Tuesday, August 6, 2019

खल गया एक सच्चे समाजवादी का जाना

सुषमा स्वराज नहीं रहीं। ये ख़बर सुनते ही सदमा सा लगा। सैद्धांतिक तौर पर उनकी पार्टी को नापसंद करने के बावजूद मैं उनको पसंद करता था। वजह बहुत साफ थी और वो ये कि वो बेहद व्यावहारिक और सादगीपसंद महिला थीं। आडंबरों से दूर। उनसे मेरी पहली मुलाकात नब्बे के दशक में दिल्ली के लोधी रोड वाले बंगले पर हुई। मुलाकात की वजह बने थे स्वर्गीय पत्रकार आलोक तोमर। आलोक जी के साथ उनके बेहद मधुर संबंध थे। पहली ही मुलाकात में ऐसा लगा ही नहीं कि हम पहली बार मिले हैं। उस मुलाकात में हमारे साथ अब इंडियन एक्सप्रेस के सीनियर फोटोग्राफर अनिल शर्मा भी थे। उस मुलाकात की तस्वीर संभव है कि अनिल ने संभालकर रखी हो। उसके बाद तो न जाने कितनी बार उनसे मुलाकात हुई। कई बार मैं फोनकर मिलने जाता था। कई दिनों तक मुलाकात नहीं हो पाती थी तो खुद फोनकर संसद भवन बुलाती थीं। उस समय मेरे पास पीआईबी कार्ड नहीं होता था। सो मिलने के लिअ अपनी सेकेट्री से गेट पास पहले से ही बनवा कर रखती थीं।

67 साल की उम्र में सुषमा जी कई ऐसे काम कर गईं, जिसके लिए वो हमेशा-हमेशा के लिए याद किया जाएगा। 25 साल की उम्र में कैबिनेट मंत्री बन जाना। फिल्म इंडस्ट्री को उद्योग का दर्जा दिलाना। दिल्ली की मुख्यमंत्री बनने के बाद क्राइम को कंट्रोल करने के लिए की गई उनकी पहल-मैं रात भर जागूंगी ताकि दिल्ली वाले चैन की नींद सो सके। इस ऐलान के साथ रात को अचानक दिल्ली में गश्त लगाना। बैल्लारी के चुनाव में हार जाने के बाद सिर मुंडाने का ऐलान और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की उनसे ऐसा ना करने की अपील- एक बेहतर सियासी रिश्ते की मिसाल छोड़ देना। गीता को वापस भारत लाना। मुझे याद है कि टीवी पर चलनेवाले एक विज्ञापन को लेकर सुषमा जी बहुत व्यथित थीं। लेकिन वो उसे रोक नहीं पा रही थीं। निजी बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा-चंदन टीवी पर......विज्ञापन को देखे हो। बांसुरी (उनकी बिटिया) ग्यारह साल की हो चुकी है। बताओ वो विज्ञापन देखकर क्या सोचेगी। क्या ये विज्ञापन बच्चों के साथ बैठकर देखा जा सकता है। बाद मे मंत्री बनने के बाद उन्होंने उस विज्ञापन को बैन किया।
सुषमा जी ना केवल लाल कृष्ण आडवाणी और दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी की प्रिय थी। बल्कि समाजवादी विचारधारा वाले नेताओं दिवंगत चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडीस, दिवंगत चौधरी देवीलाल की भी दुलारी थीं। वो दिल्ली मे डी 4 की सदस्य रहीं। डी 4 यानी अटल-आडवाणी के युग में संसद में कांग्रेस और यूनाइटेड फ्रंट सरकारों को घेरने के लिए धारदार भाषण देनेवालों का एक समूह, जिनमें दिवंगत प्रमोद महाजन, अरुण जेटली, वेकैंय्या नायडू और सुषमा स्वराज। उनका मीडिया से भी बहुत शानदार नाता रहा। वो मीडिया वालों से जब मिलती थीं-बतियाती थीं तो लगता ही नहीं था कि वो बहुत बड़े कद की नेता हैं। उनसे जब फोन पर बात नहीं हो पाती थी तो वो कॉलबैक करती थीं। ऐसी थी समाजवाद प्रकृति-प्रवृति की सुषमा स्वराज। उनका जाना सही मायनों सबको खल गया। सुषमा जी को भावभीनी श्रद्धांजलि। 


