Friday, July 3, 2009

रेल बजट से साबित हुआ ममता और लालगढ़ का रिश्ता


पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट को झटका देने का तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और रेल मंत्री ममता बनर्जी कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ रही। चाहें इसके लिए उन्हे रेल बजट की ही आड़ क्यों न लेनी पड़े। इसमें कोई शक़ नहीं कि तैंतीस साल बंगाल में राज कर रहे लेफ्ट फ्रंट को ममता बनर्जी लगातार पानी पिला रही हैं। हालिया लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चा का क़िला ढ़हाने के बाद ममता ने नगरपालिकाओं के भी चुनाव में वाम मोर्चा को पटखनी दी हैं। लेकिन वाम मोर्चा को हाशिए पर लाने और मुख्यमंत्री बनने की छटपटाहट में रेल बजट का इस्तेमाल करना कहां तक सही है।
रेल मंत्री के रेल बजट को ग़ौर से देखिए- पता चलेगा कि ममता ने कितने प्यार से अपने विरोधियों की रेल बनाई है। ममता का खेल समझने से पहले एक बार रेल मंत्रालय का हिसाब किताब समझ लेते है। देश में कुल 6909 रेलवे स्टेशन हैं। इनमें से 1721 स्टेशन कंप्यूटर से जुड़े हुए हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि इन 1721 स्टेशनों पर ही कंप्यूटर से रिज़वर्शन होता है। आधुनिक भारत में बाक़ी 5188 रेलवे स्टेशनों का हाल राम भरोसे हैं। सवाल ये है कि इन 5188 स्टेशनों के मुसाफिर भी बाक़ी मुसाफिरों की तरह किराया देते हैं। लेकिन उन्हे वो सुविधाएं स्टेशनों पर नहीं मिलती, जिसका फायदा बाक़ी के स्टेशनों के मुसाफिर उठाते हैं। यानी आज़ादी के 62 साल बाद भी देश के 5188 रेलवे स्टेशनों की हालत वैसी ही है, जैसा कि अंग्रेज़ छोड़ गए थे।
अब रेल का ख़र्चा पानी का हाल समझ लेते हैं। रेलवे कर्मचारियों की तनख़्वाह की हम बात नहीं करेंगे। न ही उनको मिलने वाले डीए की। हम बात करेंगे साल में एक बार मिलनेवाली सुविधा की। रेल मंत्रालय अपने हरेक कर्मचारी को साल में एक बार फ्री पास देता है, जिसमें वो अपने परिवार के साथ यात्रा कर सकता है। रेलवे के क़रीब साढ़े तेरह लाख कर्मचारी हैं। एक कर्मचारी के परिवार में पत्नी और दो बच्चे हैं तो ये संख्या 54 लाख होती है। साल में एक बार रेलवे के ख़र्चे पर ये परिवार घूमने आता-जाता है। अब इसमें उन लोगों की संख्या भी जोड़ लें, जो रेलवे के कर्मचारी तो नहीं हैं लेकिन हमारे और आपके टैक्स के पैसे से घूमते हैं। सांसद, पूर्व सांसद, विधायक और पूर्व विधायक को फ्री में एसी क्लास से आने जाने का पास मिलता है। इस पास के सहारे ये माननीय पत्नी या पति और अपने एक सहायक के साथ सफर करते हैं। अगर टिकट वेटिंग लिस्ट में है तो हेडक्वार्टर कोटा की मेहरबानी से जनरल कोटा का हक़ मारकर माननीय का टिकट कनफर्म कर दिया जाता है। ऐसी सहूलियत पुलिसवालों को है। हम इसमें देश को आज़ाद कराने वाले परवानों को नहीं जोड़ रहे । क्योंकि सहीं मायनों में वो इसके हक़दार हैं। इस आंकड़ों को जोड़ें तो पाएंगे लगभग 65 लाख लोग हर साल रेल के पैसे पर देश घूमते हैं।
अब बात फिर से ममता के खेल की। ममता ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की है कि जिससे देश के लोगों को बुरा लगे। क्योंकि ममता ने गुढ की भेली में लपेटकर कुनैन की गोली दी है। अब आपको समझ में आसानी से ये बात आएगी, जिस देश में 5188 स्टेशनों पर मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं, उसे ममता कैसे आदर्श स्टेशन बनाएंगी ? दूसरी बात ये कि दो बार पहले रेल बजट पेश कर चुकीं ममता ने असलियत देश के लोगों से छुपाई क्यों ?

