Thursday, June 28, 2018

सत्ता के लिए बीजेपी को चाहिए राम, रहीम, कबीर और अंबेडकर का साथ

केंद्र की सरकार अब इलेक्शन गियर में चल रही है। अब हर बात-हर घोषणा अगले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर की जा रही है। चार साल तक राम मंदिर पर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहनेवाली बीजेपी और संघ से जुड़े अब तमाम बड़े नेता मंदिर को लेकर गरजने लगे हैं। हर हाल में चुनाव जीतने है। मछली पर आंख की तरह लक्ष्य रखनेवाली बीजेपी केवल अपने आपको प्रभु श्री राम तक ही सीमित करके रखना नहीं नहीं चाहती। यूपी में अखिलेश यादव और मायावती की जोड़ी दलित-पिछड़ों और मुस्लिमों के वोट बैंक पर कुंडली मारकर बैठी है। ये जुगलबंद बीजेपी और उसकी मातृ संस्था आरएसएस को खल रही है। दोनों ही जानते हैं कि अगर इस जोड़ी को नहीं तोड़ा गया तो यूपी में पुंगी बज जाएगी। हर रोज़ इतवार नहीं होता। इसी तरह से साल 2019 भी साल 2014 की तरह नहीं होगा। कहने को संघ सांस्कृतिक संस्था है। लेकिन सदियों से वो बेचैन रहती है कि कैसे अपने लाल यानी बीजेपी को सत्ता के झूले पर झुलाती रहे। सरकार के दावों की खुलती पोल, नरेंद्र मोदी के झुमलेबाजी से आई साख गिरावट और सांसदों के मतदाताओं से बढ़ती दूरियों की खबर जब संघ तक पहुंची तब मोहन भागवत ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को तलब किया। समझाया कि केवल ब्राह्नमणों और बनियों के समर्थन से सरकार नहीं बनने वाली। पिछली बार दलित और पिछड़े मिले थे, तब कम खिला था। ये तबका अब छिटक चुका है। इसे साधने की कोशिश करो। फिर संघ ने यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को बुलाकर उनके राज में दलितों पर बढ़े सितम और सवर्णों के मनचढ़ी को लेकर हिदायत दी। इसका असर ये हुआ है कि मोदी दलितों-पिछड़ों के मगहर में मसीहा संत कबीर की मजार पर पहुंच गए। बड़े-बड़े दावे किए। दलितों और पिछड़ों के लिए अपना दर्द दिखाया और कांग्रेस-सपा-बसपा के मत्थे दोष मढ़ा कि इन पार्टियों ने इन लोगों के लिए रत्ती भर काम नहीं किया।
कबीरपंथियों की शिकायत है कि चार साल मोदी अपने संसदीय क्षेत्र बनारस कई दफे आए लेकिन कबीर की जन्मस्थली आने का वक्त नहीं निकाल पाए। उन्हें चुनावी साल में कबीर की याद मोदी जी को आई है। इस आरोप में चाहे सच्चाई हो या नहीं हो लेकिन यह बात जरूर सच है कि चुनावी साल में बीजेपी को यूपी में खासतौर से कबीर में संभावना दिखने लगी है।  दरअसल कबीर गरीबों, दलितों, पिछड़ों, शोषितों के मसीहा माने जाते हैं। सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के रूप में कबीर की पहचान है, सामाजिक न्याय के लिए कबीर का नाम बड़े आदर से लिया जा सकता है। कबीर को दुनिया का पहला सच्चा समाजवादी भी कहा जा सकता है।  दरअसल कबीरपंथियों की संख्या लगभग ढ़ाई करोड़ है, जिनमें दलित और पिछड़ों की संख्या ज्यादा है। कबीर खुद जुलाहे थे। इस साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं, उनमें भी कबीर के अनुयायी काफी तादाद में है। छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ की कई शाखाएं और उप शाखाएं हैं। राजस्थान के नागौर में , पटना में फतुहा मठ, बिद्दूपुर मठ, भगताही शाखा, छत्तीसगढ़ी या धर्मदासी शाखा, हरकेसर मठ, लक्ष्मीपुर मठ, पश्चिम बंगाल जैसे  राज्यों में कई मठों, संस्थाओं पर कबीर पंथ के अनुयायी हैं।