Tuesday, April 30, 2019

मोनू आलम की पेंटिंग्स

लखनऊ में मेरे एक मित्र हैं। मोनू आलम। अगर कोई इन्हे पहली बार मिले तो ये विशुद्ध तौर पर एक खालिस बिजनेसमैन ही लगते हैं। उस रेस्टोरेंट से ज्यादा मुनाफा नहीं हो रहा है। धंधा ठीक-ठाक ही है। प्लाजा वाली दुकान घाटे में जा रही है। अब हाई कोर्ट के पास रेस्टोरेंट खोलेन जा रहा हूं। अमां मिया, रेस्टोरेंट-रेस्टोरेंट बहुत हो गया। अब गोमतीनगर में फ्लैक्स छापने की मसीन लेकर डाल दी है। वगैरह-वगैरह। ये रही मोनू की बाहरी छवि। लेकिन जब इनके किसी रेस्टोरेंट में घूमते हुए इनके केबिन में जाएंगे तो धूल फांकती लेकिन कपड़ों से ढंकी तस्वीरें बेतरतीब से पड़ी हुई मिलेंगी। तस्वीरें आपको ललचाएंगी। अच्छी लगेगी। पूछने पर मोनू आलम का जवाब होता था- यार, रात को खाली था। वक़्त नहीं कट रहा था तो बना डाली।