ममता ने यात्री किराया या माल भाड़ा नहीं बढ़ाया। आम आदमी ये सुनकर ही मंहगाई के इस दौर में राहत की सांस लेगा। मज़दूर तबका भी ख़ुश हो ले। गांव-देहात से शहर-महानगरों में चाकरी करनेवाले मज़दूर 299 रूपए में 1500 किलोमीटर तक और 399 रूपए देकर 3500 किलोमीटर तक सफऱ कर सकता है। पंद्रह सौ रूपए महीना कमाने वाला आदमी पच्चीस रूपए की पास पर रोज़ाना सौ किलोमीटर तक सफर कर सकता है। ममता की ये पहल क़ाबिल ए तारीफ हैं। लेकिन रेलवे का टिकट या पास देनेवाला बाबू उस मज़दूर से मज़दूर होने का पहचान पत्र मांगे तो वो क्या दिखाएगा ? क्या देश में मज़दूरों के लिए मज़दूरी कार्ड है? इस देश में ऐसे अनगिनत स्टेशन हैं, जहां दिन में कुल दो बार कोई ट्रेन आती या जाती हैं। ऐसे में पंद्रह सौ रूपए महीने कमानेवाला मज़दूर उस पास को लेकर कहां मज़दूरी करने जाएगा और कब घर लौटकर आएगा ?
युवा भी खुश होगा। युवाओं के लिए नई ट्रेन चलेगी। लेकिन युवाओं के लिए अलग से ट्रेन क्यों चलाई जा रही है – ये समझ से परे हैं। क्या इस यूथ ट्रेन में युवा डांस करते हुए चलेंगे ? या फिर इस ट्रेन में पब, मॉल या हॉल जैसी कोई सुविधा होगी ? या फिर ममता ने ये मान लिया है कि देश का नौजवान बूढ़े औऱ प्रौढ़ लोगों के साथ सफऱ करने में असहज महसूस करता है या फिर उसे तकलीफ होती है।
ममता बनर्जी ने कहा है कि 375 स्टेशनों को आदर्श स्टेशन बनाया जाएगा, इसमें से तीन सौ नौ स्टेशनों की पहचान कर ली गई है। ये बहुत अच्छी बात है। लेकिन भाषण में वो पहले ही कह गई है कि इन स्टेशनों पर शौचालय और बैठने के इंतज़ाम के साथ मूलभूत सुविधाएँ दी जाएंगी। ममता ने जिन स्टेशनों की पहचान की है, उसका नाम सुनेंगे तो आप चकरा जाएंगे। कोलकाता और बंगाल का एक भी स्टेशन और हॉल्ट ममता ने नहीं छोड़ा है। इस योजना का दुखद पहलू ये है कि वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री रहने के बाद भी ममता बनर्जी अपने शहर के स्टेशनों को शौचालय या मुसाफिरों के बैठने की जगह का इंतज़ाम नहीं करा सकीं ? हम ये सवाल ममता से कोलकाता से मुत्तलिक पूछ रहे हैं , पूरे बंगाल को लेकर नहीं। ममता के इस आदर्श स्टेशनों में आदि श्पतोग्राम, आगरपाड़ा, अलीपुरद्वार, कालना, बागबाज़ार, बैरकपुर, बेलगाछिया, बैद्यबाटी, चंदननगर, बैंडेल, बर्दवान, आसनसोल आदि हैं। अगर इस सूची को ध्यान से पढ़ें तो 309 में से सवा सौ से ज्यादा नाम बंगाल के हैं। ममता जिन वजहों का हवाला देकर इन स्टेशनों को आदर्श बनाने का दावा कर रही हैं, वो केवल और केवल वोट बैंक की राजनीति है। इन सारे स्टेशनों को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। कोलकाता के दोनों बड़े स्टेशनों सियालदाह और हावड़ा को वो विश्वस्तरीय बना रहीं हैं। बाकी बचे तीन बड़े स्टेशन आसनसोल, दुर्गापुर और रानीगंज में वो तमाम सुविधाएं पहले से हैं, जिसकी कमी दूर करने की बात ममता कर रही हैं। बाक़ी जितने स्टेशनों का वो नाम ले रही हैं वो हावड़ा और सियालदाह रूट के लोकल स्टेशन हैं। इन