकी काम काज की समीक्षा हो। अगर वो पैमाने की कसौटी पर ख़रा नहीं उतरता है तो उसे नौकरी से निकाल दिया जाए। मोइली चाहते हैं कि जिस तरह से प्राइवेट कंपनियों के कर्मचारी काम करते हैं, उसी अंदाज़ में सरकारी कर्मचारी काम करें।
लेकिन क्या संभव है। आप वाकई प्राइवेट कंपनियों की तरह रिज़ल्ट चाहते हैं तो प्राइवेट कंपनियों की पॉलिसी को अपनाएं। सालाना इंक्रेमेंट का इंतज़ाम करें , जो कर्मचारी के काम काज और व्यवहार के आधार पर हो। क्या सरकार ऐसा कर पाएगी। पहला रिव्यू चौदह साल पर ही क्यों। हर छह महीने या साल भर पर क्यों नहीं। मोइली राम के वनवास की तरह चौदह साल की सूई पर क्य़ों अटके हैं। मोइली की चले तो वो आईएएस, आईपीएस और आईआरएस में भी व्यवस्था ठीक कर दें। वो नहीं नहीं चाहते कि सिविल सर्विस की परीक्षा देनेवाला तीस साल के ऊपर का हो। वो नहीं चाहते कि जनरल कैटेगरी के उम्मीदवार 25 साल की उम्र के बाद सिविल सर्विस की तैयारी में दिखे। उनकी नज़र एससी, एसटी और ओबीसी के भी उम्मीदवारों पर है। उनकी चलें तो वो उन बालिकाओं के सपनों की हत्या कर दें जो पहली बार या दूसरी बार या तीसरी बार मंज़िल नहीं पा लेते तो भी हौसला नहीं खोते । वो कोशिश करते रहते हैं। मोइली जी इन कोशिशों पर विराम लगाने के पक्षधर हैं। मोइली से पहले मोरारजी देसाई ने भी कई सिफारिशें की थीं। उनका क्या हश्र हुआ। एससी, एसटी और ओबीसी की आरक्षण को लेकर बी पी मंडल ने भी सिफारिशें तैयार की थी। लंबे समय तक वो सरकारी दफ्तरों में धूल फांकती रही। अगर राजनीतिक मजबूरी नहीं होती तो वो सिफारिशें भी लागू नहीं होतीं, जिसे लोग मंडल कमीशन के तौर पर याद करते हैं।
मोइली साहेब ऐसे समय सिफारिशों का पिटारा लेकर आए हैं, जब कांग्रेस तीन राज्यों विधानसभा चुनाव जीती है। इस जीत से पहले सरकार को वेतन आयोग की सिफारिशों को कर सरकारी कर्मचारियों को ख़ुश करना पड़ा था। अब लोकसभा चुनाव सिर पर है। ऐसे में क्या आपको लगता है कि सरकार खेले खाए नेता वीरप्पा मोइली की सिफारिशों को माल लेगी और अपनी सरकार की क़ुर्बानी दे देगी ?

Tuesday, December 9, 2008

जो कहा था, वहीं हुआ दिल्ली में

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मित्रों, एक बार फिर हाज़िर हूं एक नए लेख के साथ। नया कहना तो ग़लत होगा। लेकिन उसी बात को मैं फिर से कहने जा रहा हूं लेकिन अपने कुछ मित्रों की प्रत्रिक्रियाओं के साथ , जिन्होने मेरा लेख पढ़कर ईमानदारी से अपनी बात कही थी।
मैने जो लेख लगभग सवा दो महीने पहले लिखा था, उसके पीछे चिंतन था, विश्लेषण था, भूत , वर्तमान और भविष्य का समिश्रण से निकला परिणाम था। मेरा ये शुरू से मानना रहा है कि देश की राजधानी दिल्ली में बीजेपी का समर्थन करनेवाले ऐसे कई सारे कट्टर मतदाता हैं, जो भीड़ में ख़ूब बीजेपी के लिए तर्क करते हैं। कैमरे और गनमाइक के सामने ख़ूब भाषण देते हैं। अपने बुज़ुर्ग पिता को संघ के शाखा में जाने के लिए ख़ूब प्रेरित करते हैं। लेकिन मतदान के दिन ऐसे कट्टर समर्थक पप्पू बन जाते हैं। रज़ाई ओढ़कर ख़ूब सोते हैं। उन्हे लगता है कि लोकतंत्र के महापर्व को सफल बनाने के लिए उन्होने अपने भाषणों से अपना काम कर लिया है। इनमें ज़्यादातर ऐसे लोग हैं, जिन्हे काम से बहुत कम फुर्सत मिलती है। मतदान का दिन अगर शुक्रवार या शनिवार पड़ गया तो भाग्य खुल गए। पैसा तो ख़ूब कमाया लेकिन परिवार के साथ समय बांटने का समय नहीं मिला। ऐसे समय को अपने परिवार के लिए देते हैं और आस पास के ख़ूबसूरत शहरों में छुट्टियां मनाने चले जाते हैं। यही रह जाती है बीजेपी की कोशिशें धरी की धरी। इस बार के चुनाव में हर जगह लड़ाई विकास बनाम नकारात्मक प्रचार के बीच था। बीजेपी कहती थी कि कांग्रेस शासन में आतंकवाद फल फूल रहा है। लचर क़ानून है। फिर सवाल ये कि बीजेपी के शासन काल में राजस्थान, गुजरात , लोकतंत्र के स्तंभ संसद , लालक़िला, - कहां कहां नहीं आतंकवादी हमले हुए। पोटा का सोटा भी था। फिर बीजेपी ने क्या कर लिया। क्यों बीजेपी के दिग्गज लौह पुरूष की अगुवाई में ख़तकनाक आंतकवादियों को छोड़े। सवाल ये कि बीजेपी कैसे आतंकवाद को क़ाबू करेगी। बीजेपी के तमाम तर्क पढ़े लिखे लोगों को नहीं हज़म हुए। मंहगाई रोकने के लिए उनके पास कौन सा जादू का डंडा चलाएगी। बीजेपी के पास जवाब नहीं था। हर रोज़ इतवार नहीं होता। हर चुनाव में धार्मिक भावनाएं भड़काकर और उन्माद पैदा कर वैतरणी पार नहीं होती। दूसरी सोच ये थी कि पूरी दिल्ली में लोग बीजेपी -बीजेपी कर रहे थे। लेकिन पश्चिम दिल्ली के अलावा उनकी कहीं हवा नहीं लग रही थी। बाहरी दिल्ली में जो भी वोट बीजेपी को मिले, वो नाराज़ किसानों के ते। कंझावला के मुआवज़े को लेकर वो शीला सरकार से खुश नहीं थे। इसलिए बीजेपी को वोट दिया। मैंने अपने पहले के लेख में जो आंकड़ा दिया था, नतीजा भी लगभग वहीं है। मैंने कम से 42 और और ज़्यादा से ज़्यादा 45 सीटों का अनुमान लगाया था। नतीजा बी 42 सीटों का है। नीचे आप उस समय का लेख पढ़ सकते हैं, जिसमें मैने बीजेपी के नए महाजन अरूण जेटली का भी ज़िक्र किया था और विजय कुमार मल्होत्रा के नेतृत्व का भी।

