सीबीआई बनाम कोलकाता पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के मसले पर सुप्रीम फैसले को बीजेपी और टीएमसी अपने अपने हिसाब से भुना रही है। दोनो ही पार्टियां अदालत के इस फैसले को अपनी नैतिक जीत से जोड़ रही हैं। लेकिन असली लड़ाई तो कुछ और ही है। दरअसल हाल के कुछ उपचुनावों, विधानसभाओं के नतीजों ने बीजेपी को आईना दिखा दिया है। बीजेपी को समझ में आ गया है कि साल 2019 में फिर से सत्ता पाना है तो हिंदी पट्टी प्रदेशों में साल 2014 की तरह पूरा जोर लगाने का कोई तुक नहीं है। इसलिए बेहतर हो गैरहिंदी प्रदेशों पर फोकस किया जाए। बंगाल में बीजेपी को मुकाबला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से करना है जो रणकौशल में चतुर और जुझारु तेवर की राजनेता हैं।
देश के पूर्वी सिरे के इस राज्य में लोकसभा की 42 सीटें हैं। बीजेपी ने 23 सीटें जीतने का टारगेट तय कर रखा है। वो चाहती है कि कम से कम 50 फीसदी सीटें उसकी झोली में आ जाएं। बीजेपी ने एक खास सोच के तहत अपना ध्यान पश्चिम बंगाल की तरफ लगाया है। विपक्षी पार्टियों की एकजुटता, किसानों के संकट के कारण सुस्त पड़ती ग्रामीण अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी और भारतीय राजनीति की पहचान रही सत्ताविरोधी लहर सरीखे कई कारण हैं जो बीजेपी हिंदी पट्टी राज्यों में 2014 सरीखा अपना प्रदर्शन नहीं दोहरा सकती। लिहाजा बीजेपी के लिए भारत के पूर्वी तट के राज्यों पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी हो गया है। इस पट्टी में आंध्र प्रदेश, ओड़िशा, तमिलनाडु, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 144 सीटें हैं। इस पट्टी में बीजेपी का प्रदर्शन 2014 में खास अच्छा नहीं रहा था जबकि उस वक्त लहर बीजेपी की थी।
आबादी की बुनावट और सियासी माहौल की खासियत के कारण पश्चिम बंगाल बीजेपी के लिए चुनाव में पांसा पलट देने वाला राज्य साबित हो सकता। बीजेपी पश्चिम बंगाल में दशकों तक कुछ खास असर न जमा पाई। लेकिन हाल के दिनों में बीजेपी अब मुख्य विपक्षी के रूप में उभरी है। बंगाल में बिहार-यूपी से आकर बसे लोगो का पूरा समर्थन मिल रहा है। बीजेपी के हिमायती ब्राह्मणों-ठाकुरों और कायस्थ वोटरों की तादाद बढ़ी है।
बीजेपी को पता है कि ममता बनर्जी एक कद्दावर नेता हैं और राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में सिरमौर की भूमिका निभाने का सपना उनके दिल में भी है। बीजेपी बड़े नपे-तुले अंदाज और अपने को काबू में रखते हुए हमले कर रही हैं। जोर लोगों से संपर्क साधने, मुख्यमंत्री पर निशाना साधने और राज्य की आबादी की खास बुनावट को अपने हक में भुनाने पर है।
बीजेपी ने पूरबियों के अलावा मटुआ जाति के लोगों को टारगेट किया है। नरेंद्र मोदी और मटुआ धर्म की नेता बीनापानी देवी की मुलाकात और मोदी के मटुवा सम्मेलन में भागीदारी बेहद अहम है। धर्म की बुनियाद पर प्रताड़ना के शिकार हुए लोगों को मटुआ कहते हैं, जो अविभाजित भारत के बंगाल में रहते थे। बंगाल का यही इलाका पूर्वी पाकिस्तान कहलाया और आखिर में बांग्लादेश बना। मटुआ लोगों को बांग्लादेश से भगा दिया, जिसे कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में बसा दिया। देश के बंटवारे के वक्त इस समुदाय के लोगों की संख्या ज्यादा बढ़ी और ये लोग हावड़ा, दोनो चौबीस-परगना, नदिया, माल्दा, कूचबिहार और उत्तरी और दक्षिणी दिनाजपुर मे बस गए। संख्या के एतबार से पश्चिम बंगाल की अनुसूचित जातियों में मटुआ लोग दूसरे नंबर पर हैं। मटुआ समुदाय के लोगों की तादाद 3 करोड़ है। जो लोग 1971 के बाद भारत पहुंचे उन्हें संदिग्ध मतदाता की श्रेणी में रखा गया है। मटुआ लोगों की पूर्ण नागरिकता की मांग बीजेपी के नागरिकता संशोधन विधेयक में है। इसमें बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए लोग हैं।
सो, ये समझना मुश्किल नहीं कि मोदी ने पैंतरे से काम ना लेते हुए आक्रामक रुख अपनाया। उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भ्रष्टाचार का प्रतीक बता रहे है। इसलिए सारदा घोटाला रोज वैली स्कैम की आड़ में सीबीआई के जरिए सीएम के करीबी पुलिस कमिश्नर पर शिकंजा कसकर ममता को बदनाम करने की रणनीति है। साफ है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी का सारा दारोमदार मोदी पर है और मोदी ने भी साबित किया है कि धोनी की तरह वो भी बेस्ट फिनिशनर हैं।
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