स्टेशनों पर मुसाफिरख़ानों की ज़रूरत तो होती नहीं हैं। बैठने की जगह और शौचालय बहुत पहले ग़नी ख़ान चौधरी दे गए हैं। बाक़ी कई ऐसे स्टेशनों के नाम हैं, जो स्टेशन नहीं हाल्ट हैं। यानी ममता इन स्टेशनों के सुधार के नाम पर लोकल लोगों को दिहाड़ी देंगी। ताकि वो जनसभाओं में दावा कर सकें कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर हर हाथ को काम दिया है। सरकारी पैसा पानी की तरह उनके लिए बहाया है।
आख़िर में बात ममता और लालगढ़ के रिश्तों की। वाम मोर्चा पहले से ही आरोप लगा रहा है कि ममता बनर्जी के नक्सलियों से रिश्ते हैं। ममता की शह पर वो आतंक फैला रहे हैं। लेकिन सत्ता की ऐसी मजबूरी होतीं है कि राज्य सरकारों की बात कई बार केंद्र को सुनाई नहीं देती। बंगाल में हावड़ा में पहले से ही रेल काऱखाना है। ममता ने कहा कि रेल को ख़ूबसूरत डिब्बों की ज़रूरत है। ख़ूबसूरत डिब्बों के नाम पर कल तक जर्मनी से डिब्बे मंगाने वाले मंत्रालय ने देश में ही डिब्बा बनाने का फैसला कर लिया। लेकिन इसमें ममता को कर्नाटक से लेकर बिहार तक में कोई संभावना नज़र नहीं आईं। उन्होने इस काम के लिए लालगढ़ में कारखाना बनाने के एलान कर दिया। अब लालगढ़ में ज़मीन आसमान से तो आएगी नहीं। वो किसानों से ज़मीन लेंगी। यानी इस मोर्चे पर ममता सिंगूर और नंदीग्राम की नीति को छोड़ देंगी। यहां सेज़ बनाने पर उनका विरोध नहीं हैं। इस इलाक़े में ज़मीनें लालगढ़ के लोगों की हैं। जब वो ज़मीनें देंगे तो सरकारी मुआवज़ा पाएंगे। फिर रेल कोच फैक्ट्री में काम करेंगे। ममता चाहतीं तो कोलकाता से सटे मध्यमग्राम, श्रीरामपुर, चंदनगर, भद्रेश्वर में रेल फैक्ट्री बनवा सकती थीं। लेकिन उन्होने चुना लालगढ़ को ही। इसी लालगढ़ में लालक़िला को ध्वस्त करने का अरमान छिपा है और छिपा है नक्सलियों से राजनीतिक दलों के रिश्ते। ये रिश्ते अब गुमनमी में नहीं हैं।

Thursday, July 2, 2009

मां, माटी और मानुष की वजह से लेफ्ट की मिट्टी दरकी


लोकसभा चुनाव के बाद नगरपालिका, पंचायत और परिषद के चुनावों में भी वाम मोर्चा को मुंह की खानी पड़ी है। लोकसभा की तरह कई नगरपालिका भी वाम मोर्चा के हाथ से ऐसे निकले, जैसे कि मुट्ठी से रेत सरकती है। वाम मोर्चा सकते में हैं, सदमें में हैं। वहीं, तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन जश्न में डूबा है। अब सवाल ये कि क्या मतदाताओं ने एक बार फिर वाम मोर्चा को नकारा है और तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन को जनादेश दिया है। या फिर लोगों की जो नाराज़गी है, उसे अभी तक लेफ्ट दूर नहीं कर पाई है और एक के बाद एक धक्के खा रही है।
