Saturday, August 25, 2007

इ है शिव की नगरिया , तू देख बबुआ

एक ब्लॉग पर अपने " परम " राजकमल और अनिल पांडेय का एक लेख पढ़ा। इस लेख पढ़ने के बाद लगा कि बनारस के बदलने की कहानी ने इस क़दर दिल को चोट पहुंचाई है कि रग़ों में बहनेवाला ख़ून अब रास्ता बदलकर बाहर निकल रहा है। बनारस के बदलने पर राजकमल के आंखों में उतर आए ख़ून के भाव पढ़ने के बाद मुझे ये लगा कि आइना दिखाया जाए। राजकमल औऱ पंडित अनिल लिखते हैं कि बनारस पूरा बदल गया। अब पहले जैसी बात नहीं रही। मैं उन्हे ये बताना चाहता हूं कि बनारस नहीं बदला। अगर कुछ बदला है तो उनकी नज़र। और कुछ नहीं।
अभी हाल में बनारस हो कर लौटा हूं। जिस बात के लिए बनारस मशहूर और बदनाम दोनों हैं, वो सारे गुण - अवगुण मुझे बनारस मिले। बनारस के घाटों के किनारे पंडितों के बने गेस्ट हाउस और लॉज उसी ठसक के साथ चल रहे हैं। गोरी चमड़ी के सामने रिरयाते लोग अब भी दिखते हैं। शुरूआत करता हूं बनारस के उस क़स्बे से, जो कालीन बनाने के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है।
उस क़स्बे में समसू चच्चा अब भी रहते हैं। हां, अब काफ़ी बूढे हो गए हैं। चश्मे का शीशा औऱ मोटा हो गया है। बाल तो पहले से सफ़ेद थे ही, अब झुर्रियां भी लटकने लगी हैं।बचपन में उन्हे एक झोपड़ी में पूरे परिवार के साथ रहते देखा था। ये क़रीब उनतालीस साल पहले की बात है। झोपड़ी अब भी है। हां, थोड़ी बहुत उसकी शक़्ल बदल गई है। झोपड़ी के सामने प्लास्टिक की चादर तानकर एक और कमरा बना दिया गया है। इसे बनाने में बहुत ज़्यादा ख़र्च नहीं आया होगा। ख़ैर , ये ख़र्च उठाने की ताक़त समसू चच्चा में अब नहीं है। वो तो भला हो समाज सुधारकों का , जिनकी नज़र चुनाव के समय समसू चच्चा पर पड़ी। ग़रीबी पर तरस आया। आख़िर ग़रीबी मिटाने का नारा लेकर ही वो सड़क पर उतरे हैं। इसलिए समसू चच्चा की क़िस्मत बदल गई है। घर के बाहर ही चांपाकल (हैंडपंप) लग गया है। अब चच्ची को पानी भरने पांडे चाचा के दुआरे नहीं जाना पड़ता और न ही लाइन में लगकर किसी की बक बक झक झक सुननी पड़ती है। इसलिए चच्ची भी बहुत ख़ुश है। चच्ची खुश है तो चच्चा भी ख़ुश है और उन साइकिल वालों को ख़ूब दुआएं देते हैं, जो बुढ़ापे में सही- झोपड़ी का विस्तार , चांपाकल का मज़ा और नगरपालिका की हुड़की से दूर रख गए।
साइकिलवालों की नज़र चच्चा पर तब पड़ी, जब उन्हे ख़बर लगी कि चच्चा जुलाहे हैं और उनके ख़ानदान में ही कम से कम डेढ़-दो सौ वोट है। लेकिन साइकिल वाले भी आख़िर कितना करें। चच्चा की ग़रीबी तो पूरी तरह से नहीं मिटा सकते। ताउम्र कालीन बुन कर चच्चा ने चार बेटियों की शादी कर दी। पांच बेटे को पढ़ाने की बहुत कोशिश की। लेकिन वो बचपन से ही इस ज़िद पर अड़े थे कि हाथ में कुछ भी थामकर ज़िंदगी काट लेंगे लेकिन कलम नहीं थामेंगे। पांच बेटों में से एक बटय्या पर खेती करता है। चौथा वाला बेटा कमरू अब्बा के साथ काम करता है। बाक़ी तीन बेटे कलकत्ता जाकर किसी जूट मिल में नौकरी करते हैं। साल में जब दो तीन बार कोलकाता में मज़दूरों के लिए क्रांति लाई जाती है, तो उन दिनों वो बेरोज़गार हो जाते हैं। फिर उन्हे याद आती है अब्बू की और वो उनसे मिलने बनारस चले आते हैं।
