केंद्र की सरकार अब इलेक्शन गियर में चल रही है। अब हर बात-हर घोषणा अगले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर की जा रही है। चार साल तक राम मंदिर पर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहनेवाली बीजेपी और संघ से जुड़े अब तमाम बड़े नेता मंदिर को लेकर गरजने लगे हैं। हर हाल में चुनाव जीतने है। मछली पर आंख की तरह लक्ष्य रखनेवाली बीजेपी केवल अपने आपको प्रभु श्री राम तक ही सीमित करके रखना नहीं नहीं चाहती। यूपी में अखिलेश यादव और मायावती की जोड़ी दलित-पिछड़ों और मुस्लिमों के वोट बैंक पर कुंडली मारकर बैठी है। ये जुगलबंद बीजेपी और उसकी मातृ संस्था आरएसएस को खल रही है। दोनों ही जानते हैं कि अगर इस जोड़ी को नहीं तोड़ा गया तो यूपी में पुंगी बज जाएगी। हर रोज़ इतवार नहीं होता। इसी तरह से साल 2019 भी साल 2014 की तरह नहीं होगा। कहने को संघ सांस्कृतिक संस्था है। लेकिन सदियों से वो बेचैन रहती है कि कैसे अपने लाल यानी बीजेपी को सत्ता के झूले पर झुलाती रहे। सरकार के दावों की खुलती पोल, नरेंद्र मोदी के झुमलेबाजी से आई साख गिरावट और सांसदों के मतदाताओं से बढ़ती दूरियों की खबर जब संघ तक पहुंची तब मोहन भागवत ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को तलब किया। समझाया कि केवल ब्राह्नमणों और बनियों के समर्थन से सरकार नहीं बनने वाली। पिछली बार दलित और पिछड़े मिले थे, तब कम खिला था। ये तबका अब छिटक चुका है। इसे साधने की कोशिश करो। फिर संघ ने यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को बुलाकर उनके राज में दलितों पर बढ़े सितम और सवर्णों के मनचढ़ी को लेकर हिदायत दी। इसका असर ये हुआ है कि मोदी दलितों-पिछड़ों के मगहर में मसीहा संत कबीर की मजार पर पहुंच गए। बड़े-बड़े दावे किए। दलितों और पिछड़ों के लिए अपना दर्द दिखाया और कांग्रेस-सपा-बसपा के मत्थे दोष मढ़ा कि इन पार्टियों ने इन लोगों के लिए रत्ती भर काम नहीं किया।
कबीरपंथियों की शिकायत है कि चार साल मोदी अपने संसदीय क्षेत्र बनारस कई दफे आए लेकिन कबीर की जन्मस्थली आने का वक्त नहीं निकाल पाए। उन्हें चुनावी साल में कबीर की याद मोदी जी को आई है। इस आरोप में चाहे सच्चाई हो या नहीं हो लेकिन यह बात जरूर सच है कि चुनावी साल में बीजेपी को यूपी में खासतौर से कबीर में संभावना दिखने लगी है। दरअसल कबीर गरीबों, दलितों, पिछड़ों, शोषितों के मसीहा माने जाते हैं। सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के रूप में कबीर की पहचान है, सामाजिक न्याय के लिए कबीर का नाम बड़े आदर से लिया जा सकता है। कबीर को दुनिया का पहला सच्चा समाजवादी भी कहा जा सकता है। दरअसल कबीरपंथियों की संख्या लगभग ढ़ाई करोड़ है, जिनमें दलित और पिछड़ों की संख्या ज्यादा है। कबीर खुद जुलाहे थे। इस साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं, उनमें भी कबीर के अनुयायी काफी तादाद में है। छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ की कई शाखाएं और उप शाखाएं हैं। राजस्थान के नागौर में , पटना में फतुहा मठ, बिद्दूपुर मठ, भगताही शाखा, छत्तीसगढ़ी या धर्मदासी शाखा, हरकेसर मठ, लक्ष्मीपुर मठ, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कई मठों, संस्थाओं पर कबीर पंथ के अनुयायी हैं।
ये सारा ऐसा वोट बैंक है जो आसानी से सत्ता तक ले जाता है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों के साथ यूपी की 80 में से 73 सीटों पर कब्जा किया था। उस समय विपक्ष बिखरा था। गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों के बीच संघ का किया काम कमल के काम आ गया था। लेकिन पिछले एक साल में कहानी बदल गई है। ऐसे में दलितों और ओबीसी को अपने पाले में लाने पर मोदी पूरा जोर दे रहे हैं। मोदी जानते हैं कि हिंदुत्व की हांडी बार बार नहीं चढ़ाई जा सकती। सुप्रीम कोर्ट का फैसला राम मंदिर के पक्ष में नहीं आया तो उन्हें बड़े हिंदू वर्ग को जवाब देना पड़ सकता है। ऐसे में दलित ओबीसी वोट की पूंछ सत्ता की वैतरणी को पार करने में सहायक साबित हो सकती है। मायावती और अखिलेश के गठबंधन में सेंध लगाई जा सकती है और इस सबके महासेतु कबीरदास साबित हो सकते हैं।