पश्चिम बंगाल में सोलह नगरपालिकाओं के लिए चुनाव हुए। इसमें से तेरह नगरपालिकाओं पर ममता बनर्जी और साथियों का झंडा लहराया। इसके साथ ही इन तेरह नगरपालिकओं से वाम मोर्चा का झंडा बेरंग होकर उतर गया। पिछले तैंतीस साल से बंगाल पर राज कर रही लेफ्ट पार्टियां केवल तीन नगरपालिकाओं पर लाल झंडा लहराने में क़ामयाब हुई है। विरोधियों के क़ब्ज़े से लेफ्ट केवल जलपाईगुड़ी की मालबाज़ार नगरपालिका ही छीन सकी है। लेकिन लेफ्ट को ये जीत भी बेहद मामूली सीट से नसीब हुई है। इस नगरपालिका पर पिछले दस साल से बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस का राज था। पिछले चुनाव में लेफ्ट और गठबंधन को बराबर सीटें मिली थीं। इसके बाद लॉटरी के ज़रिए सत्ता तय की गई और ये लॉटरी गठबंधन के हाथ लगीं। इस बार भी मालबाजार नगरपालिका में लेफ्ट पार्टी को केवल एक वार्ड के ज़रिए सत्ता हाथ लगी है। पंद्रह वार्डों में से आठ पर लेफ्ट को और सात वार्ड पर कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस को जीत मिली है। इसके अलावा गंगारामपुर और राजारहाट-गोपालपुर नगरपालिका पर लेफ्ट को जीत नसीब हुई है। जबकि दमदम, दक्षिण दमदम, उलबेड़िया, आसनसोल, मध्यमग्राम, महेशतला, सोनारपुर –राजपुर नगरपालिका वाम मोर्चा के हाथ से निकल गए।
अगर हम हर नगरपालिका, पंचायत और परिषद के नतीजों को तफसील से देखें तो साफ पता चलता है कि लेफ्ट फ्रंट को जहां भी जीत मिली है, वो बेहद मामूली अंतर से हैं। जबकि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को हर जगह अप्रत्याशित जीत मिली है। अपवाद के तौर पर दक्षिण दिनाजपुर की गंगापुर नगरपालिका में 18 सीटों में से लेफ्ट को 12 और गठबंधन को 6 सीटों पर जीत मिली है। जबकि राजराहट-गोपालपुर में 35 वार्ड में से लेफ्ट को 19 और कांग्रेस –तृणमूल गठबंधन को 15 वार्डों पर जीत नसीब हुई है। एक वार्ड से निर्दल जीता है। यानी साफ तौर पर ये नगरपालिका भी लेफ्ट के हाथ से जाते-जाते बची है।
हैरानी की बात है कि उत्तर चौबीस परगना के तीनों नगरपालिका लेफ्ट के हाथ से फिसल गए। जबकि इस ज़िले में सीपीएम के दिग्गज सुभाष चक्रवर्ती, नेपाल देब भट्टाचार्य, असीम दासगुप्ता, अमिताभ नंदी जैसे दिग्गज नेता हैं। लेकिन लाल क़िला को भरभराने से नहीं रोक पाए। दक्षिण दमदम के 35 वार्डों में से लेफ्ट को केवल 11 वार्डों पर जीत मिली है। जबकि गठबंधन को 24 वार्डों पर जीत मिली है। दमदम के 22 वार्डों में से तृणमूल को 13 और लेफ्ट को केवल 9 वार्डों पर जीत मिली है। मध्यमग्राम नगरपालिका के 25 वार्डों में से 18 पर कांग्रेस और तृणमूव कांग्रेस जीती है। महानगर से दूर दराज ज़िलों की बात करें तो उत्तर दिनाजपुर के इस्लामपुर नगरपालिका के 17 में से 13 वार्ड पर गठबंधन जीता है और लेफ्ट को तीन वार्डों से संतोष करना पड़ा है।
आख़िर लेफ्ट के नसीब में अब हार क्यों लिखी है। लोकसभा चुनाव में बात समझ में आ रही है कि नंदीग्राम के तूफान ने वाम मोर्चा के तंबू को उखाड़ फेंका था। आइला तूफान को बीते अब ख़ासा समय हो गया, फिऱ भी लेफ्ट अपनी वजूद नहीं बचा पा रहा। जीत के जश्न में डूबे कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के नेता इसे मां, माटी और मानुष की जीत बता रहे हैं। अगर इसका राजनीतिक मतलब निकालें तो जिन तीन बिंदुओं पर लाल क़िला खड़ा था, वो