Friday, November 21, 2008

बीजेपी को महंगी पड़ेगी कांग्रेस


दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने नारा दिया है मंहगी पड़ी है कांग्रेस। ये नारा बीजेपी के नए चाणक्य अरूण जेटली की दिमाग़ की उपज है। उन्हे लगता है कि जिस तरह से नारों के दम पर उन्होने गुजरात का युद्द जीत लिया था, वैसे ही दिल्ली जीत लेंगे। लेकिन कंप्यूटर युग में आंकड़ों के सहारे राजनीति करनेवाले जेटली भूल गए कि चमकदार नारों से चुनावी जंग नहीं जीती जाती। अगर ऐसा ही होता तो बीजेपी के महापराक्रमी दिवंगत प्रमोद महाजन का इंडिया शाइन का नारा टांय-टांय फिस्स नहीं होता और न ही अटल आडवाणी के सत्ता सुख के सपनों पर पानी फिरता। जेटली ने एमसीडी ( दिल्ली नगर निगम ) के चुनावी नतीजों को चरम-परम सत्य मानकर चुनावी चक्रव्यूह तैयार कर लिया। उन्हे सौ फीसदी यक़ीन था कि जिस तरह से नगर निगम के चुनावों में दिल्ली के मतदाताओं ने सीलिंग के मुद्दे पर नाराज़ होकर कांग्रेस को जड़ से उखाड़ फेंका है। ठीक वैसे ही विधानसभा के चुनावों में महंगाई और आतंकवाद से परेशान दिल्ली की जनता कांग्रेस को फिर से जड़ से उखाड़ देगी। अब जेटली साहेब को कौन समझाए कि डेटा में उलझी राजनीति में सपने देखना अच्छी बात है। लेकिन दिन में आंखें खोलकर सपने देखने में ख़तरा ज़्यादा होता है।

दिल्ली के मतदाताओं की बात करें तो देश के दूसरे राज्यों, शहरों और महानगरों से इसकी मानसिकता बेहद अलग है। यहां के मतदाताओं की सोच ये है कि वो देश की राजधानी का मतदाता है। जातिगत और धार्मिक समीकरण इस राज्य में मुद्दों के आगे कमज़ोर पड़ जाते हैं। बीजेपी ने महंगाई की डुगडुगी सबसे पहले पीटनी शुरू कर दी। लेकिन शुरूआती दौर में बीजेपी को समझ में आ गया कि ये डुगडुगी बहुत देर नहीं बजेगी। दिल्ली का मतदाता जानता है कि महंगाई केवल दिल्ली में नहीं है। ये तस्वीर देश दुनिया की है। ऊपर से शीला सरकार के हाथ में दूसरे राज्यों की तरह ताक़त नहीं है। अगर महंगाई केंद्र की थोपी हुई है तो बीजेपी शासित राज्यों में मंहगाई क्यों है। क्यों नहीं जनता की भलाई के लिए बीजेपी शासित राज्यों की सरकारें राजस्व का घाटा सहकर जनता को मंहगाई से बोझ से बचा रही हैं। दरअसल बीजेपी 1998 के चुनाव में जो प्याज़ के आंसू रो चुकी है, उसका बदला वो मंहगाई के ज़रिए चुकाना चाहती है। लेकिन इस मुद्दे पर बीजेपी का दाल नहीं गल रही।

दिल्ली में एक के बाद एक कई बम ब्लास्ट हुए। बीजेपी को लगा कि इस मुद्दे को ज़ोर शोर से उछालने पर सत्ता का लड्डू हाथ लग सकता है। आतंकवाद की आड़ में उसने लोगों को डराना शुरू कर दिया। मतदाताओं को समझाने में लग गए कि शीला और कांग्रेस सरकार के रहते आतंकवादियों के हौंसले बेहद मज़बूत है। आम आदमी महफूज़ नहीं है। कांग्रेस सरकार ने पोटा ख़त्म कर दिया। लेकिन ये नारा भी फिस्स हो गया। कई इलाक़ों में मतदाताओं ने बीजेपी उम्मीदवारों से सीधे पूछ लिया कि केंद्र में जब बीजेपी की सरकार थी तब संसद पर हमला क्यों हुआ। केंद्र में जब एनडीए की सरकार थी तब आतंकवादियों ने काठमांडु से प्लेन हाइजैक कर कांधार ले जाने में कामयाब कैसे हुए। एनडीए सरकार की नीति इतनी सख़्त थी तो सरकार ने आतंवादियों को छोड़ा क्यों। बीजेपी के शासनकाल में गुजरात और राजस्थान में आतंकवादी वारदातें कैसी हुई। एनडीए के राज में पाकिस्तानी सेना आतंकवादियों के साथ करगिल में कैसे घुस गए। एक साथ इतने सारे बेचैन करनेवाले सवालों के जवाब बीजेपी अभी तक नहीं तलाश पाई है।

कांग्रेस ने बीजेपी के हर निगेटिव प्रचार का पॉज़िटिव जवाब दिया। कांग्रेस ने दो टूक पूछा कि दिल्ली में विकास के काम हुए हैं कि नहीं। दिल्ली में फ्लाई ओवर्स बनें हैं कि नहीं। दिल्ली में फुटओवर ब्रिज बने हैं कि नहीं। दिल्ली में हरियाली बाक़ी शहरों से ज़्यादा है कि नहीं । अनधिकृत कॉलोनियों को प्रोविज़नल सर्टिफिकेट दिए गए हैं कि नहीं। इन कॉलोनियों में पानी, बिजली , सड़क की सुविधा दी गई है कि नहीं। दिल्ली में 32 सरकारी अस्पताल हैं कि नहीं। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चे दसवीं के इम्तिहान में पास होने का रिकार्ड बना रहे हैं कि नहीं। बीजेपी एक बार फिर इतने सारे सवालों को सुनकर चकरा गई। बीजेपी के चाणक्य अरूण जेटली दूर की कौड़ी खोज कर लाए। ढ़िंढोरा पीटकर कहने लगे कि ये विजय कुमार मल्होत्रा की देन है। मल्होत्रा ने 1967 में जो सपना देखा था, वो अब पूरा हो रहा है। विकास पुरूष मल्होत्रा ने 67 में पहला फ्लाई ओवर बनवाया था। अब बीजेपी से कोई ये पूछे कि मल्होत्रा के बाद मदन लाल खुराना सत्ता में आए। साहिब सिंह वर्मा आए। सुषमा स्वराज आईँ। लेकिन उन्होने क्यों नहीं विजय कुमार मल्होत्रा के सपने को साकार किया। ये सपने शीला सरकार को ही क्यों साकार करने पड़े।