आप भी देखिए इनकी पेंटिंग्स को और पसंद आए तो दीजिए दाद।


Monday, February 11, 2019

अमित शाह अगर राजनीति के चाणक्य तो प्रियंका भी चाचा चौधरी

कांग्रेस की नई राष्ट्रीय महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी ने जिस तरह से उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में रोड शो कर वाहवाही लूटी, उससे साफ हो गया है कि यूपी की राजनीति में तेजपत्ते की तरह निकालकर फेंक दी गई कांग्रेस को नई जिंदगी मिलनेवाली है। लखनऊ की गली-गली से राहुल गांधी के साथ प्रियंका गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया का काफिला निकला तो लोगों ने फूल बरसा कर करवट लेती राजनीति के गवाह बनने का संकेत दे दिया। इतिहास गवाह है कि नवाबों की नगरी लखनऊ में अर्से से बीजेपी ना केवल कांग्रेस बल्कि सपा और बसपा पर भी भारी पड़ती रही है। लेकिन भीड़ ने प्रियंका-राहुल को देखकर जिस तरह से जोश दिखाया और सिर्फ एक लफ्ज़ राहुल की जुबान से निकलने पर नारे लगाने लगी कि चौकीदार चोर है। उससे साफ हो गया है कि प्रदेश में कांग्रेस अब घुटने के बल नहीं रेंगनेवाली। 
दरअसल यूपी की सियासत में मरणासन्न हो चुकी कांग्रेस को जिंदा करने की गरज से राहुल गांधी कभी अकेले लड़े। कभी सपाइयों का साथ मिला। लेकिन मरी हुई लाश की तरह पड़ी कांग्रेस किसी भी तरह घी पी नहीं पा रही था। सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर चले शिवभक्त राहुल का अचानक शायद रामायण को वो किस्सा याद आ गया होगा जब मूर्छित लक्ष्मण को होश में लाने के लिए राम ने हनुमान से संजीवनी बूटी मंगाई थी। चुनाव में राम मंदिर बनाने के शोर और होड़ के बीच राहुल चुपके से प्रियंका को लाए। प्रियंका का राजनीति में आना ही गजब हो गया। टीवी डिबेट का हिस्सा हो गईं। बीजेपी वाले सीधे प्रियंका की खूबसरती पर हमला बोलने लगे। कोई कहने लगा कि अब उम्र ढल गई है। क्रेज ही ना बचा। कोई चॉकलेटी कहने लगा। राहुल अपनी रणनीति में सफल रहे।
प्रियंका को जाननेवाले जानते हैं कि उनका चुनाव मैनजमैंट बेहद शानदार रहा है। नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के कब्जे से सोनिया गांधी ने बड़ी मुश्किल से कांग्रेस को छीना और परिवार के वफादार सतीश शर्मा को रायबरेली से उम्मीदवार बनाया तब बीजेपी ने तब के राजनीति के चाणक्य कहेजाने वाले राजीव गांधी के कजिन अरुण नेहरू को मैदान में उतारा। सोनिया ने नौसिखिया प्रियंका को जिम्मेदारी दी। चुनाव में सतीश शर्मा पर नेहरू बहुत भारी पड़ रहे थे। लेकिन प्रियंका ने आखिरी दांव चला और वो था इमोशनल डॉयलाग। प्रियंका ने लोगों से भावुक सवाल किया कि क्या वे लोग उस आदमी को संसद भेजना पसंद करेंगे, जिस पर मेरे पापा ने आंख मूदकर भरोसा किया। लेकिन उसी आदमी ने सत्ता के लिए पापा की पीठ में छूरा घोंपा। पापा अब इस दुनिया में नहीं है। नतीजा आया तो सतीश शर्मा भारी बहुमत से जीते और अरुण नेहरू चौथे नंबर पर।
इसी तरह से जब सोनिया गांधी ने कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ा तो बीजेपी ने सुषमा स्वराज को उतारा। बीजेपी के लिए खनन माफिया के नाम से बदनाम रेड्डी बंधु खुलेआम मैदान में आ गए। सोनिया की हार तय हो चुकी थी। सुषमा ने भी ऐलान कर दिया कि अगर वो चुनाव हार गईं तो विधवा की तरह सिर मुंडा लेंगी। जिस दिन नतीजे आ रहे थे, उसमें कई दौर में सोनिया काफी पीछे चल रही थीं। लेकिन ऐन वक्त पर बाजी पलट गई और सोनिया जीत गईं। इस जीत की स्क्रिप्ट प्रियंका ने ही लिखी थी। प्रियंका ने बेल्लारी में भी भावुक बातें कही थीं। प्रियंका ने कहा था कि जिसने उसके पापा की हत्या की, उसको भी हमारे परिवार ने माफ कर दिया। सुषमा जी आप सुहागिन हो। मांग में सिंदूर आपकी दमकती है। हिंदू रिवाज में सिर सिर्फ वहीं मुंडवाती हैं, जिनका सुहाग उजड़ जाता हो। मैं आपसे अपील करती हूं कि आप ये कसम तोड़ दीजिए। बिना बाल के सिंदूर में आप अच्छा नहीं लगेंगी। आप सदा सुहागिन रहो यही भगवान से प्रार्थना है। इमोशनल अपील और चुनाव प्रबंधन में माहिर अगर प्रियंका राजनीति में आई हैं तो सत्ता पक्ष में घबराहट होना जायज है।     