तीनों बिंदु अब उसके विरोधियों के हाथ में हैं। महानगर कोलकाता और या दूर –दराज़ का कोई गांव- हर जगह से महिलाओं के साथ बलात्कार और दुराचार की ख़बरें आती रहती हैं। महिलाओं के ख़िलाफ हो रहे अत्याचार परिवारों को लेफ्ट से दूर करने का काम किया है। दूसरा बिंदु ये है कि बरगा आंदोलन के बाद लेफ्ट ने गांवों और किसानों का दिल जीत लिया था। शहरी मतदाता भले ही तर्कों के आधार पर वाम को ख़ारिज कर देता था। लेकिन केत खलिहान की भावनाएं लेफ्ट के साथ होती थीं। लेफ्ट नारा भी देता था कि वो निरपेक्ष नहीं वो मेहनती मानुषों के पक्ष में हैं। लेकिन सिंगुर के बाद लेफ्ट सरकार की खेत खलिहानों और किसानों के लेकर नीति को पोल खुल गई। सर्वहारा के नारे पर टिका वाम के लिए अब सर्व हारा ही हो गया है। तीसरा बिंदु मानुष का है। यानी गांव हो या शहर – हर जगह लोगों का जीना दुश्वार हो गया है। बेरोज़गारी बढ़ी है। राज्य सरकार रोज़गार देने में असफल रही है। कभी जूट और सूती मिलों के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश तक में मशहूर रहे राज्य में एक-एक कर सारे कारखाने बंद होते गए। रोज़गारों से रोज़गार छिनें और नए बेरोज़गारों की संख्या लगातार बढ़ती गई। पूरे देश में उत्तम शिक्षा के लिए मशहूर राज्य में शिक्षा का राजनीतिकरण हुआ। ये तमाम वजहें , जिनकी वजह से लेफ्ट को नुक़सान उठाना पड़ा। लोकसभा चुनाव में जब तृणमूल के सुलतान अहमद ने उलबेड़िया में हन्नान मोल्ला को हराया या फिर हावड़ा से अंबिका बनर्जी जीते या दमदम से पुराने कांग्रेसी सौगत राय ने अमिताभ नंदी को हराया तो समीक्षा में बात निकलकर सामने आई कि लोगों के मन लेफ्ट के लिए ग़ुस्सा था। वो लोकसभा में फूटा है। कांग्रेस और तृणमूल कहने लगे कि अब बारी विधानसभा की है। लेकिन एक तबका ये मानता रहा कि लोगों के दिल में जो गुबार था , वो निकल चुका है। लेफ्ट को इस हार से सबक मिली है। लेकिन नगरपालिका के चुनावों ने साबित कर दिया है कि लेफ्ट के लिए खोई हुई ज़मीन हासिल करना अब बेहद चुनौतीभरा काम है।

Wednesday, July 1, 2009

आयोगों के ज़रिए सरकारें करती हैं लीपापोती


बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड को लेकर लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंप दी। अभी किसी को नहीं मालूम कि इस रिपोर्ट में क्या है ? आयोग ने क्या सिफारिश की है ? लेकिन इस रिपोर्ट को लेकर राजनीति शुरू हो गई है। इसका राजनीतिक पहलू समझने से पहले एक बार इस आयोग के बारे में समझ लें। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के दस दिन के बाद केंद्र सरकार ने 16 दिसंबर 1992 को लिब्राहन आयोग का गठन किया। सरकार ने तीन महीने के भीतर जांच रिपोर्ट देने को कहा था। यानी आयोग को 16 मार्च 1993 तक अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपना था। लेकिन आयोग को ये काम करने में सत्रह साल लग गए। इसी के साथ इस आयोग ने भारत में एक रिकार्ड भी क़ायम कर लिया है। देश में सबसे ज़्यादा समय तक काम करने का रिकार्ड अब लिब्राहन आयोग के नाम है। इस आयोग को 48 बार एक्सटेंशन यानी विस्तार दिया गया। आयोग ने एक सौ दो लोगों ,जिनमें आरोपी भी शामिल हैं, के बयान लिए। 