ये सारा ऐसा वोट बैंक है जो आसानी से सत्ता तक ले जाता है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों के साथ यूपी की 80 में से 73 सीटों पर कब्जा किया था। उस समय विपक्ष बिखरा था। गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों के बीच संघ का किया काम कमल के काम आ गया था। लेकिन पिछले एक साल में कहानी बदल गई है। ऐसे में दलितों और ओबीसी को अपने पाले में लाने पर मोदी पूरा जोर दे रहे हैं।  मोदी जानते हैं कि हिंदुत्व की हांडी बार बार नहीं चढ़ाई जा सकती। सुप्रीम कोर्ट का फैसला राम मंदिर के पक्ष में नहीं आया तो उन्हें बड़े हिंदू वर्ग को जवाब देना पड़ सकता है। ऐसे में दलित ओबीसी वोट की पूंछ सत्ता की वैतरणी को पार करने में सहायक साबित हो सकती है। मायावती और अखिलेश के गठबंधन में सेंध लगाई जा सकती है और इस सबके महासेतु कबीरदास साबित हो सकते हैं।
कबीर के दिल में तो राम बसे थे लिहाजा उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह काशी में शरीर त्यागते हैं या मगहर में, लेकिन सियासी जन्म मरण को देखते हुए काशी और मगहर अचानक से महत्वपूर्ण हो चुके हैं।  वैसे मोदी ऐसे पहले नेता नहीं है जो कबीरदास के नाम पर सियासत करने निकले हों,  इससे पहले सभी अन्य दल भी अपने अपने तरीके से कबीरदास का नाम लेते रहे हैं और सियासत चमकाने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन यूपी में नये चुनावी समीकरण और नई तरह की सोशल इंजिनियरिंग को देखते हुए कबीरदास का नाम और काम या यूं कहा जाए कि उनकी पहचान को नये सिरे से चमकाना जरुरी हो गया है। यूपी को सिर्फ सवर्ण वोटों के सहारे जीता नहीं जा सकता। यूपी की जातिवादी राजनीति को हिंदुत्व के दम पर तोडऩा भी मुश्किल नजर आ रहा है।  इसलिए संघ और बीजेपी को केवल राम ही नहीं चाहिए। बौद्ध वोट के लिए गौतम बुद्ध भी चाहिए और दलित-पिछड़ों के वोट के लिए कबीर और अंबेडकर भी।

Saturday, June 9, 2018

एक महीने तक जांच नहीं लेकिन नतीजे दे दिए चंद घंटों में !