इस बीच राजेंद्र नगर सीट से बीजेपी प्रत्याशी पूरनचंद योगी की रहस्यमय हालत में मौत हो गई। उनकी लाश घर में पंखे से लटकी हुई मिली। लेकिन बीजेपी के बड़े नेता इसे दबाने में लगे रहे। तीन बार के विधायक की मौत को ज़्यादा तूल नहीं देना चाह रहे थे। क्योंकि बीजेपी नेताओं को शक़ है कि अगर जांच ने चुनाव से पहले रफ्तार पकड़ ली तो पार्टी की फज़ीहत हो सकती है। इस रहस्यमय मौत में बीजेपी के स्थानीय नेताओं की साज़िश हो सकती है। क्योंकि तीन बार के विधायक योगी को टिकिट पाने के लिए इस बार दिन रात एक कर देना पड़ा था। ये एक औऱ बड़ी वहज है, जिसकी वजह से बीजेपी की इमेज और भी ख़राब हुई है। रही सही कसर बीजेपी की नेता पूनम आज़ाद ने पूरी कर दी। उन्हे टिकिट नहीं दिया गया। उन्होने खुलकर बीजेपी में पंजाबी लोगों का इज्ज़त है। भोजपुरी बोलनेवालों से बीजेपी बैठकों में चटाई बिछाने का काम कराती है। शीला दीक्षित के ख़िलाफ़ खड़े बीजेपी उम्मीदवार विजय जॉली की प्रैस कांफ्रेस में बीजेपी कार्यकर्ताओं में जूते चप्पल चलने से और भी फज़ीहत हुई हैं।

दिल्ली के चुनावों में बीजेपी का डेटा गणित ये है कि 70 विधानसभा सीटों में कम से कम 60 पर उनकी जीत होगी। इतना आत्मविश्वास आज तक किसी भी पार्टी में नहीं देखा गया।बीजेपी को लगता है कि दिल्ली में बीएसपी के ताक़तवर होने से कांग्रेस कमज़ोर होगी। लेकिन वो भूल रही है कि बीएसपी कई जगहों पर बीजेपी का खेल बिगाड़ रही है। अभी तक का चुनावी गणित जो संकेत दे रहा है , उसके मुताबिक़, शीला सरकार के पांच मंत्री भारी बहुमत से जीत रहे हैं। योगानंद शास्त्री को कड़ी चुनौती मिल रही है। 69 सीटों में से कांग्रेस को अगर 42 से 45 सीटें मिल जाए तो हैरानी वाली बात नहीं होनी चाहिए। तब जाकर शायद एक बार फिर बीजेपी को ये बात समझ आ जाएगी कि चमकदार नारों के शस्त्र के सहारे चुनावी जंग नहीं जीती जाती।

Wednesday, October 29, 2008

फिर मुंबई में बचेगा क्या, बाबाजी का घंटा?


फिर छिड़ गई जंग मुंबई में गैर मराठी और मराठियों के बीच अपनी दुकान चलाने के लिए राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे और बाल ठाकरे ने म्यान से तलवार निकाल ली है। सब एक सुर में चीख रहे हैं- मुंबई और महाराष्ट्र में एक इंच भी ज़मीन ग़ैर मराठियों के लिए नहीं है। ठाकरे घराने की चीख -पुकार और विधवा विलाप में कई अति उत्साही और पराक्रमी भी शामिल हो गए हैं। बीच सड़क पर , बीचे चौराहे पर और पब्लिक ट्रांसपोर्ट के ज़रिए सफर करनेवालों पर मराठियों की गाज गिरने लगी है। लोग मारे जा रहे है।
कुछ दशक पहले की बात है। बाल ठाकरे ने कार्टून बनाने का धंधा छोड़कर राजनीति की एक नई दुकान खोली। धंधा चमकाने के लिए हिंदूवादी नारा दिया। केसरिया रंग मुंबई सहित पूरे महाराष्ट्र में लहराने लगा। अपार जनसमर्थन देखकर ठाकरे सत्ता सुख में चौंधिया गए। बीजेपी को भी सत्ता सुख की दरकार थी। दोनों मिले। राज्य में भी मिलकर सरकार चलाई और केंद्र में भी एक दूसरे को कांधा दिया। दोनों की सोच एक जैसी दोनों की बात एक जैसी। लेकिन बाल ठाकरे यहां पर चतुर निकले। उन्होने हिंदुओं में भी बंटवारा कर दिया
जो हिंदू महाराष्ट्र के बाहर के हैं, ठाकरे घराने की नज़रों में वो उनकी बिरादरी के हिंदू नहीं है। बीजेपी ने अखंड भारत का नारा दिया था। उसकी सहयोगी शिवसेना और उससे उपजे झाड़-फूंस अब खंड -खंड भारत का नारा दे रहे हैं। बीजेपी ने जो सपना देखा था, जो नारा दिया था, अब उसे उसकी ही सहयोगी पार्टी चूर-चूर कर रही है। डंके की चोट पर एलान हो रहा है- महाराष्ट्र और मुंबई की धरती की एक इंच ज़मीन भी दूसरे प्रदेशों के लिए नहीं है। क़ानून का डर। लोकतंत्र का सम्मान, किसी की परवाह। ग़ैर मराठियों के लिए ठाकरे घराने ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि मानों वो अपने देश का हिस्सा नहीं बल्कि ग़ुलाम कश्मीर या पाकिस्तान को कोई हिस्सा हो। नफ़रत की बीज बोई जा रही है। इसका असर देश के दूसरे हिस्सों में भी देखने को मिल रहा है। इसका ये मतलब हुआ कि महाराष्ट्र के बाहर काम करनेवाले लोगों के साथ भी देश की जनता वही सलूक करे , जो मुंबई में उनके साथ हो रहा है। मुंबई ने पंजाब , हरियामा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे सूबों को एक पांच में कर दिया है। तो फिर क्या ऐसा होना चाहिए कि मुंबई और महाराष्ट्र से लोकसभा और राज्यसभा में चुनकर आए शिवसेना के नुमाइंदों के साथ भी वहीं सलूक होना चाहिए, जो मुंबई में हो रहा है। मुंबई के सांसद उन जगहों को छेक रहे हैं, जो दिल्ली के लोगों के होने चाहिए। दिल्ली में सदियों से बसनेवाले लोगों के पास ढंग के मकान नहीं है, फिर क्यों हम मराठियों को शानदार सरकारी फ्लैटों और बंगलों में रहने दें। क्या हक़ है उनका दिल्ली में कर रहने का। अगर दिल्ली और दूसरे प्रांत तमाम प्रदेशों के लोगों का दिल खोलकर स्वागत करते हैं तो मुंबई इससे जुदा क्यों हों ? कल्पना करके देखिए- अगर बंगाल के लोग बाहर के लोगों को खदेड़ने लगें? पंजाब और हरियामा के लोग बाहर के लोगों को खदेड़ने लगें ? बैंगलुरू के लोग बाहरी लोगों को खदेड़ने लगें ?फिर क्या होगा देश में ?
क्या ठाकरे घराना अनिल और मुकेश अंबानी को मुंबई और महाराष्ट्र से बाहर निकालना पसंद करेंगे ? क्या नुस्ली वाडिया को निकालना पसंद करेंगे ? क्या रतन टाटा को मुंबई का बाहर का रास्ता दिखाएंगे ? कल्पना कीजिए- अगर मुंबई में दिलीप कुमार-सायरा बानो, अमिताभ बच्चन-जया बच्चन, शाहरूख ख़ान-गौरी, रतन टाटा, अंबानी, वाडिया, अभिषेक- ऐश्वर्या, रानी मुखर्जी, श्री देवी, जितेंद्र, एकता कपूर आदि-आदि मुबईं से बाहर अपने अपने प्रदेशों में लौट जाए , तो मुंबई की सूरत क्या होगी ? ठाकरे घराने ने मुंबई को दिया क्या है ?गेटवे आफ इंडिया से लेकर वीटी स्टेशन तक अंग्रेज़ों की देन है। शहर की पहचान में अच्छा ख़ासा योगदान बाहरियों का ही है। ठाकरे घराने की ज़िद की आगे अगर मुंबई में सब कुख वैसा ही हो जाए तो शहर में बचेगा क्या ? बाबा जी का घंटा, जिसे बाल, उद्धव और राज ठाकरे बजाते रहेंगे।

Tuesday, October 14, 2008

शीला जी , क्या फिर लौटेंगी ?


