Wednesday, January 23, 2008

ऐसे समाज पर थू है

देश में ईमानदारी हो। सब लोग अच्छे हों। सब एक दूसरे का ख़्याल रखें। एक दूसरे के सुख दुख में साथ दें। ये बातें सुनने में कितनी अच्छी लगती हैं। लेकिन ऐसा होता नहीं है। आज सुबह बस से नोएडा से दिल्ली आ रहा था। श्रमजीवी लोगों के वाहन यानी 355 नंबर की बस से सवार था। बारह -बाइस चौराहे पर पहुचने पर एक मेहनतकश बालक हारमुनियम के साथ सवार हुआ । हाड़ कंपा देनेवाली सर्दी थी। लोग कई कई स्वेटर ताने बैठे थे। वो नन्हा बालक एक मामूली सी कमीज़ में था। आदत और मजबूरी ने मानो उसे लौह पुरूष बना दिया था।
बाहर बर्फीली हवाएं चल रही थीं। लोग बाग टोपियों सेसे कान ढकें ढके हुए थे। फिर भी हवाएं उनकी हड्डियां गला रही थीं। लिहाज़ा लोगों ने बस की खिड़कियां बंद कर दीं। बालक ने मौक़ा देखकर गाना छेड़ दिया- इश्क़ मासूम है....। आवाज़ लरज़ रही। आवाज़ थरथरा रही थी। आंखों में में याचना थी। उसे लगा कि लोग उस पर रहम खाएंगे। क्योंिक ज़्यादातर लोग सूट बूट और टाई में थे। महंगे महंगे स्वटरों में थे। पढ़े लिखे और दिलवाले लोग लगे। गाना बंद कर उसने अपनी पेटी समेट ली।

इस हुनर के बदले वो लोगों से बख़्शीश की उम्मीद करने लगा। लेकिन उसे मिलने लगी औरझिड़क और गालियां। अबे, परले हट जा। रोज़ रोज़ मुंह उठाए भीख मांगने ला आता है। मां बाप भी साले कैसे हैं। पैदा करके सड़क पर भीख मांगने के लिए छोड़ देते हैं। एक मैडम ने तो आपा ही खो दिया। क्योंकि उस बालक की पेटी से उनका मेकअप ख़राब हो गया था। बस में बैठे बैठे वो कजरा लगा रही थी। वो आंखों से फैल कर गालों तक लग गया। मानों - जमाने की नज़र न लगे। मैडम को ये बात ख़ल गई। सन आफ बीच कहने में उन्हे कोई बुराई न लगी।
मैडम ने कोई ग़लत बात नहीं की थी। मैं भी ग़रीब हूं। समझ सकता हूं कि इस तरह के पढ़े लिखे लोग ग़रीबों के बच्चे और सूअर के बच्चे में कोई फर्क़ नहीं करते । आख़िर हैं तो दोनों प्राणी ही। बच्चा बस से उतर गया। उसकी हथेली में चंद सिक्के खनक रहे थे। इन पैसों में कुछ सिक्के दो तीन देहातियों और एक श्रमजीवी पत्रकार का था। जो ख़ुद इन दिनों फाकांनशीं के दौर में बस से सफ़र कर रहा हैं। बच्चे की ज़ुबान पर एक बार फिरवही गाना था- इश्क़ मासूम है....