Monday, February 11, 2019

अमित शाह अगर राजनीति के चाणक्य तो प्रियंका भी चाचा चौधरी

कांग्रेस की नई राष्ट्रीय महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी ने जिस तरह से उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में रोड शो कर वाहवाही लूटी, उससे साफ हो गया है कि यूपी की राजनीति में तेजपत्ते की तरह निकालकर फेंक दी गई कांग्रेस को नई जिंदगी मिलनेवाली है। लखनऊ की गली-गली से राहुल गांधी के साथ प्रियंका गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया का काफिला निकला तो लोगों ने फूल बरसा कर करवट लेती राजनीति के गवाह बनने का संकेत दे दिया। इतिहास गवाह है कि नवाबों की नगरी लखनऊ में अर्से से बीजेपी ना केवल कांग्रेस बल्कि सपा और बसपा पर भी भारी पड़ती रही है। लेकिन भीड़ ने प्रियंका-राहुल को देखकर जिस तरह से जोश दिखाया और सिर्फ एक लफ्ज़ राहुल की जुबान से निकलने पर नारे लगाने लगी कि चौकीदार चोर है। उससे साफ हो गया है कि प्रदेश में कांग्रेस अब घुटने के बल नहीं रेंगनेवाली। 
दरअसल यूपी की सियासत में मरणासन्न हो चुकी कांग्रेस को जिंदा करने की गरज से राहुल गांधी कभी अकेले लड़े। कभी सपाइयों का साथ मिला। लेकिन मरी हुई लाश की तरह पड़ी कांग्रेस किसी भी तरह घी पी नहीं पा रही था। सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर चले शिवभक्त राहुल का अचानक शायद रामायण को वो किस्सा याद आ गया होगा जब मूर्छित लक्ष्मण को होश में लाने के लिए राम ने हनुमान से संजीवनी बूटी मंगाई थी। चुनाव में राम मंदिर बनाने के शोर और होड़ के बीच राहुल चुपके से प्रियंका को लाए। प्रियंका का राजनीति में आना ही गजब हो गया। टीवी डिबेट का हिस्सा हो गईं। बीजेपी वाले सीधे प्रियंका की खूबसरती पर हमला बोलने लगे। कोई कहने लगा कि अब उम्र ढल गई है। क्रेज ही ना बचा। कोई चॉकलेटी कहने लगा। राहुल अपनी रणनीति में सफल रहे।
प्रियंका को जाननेवाले जानते हैं कि उनका चुनाव मैनजमैंट बेहद शानदार रहा है। नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के कब्जे से सोनिया गांधी ने बड़ी मुश्किल से कांग्रेस को छीना और परिवार के वफादार सतीश शर्मा को रायबरेली से उम्मीदवार बनाया तब बीजेपी ने तब के राजनीति के चाणक्य कहेजाने वाले राजीव गांधी के कजिन अरुण नेहरू को मैदान में उतारा। सोनिया ने नौसिखिया प्रियंका को जिम्मेदारी दी। चुनाव में सतीश शर्मा पर नेहरू बहुत भारी पड़ रहे थे। लेकिन प्रियंका ने आखिरी दांव चला और वो था इमोशनल डॉयलाग। प्रियंका ने लोगों से भावुक सवाल किया कि क्या वे लोग उस आदमी को संसद भेजना पसंद करेंगे, जिस पर मेरे पापा ने आंख मूदकर भरोसा किया। लेकिन उसी आदमी ने सत्ता के लिए पापा की पीठ में छूरा घोंपा। पापा अब इस दुनिया में नहीं है। नतीजा आया तो सतीश शर्मा भारी बहुमत से जीते और अरुण नेहरू चौथे नंबर पर।
इसी तरह से जब सोनिया गांधी ने कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ा तो बीजेपी ने सुषमा स्वराज को उतारा। बीजेपी के लिए खनन माफिया के नाम से बदनाम रेड्डी बंधु खुलेआम मैदान में आ गए। सोनिया की हार तय हो चुकी थी। सुषमा ने भी ऐलान कर दिया कि अगर वो चुनाव हार गईं तो विधवा की तरह सिर मुंडा लेंगी। जिस दिन नतीजे आ रहे थे, उसमें कई दौर में सोनिया काफी पीछे चल रही थीं। लेकिन ऐन वक्त पर बाजी पलट गई और सोनिया जीत गईं। इस जीत की स्क्रिप्ट प्रियंका ने ही लिखी थी। प्रियंका ने बेल्लारी में भी भावुक बातें कही थीं। प्रियंका ने कहा था कि जिसने उसके पापा की हत्या की, उसको भी हमारे परिवार ने माफ कर दिया। सुषमा जी आप सुहागिन हो। मांग में सिंदूर आपकी दमकती है। हिंदू रिवाज में सिर सिर्फ वहीं मुंडवाती हैं, जिनका सुहाग उजड़ जाता हो। मैं आपसे अपील करती हूं कि आप ये कसम तोड़ दीजिए। बिना बाल के सिंदूर में आप अच्छा नहीं लगेंगी। आप सदा सुहागिन रहो यही भगवान से प्रार्थना है। इमोशनल अपील और चुनाव प्रबंधन में माहिर अगर प्रियंका राजनीति में आई हैं तो सत्ता पक्ष में घबराहट होना जायज है।     