बाकी राज्यों के साथ दिल्ली में २९ नवंबर को चुनाव होने हैं। ८ दिसंबर को तय हो जाएगा कि दिल्ली का तख़्तो ताज किसके पास होगा ? जनादेश आने से पहले जो जनमत का रूझान मिल रहा है , वो बीजेपी के लिए कतई शुभ नहीं है। हो सकता है कि आख़िरी दौर में मतदाताओं का मन डोल जाए। लेकिन अभी तक के जो संकेत मिल रहे हैं, उससे लौह पुरूष के सपनों पर पानी फिरता दिख रहा है।

नए परिसीमन के बाद दिल्ली के ७० विधानसभा क्षेत्रों के नक्शे में काफी बदलाव हुआ है। कई विधानसभा क्षेत्रों का वजूद ख़त्म हो गया है। कुछ नए नामों के साथ अवतरित हुए हैं। ऐसे में ये चुनाव बेहद अहम है। दिल्ली में घुसने के तमाम रास्तों से अगर आप दाख़िल होंगे तो फिज़ां में बस एक ही बात तैरती नज़र आएगी। ग़ाज़ियाबाद या नोएडा से दिल्ल में एंट्री करते समय बस में कुछ बुज़ुर्गों की कानाफूस- बस , बीजेपी आने ही वाली है। गुड़गांव से दिल्ली में आते समय वही बात- देखते रहिए- बीजेपी , आ रही है। फरीदाबाद से दिल्ली आते समय - वहीं स्वर- बीजेपी तो आ ही गई भैय्या। लेकिन इस तरह की कानाफूसी करनेवालों से पलटकर पूछने पर कि बीजेपी किस रास्ते से आ रही है ? उनके पास बंगले झांकने के अलावा कोई चारा नहीं होता। जो कट्टर समर्थक होते हैं, वो गाल बजा लेते हैं। लेकिन उनके पास न आंकड़ा होता है, न तथ्य। बस एक ही बात की रट-बीजेपी आ रही है।

एक निजी चैनल के सैंपल सर्वे में जहां कहीं से जनमत मिल रहा है, वहां बीजेपी मुंह की खा रही है। हद तो ये हो गई है कि जिन सीटों से कभी बीजेपी को हार का मुंह नहीं देखना पड़ा था। वहां भी चारों काने चित्त दिखाई दे रही है। मिसाल के तौर पर नए परिसीमन के बाद साकेत विधानसभा क्षेत्र ख़्तम कर दिया गया है। इस विधानसभा क्षेत्र का आधा हिस्सा किसी और विधानसभा क्षेत्र के साथ मिलकर संगम विहार और देवली विधानसभा क्षेत्र बन गया है। संगम विहार में बीजेपी को कुछ सौ मतों से जीत मिली तो देवली में बीजेपी तीसरे नंबर पर आई। दूसरे नंबर पर बीएसपी आई है। दिल्ली में इस बार बीएसपी बहुत तेज़ी से उभर कर सामने आ रही है। लोग कहते हैं कि बीएसपी का ताक़तवर होना कांग्रेस के लिए ख़तरे की घंटी है। लेकिन कई विधानसभा क्षेत्रों में देखा गया कि बीएसपी ने सीधे तौर पर बीजेपी को ही चुनौती दी है। उस पर से बीजेपी में कलह। आलाकमान से थोपे गए विजय कुमार मल्होत्रा बीजेपी के बाक़ी नेताओं को नहीं सुहा रहे। हर्षवर्धन को लगता है कि पांच साल तक कितनी मेहनत से बीजेपी के लिए ज़मीन तैयार की, फसल काटने वीके आ गए। यही रोना विजय गोयल का है। इसमे कोई शक़ नहीं कि मदन लाल खुराना की अपनी ज़मीन है। उनके कहने से अब भी पंजाबी मतदाता वहीं वोट डालेंगे, जहां का हुक्न होगा। लेकिन उन्हे भी कोप भवन में भेज दिया गया है। दिल्ली में बीजेपी का वोट बैंक पंजाबी और वैश्य समुदाय खुश नहीं है। गोयल औऱ हर्षवर्धन को किनारे लगाने से ये तबका उपेक्षित महसूस कर रहा है। वैश्य समुदाय ने शीला दीक्षित से मिलकर विधानसभा चुनाव में १७ वैश्य उम्मीदवार उतारने का अनुरोध किया है। बीजेपी पर दबाव इंडियन नेशनल लोकदल और अकाली दल से भी है। दोनों जिस संख्या में सीट मांग रहे हैं, बीजेपी उतना देने का इरादा नहीं रखती।

आतंकवाद और मंहगाई को बीजेपी बहुत बड़ा मुद्दा बनाने में क़ामयाब नहीं हो पाई है। मतदाता मानता है कि आतंकवाद मुद्दा है। लेकिन ये केवल दिल्ली के लिए नहं बल्कि पूरे देश के लिए है। महंगाई मुद्दा है, लेकिन पूरे देश के लिए है। दिल्ली को क्या चाहिए। कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर मिलनेवाले पैसे को दिल्ली के विकास के लिए ख़र्च किए जाए। शीला सरकार ने विकास की जो चमक विज्ञापनों के ज़रिए दी है, उसका काफी हद तक असर मतदाताओं पर हुआ है। लोग आपसी बातचीत में मेट्रो रेल और फ्लाई ओवरों का ज़िक्र कर रहे हैं। ऐसे में बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती शीला दीक्षित हैं। मतदाताओं का अगर बीजेपी ये समझाने में क़ामयाब रहती है कि अगर वो सत्ता में आई तो शीला दीक्षित से भी ज़्यादा तेज़ी से काम करेगी, विकास करेगी। तभी सत्ता सुख संभव है। वरना बीजेपी के लिए राह कांटों भरा है।

