Friday, November 13, 2020

क्यों हो जाते हैं एक्जिट पोल फेल?

बिहार के चुनाव ने एक बार फिर साबित कर दिया कि सबसे तेज चैनल हो या सबसे पहले वाला चैनल। सबके इलेक्शन प्रीडिक्शन यानी एक्जिट पोल ताश के पत्तों की तरह भरभरा गए। एक बार फिर हर तरह की मीडिया बड़ी बेशर्मी के साथ अपनी गलती पर परदा डालकर बनने वाली अगली सरकार के बहस मुबाहिस में लग गई। लेकिन वो ये भूल गई कि उनके इस धतकरमों से आम जनमानस में मीडिया की साख आज की तारीख़ में कहां पहुंच गई है। एक्ज़िट पोल की रायशुमारी में अपनी राय छिपानेवाला छुप्पा वोटर ये खुलकर कहने में तनिक भी नहीं डरता कि मीडिया तो बिकी हुई है। जो छुप्पा वोटर डर के मारे अगर वो ये नहीं कह पाता कि उसने किसको वोट दिया है या किसको और क्यों देगा। लेकिन मीडिया को खुलेआम दलाल कह पाने की साहस कर पा रहा है। तो यकीनन इसके लिए मीडिया का वो तबका अपराधी है, जो किसी कारणवश चाटुकारिता या भांट चारण की पत्रकारिता करता है। वो जनता को सच नहीं दिखाना चाहता। वो उसे छिपाता है। वो सरकारों और पार्टियों के लिए भोंपू का काम करते हैं। लाइव दिखाते हैं कि फलां साहेब ने पुल का उद्घाटन कर दिया। इस इलाकें में 70 सालों से पुल नहीं था। साहेब ने आज मोर का दाना चुगने को दिया। 70 सालों में आज तक ऐसा किसी ने नहीं किया था। मीडिया अपना राजधर्म भूल जाता है। जबकि होना तो ये चाहिए कि वो सरकारों को बार बार याद दिलाए कि उसने कौन कौन से ऐसे काम हैं, जो नहीं किए। उन बातों को ज़ोर शोर से उठाते रहना चाहिए, जो चुनाव में वादे करके सत्ता में आते हैं। इस नैतिक पतन और एक्जिट पोल के नेपथ्य की कुछ और बातें जल्द ही।