लोग अक्सर मज़़ाक में कहते हैं कि ये यूपी पुलिस है। अगर इसकी पकड़ में कुछ घंटे के लिए तोता भी आ जाए तो वो रट लगाने लगेगा कि वही ओसामा बिन लादेन है। दुनिया की शायद ये इकलौती पुलिस है, जो हत्यारों, बलात्कारियों और डकैतों को समय रहते तो नहीं पकड़ सकती लेकिन डकैती की योजना बनाते डकैतों को पहले ही ज़रुर धर लेती है। मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव एस.पी. गोयल पर काम के बदले पच्चीस लाख रुपए की घूस मांगने का आरोप लगाने वाले लखनऊ के इंदिरा नगर के अभिषेक गुप्ता के क़ुबूलनामे के बाद फिर से ये लतीफे सियासी फिंज़ा में तैरने लगे है। अभिषेक गुप्ता की गिरफ्तारी और उसके कुबूलनामे से कई शदीदी सवाल खड़े होते हैं।
पहले सवाल ये है कि आरोप अप्रैल में लगाए गए लेकिन उनके खिलाफ एफआईआर 6 जून को दर्ज कराई गई। ये एफआईआर मुख्यमंत्री सचिवालय ने नहीं बल्कि यूपी बीजेपी ऑफिस ने कराई। शिकायत करने में इतनी देरी क्यों की गई। पुलिस को ये शिकायत तब क्यों की गई जब घूस की जांच करानेवाली राज्यपाल की चिट्ठी मीडिया के हाथ लग चुकी थी। अभिषेक गुप्ता की गिरफ्तारी को पुलिस ने हिरासत में क्यों बताया। हिरासत में लेते समय अभिषेक के घरवालों को क्यों जानकारी नहीं दी गई। अभिषेक गिरफ्तारी तब क्यों की गई जब समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने सीबीआई जांच की मांग कर सियासी रंग दे दिया।दरअसल, अभिषेक गुप्ता ने 18 अप्रैल को ईमेल कर राज्यपाल राम नाइक से शिकायत की थी कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रमुख सचिव एस,पी. गोयल काम के बदले में पच्चीस लाख रुपए मांग रहे है। राज्यपाल ने 30 अप्रैल को मुख्यमंत्री से जांच कराने की संस्तुति वाली चिट्ठी प्रेषित कर दी। ये चिट्ठी सात जून को मीडिया के हाथ लग गई और आठ जून को वायरल हो गई। मीडिया के हाथ चिट्ठी लगने की भनक मिलते ही बीजेपी ऑफिस के प्रभारी भरत दीक्षित ने हजरतगंज थाने में आईपीसी की धारा 501 और 420 के तहत केस दर्ज कराया। आरोप लगाया कि अभिषेक बीजेपी नेताओं का नाम लेकर सीएम ऑफिस पर दबाव बना रहा है। इसकी जानकारी उनको मुख्यमंत्री के विशेष सचिव संभ्रात शुक्ला ने दी है। इसके बाद पुलिस ने आठ मई को अभिषेक को धर लिया। इस पूरे प्रकरण से कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं।
पहला ये कि पुलिस को ये शिकायत इतनी देर से क्यों की गई। ये शिकायत बीजेपी ऑफिस के प्रभारी ने क्यों की। बीजेपी नेताओं के नाम पर दबाव बनाने की बात जब मुख्यमंत्री के विशेष सचिव के संज्ञान में आई तो इसकी जानकारी मुख्यमंत्री से न कर बीजेपी ऑफिस में क्यों की। वो सीधे पुलिस में क्यों नहीं गए। 30 अप्रैल की चिट्ठी पर कुंडली मारकर बैठे सीएम योगी आदित्यनाथ ने अखिलेश यादव के आरोपों के बाद ही जांच रिपोर्ट क्यों मांगी। 30 अप्रैल की चिट्ठी पर मुख्यमंत्री के निर्देश मिलने पर आनन-फानन में मुख्य सचिव राजीव कुमार ने क्लीन चिट रिपोर्ट कैसे दे दी। अभिषेक का आरोप था कि सड़क की चौड़ीकरण के लिए उससे घूस मांगे गए। लेकिन रिपोर्ट में ये दिखाया गया कि अभिषेक ने हरदोई के रेसो गांव के गाटा संख्या 184 का विनिमय ग्राम समाज की जमीन गाटा नंबर 187 करने की प्रार्थना की थी। इसका फैसला मुख्यमंत्री और राजस्व विभाग के विवेक पर होता है। इसलिए उसकी प्रार्थना रद्द कर दी गई। मज़ेदार बात तो ये है कि एक तरफ प्रशासन ने क्लीन चिट दी वहीं। पुलिस की भी क्लाीन चिट आ गई, जिसमें अभिषेक ने माफी मांगते हुए कहा कि मानसिक दबाव में आकर ये आरोप लगाए थे। अब सवाल फिर ये कि अगर ये आरोप मेंटल प्रेशर का नतीजा है तो फिर अभिषेक ने सीधे सीएम या पीएम पर आरोप क्यों नहीं लगाए। कुल मिलाकर विरोधी दल और लोगों को लगता है कि दाल में काला तो ज़रुर है । हो सकता है कि पूरी दाल ही काली हो।