399 बार सुनवाई की। सरकार के दस करोड़ रुपए के ख़र्चे पर अपनी रिपोर्ट सत्रह साल बाद सरकार को सौंप दी। बताया जाता है कि आयोग ने चार साल पहले ही रिपोर्ट तैयार कर ली थी। लेकिन सौंपी अब है। इसकी वजह तो नहीं मालूम। लेकिन एक बात सबको मालूम है कि जस्टिस लिब्राहन और आयोग के वकील अनुपम गुप्ता के बीच छत्तीस का आंकड़ा था और वो बाद में आयोग से अलग भी हो गए थे।
अब बात इस रिपोर्ट की राजनीति की। हिंदुत्व की लहर पर सवार होकर सत्ता सुख पा चुकी बीजेपी क्या इस रिपोर्ट से सांसत में हैं ? ऊपर से देखने में एक बार ऐसा महसूस तो हो सकता है। क्योंकि बीजेपी और उसकी परिवार के कई दिग्गज आरोपी हैं। लेकिन सच ये नहीं है। सच तो ये है कि राजनीतिक भंवर में फंसी बीजेपी के लिए ये रिपोर्ट आक्सिजन जैसा है। याद करें चुनाव से पहले हिंदुत्व के मुद्दे पर बीजेपी का हालत सांप –छुछुंदर जैसी थी। बीजेपी तय नहीं कर पा रही थी कि वो हिंदुत्व की लहर पर सवार हो या फिर सूडो सेक्युलर की छवि के साथ मैदान में उतरे। वरूण गांधी के विवादास्पद बयान के बाद कई दिनों तक बीजेपी के दिग्गज नेताओं की दुविधा पूरे देश ने देखा है। चुनाव के बाद बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी ने स्वीकार किया था कि देश दो दलीय राजनीति की तरफ बढ़ा है और मतदाताओं ने बीजेपी को खारिज किया है।
बीजेपी को अच्छी तरह से मालूम है कि चुनाव में हुए घाटे की भरपाई इसी रिपोर्ट से संभव है। अगर किसी आरोपी के ख़िलाफ सरकार कार्रवाई करेगी तो सीधे तौर पर बीजेपी को फायदा होगा। चुनाव के समय विकास के नाम पर एकजुट हुए मतदाता पोलोराइज़ेशन के इस दौर में फिर से धर्म के नाम पर बंटेगें।
रिपोर्ट पेश होने के बाद बीजेपी नेताओं और बीजेपी से अलग हो चुके नेताओं के बॉडी लेंग्वेज पर ग़ौर कीजिए। हालिया मध्य प्रदेश चुनाव में गोते खाने के बाद बीजेपी में लौटने की राह तक रही उमा भारती फिर से फायर ब्रांड मुद्रा में आ गईं। सत्रह साल पहले की तस्वीर सबको याद होगी, जिसमें मस्जिद टूटने के बाद उमा भारती बीजेपी के दिग्गज मुरली मनोहर जोशी के साथ गलबहियां करते देखी गई थीं। उमा भारती ताल ठोंककर सरकार को चुनौती दे रही हैं कि उन्हे सरेआम सूली पर लटाकाया जाए। उमा भारती दावा कर रही हैं कि वो मस्जिद गिराए जाने की ज़िम्मेदारी एक अच्छे सेनापति की तरह लेने को तैयार हैं। कल तक यही उमा भारती और बीजेपी के दिग्गज दावा कर रहे थे कि जो कुछ भी हुआ , साज़िश के तहत नहीं हुआ। ये घटना अप्रत्याशित थी।
रिपोर्ट पेश होते ही बीजेपी के दिग्गज अरूण जेटली, राजनाथ सिंह आदि लालकृष्ण आडवाणी से मिले। ज़ाहिर इस रिपोर्ट के असर को लेकर रणनीति बनी होगी।