Tuesday, February 5, 2019

पुलिस कमिश्नर तो बहाना है बंगाल में बीजेपी को मटुआ वोट पाना है

सीबीआई बनाम कोलकाता पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के मसले पर सुप्रीम फैसले को बीजेपी और टीएमसी अपने अपने हिसाब से भुना रही है। दोनो ही पार्टियां अदालत के इस फैसले को अपनी नैतिक जीत से जोड़ रही हैं। लेकिन असली लड़ाई तो कुछ और ही है। दरअसल हाल के कुछ उपचुनावों, विधानसभाओं के नतीजों ने बीजेपी को आईना दिखा दिया है। बीजेपी को समझ में आ गया है कि साल 2019 में फिर से सत्ता पाना है तो हिंदी पट्टी प्रदेशों में साल 2014 की तरह पूरा जोर लगाने का कोई तुक नहीं है। इसलिए बेहतर हो गैरहिंदी प्रदेशों पर फोकस किया जाए। बंगाल में बीजेपी को मुकाबला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से करना है जो रणकौशल में चतुर और जुझारु तेवर की राजनेता हैं।
देश के पूर्वी सिरे के इस राज्य में लोकसभा की 42 सीटें हैं। बीजेपी ने 23 सीटें जीतने का टारगेट तय कर रखा है। वो चाहती है कि कम से कम 50 फीसदी सीटें उसकी झोली में आ जाएं। बीजेपी ने एक खास सोच के तहत अपना ध्यान पश्चिम बंगाल की तरफ लगाया है। विपक्षी पार्टियों की एकजुटता, किसानों के संकट के कारण सुस्त पड़ती ग्रामीण अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी और भारतीय राजनीति की पहचान रही सत्ताविरोधी लहर सरीखे कई कारण हैं जो बीजेपी हिंदी पट्टी राज्यों में 2014 सरीखा अपना प्रदर्शन नहीं दोहरा सकती। लिहाजा  बीजेपी के लिए भारत के पूर्वी तट के राज्यों पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी हो गया है। इस पट्टी में आंध्र प्रदेश, ओड़िशा, तमिलनाडु, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 144 सीटें हैं। इस पट्टी में बीजेपी का प्रदर्शन 2014 में खास अच्छा नहीं रहा था जबकि उस वक्त लहर बीजेपी की थी।
आबादी की बुनावट और सियासी माहौल की खासियत के कारण पश्चिम बंगाल बीजेपी के लिए चुनाव में पांसा पलट देने वाला राज्य साबित हो सकता। बीजेपी पश्चिम बंगाल में दशकों तक कुछ खास असर न जमा पाई। लेकिन हाल के दिनों में बीजेपी अब मुख्य विपक्षी के रूप में उभरी है। बंगाल में बिहार-यूपी से आकर बसे लोगो का पूरा समर्थन मिल रहा है।  बीजेपी के हिमायती ब्राह्मणों-ठाकुरों और कायस्थ वोटरों की तादाद बढ़ी है। 
बीजेपी को पता है कि ममता बनर्जी एक कद्दावर नेता हैं और राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में सिरमौर की भूमिका निभाने का सपना उनके दिल में भी है। बीजेपी बड़े नपे-तुले अंदाज और अपने को काबू में रखते हुए हमले कर रही हैं। जोर लोगों से संपर्क साधने, मुख्यमंत्री पर निशाना साधने और राज्य की आबादी की खास बुनावट को अपने हक में भुनाने पर है। 
बीजेपी ने पूरबियों के अलावा मटुआ जाति के लोगों को टारगेट किया है। नरेंद्र मोदी और मटुआ धर्म की नेता बीनापानी देवी की मुलाकात और मोदी के मटुवा सम्मेलन में भागीदारी बेहद अहम है। धर्म की बुनियाद पर प्रताड़ना के शिकार हुए लोगों को मटुआ कहते हैं, जो  अविभाजित भारत के बंगाल में रहते थे। बंगाल का यही इलाका पूर्वी पाकिस्तान कहलाया और आखिर में बांग्लादेश बना। मटुआ लोगों को बांग्लादेश से भगा दिया, जिसे कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में बसा दिया। देश के बंटवारे के वक्त इस समुदाय के लोगों की संख्या ज्यादा बढ़ी और ये लोग हावड़ा, दोनो चौबीस-परगना, नदिया, माल्दा, कूचबिहार और उत्तरी और दक्षिणी दिनाजपुर मे बस गए। संख्या के एतबार से पश्चिम बंगाल की अनुसूचित जातियों में मटुआ लोग दूसरे नंबर पर हैं। मटुआ समुदाय के लोगों की तादाद 3 करोड़ है। जो लोग 1971 के बाद भारत पहुंचे उन्हें संदिग्ध मतदाता की श्रेणी में रखा गया है। मटुआ लोगों की पूर्ण नागरिकता की मांग बीजेपी के नागरिकता संशोधन विधेयक में है। इसमें बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए लोग हैं। 
सो, ये समझना मुश्किल नहीं कि मोदी ने पैंतरे से काम ना लेते हुए आक्रामक रुख अपनाया। उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भ्रष्टाचार का प्रतीक बता रहे है। इसलिए सारदा घोटाला रोज वैली स्कैम की आड़ में सीबीआई के जरिए सीएम के करीबी पुलिस कमिश्नर पर शिकंजा कसकर ममता को बदनाम करने की रणनीति है। साफ है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी का सारा दारोमदार मोदी पर है और मोदी ने भी साबित किया है कि धोनी की तरह वो भी बेस्ट फिनिशनर हैं। 