Monday, September 29, 2008

राम अवतार गुप्ता होने का मतलब


हम भारतीयों की एक आदत है। ये आदत बहुच अच्छी है, कमावल की है। आज मैं आपलोगों को एक बहुत पुरानी बताने जा रहा हूं। भड़ास वेबसाइट से जानकारी मिली कि रामअवतार गुप्ता नहीं रहे। हिंदी पत्रकारिता से जुडे़ लोगों को बताने की ज़रूरत नहीं कि गुप्ता जी कौन थे और हिंदी पत्रकारिता में उनका क्या योगदान रहा है। ये सच है कि पश्चिम बंगाल में हिंदी बेहद कमज़ोर हालत में है। इस हालत के लिए तीन बाते मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार हैं। पहली बात- राज्य सरकारों ने कभी भी हिंदी का साथ नहीं दिया। जब से वाम मोर्चा की सरकार आई तो उसने बहुत ही सोची समझी रणनीति के तहत हिंदी को खोखला करने काम किया। लेफ्ट फ्रंट के नेताओं को लगता है कि हिंदी बोलनेवाले लोग लाल झंडे को वोट नहीं देते। इसलिए पश्चिम बंगाल के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई तो बेशक़ हिंदी में होती है। लेकिन जब दसवीं का इम्तिहान होता है, वो अंग्रेज़ी में होता है। सरकार का कुतर्क है कि कॉपियां जांचने के लिए इतनी संख्या में हिंदी टीचर नहीं हैं। पिछले तीस सालों में सरकार को हिंदी टीचर क्यों नहीं मिले, ये सोचने की बात है। क्योंकि इस देश में बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है। लेकिन वाम मोर्चा की सरकार को हिंदी के टीचर नहीं मिलते। अंग्रेज़ी, बांग्ला, तेलगू और उर्दू के मिल जाते हैं।

दूसरी बात, सरकारी फंड से हिंदी के विकास के लिए कई दुकानें खुल गईं। इन दुकानों में वहीं बैठते ही , जिनकी दुकानदारी हिंदी के नाम पर होती है। हिंदी के विकास के लिए रत्ती भर भी काम नहीं किया। कभी हिंदी टीचरों की बहाली के लिए कोई आंदोलन नहीं छेड़ा। बस कविता , कहानियां लिखकर धंधा जमाए हुए हैं। प्रभात ख़बर के ओम प्रकाश अश्क जी ने इस बारे में कई लेख भी लिखे हैं।

तीसरी बात- पत्रकार, बुद्धिजीवि और जनता - तीनों ने ही ज़ुबान पर ताला लगाए रखा। और बहुसंख्यक लोग हिंदी बोलनेवालों को मेड़ो बोलकर अपमानित करने का सिलसिला चलाते रहे। वैसे तो मेड़ो शब्द बहुसंख्यक लोगों ने मारवाड़ियों को ध्यान में रख कर बनाया था, जिसका इस्तेमाल गाली के तौर पर होता है। लेकिन बाद में ये शब्द हर हिंदी बोलनेवालों के लिए इस्तेमाल होने लगा। पश्चिम बंगाल के किसी भी रेलवे स्टेशन पर चले जाइए। किसी भी स्टेशन पर नाम की जो पीली पट्टी होती है, उस पर बांग्ला और अंग्रेज़ी में तो स्टेशन का नाम है, लेकिन हिंदी पर कालिख पोत दी गई है। ऐसे स्टेशनों पर आमारा बांगाली संस्था के पोस्टर मिल जाएंगे।

जिस राज्य में ऐसे हालात हों, वहां हिंदी में अख़बार निकालना और उसे लोकप्रिय बनाना - कोई कम हिम्मत की बात नहीं है। राम अवतार गुप्ता ने ये साहस करके दिखाया। सन्मार्ग अख़बार को कोलकाता और पूरे राज्य का सबसे पढ़ा जानेवाला अख़बार बनाया। पहले तो केवल आठ पन्नों का ये अख़बार आता था लेकिन बाद में समय के थपेड़ों ने इसे भी पन्ने बढ़ाने पर मजबूर किया। अब बात राम अवतार गुप्ता जी और उनके अखबार के गुणवत्ता की।

संपन्न औऱ संभ्रात घरानों में सन्मार्ग को कभी अच्छी नज़रों से नहीं देखा गया। तब अंग्रेज़ी में द टेलीग्राफ भी नहीं आया था। घर के बड़े बुज़ुर्ग द स्टेट्समैन पढ़ने की हिदायत दिया करते थे। क्योंकि उस समय में ये अख़बार चाय की दुकानों , कुलियों और मज़दूरों में बेहद लोकप्रिय था। ख़बरों की गुणवत्ता पर नज़र डालें तो आंनद बाज़ार, आजकाल , वर्तमान, जुगांतर, अमृत बाज़ार,विश्वामित्र, छपते-छपते जैसे अख़बारों से इसकी ख़बरें अलग होती थीं। यूं कह सकते हैं कि दिल्ली में अभी सबसे ज़्यादा बिकने और पढ़नेवाले हिंदी अख़बार की जो छवि अभी है, वही सन्मार्ग की हुआ करती थी। नवभारत टाइम्स और जनसत्ता ने पाठकों की इस भूख को मिटाने की कोशिश की। लेकिन वो सफल नहीं पाए। नवभारत टाइम्स को कोलकाता से बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। जनसत्ता केवल मारवाड़ियों का अख़बार बन कर रह गया। लेकिन सन्मार्ग हर हिंदी भाषी का चहेता अख़बार बना रहा।

ये बात बहुत पुरानी है। एक न्यूज़ एजेंसी से रिटायर होने के बाद सुदामा प्रसाद सिन्हा ने संपादक का काम काज संभाल लिया। हालांकि प्रिंट लाइन में गुप्ता जी का ही नाम संपादक के तौर पर जाता रहा। लेकिन संपादकीय विभाग की जिम्मेदारी सुदामा जी संभाल रहे थे। दिल्ली में ब्यूरो का लालमुनी चौबे जी संभाल रहे थे। उन्ही दिनों नैहाटी के एक सज्जन समाचार संपादक का काम कर रहे थे। संपादक और समाचार संपादक में बनती नहीं थी, इसका अहसास शुरू में ही मुझे हो गया था। बाद में इसका खुलासा कई और कर्मियों ने किया। उन दिनों मैं बेरोज़गार था। सुदामा जी से नौकरी के लिए मिला। दो तीन बार की मुलाक़ात के बाद उन्होने मुझे काम देने का वादा किया। कहा- अभी नौकरी तो नहीं है। लेकिन तुमसे रिपोर्टर की तरह काम कराऊंगा और ठीक -ठाक पैसे का इंतज़ाम करा दूंगा। इस वादे के साथ उन्होने मुझे उत्तर चौबीस परगना ज़िला से रोज़ ख़बरें देने का कहा। मैंने ये काम शुरू कर दिया। ये सिलसिला महीनों चला। मेरी भेजी गईं ख़बरें लगती रहीं। लेकिन मुझे कभी बाइ लाइन नहीं मिला। हमेशा ये छपता था- निज प्रतिनिधि, निज संवाददाता, एक संवाददाता। जब मैंने सुदामा से इस बारे में बात की कि तो उन्होने कहा कि थोड़े दिनों में सब ठीक हो जाएगा। ऐसे ही महीनों बीत गए। ख़बरों के लिए भागा-दौड़ी में जो जेब में पैसे थे, सब ख़त्म हो गए। इस बार में फिर सुदामा जी से मिला और ख़स्ताहाली के बारे में बताया। उन्होने कहा- कोई बात नहीं । तुम अपनी ख़बरों के प्रकाशन तिथि को लिखकर दे दो, पेमेंट मिल जाएगा। लेकिन मुझे फिर भी पैसे नहीं मिले। मैं फिर गया सुदामा जी के पास। उन्होने मुझसे कहा - गुप्ता जी से मिल लो। मैं गुप्ता जी से मिलने चला गया। गुप्ता जी की कमरे में दो लोगों की बैठने की व्यवस्था थी। घुसते ही बाईं ओर गुप्ता जी और दाईं ओर कोई सज्जन बैठते थे। गुप्ता जी फोन पर किसी से बतिया रहे थे। प्रणामा पाति के बाद गुप्ता जी से मैंने मिलने की वजह बताईं। उन्हनो ग़ौर से सुना । फिर तपाक से पूछा- आपके काम करने से क्या मेरा अख़बार एक कॉपी भी ज़्यादा बिका है? मैंने कहा-पता नहीं। फिर उन्होने पूछा- आपके आने से क्या मुझे एक सेंटीमीटर भी ज़्यादा का एड मिला है? मैंने कहा- पता नहीं। मुझे नहीं लगता कि शायद इन कामों के लिए मुझे रखा गया था। उन्होने पूछा - आपको रखा कौन? मैंने कहा -सुदामा जी। उन्होने पूछा- पहले से जानते हैं? मैंने कहा- नहीं। मैं नौकरी मांगने आया था। गुप्ता जी ने कहा- फिर आप सुदामा जी से मिल लीजिए। मैंने बेहद विनम्रता से उन्हे नमस्कार किया और चित्तरजंन एवेन्यू के उस दफ्तर से बाहर निकल गया। इसके बाद कोलकाता जाना कई बार हुआ। लेकिन मैं कभी चित्तरंजन एवेन्यू नहीं गया। आज ये मैं लेख इसलिए लिख रहा हूं कि मेरे परम श्रद्धेय वरिष्ठ पत्रकार मित्र और दैनिक राष्ट्रीय महानगर के संपादक श्री प्रकाश चंडालिया जी ने गुप्ती जी की याद में हुई संगोष्टी पर एक लेख लिखा है। उसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि गुप्ता जी के साथ बिताए गए कुछ पलों को एक बार फिर ताज़ा किया जाए। बेशक गुप्ता जी से मुझे पेमेंट न मिला हो लेकिन बेबाकीपन उनसे सीखने को ज़रूर मिला। इसलिए गुप्ताजी मुझे हमेशा याद आते रहेंगे।

