आखिरकार लखनऊ में आज वहीं स्क्रिप्ट पढ़ी गई, जिसे मैंने विधानसभा चुनावों के दौरान और नतीजों के बाद पढ़कर अपने दर्शकों और पाठकों को वाकिफ करा दिया गया। पुरानी अदावत को भुलाकर आज समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी नरेंद्र मोदी को रोकने के लिेए एक हो गई। अखिलेश यादव कम सीटों पर भी लड़ने को तैयार थे। लेकिन मायावती ने दरियादिली दिखाते हुए गेस्ट कांड को भुलाकर अपने भतीजे को बराबर का हक दिया। इस गठबंधन में कांग्रेस सतही पर दिखाई नहीं देती। सरसरी नज़र में यही दिखाई पड़ता है कि बुआ और बबुआ ने बाबा राहुल गांधी और आंटी सोनिया गांधी के लिए रायबरेली और अमेठी की सीट छोड़ दी है।
लेकिन इस गठबंधन ने बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए है। पहला सवाल तो यही कि क्या बुआ-बबुआ ने बाबा को ये बताने की कोशिश की है कि यूपी में उनकी हैसियत केवल दो सीटों भर की है। या फिर इसके पीछे कोई चाल है। पर्दे के पीछे एक गणित तो ये समझ में आ रहा कि राहुल गांधी ने इन दिनों सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पकड़ ली है। अगर ये दोनों कांग्रेस को साथ लेते मुस्लिमों को वोट बिखर जाता, जो बीजेपी विरोधी गठबंधन को नुक़सान पहुंचाता। हो सकता है कि सोची समझी रणनीति के कांग्रेस को बाहर रखा गया या खुद कांग्रेस बाहर रही ताकि वो अगड़ों के वोट बैंक को बीजेपी और नरेंद्र मोदी के पक्ष में एक जुट किया जा सके।
दूसरा तर्क ये भी पेश किया जा रहा है कि कांग्रेस ने इतिहास के पन्नों को पलटा तो समझा कि उसके पास हनुमान वाली ताकत तो है लेकिन कोई याद दिलानेवाला नहीं है। 2014 के नतीजों से घबराई कांग्रेस ने डब साल 2009 का नतीजा देखा तो पाया कि अकेले लड़कर वो 21 सीटें जीतने में सफल रही। ऐसे में राहुल ने तय किया कि आखिर क्यों किसी के भरोसे युद्ध लड़ा जाए। क्यों ना अकेले ही फिर से मैदान में उतर कर देखें। तीसरा पहलू ये भी बताया जा रहा है कि राहुल ने मायावती और अखिलेश की बढ़ती बार्गेनिंग पॉवर को देखते हुए एक और फॉर्मूले पर विचार किया। आंकड़ों को देखकर पाया कि बहुत बुरी हालत में भी सदी वोट मिलते रहते हैं। अलग अलग लड़ने पर बीजेपी की ताकत को कम किया जा चुका है। ऐसे में बार-चौद फीसदी वोट के साथ कुछ नए उभरती ताकतों को साधा जाए तो समीकरण बदल सकते हैं। ऐसे में नई नवेली पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया के नेता शिवपाल सिंह यादव मुफीद दिखाई पड़ते हैं। उन्हें भी एक साथी की तलाश है। अगर राहुल और शिवपाल हाथ मिला लें तो सॉफ्ट हिंदुत्व वाले वोट को मुस्लिम और यादव मतदाताओं के साथ जोड़ा जा सकता है। इन सबके इतर एक सवाल ये भी तैर रहा कि जिस तरह से 254 साल पहले मुलायम और कांशीराम ने मिलकर बीजेपी को उड़ाया था, क्या वो करिश्मा ये नई पीढ़ी कर पाएगी। सवाल बहुतेरे हैं। फिलहाल तेल देखिए और तेल की धार देखिए। क्योंकि राजनीति संभावनाओं का खेल है।
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