पूर्व केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद इस रिपोर्ट को फुल टॉस बॉल की तरह लिया। सीना तानकर कहा कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर बने। साथ ही लगे हाथ आयोग की उम्र पर सवाल खड़े कर दिए। मांग कर डाली की कि इसकी भी जांच होनी चाहिए। ये मांग करते समय शायद रविशंकर प्रसाद ये भूल गए कि इस दरम्यान बीजेपी ने भी छह साल तक शासन किया है। भव्य मंदिर बनाने की बात करते समय ये भी भूल गए कि उनकी सरकार के दौरान अयोध्या में राम मंदिर की लड़ाई लड़नेवाले पुराने साधू परमहंस ने भूख हड़ताल शुरू कर दी थी। सरकार ने विशेष दूत भी भेजा था और लालकृष्ण आडवाणी ने एनडीए के एजेंडे में राम मंदिर न होने की बात कर विवाद से पल्ला झाड़ लिया था। कांग्रेस भी इस पर राजनीति करने का मौक़ा नहीं छोड़ रही। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने बीजेपी नेताओं का नाम लिए बग़ैर राशन पानी लेकर धावा बोल दिया। दावा करने लगे कि दोषियों के ख़िलाफ सरकार किस तरह का कार्रवाई का इरादा रखती है। उनका ये दावा अंतर्मन से कम राजनीतिक दिल से ज़्यादा लगता है।
बीजेपी और कांग्रेस नेताओं के बयानबाज़ी के विशुद्ध तौर पर राजनीतिक मतलब है। बीजेपी चाहती है कि इस मुद्दे पर उनके नेताओं को घसीटा जाए। उनके नेताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई की बात हो और शहीदी मुद्रा में आकर राजनीतिक लाभ कमाएं। वहीं , कांग्रेस भी इसका राजनीतिक फायदा उठाने के लिए अल्पसंख्यक राजनीति की मौक़ा नहीं छोड़ रही। लेकिन उसे बहुसंख्यक वोट खोने का भी डर सता रहा है। कांग्रेस को अच्छी तरह से मालूम है कि अगर उसने इस रिपोर्ट पर कार्रवाई शुरू की तो घाटा कांग्रेस को होगा और लाभ बीजेपी को। इसलिए बयानबाज़ियों से काम चला लिया जाए। अल्पसंख्यकों को फिर से ये अहसास कराया जाए कि सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस अब भी उनके साथ खड़ी है।
अब सवाल ये है कि सरकार आयोग की सिफारिशों पर क्या करेगी। चूंकि अपने देश का राजनीतिक इतिहास रहा है कि कोई भी जांच कमीशन ईमानदार जांच के लिए नहीं गठित की जाती। उसका इस्तेमाल राजनीतिक मतलबों के लिए होता है। इन आयोगों को बनाने वालों की नीयत और मंशा शुद्ध तौर पर राजनीतिक होती हैं। इसलिए आयोगों की रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। आज़ादी के बाद से लेकर अब तक कई रिश्वत कांड को लेकर आयोग बने। लेकिन आज एक बार भी ऐसा नहीं सुनने में आया कि दोषी को कड़ी सज़ा मिली है। ऐसा ही मामला जैन हवाला कांड में भी हुआ। नानवटी आयोग ने गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी सरकार को क्लीन चिट दी। सिख विरोधी दंगों के आरोपी अब भी सज़ा नहीं पाए हैं। दरअसल , सरकार चाहें जिस किसी भी पार्टी की हो, वो आयोगों के ज़रिए लीपापोती करती है। सच पर परदा डाला जाता है। अरसा ग़ुज़रने पर लोगों के ज़ख़्म खुद ही सूख जाते हैं। नेताओं के बिरादरी को मालूम है कि जनता की याददाश्त कमज़ोर होती है और वो इसी का फायदा उठाते हैं। भले ही इससे लोकतंत्र की साख पर बट्टा लगे।