आजकल चच्चा फिर परेशान हैं। निज़ाम की बड़ी बेटी शहीदा बड़ी हो गई है। कई जगहों पर शादी की बात चलाई। लेकिन कमबख़्त लड़केवाले अब दहेज में पल्सर मोटरसाइकिल मांग रहे हैं। दहेज में अपनी बेटियों को हरकूलियस साइकिल देकर थक चुके हरचच्चा अब बुढ़ापे में पल्सर लाएं तो कहां से ? बेटों से मदद मांगने जाते हैं तो मायूसी ही हाथ लगती है। जूट मिलवाले बेटे ये कहते हैं कि अब्बू अब तुम ही कुछ करो। शहर में कमाई कम है और ख़र्चा ज़्यादा। अब आप ही हो आसरा। गांव वाला बेटा कहता है कि इस बार मौसम ने दग़ा दे दिया। अब क्या करें। चच्चा मन ही मन गाली बकते रहते हैं- जिसे मैंने पैदा किया, उसे तो पार लगा दिया। लेकिन अब बेटों के भी औलादों को भुगतो।
कुलमिलाकर समसू चच्चा की ज़िंदगी औऱ घर परिवार वैसे ही चल रहा है, जैसे कि बरसों पहले
चच्चा क्या - दियरा में रहनेवाले रामसरेखन की हालत कहां बदली है। हां पहले उसकी ज़िंदगी रामनगीना सिंह के ओसारे में बीती है। अब ज़िंदगी थोड़ी सी बदली है। जब से हाथी की सवारी की है तब से थोड़ी ज़िंदगी बदली है। पहले लोग उसे रामसरेखना कहकर बुलाते थे। अब लोग थोड़ी इज्ज़त से बुलाते हैं। उसे रामसरेखन मूसहर कहते हैं। रामसरेखन पहले भी मूस यानी चूहा पकड़कर खाता था। अब भी खाता है। लेकिन चुनाव - उनाव को जब मौसम आता है, तब उसकी चांदी हो जाती है। कई बार महुआ के अलावा अंग्रेज़ी शराब भी हाथ लग जाती है। हाथीवाले बड़े शान से इलाक़े में बताते हैं कि देखिए रामसरेखन को - पहले की ज़िंदगी और अब की ज़िंदगी में कितना बदलाव आया है। रामसरेखन खुश है, बिरादरी भी और घर के लोग भी। डीआईजी कॉलोनी में रहनेवाले प्रोफेसर गिरीश कुमार सिंह की भी ज़िंदगी नहीं बदली है। वो आज भी पुरानी स्कूटर पर नाती पोतों के साथ कचहरी जाते हैं। झुल्लन की दुकान से लाल पेड़ा ख़रीदते हैं। पहले वो अपनी बेटियों और दामादों के लिए लाल पेड़ा लाते थे। अब लाल पेड़े पर हक़, गुट्टू,चिंकी और अंश का होता है। आज बी वो बस उतने ही बजे आती है, जैसे पहले । अब भी वो बस में सवार होकर सुबह सुबह ग़ाज़ीपुर पढ़ाने जाते हैं। सफ़र में अब भी वैसे ही लोग दिखते हैं, जिन्हे वो बरसों से देखते आ रहे हैं। आज भी मिट्ठू मियां अपने दोस्तों के साथ हवाखोरी करने निकलते हैं।
अगर बनारस में कुछ बदला है तो मुहब्बत करने का अंदाज़। पहले लोग साम झलते ही घाट किनारे जाते हैं। जोड़ों को देखने के लिए लहेड़ों की झुंड उमड़ती थी। अब शहर में एक नया मॉल खुला है। अब इस मॉल में जोड़ों की भीड़ जुटती है। मॉल वालों की भी चांदी हो गई है। वो मॉल में घुसने के बदले में पैसे लेते हैं और वो भी टिकिट देकर। चौका घाट पर अब भी भांग छनती है। आज भी बनारस के उन घरों से घुंघरू की आवाज़ आती है। लेकिन इन जगहों पर अगर नहीं दिखता तो वो चेहरे, जो बरसों तक इन इलाक़ों के लिए बहुत जाने पहचाने थे। लोग बताते हैं कि ये चेहरे अब छोटे शहरों में नहीं दिखते। उन्हे अगर देखना हो तो दिल्ली- मुंबई का रूख़ कीजिए। बनारस के घाट घाट का पानी पी चुके इन इलाक़ों में दिखनेवाले नए चेहरे भी देर सबेर बड़े शहरों में दिखेंगे। आहें भरेंगे । कहेंगे कि बनारस में पहले जैसी बात नहीं रही। लेकिन उन्हे कौन समझाए- रांड, सांढ़, सीढ़ी, सन्यासी और इससे बचे तो सेवे काशी।