Monday, February 4, 2019

मोदी जी, याद रखें इस ममता में दया नहीं है

आ.सू.संवाददाता- पश्चिम बंगाल के पुलिस कमीश्नर राजीव कुमार से सीबीआई की पूछताछ की कोशिश के विरोध में देश ने शायद पहली बार तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का बेहद तीखा और हमलावर अंदाज देखा हो। लेकिन पश्चिम बंगाल की जनता के लिए ये तेवर नया नहीं है। राजनीति में विरोध के कारण ही ममता की पैदाइश हुई और इसी विद्रोही तेवरों की वजह से वो मां-माटी-मानुष का नारा लगाते हुए जनता के बीच गईं। इसी आक्रामक राजनीति चरित्र के चलते ही जनता ने ममता का राजतिलक किया।
दरअसल, ममता अस्सी के दशक में तब के दिग्गज नेता रहे सुब्रतो रॉय और अभी के राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री सौगत रॉय की देन है। दरअसल हुआ यूं ममता युवा कांग्रेस की राजनीति कर रही थीं। तब उन्हे उनके मुहल्ले कालीघाट के लोग भी बहुत कम पहचानते थे। उस समय देश में सीपीएम नेता और सीएम रहे ज्योति बसु का जलवा-जलाव जलाल हुआ करता था। अचनाक एक दिन लोगों ने अखबार में तस्वीर देखी। तस्वीर में ममता अपने साथियों के साथ सीएम का काफिला रोककर कार की बोनट पर मां चंडी की तरह डांस कर करते दिख रही थीं। ये विद्रोही तेवर लोगों के दिलों में उतर गया। खबर राजीव गांधी तक पहुची और वो बंगाल महिला कांग्रेस की मुखिया बन गईं। लेकिन पद ने तल्ख तेवरों को कम नहीं होने दिया। सूती साड़ी और हवाई चप्पल में वामपंथी सरकार के नाक मे दम करती रहीं। सांसद चुनी गईं और राजीव गांधी की सरकार में राज्य मंत्री भी बनीं।
एक मूक वधिर लड़की से सीपीएम नेता के बलात्कार की घटना को लेकर बतौर मंत्री वो मुख्यमंत्री से मिलने ईँ तो उन्हें रोका गया। वो धरने पर बैंठी तो केंद्रीय मंत्री को पुलिस ने पीट दिया। फिर क्या था देखते ही देखते उनका कद राज्यमंत्री से भी ज्यादा बड़ा हो गया। जब कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी के पास तब भी ममता ने अपना जिद्दीपन और अड़ियाल रवैया नहीं छोड़ा। सत्ता से उनका टकराव बढता गया और एक दिन वो पार्टी से रुखसत हो गईं। अलग पार्टी बनाई। जनता के बीच गईं। टाटा नैनो कार मुद्दे पर मजदूरों और किसानों की राजनीति करनेवालों को घुटने के बल ला दिया। जनता ने ममता को दिल से इंकलाबी मानकर तैंतीस साल से सत्ता पर काबिज वामपंथियों को सरकार से हटाकर ममता को बिठा दिया।
टकराना ममता की फितरत है। चाहें वो पार्टी हाईकमान हो, राज्य की सरकार हो या फिर सत्तानशीं सरकार। ममता खपैरल वाली घऱ में रहती हैं। शादी ब्याह और बाल-बच्चों के चक्करों से मुक्त हैं। खाली हाथ की राजनीति करनेवाली ममता कभी भयभीत नहीं होतीं। दूसरी अहम बात ये किइस महिला नेता का नाम बेशक ममता है लेकिन राजनीति में उन्होंने कभी दया नहीं दिखाई। विरोधियों को मात देने में जनता ने हर बार ममता का कठोर कलेजा ही देखा है। इसलिए कहा जा सकता है कि ईडी और सीबीआई करे जरिए बेशक अखिलेश यादव, मायावती, राबड़ी देवी, मीसा भारती, चंद्रबाबू नायडू एक बार कांप जाएं। लेकिन ममता अपने कठोर सियासी इरादों के साथ सत्ता से टकराने का माद्दा दिखाकर बंगाल में बीजेपी की इंट्री की राह इतनी आसान होने देनेवाली नहीं।   