कबीर के दिल में तो राम बसे थे लिहाजा उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह काशी में शरीर त्यागते हैं या मगहर में, लेकिन सियासी जन्म मरण को देखते हुए काशी और मगहर अचानक से महत्वपूर्ण हो चुके हैं। वैसे मोदी ऐसे पहले नेता नहीं है जो कबीरदास के नाम पर सियासत करने निकले हों, इससे पहले सभी अन्य दल भी अपने अपने तरीके से कबीरदास का नाम लेते रहे हैं और सियासत चमकाने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन यूपी में नये चुनावी समीकरण और नई तरह की सोशल इंजिनियरिंग को देखते हुए कबीरदास का नाम और काम या यूं कहा जाए कि उनकी पहचान को नये सिरे से चमकाना जरुरी हो गया है। यूपी को सिर्फ सवर्ण वोटों के सहारे जीता नहीं जा सकता। यूपी की जातिवादी राजनीति को हिंदुत्व के दम पर तोडऩा भी मुश्किल नजर आ रहा है। इसलिए संघ और बीजेपी को केवल राम ही नहीं चाहिए। बौद्ध वोट के लिए गौतम बुद्ध भी चाहिए और दलित-पिछड़ों के वोट के लिए कबीर और अंबेडकर भी।
कबीरपंथियों की शिकायत है कि चार साल मोदी अपने संसदीय क्षेत्र बनारस कई दफे आए लेकिन कबीर की जन्मस्थली आने का वक्त नहीं निकाल पाए। उन्हें चुनावी साल में कबीर की याद मोदी जी को आई है। इस आरोप में चाहे सच्चाई हो या नहीं हो लेकिन यह बात जरूर सच है कि चुनावी साल में बीजेपी को यूपी में खासतौर से कबीर में संभावना दिखने लगी है। दरअसल कबीर गरीबों, दलितों, पिछड़ों, शोषितों के मसीहा माने जाते हैं। सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के रूप में कबीर की पहचान है, सामाजिक न्याय के लिए कबीर का नाम बड़े आदर से लिया जा सकता है। कबीर को दुनिया का पहला सच्चा समाजवादी भी कहा जा सकता है। दरअसल कबीरपंथियों की संख्या लगभग ढ़ाई करोड़ है, जिनमें दलित और पिछड़ों की संख्या ज्यादा है। कबीर खुद जुलाहे थे। इस साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं, उनमें भी कबीर के अनुयायी काफी तादाद में है। छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ की कई शाखाएं और उप शाखाएं हैं। राजस्थान के नागौर में , पटना में फतुहा मठ, बिद्दूपुर मठ, भगताही शाखा, छत्तीसगढ़ी या धर्मदासी शाखा, हरकेसर मठ, लक्ष्मीपुर मठ, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कई मठों, संस्थाओं पर कबीर पंथ के अनुयायी हैं।
ये सारा ऐसा वोट बैंक है जो आसानी से सत्ता तक ले जाता है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों के साथ यूपी की 80 में से 73 सीटों पर कब्जा किया था। उस समय विपक्ष बिखरा था। गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों के बीच संघ का किया काम कमल के काम आ गया था। लेकिन पिछले एक साल में कहानी बदल गई है। ऐसे में दलितों और ओबीसी को अपने पाले में लाने पर मोदी पूरा जोर दे रहे हैं। मोदी जानते हैं कि हिंदुत्व की हांडी बार बार नहीं चढ़ाई जा सकती। सुप्रीम कोर्ट का फैसला राम मंदिर के पक्ष में नहीं आया तो उन्हें बड़े हिंदू वर्ग को जवाब देना पड़ सकता है। ऐसे में दलित ओबीसी वोट की पूंछ सत्ता की वैतरणी को पार करने में सहायक साबित हो सकती है। मायावती और अखिलेश के गठबंधन में सेंध लगाई जा सकती है और इस सबके महासेतु कबीरदास साबित हो सकते हैं।
कबीर के दिल में तो राम बसे थे लिहाजा उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह काशी में शरीर त्यागते हैं या मगहर में, लेकिन सियासी जन्म मरण को देखते हुए काशी और मगहर अचानक से महत्वपूर्ण हो चुके हैं। वैसे मोदी ऐसे पहले नेता नहीं है जो कबीरदास के नाम पर सियासत करने निकले हों, इससे पहले सभी अन्य दल भी अपने अपने तरीके से कबीरदास का नाम लेते रहे हैं और सियासत चमकाने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन यूपी में नये चुनावी समीकरण और नई तरह की सोशल इंजिनियरिंग को देखते हुए कबीरदास का नाम और काम या यूं कहा जाए कि उनकी पहचान को नये सिरे से चमकाना जरुरी हो गया है। यूपी को सिर्फ सवर्ण वोटों के सहारे जीता नहीं जा सकता। यूपी की जातिवादी राजनीति को हिंदुत्व के दम पर तोडऩा भी मुश्किल नजर आ रहा है। इसलिए संघ और बीजेपी को केवल राम ही नहीं चाहिए। बौद्ध वोट के लिए गौतम बुद्ध भी चाहिए और दलित-पिछड़ों के वोट के लिए कबीर और अंबेडकर भी।
No comments:
Post a Comment