Tuesday, June 5, 2018

कहां से कहां आ गई फिल्म इंडस्ट्री की हीरोइनें

एक दौर था जब हिंदी सिनेमा में अच्छे घराने को लड़कियां काम नहीं करना चाहती थीं। क्योंकि उस दौर में फिल्म इंडस्ट्री को बेहद घटिया पेशा माना गया था। इसलिए हीरोइन की भूमिका के लिए कई बार पुरुषों को हीरोइन बनना पड़ा था। या फिर तवायफों और वेश्याओं से भूमिका कराई जाती थी। समय बहदा। नजरिया बदला। सोच बदली। लड़कियां होरीइनें बनने लगीं। लेकिन वो बदन उघाड़ू सीन्स के लिए तैयार नहीं होती थीं। बेड रुम सीन्स, किसिंग सीन्स और बोल्ड सीन्स तो बहुत दूर की बात है। इसलिए उस दौर में रोमांस दिखाने लिए लव बर्ड के लव या दो फूलों को आपस में टकराते हुए दिखाया जाता था। दर्शकों को पटाने के लिए या कहानी की डिमांड पर बिकनी शॉट्स, कैबरे और बोल्ड सीन्स की मांग होती तो एक्ट्रेस ठुकरा देती थी। तब हिंदी सिनेमा में वैंप्स की इंट्री हुई। समय का पहिया इतनी तेजी से घूमा कि वैंप्स और हीरोइनों की लकीर मिट गई। आजकल की हीरोइनों को बोल्ड सीन्स और बेडरूम सीन्स देने में कोई हिचक नहीं होती। वो बिंदास हो गई है। बात रोल तक हो तो बादत समझ में आती है।

ये पर्सनल लाइफ में भी भारतीय संस्कृति को ताक पर रख चुकी हैं। हाल में शमा सिकंदर ने कहा कि बच्चा पैदा करने के लिए उन्हें शादी करने की जरुरत नहीं है। कई हीरोइनें सेक्स रैकेट पकड़ी जा चुकी हैं। कई क्राइम में शामिल रही है। किसी जमाने की मशहूर हीरोइन मंदाकिनी के बारे में कहा जाता है कि वो माफिया दाऊद इब्राहिम की रखैल है। ममता कुलकर्णी की लाइफ भी क्राइम से कलंकित है। मुनमुन सिंह की बेटियां और सुचित्रा सेन की नातिनों राइमा और रिया सेन का नाम झारखंड के मुख्यमंत्री रहे मधु कौड़ा के एक स्कैंडल से जोड़ा जा चुका है। एक्ट्रेस जया प्रदा नाहटा की भी पर्सनल लाइफ विवादित है। बिपाशा बसु और अमर सिंह की फोन पर हुई बातचीत भी दुनिया जानती हैं, जिसमें वो समाजवादी पार्टी के एक बहुत बड़े नेता के सेक्स लाइफ पर बात कर रही हैं। नीना गुप्ता ने तो बिन ब्याही मां बनने का ट्रेंड स्थापित कर दिया। एक्ट्रेस जिया खान ने खुदकुशी करने से पहले सुसाइड नोट में एबॉर्शन करवाने की बात लिखी थी। जिया ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि अपने बच्चे को मैंने खो दिया जिसने मुझे बहुत गहरा दर्द दिया। टीवी रियलिटी शो 'बिग बॉस 5' से सुर्खियों में आईं पाकिस्तानी एक्ट्रेस वीना मलिक भी शादी से पहले ही प्रेग्नेंट हो गई थीं। वो अपने बॉयफ्रेंड प्रशांत से प्रेग्नेंट थीं लेकिन उन्हें किसी कारणवश एबॉर्शन करवाना पड़ा। टीवी सीरियल 'बालिका वधू' में आनंदी का फेमस किरदार निभाने वाली एक्ट्रेस प्रत्युषा बनर्जी ने महज 24 साल की उम्र में सुसाइड करके सनसनी मचा दी थी। ऐसे में ये बात भी सामने आई थी कि उन्होंने सुसाइड से पहले एबॉर्शन करवाया था। सन टीवी के फेमस सीरियल वानी रानी की एक्ट्रेस संगीता बालन को पुलिस ने  जिस्मफरोशी के कथित आरोपों में गिरफ्तार हैं। श्वेता बसु प्रसाद, मिष्टी मुखर्जी, श्रावणी, भुवनेश्वरी और सायरा बानों जैसी साउथ की एक्ट्रेस कॉल गर्ल के धंधे में अरेस्ट हो चुका है। ये सच्चाई है आज की चमकते-दमकते हिंदी सिनेमा की, जिसमें इंट्री के लिए आज का युवा दीवाना है।