Tuesday, February 5, 2019

पुलिस कमिश्नर तो बहाना है बंगाल में बीजेपी को मटुआ वोट पाना है

सीबीआई बनाम कोलकाता पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के मसले पर सुप्रीम फैसले को बीजेपी और टीएमसी अपने अपने हिसाब से भुना रही है। दोनो ही पार्टियां अदालत के इस फैसले को अपनी नैतिक जीत से जोड़ रही हैं। लेकिन असली लड़ाई तो कुछ और ही है। दरअसल हाल के कुछ उपचुनावों, विधानसभाओं के नतीजों ने बीजेपी को आईना दिखा दिया है। बीजेपी को समझ में आ गया है कि साल 2019 में फिर से सत्ता पाना है तो हिंदी पट्टी प्रदेशों में साल 2014 की तरह पूरा जोर लगाने का कोई तुक नहीं है। इसलिए बेहतर हो गैरहिंदी प्रदेशों पर फोकस किया जाए। बंगाल में बीजेपी को मुकाबला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से करना है जो रणकौशल में चतुर और जुझारु तेवर की राजनेता हैं।
देश के पूर्वी सिरे के इस राज्य में लोकसभा की 42 सीटें हैं। बीजेपी ने 23 सीटें जीतने का टारगेट तय कर रखा है। वो चाहती है कि कम से कम 50 फीसदी सीटें उसकी झोली में आ जाएं। बीजेपी ने एक खास सोच के तहत अपना ध्यान पश्चिम बंगाल की तरफ लगाया है। विपक्षी पार्टियों की एकजुटता, किसानों के संकट के कारण सुस्त पड़ती ग्रामीण अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी और भारतीय राजनीति की पहचान रही सत्ताविरोधी लहर सरीखे कई कारण हैं जो बीजेपी हिंदी पट्टी राज्यों में 2014 सरीखा अपना प्रदर्शन नहीं दोहरा सकती। लिहाजा  बीजेपी के लिए भारत के पूर्वी तट के राज्यों पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी हो गया है। इस पट्टी में आंध्र प्रदेश, ओड़िशा, तमिलनाडु, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 144 सीटें हैं। इस पट्टी में बीजेपी का प्रदर्शन 2014 में खास अच्छा नहीं रहा था जबकि उस वक्त लहर बीजेपी की थी।
आबादी की बुनावट और सियासी माहौल की खासियत के कारण पश्चिम बंगाल बीजेपी के लिए चुनाव में पांसा पलट देने वाला राज्य साबित हो सकता। बीजेपी पश्चिम बंगाल में दशकों तक कुछ खास असर न जमा पाई। लेकिन हाल के दिनों में बीजेपी अब मुख्य विपक्षी के रूप में उभरी है। बंगाल में बिहार-यूपी से आकर बसे लोगो का पूरा समर्थन मिल रहा है।  बीजेपी के हिमायती ब्राह्मणों-ठाकुरों और कायस्थ वोटरों की तादाद बढ़ी है। 
बीजेपी को पता है कि ममता बनर्जी एक कद्दावर नेता हैं और राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में सिरमौर की भूमिका निभाने का सपना उनके दिल में भी है। बीजेपी बड़े नपे-तुले अंदाज और अपने को काबू में रखते हुए हमले कर रही हैं। जोर लोगों से संपर्क साधने, मुख्यमंत्री पर निशाना साधने और राज्य की आबादी की खास बुनावट को अपने हक में भुनाने पर है। 
बीजेपी ने पूरबियों के अलावा मटुआ जाति के लोगों को टारगेट किया है। नरेंद्र मोदी और मटुआ धर्म की नेता बीनापानी देवी की मुलाकात और मोदी के मटुवा सम्मेलन में भागीदारी बेहद अहम है। धर्म की बुनियाद पर प्रताड़ना के शिकार हुए लोगों को मटुआ कहते हैं, जो  अविभाजित भारत के बंगाल में रहते थे। बंगाल का यही इलाका पूर्वी पाकिस्तान कहलाया और आखिर में बांग्लादेश बना। मटुआ लोगों को बांग्लादेश से भगा दिया, जिसे कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में बसा दिया। देश के बंटवारे के वक्त इस समुदाय के लोगों की संख्या ज्यादा बढ़ी और ये लोग हावड़ा, दोनो चौबीस-परगना, नदिया, माल्दा, कूचबिहार और उत्तरी और दक्षिणी दिनाजपुर मे बस गए। संख्या के एतबार से पश्चिम बंगाल की अनुसूचित जातियों में मटुआ लोग दूसरे नंबर पर हैं। मटुआ समुदाय के लोगों की तादाद 3 करोड़ है। जो लोग 1971 के बाद भारत पहुंचे उन्हें संदिग्ध मतदाता की श्रेणी में रखा गया है। मटुआ लोगों की पूर्ण नागरिकता की मांग बीजेपी के नागरिकता संशोधन विधेयक में है। इसमें बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए लोग हैं। 
सो, ये समझना मुश्किल नहीं कि मोदी ने पैंतरे से काम ना लेते हुए आक्रामक रुख अपनाया। उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भ्रष्टाचार का प्रतीक बता रहे है। इसलिए सारदा घोटाला रोज वैली स्कैम की आड़ में सीबीआई के जरिए सीएम के करीबी पुलिस कमिश्नर पर शिकंजा कसकर ममता को बदनाम करने की रणनीति है। साफ है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी का सारा दारोमदार मोदी पर है और मोदी ने भी साबित किया है कि धोनी की तरह वो भी बेस्ट फिनिशनर हैं। 