Monday, January 21, 2019

इसलिए साथी दलों के नखरे सह रही है बीजेपी

परदेसी परदेसी जाना नहीं... शायद बीजेपी के इन दो बड़े नेताओं का दिल आजकल यही गाना गुनगुना रहा है क्योंकि लोकसभा चुनाव आते ही पुराने साथी दोस्ती तोड़ने की खुलेआम धमकी दे रही है। बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए में हर राज्यों की पार्टियां बीजेपी को आंखें दिखा रही हैं। सीधे-सीधे पॉलिटिकल बार्गेनिंग कर रही हैं। नरेंद्र मोदी- अमित शाह को खुलएमा कह रही हैं कि या तो मेरी शर्त मानों या फिर भांड़ में जाओ। धमकी देनेवाली बड़ी पार्टियों में महाराष्ट्र की शिवसेना, बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी, आरएलएसपी, यूपी में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल सोनेलाल गुट और असम की असम गण परिषद जैसी पार्टियां हैं। सबके पास अपने अपने बहाने हैं। लेकिन सबकी निगाहें ज्यादा हिस्सेदारी पर है। सब ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़कर अपनी ताकत बढ़ाना चाहती हैं।
बात अगर महाराष्ट्र की करें तो शिवसेना कोई छोटी मोटी पार्टी नहीं है। ये बात मोदी और शाह अच्छी तरह से जानते हैं। वो ये भी जानते हैं कि अगर शिवसेना ने बहिया झटक दी तो सीट जीतने में लाले पड़ जाएंगे। शिवसेना अपनी ताकत को जानती है इसलिए कभी मंदिर तो कभी किसी और बहाने से मोदी और शाह पर हंटर चलाती रहती है और ये दोनों जुबानी कोड़े सहने को मजबूर होते हैं। बिहार में बड़े भैय्या बने जेडीयू के नीतीश कुमार बड़े ही तेज निकले। दो सीटें जीतनेवाली जेडीयू 40 सीटों में से अकेले 17 सीटों पर लड़ने का ऐलान कर चुकी है। बाकी की सीटों पर बीजेपी रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को क्या दे और कितने पर वो लड़े उसे समझ में नहीं आ रहा।
यूपी में भी ओमप्रकाश राजभर और अनुप्रिया पटेल नाम में दम दम किए हुए हैं। दोनों ही मंत्री हैं एक मोदी की तो दूसरे योगी। एक खुलेआम योगी-मोदी को निंदा करता है तो मैडम योगी के किसी प्रोग्राम में जाती ही नहीं। एक के पास कुर्मियों को ठेका तो दूसरे के पास राजभर वोटों का। अब बीजेपी करे भी तो क्या करे। असम में असम गणपरिषद अलग ताव दिखा रही है। दक्षिण में बीजेपी के पुराने साथी अभी शांत हैं लेकिन तेलंगाना में पुराने साथ टीआरएस के कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव ने बहाना खोजकर साथ छोड़ दिया। अब अगर बीजेपी को वहां कमल खिलाना है तो केसीआर के आगे हाथ जोड़ना पड़ेगा। ओड़ीशा में बीजेपी के नवीन पटनायक कभी एनडीए में थे। आज नहीं है। ऐसे ही पश्चिम बंगाल में टीएमसी की ममता बैनर्जी भी एनडीए में थी। वो आज बीजेपी को पानी पिला रही हैं। साउथ के सुपर स्टार रजनीकांत और कमल हासन अलग पार्टी बनाकर ताल ठोक रहे हैं। बीजेपी केवल हिंदी पट्टी के मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली और हरियाणा में राहत की सांस ले रही है, जहां कोई धौंस दिखाने वाला नहीं है। लोकसभा चुनाव से पहले साथियों के इन तेवरों को देखते हुए मोदी और शाह के दिल से यही तराना निकल रहा होगा- ना जाओ सैय्या छुड़ा के बहियां कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूंगी...