Monday, September 15, 2008

और आप देख रहे हैं टोटल टीवी

आतंकवादी घटनाएं कभी शुभ नहीं होती। लेकिन आतंकवादी घटनाओं के बाद कई बातें खुलकर समाने आ जाती हैं। मसलन, दिल्ली में सीरियल बम ब्लास्ट के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुलासा किया कि उनके पास इस तरह की जानकारी पहले से ही थी। उन्होने इस बारे में पहले ही प्रधानमंत्री , गृह मंत्री औऱ रक्षा मंत्री को आगाह कर दिया था। लेकिन गुजरात धमाकों से केंद्र सरकार ने कोई सबक नहीं लिया हैं। नकेंद्र मोदी के ये आरोप सच हैं या नहीं , ये अभी पता पाना बेहद मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि आतंकवादी घटनाओं के बाद ख़ुफिया एजेंसियों के काम काज को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं, जो पहले भी होते रहे हैं। फ़र्क़ इतना है कि पहले विपक्ष आरोप लगाता था कि ख़ुफिया एजेंसी नाकाम रही है। इस बार मनमोहन सरकार के मंत्री लालू प्रसाद ने ही इसे खुफिया एजेंसियों को दो कौड़ी का बता दिया है। खुफिया एजेंसी गृह मंत्रालय के मातहत है। यानी सारी ग़लती गृहमंत्री शिवराज पाटिल के सिर पर। ये वो सच्चाई है, जो बम धमाकों के गुबार से छंटकर दिखने लगी है।
बम धमाकों के बाद ऐसी ही सच्चाई टीवी न्यूज़ चैनलों की निकलकर सामने आई है। करोड़ों –अरबों का सेटअप लगाकर दर्जनों चैनल चल रहे हैं। ख़बरों के दुनिया के महापराक्रमी इन चैनलों को चला रहे हैं। अपने प्रोमो में ये साबित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते कि बाक़ी के सारे चैनल पिद्दी हैं। बस वही महान हैं। वो अपंरपार हैं। उनके पास महाभारतकालीन संजय की आंखें हैं। उनके पास विदपर जैसे नीति निर्धारक हैं। उनके पास दुनिया की सबसे मॉर्डन टेक्नोलॉजी है। दुनिया के सबसे महंगे इक्यिपमेंट हैं। देश –दुनिया के सबसे पराक्रमी, तेजस्वी, ओजस्वी उर्जावान, प्रकांड विद्वान, जोश-होश और अनुभव से लबरेज़ टीम है। वो देश –दुनिया की किसी भी ख़बर को फटाफट, पलक झपकते ही आप तक पहुंचा देंगे। इस दावे के साथ ये तमाम प्राक्रमी योद्धा सड़कों पर होर्डिंग लगाते हैं। बस और मेट्रो स्टेशनों पर विज्ञापन लगवाते हैं। सबके अलग –अलग चमकदार मुआवरे हैं। कोई कहता है कि सब भ्रम है। कोई कहता है – हक़ीक़त जैसी, ख़बर वैसी। कोई कहता है खबर हमारी पैसला आपका। ख़बरों की दुनिया में चमत्कार लानेवाले महान योद्धा ख़बरों को छुरी बनाकर अंधरे को चीरते हैं ताकि दर्शकों को सच्चाई की रौशनी दिखे।
लेकिन जब दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस के बाराखंबा रोड पर आतंकवादियों ने धमाके किए , तब सारे न्यूज़ चैनलों के दावों के चीथड़े उड़ गए। अमेरिका, इंग्लैंड , फ्रांस, इज़राइल और न जाने कैसे देशों से ग्राफिक्स और लुक्स बनवानेवालों के चैनलों पर बस एक ही चैनल दिख रहा था। हर तरफ टोटल ही टोटल था। क्या इंडिया टीवी, क्या स्टार न्यूज़, क्या आईबीएन और क्या न्यूज़ 24। यहां तक का देश का पहला प्राइवेट चैनल ज़ीन ने भी बड़ी उदारता के साथ टोटल टीवी में दिखाई जा रही तस्वीरों को दर्शकों तक दिखाया। सिर्फ यही नहीं, तस्वीरों तक गनीमत थी। भाई लोगों ने टोटल टीवी के न्यूज़ एंकर को भी दिखाया। ग़लती का अहसास होते ही लपभर में उसे सुधारा। हमारे रिपोर्टरों की पलटन की ख़बरों को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझकर ख़ूब दिखाया। मनीष मासूम, अमित शुक्ला, विवेक सिन्हा, मधुरेंद्र कुमार, रोहिल पुरी, रमन ममगई, विवेक वाजपेयी, संदीप मिश्र, लोकेश सिंह, शमां क़ुरैशी और दिल्ली के कोने-कोने में पैले हमारे संवाददाताओं की रिपोर्ट की उदार उद्दत बाव से दिखाया। रिपोर्टरों की पीटीसी को भी दिखाने से गुरेज़ नहीं किया। हमारे रिपोर्टर टोटल टीवी के गन माइक के साथ घायलों की मदद भी करते रहे। साथ ही ये अपने काम के ज़रिए ये जताते भी रहे है कि महंगे इक्विपमेंट्स, टेक्नोलॉजी, ग्राफिक्स, लुक्स, प्रकांडता और अहंकार के बग़ैर भी टीवी पत्रकारिता की जा सकती है। ये ज्ञान इस आदमी के समझ में ज़रूर आ जानी चाहिए जो अपनी टीम से बड़ी शान से कहता है कि अरे, उनकी तरह मत करो यार। बेचारा, अपनी दुकान चलाने के लिए सारे हथियारों का ताक पर रखकर घंटों टोटल टीवी का फुटेज भीख में मांग कर चलाने को मजबूर हुआ।

Thursday, September 11, 2008

मुजरिम को अदालत में इतना सम्मान क्यों?