Monday, February 4, 2019

मोदी जी, याद रखें इस ममता में दया नहीं है

आ.सू.संवाददाता- पश्चिम बंगाल के पुलिस कमीश्नर राजीव कुमार से सीबीआई की पूछताछ की कोशिश के विरोध में देश ने शायद पहली बार तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का बेहद तीखा और हमलावर अंदाज देखा हो। लेकिन पश्चिम बंगाल की जनता के लिए ये तेवर नया नहीं है। राजनीति में विरोध के कारण ही ममता की पैदाइश हुई और इसी विद्रोही तेवरों की वजह से वो मां-माटी-मानुष का नारा लगाते हुए जनता के बीच गईं। इसी आक्रामक राजनीति चरित्र के चलते ही जनता ने ममता का राजतिलक किया।
दरअसल, ममता अस्सी के दशक में तब के दिग्गज नेता रहे सुब्रतो रॉय और अभी के राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री सौगत रॉय की देन है। दरअसल हुआ यूं ममता युवा कांग्रेस की राजनीति कर रही थीं। तब उन्हे उनके मुहल्ले कालीघाट के लोग भी बहुत कम पहचानते थे। उस समय देश में सीपीएम नेता और सीएम रहे ज्योति बसु का जलवा-जलाव जलाल हुआ करता था। अचनाक एक दिन लोगों ने अखबार में तस्वीर देखी। तस्वीर में ममता अपने साथियों के साथ सीएम का काफिला रोककर कार की बोनट पर मां चंडी की तरह डांस कर करते दिख रही थीं। ये विद्रोही तेवर लोगों के दिलों में उतर गया। खबर राजीव गांधी तक पहुची और वो बंगाल महिला कांग्रेस की मुखिया बन गईं। लेकिन पद ने तल्ख तेवरों को कम नहीं होने दिया। सूती साड़ी और हवाई चप्पल में वामपंथी सरकार के नाक मे दम करती रहीं। सांसद चुनी गईं और राजीव गांधी की सरकार में राज्य मंत्री भी बनीं।
एक मूक वधिर लड़की से सीपीएम नेता के बलात्कार की घटना को लेकर बतौर मंत्री वो मुख्यमंत्री से मिलने ईँ तो उन्हें रोका गया। वो धरने पर बैंठी तो केंद्रीय मंत्री को पुलिस ने पीट दिया। फिर क्या था देखते ही देखते उनका कद राज्यमंत्री से भी ज्यादा बड़ा हो गया। जब कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी के पास तब भी ममता ने अपना जिद्दीपन और अड़ियाल रवैया नहीं छोड़ा। सत्ता से उनका टकराव बढता गया और एक दिन वो पार्टी से रुखसत हो गईं। अलग पार्टी बनाई। जनता के बीच गईं। टाटा नैनो कार मुद्दे पर मजदूरों और किसानों की राजनीति करनेवालों को घुटने के बल ला दिया। जनता ने ममता को दिल से इंकलाबी मानकर तैंतीस साल से सत्ता पर काबिज वामपंथियों को सरकार से हटाकर ममता को बिठा दिया।
टकराना ममता की फितरत है। चाहें वो पार्टी हाईकमान हो, राज्य की सरकार हो या फिर सत्तानशीं सरकार। ममता खपैरल वाली घऱ में रहती हैं। शादी ब्याह और बाल-बच्चों के चक्करों से मुक्त हैं। खाली हाथ की राजनीति करनेवाली ममता कभी भयभीत नहीं होतीं। दूसरी अहम बात ये किइस महिला नेता का नाम बेशक ममता है लेकिन राजनीति में उन्होंने कभी दया नहीं दिखाई। विरोधियों को मात देने में जनता ने हर बार ममता का कठोर कलेजा ही देखा है। इसलिए कहा जा सकता है कि ईडी और सीबीआई करे जरिए बेशक अखिलेश यादव, मायावती, राबड़ी देवी, मीसा भारती, चंद्रबाबू नायडू एक बार कांप जाएं। लेकिन ममता अपने कठोर सियासी इरादों के साथ सत्ता से टकराने का माद्दा दिखाकर बंगाल में बीजेपी की इंट्री की राह इतनी आसान होने देनेवाली नहीं।