Saturday, January 12, 2019

इस गठबंधन के पीछे छिपी हैं कई गहरी राजनीति


आखिरकार लखनऊ में आज वहीं स्क्रिप्ट पढ़ी गई, जिसे मैंने विधानसभा चुनावों के दौरान और नतीजों के बाद पढ़कर अपने दर्शकों और पाठकों को वाकिफ करा दिया गया। पुरानी अदावत को भुलाकर आज समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी नरेंद्र मोदी को रोकने के लिेए एक हो गई। अखिलेश यादव कम सीटों पर भी लड़ने को तैयार थे। लेकिन मायावती ने दरियादिली दिखाते हुए गेस्ट कांड को भुलाकर अपने भतीजे को बराबर का हक दिया। इस गठबंधन में कांग्रेस सतही पर दिखाई नहीं देती। सरसरी नज़र में यही दिखाई पड़ता है कि बुआ और बबुआ ने बाबा राहुल गांधी और आंटी सोनिया गांधी के लिए रायबरेली और अमेठी की सीट छोड़ दी है।
लेकिन इस गठबंधन ने बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए है। पहला सवाल तो यही कि क्या बुआ-बबुआ ने बाबा को ये बताने की कोशिश की है कि यूपी में उनकी हैसियत केवल दो सीटों भर की है। या फिर इसके पीछे कोई चाल है। पर्दे के पीछे एक गणित तो ये समझ में आ रहा कि राहुल गांधी ने इन दिनों सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पकड़ ली है। अगर ये दोनों कांग्रेस को साथ लेते मुस्लिमों को वोट बिखर जाता, जो बीजेपी विरोधी गठबंधन को नुक़सान पहुंचाता। हो सकता है कि सोची समझी रणनीति के कांग्रेस को बाहर रखा गया या खुद कांग्रेस बाहर रही ताकि वो अगड़ों के वोट बैंक को बीजेपी और नरेंद्र मोदी के पक्ष में एक जुट किया जा सके।
दूसरा तर्क ये भी पेश किया जा रहा है कि कांग्रेस ने इतिहास के पन्नों को पलटा तो समझा कि उसके पास हनुमान वाली ताकत तो है लेकिन कोई याद दिलानेवाला नहीं है। 2014 के नतीजों से घबराई कांग्रेस ने डब साल 2009 का नतीजा देखा तो पाया कि अकेले लड़कर वो 21 सीटें जीतने में सफल रही। ऐसे में राहुल ने तय किया कि आखिर क्यों किसी के भरोसे युद्ध लड़ा जाए। क्यों ना अकेले ही फिर से मैदान में उतर कर देखें। तीसरा पहलू ये भी बताया जा रहा है कि राहुल ने मायावती और अखिलेश की बढ़ती बार्गेनिंग पॉवर को देखते हुए एक और फॉर्मूले पर विचार किया। आंकड़ों को देखकर पाया कि बहुत बुरी हालत में भी सदी वोट मिलते रहते हैं। अलग अलग लड़ने पर बीजेपी की ताकत को कम किया जा चुका है। ऐसे में बार-चौद फीसदी वोट के साथ कुछ नए उभरती ताकतों को साधा जाए तो समीकरण बदल सकते हैं। ऐसे में नई नवेली पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया के नेता शिवपाल सिंह यादव मुफीद दिखाई पड़ते हैं। उन्हें भी एक साथी की तलाश है। अगर राहुल और शिवपाल हाथ मिला लें तो सॉफ्ट हिंदुत्व वाले वोट को मुस्लिम और यादव मतदाताओं के साथ जोड़ा जा सकता है। इन सबके इतर एक सवाल ये भी तैर रहा कि जिस तरह से 254 साल पहले मुलायम और कांशीराम ने मिलकर बीजेपी को उड़ाया था, क्या वो करिश्मा ये नई पीढ़ी कर पाएगी। सवाल बहुतेरे हैं। फिलहाल तेल देखिए और तेल की धार देखिए। क्योंकि राजनीति संभावनाओं का खेल है।