सुशील और गोपाल अंसल को मैं जान बूझकर मुजरिम कह रहा हूं। ये बात मैं पूरे होशो-हवाश में कह रहा हूं। मुझे क़ानून की इतनी समझ है कि जब तक सबूतों और गवाहों की रौशनी में कोई आरोपी दोषी साबित नहीं हो जाता तब तक उसे मुजरिम नहीं, मुलज़िम ही कहा जाए। लेकिन मुझे सुशील और गोपाल को हत्यारा कहने में कोई गुरेज और हिचक नहीं है। क्योंकि मेरी नज़र में ये दोनों सबसे बड़े गुनाहगार हैं। मैंने पीड़ितों को इकट्ठा कर कोई संस्था नहीं खोली है। लेकिन मैं भी चाहता हूं कि इन हत्यारों को कड़ी से कड़ा सज़ा मिले। हो सके तो इनेहे सरेआम सूली पर लटकाने से पहले चाबुक से पिटाई की जाए। ताकि देश के दूसरे मुनाफाखोरों को सबक मिले। क्योंकि मैं भी उपहार कांड का पीड़ित हूं। इस अग्निकांड में मैंने अपना सबसे क़रीबी खोया है।
शर्म आती है जब 59 लोगों की हत्या के आरोपियों को अदालत में सम्मान मिले। हमारे देश के क़ानून ने हमे ये अधिकार नहीं दिया है कि हम अदालत के बारे में कुछ लिख सकें। कुछ बोल सकें। इससे अदालत की अवमानना होती है। मैं इसका ख़्याल रखते हुए ये बात पूरे दम के साथ कहना चाहता हूं कि इसका भी ख़्याल रखना चाहिए कि दूसरों की भावनाएं आहत न हों।
1997 से क़ानून से आंख मिचौली कर रहे अंसल बंधुओं को देश की सबसे बड़ी अदलात ने कहा कि अब साम चार बजे तक सरेंडर करना ही होगा। असंल बंधुओं के पास कोई चारा भी नहीं बचा था। पैसे और वकीलों के दम पर अब तक क़ानून की आंखों में धूल झोंकनेवाले सुशील और गोपाल को अदालत में सरेंडर करना ही पड़ा। लेकिन अफसोस इन भगोड़े अपराधियों के साथ सम्मानभरा सलूक मैं हज़म नहीं कर सकता। जिनकी वजह से 60 लोग मरे। उनको इतना सम्मान ? 59 नहीं 60 इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इस हादसे की सदमे की वजह से मेरे पिता को ब्रेन हमैरेज हुआ था। इसी घटना ने उनकी जान ले ली थी। हमेशा फौलाद की तरह खड़े रहनेवाले मेरे पिता हादसे के बाद फूट-फूटकर रोए थे। और इसकी ज़िम्मेदारी सुशील और गोपाल अंसल के अलावा उन सरकारी बाबुओं की भी है, जो घूस खाकर इन्हे ग़ैरक़ानूनी काम करने की इजाज़त दी। 1997 में बार्डर देखने गए लोग आग लगने के बाद सिनेमा हाल से बाग नहीं पाए। क्योंकि भागने का रास्ता नहीं मिला। क्योंकि मुनाफाखोर अंसल बंधुओं ने इमरजेंसी रास्ते को बंद कर रखा था। बचने का कोई रास्ता न देख अंसल बंधु अदालत में सरेंडर करने गए। अपराध करने में शर्म न करनेवाले इन भाइयों को मीडिया से नज़र मिलाने में शर्म आने लगी। उन्हे उस रास्ते से अदालत में लाया गया, जिस गेट से परम आदरणीय जज आते हैं। इन अपराधियों के साथ उनके नाते-रिश्तेदार और सत्तर –अस्सी कर्मचारी भी उसी रास्ते अंदर गए। इनके कहने पर सुनवाई के दौरान मीडिया को अदालत से बाहर कर दिया गया । लेकिन इनके नाते-रिश्तेदार और कर्मचारियों को बाहर नहीं किया गया। क्या क़ानून है? अदालत अपराधी की शर्ते मानती है। अपराधियों के साथ आनेवाले लोग अदालत में बैठे होते हैं। अपराधियों को उस रास्ते अंदर आने दिया जाता है, जिस रास्ते से जज साहिबान आते हैं। आख़िकर इन अपराधियों को वीआईपी रास्ते से क्यों अंदर जाने दिया गया ? लेकिन ये सवाल पूछने का हक़ किसी को नहीं है। ये हमारे मौलिक अधिकार में नहीं है। क्योंकि इससे अदालत की अवमानना होगी। भले ही अपराधी को वीआईपी सम्मान देने से पीड़ित परिवार ख़ून के आंसू रोए।

Monday, August 4, 2008

बीजेपी का शुक्रिया अदा करना चाहिए

संगत से गुण होत है, संगत से गुण जात, बांस, फांस और मिशरी - एक ही भाव बिकात। ये दोहा बहुत जल्द ही भारतीय राजनीति के रंगमंच पर दिखाई देनेवाला है। मजबूरी में सदियों के दुश्मन एक हो गए हैं। बिहार नरेश लालू प्रसाद, दलितों के स्वंयभू मसीहा राम बिलास पासवान और यादवों-मुसलमानों के शुभचिंतक मुलायम सिंह यादव ने फिर से दोस्ती कर ली है। इस ख़बर से बेशक़ सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह राहत की सांस ले सकते हैं। लेकिन देश की जनता क्या करे- सांस ले या नहीं ? सांप्रदायिकता ख़त्म करने का नारा देकर तीनों पहले एक हुए थे। फिर सांप्रदायिकता के नाम पर अलग होकर अलग अलग दुकानें खोल लीं।
तीनों जय प्रकाश नारायाण के परम भक्त हैं। तीनों के दिल में जेपी बसते हैं। जेपी के आदर्शों को पूरा करने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर के साथ खड़े हुए। जनमोर्चा के समय तीनों साथ -साथ चले। जनता दल बनने के बाद तीनों ने एक साथ वी.पी.सिंह की अगुवाई में पार्टी का झंडा थामा। केंद्र में वी पी सिंह की सरकार बनीं। तीनों के हिस्से में सत्ता की मलाई आई। वी पी सिंह के न चाहने के बावजूद चंद्रशेखर के अड़ने पर लालू प्रसाद यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया गया। तब वो यादव नाम के साथ लिखते थे। वीपी सिंह किसी ऐसे आदमी को चाहते थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी चमड़े के कारोबार से जुड़ा हुआ था। लेकिन चंद्रशेखर उनके हर फैसले के खिलाफ़ थे। लिहाज़ा बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा और लालू बने गए बिहार नरेश। उसके बाद जो कुछ हुआ पूरा देश जानता है। चारे ने आज भी लालू का पिंड नहीं छोड़ा है। नेहरू-गांधी परिवार के वंशवाद का विरोध करनेवाले लालू ने जेल की हवा खाने से पहले अपनी पत्नी रबड़ी को उत्तराधिकारी बनाया। मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के माई बाप बने औऱ राम बिलास केंद्र में मंत्री। तीनों ने सुख भोगे। पासा पलटा। वीपी गए , चंद्रशेखर आए। तीनों ने फिर सुख साधा। हद तो तब हो गई कि बीजेपी को गरियाकर सत्ता सुख भोगने के आदी रामबिलास पासवान वाजपेयी सरकार में मंत्री हो गए। बिहार में लालू बीजेपी के ख़िलाफ़ गरजते रहे। मुलायम पर बीजेपी से गलबिहयां करने का आरोप कांग्रेस लगाती रही। आज तीनों फिर एक हैं। तीनों कांग्रेस की सरपरस्ती में सत्ता सुख ले रहे हैं। एक बार फिर बीजेपी को कोस रहे हैं। सांप्रदायिक बीजेपी के हाथ में सत्ता न आ जाए, इसलिए तीनों फिर एक हो गए हैं। सवाल देश का है। सवाल देश की संप्रुभता और सांप्रदायिक सौहार्द का है। ऐसे में व्यक्तिगत नफा-नुक़सान नहीं देखा जाता। कम से कम इन तीनों नेताओं से तो कतई नहीं। अच्छा हुआ, जो बीजेपी ने संसद में रिश्वत के पैसे को लहरा दिया। इसी बहाने ही सही, देश ने इन तीनों नेताओं का असली चेहरा एक बार फिर देखा। ये दीगर बात है कि रिश्वत का पैसा बीजेपी का था, कांग्रेस का या समाजवादी पार्टी का। सवाल ये भी नहीं है कि संसद में सरेआम घूस का पैसा लहराकर बीजेपी ने मर्यादा का पालन किया या नहीं। सवाल देश का है।

Tuesday, June 24, 2008

एस पी की याद में


Just about a week ago, an hour-and-a-half of nirgun bhajans at a quiet function in the Capital marked the passage of two year since Surendra Pratap Singh was removed from the midst of his family and friends by a cerebral stroke. At the India International Centre(IIC), people driven by diverse persuasions and with varying backgrounds gathered, drawn by a common chord that SP Singh represented to all of them.
As always, time has flown. The last two years have been consumed in a particularly inordinate, and chaotic, hurry. The media, which SP Singh first as a print journalist and later as the brain behind Aaj Tak, impacted in a decisive fashion, has had its hands full. It has been full time, demanding job to report, comment and analyse events that are even now shaping India of the next millennium.
Pictures and words struggle to capture the defining moments of the nation’s pell mell entry into the 21st Century. The formation of a saffron-led Government at the Centre, the momentous Pokhran-II nuclear tests, the life on the edge experience of the Vajpayee regime, Jayalalitha Jayaram’s tea party, Congress under Sonia and the sight of wagon loads of young troops heading for the icy inclines of Kargil.
Even as the nation awaits the final outcome of the border clash with Pakistan, the media is playing an exceptional role, bringing back pictures from very near the actual front, clips of air operations and of poignant funerals in villages that dot the countryside. Reporters have bunkered at forward base camps, telegraphing details of ongoing operations gleaned from men trickling back after fierce fire fights at 16,000 feet.
SP Singh would have plunged head long into the challenge of reporting events which are certain to have the effect of depth charges on India’s self-image as a nation. He was among the few top notch journalistic brains who had the capacity to quickly grasp the wider implications of an emerging situation while others were still grapping at the peripheries. This is perhaps why he could bring to Aaj Tak a degree of depth in perspective not usually seen on TV newscasts.
One of the reasons that SP Singh could focus his remarkable skills with telling results was because he did not let any form of dogma get in the way of a clear headed understanding of events. He demonstrated that the newsperson’s first credo is to approach information in a neutral, searching manner, rather than to move around news which fits that.
As one ponders the many lessons that SP Singh taught us, it is difficult not to take into account a growing sense of intolerance in our public debates and a parallel polarization within the media- both print and television. The pace of political developments has been frenetic, leaving little scope for considered comment.
Hustled in part by the electronic age, the need of the hour is encapsulated in an instant wisdom. It would seem that the demand for information requires quick gratification.
As the political and social structures are subjected to frequent fractures imposed by coalition governments, and crisis as wide in scope as Kargil implode on the nation’s consciousness, there is an accompanying " compulsion" to adopt "positions". Without a minute to lose, the era of competition dictates that all answers must be served neatly packaged and with a handy guide to boot.
The contentious issues remain the "secular communal" divide, the stability of coalitions, the relevance of caste- based parties, the renewed dynastic leadership of the Congress, even as some old debates have either lost their sting, or have taken a new shape. The growing irrelevance of old-style welfarism as represented in the past by NTR’s "two rupees rice" scheme is an example.
It is in these times that the cool, slightly cynical, partly sardonic journalism that SP Singh excelled in has become rather necessary. Not that his art was detached and bloodless. There was a fierce intensity to his pursuit of news and its inner connotations. There was nothing laidback about that manner in which he sharpened his words- in print or on TV . just a few sentences were enough to sketch a sharply defined canvas.
What was always an extraordinary aspect of SP Singh’s skills as a communicator was his ability to tightly control his reactions to events around him. Often his leashed sentences would have a much more telling effect than any outburst would have. To those who worked with him, learnt the value of honing and chipping a news report into a missile. The professional that he was, SP Singh would stress that what mattered in the end was how you told the story.
Over the past two years, memories of SP Singh have come and gone, often at the most unexpected moments. Sometimes while driving, or when on a touring to an area that he had described, trying to make sense of what the fragmented Mandal family was up to or even remembrance of a tale that he had related triggered by an odd word or gesture.
To many of those who worked with him, SP Singh was a oasis where one could put down for a while professional and personal worries. He keenly understood people, in fact this was his passion, never cloistered, he loved meeting people and talking about a range of subjects. It was always a bit of a surprise to see the erudition that he could drum up.
His knack for dealing with people saw him recognize when a colleague needed a leg up. In his own quiet as SP Singh would help restore confidence in a junior who could be finding the going tough. In a similar fashion, he could turn an inquiring mind onto a profitable path.
Every now and then, he would use humour to gently correct a colleague who could be getting his news copy just a bit wrong.
Efforts of SP Singh’s friends to put together a more concrete manner of commemoration such as an annual lecture or seminars is most welcome. It could be a small way to return the bounty that he gave those who lives he touched.
राजीव देशपाण्डेय ने पायोनियर में ये लेख लिखा था .