Thursday, January 10, 2019

कांग्रेस-बीजेपी के लिए केवल सत्ता की सीढ़ी हैं आराध्य प्रभु श्रीराम!

राम मंदिर बनाने को लेकर हवा में अक्सर तैरनेवाला ये नारा अब वाकई हकीकी लगने लगा है कि राम लला हम आवेंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे लेकिन तारीख नहीं बताएंगे। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि मालिकाना हक को लेकर नई तारीख मुकर्रर होने से आम लोगों की जेहन में बस यही सवाल तैर रहा है कि क्या वाकई सत्ताधारी बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस वाकई इस मसले पर कोई संजीदा हल चाहती हैं। या फिर दोनों ही पार्टियां सत्ता के लिए अपने अपने हिसाब से इसे जिंदा रखना चाहती है। एक को चुनावी साल में हिंदुओं के जज्बात को उकेर का सत्ता का रास्ता दिखाई देता है तो दूसरे को सब्जबाग दिखाकर परस्ती का रास्ता अपनाकर सत्ता की सीढ़ी दिखाई दे रही है।

जैसा कि अंदेशा था वैसे ही मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने जस्टिस यूयू ललित के बीजेपी के दिग्गज नेता कल्याण सिंह के वकील होने का पुराना हवाला देते हुए सवाल खड़े कर दिए। जब इंसाफ करनेवाले की नीयत पर पहले से सवाल खड़े हो जाए तो इंसाफ पर सवाल उठना लाजिमी है। ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि राजीव धवन पर कांग्रेस समर्थक होने का आरोप है। 2019 में किसी तरह से फिर से सत्ता हासिल करने में लगे कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को सॉफ्ट हिंदुत्व पर चलने पर कोई एतराज नहीं है। वो जनेऊ भी दिखाते हैं और मानसरोवर जाकर सबसे बड़ा शिवभक्त होने का दम भी भरते हैं। ताकि उन्हें वोटों को रिझा सके। लेकिन मुस्लिम वोट को फिसलने देना भी नहीं चाहते। तो क्या उन्ही के इशारे पर आज फिर सुनवाई ली।
सवाल बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीयत पर भी है। सवर्णों के आरक्षण, तीन तलाक और हलाला पर सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम फैसलों को मानने से इनकार करनेवाली सरकार मंदिर के मसले पर कोर्ट का फैसला मानने की बात करती है। सुप्रीम कोर्ट ने सवर्णों को आरक्षण देने से मना किया तो एससी एसटी एक्ट में बदलाव कर अगड़ों का गुस्सा कम कर करने के लिए मोदी सरकार बिल ले आई। तीन तलाक पर भी संसद में बिल ले आई। ये दीगर बात है कि वो पास नहीं करा पाई। अगर मंदिर को लेकर वाकई उसी नीयत साफ है तो वो इसको लेकर संसद में बिल क्यो नहीं लाती। साफ है कि चुनावी साल में दोनों ही पार्टियां मंदिर-मस्जिद के झगड़े को जिंदा रखना चाहती हैं।