Thursday, March 20, 2008

आडवाणी के राम मतलबी हैं

कथित लौह पुरूष लालकृष्ण आडवाणी के राम मतलबी हैं। मेरा ये कहना अनायस नहीं है, सपाट नहीं हैं। बहुत सारे तर्कों -वितर्कों के आधार पर मैं बीजेपी के लौह पुरूष को फरेबी कह रहा हूं। संघियों को अगर आपत्ति है, तो वो इस बहस में ज़रूर शामिल हों।
कहने को पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी लौह पुरूष हैं। लेकिन असलियत में वो ज़ुबान से मोम पुरूष हैं। अपनी बात कहकर कब मुकर जाते हैं, इसका उन्हे ख़्याल भी नहीं रहता। अपनी आत्मकथा में उन्होने दावा किया है कि दुनिया की कोई भी ताक़त अब अयोध्या में राम मंदिर बनने से नहीं रोक सकती। अपनी पीठ थपथपाते हुए वो लिखते हैं कि 90 के आंदोलन के दौरान उन्होने जो बुनियाद खड़ी कर दी है, अब उसे हिला पाना नामुमक़िन है। आडवाणी अपनी किताब में भी राजनीति करने से बाज़ नहीं आते। लिखते हैं कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अगर फच्चर नहीं किया होता तो राम मंदिर मुद्दे का हल निकल गया होता। अब सवाल ये है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद चंद्रशेखर, नरसिंह राव, एच डी दैवेगौडा़, इंद्र कुमार गुजराल भी तो प्रधानमंत्री बने। फिर क्यों नहीं राम मंदिर का मुद्दा सुलझ गया ? औरों की बात तो छोड़िए- राम के कंधे पर सवार होकर अटल बिहारी वाजपेयी की बारात कई बार देश की सत्ता पर काबिज़ हुई। इस बारात में लालकृष्ण आडवाणी ही सहबाला थे। फिर क्यों नहीं अयोध्या में राम मंदिर बना दिया ? आडवाणी लिखते हैं कि राम मंदिर के मुद्दे पर बीजेपी ने एनडीए में एकराय बनाने में क़ामयाबी हासिल कर ली थी। अगर ये सच है कि संसद से क़ानून बनाकर ये हुक़्म जारी करा देते कि अयोध्या में किसी और धर्म का झंडा नहीं लहराएगा। बनेगा तो सिर्फ वहां राम मंदिर ही। ऐसा वो कर सकते हैं। लोकतंत्र में उन्हे ऐसा करने का अधिकार था। सवाल जनभावना का था। सवाल बहुसंख्यक समुदाय का था। उन्हे बहाने की कोई ज़रूरत नहीं थी। जब पूरा देश गुजरात का नंगा नाच देख रहा था तो लोकतंत्र का नीरो बांसुरी बजा रहा था। साबित करने पर तुले थे कि उनका लाल नरेंद्र मोदी जो भी कर रहा है, वो जायज़ है।
दूसरी बात ये कि राम मंदिर मुद्दे पर जब एनडीए सरकार में एका थी तो क्यों साधु-संतों का सड़कों पर उतर कर आंदोलन करना पड़ा। उस दौरान आडवाणी ने संतों को सार्वजनिक तौर पर संदेश दिया था- याद रखें, ये बीजेपी की सरकार नहीं है। ये एनडीए की सरकार है। अयोध्या में बिफरे पड़े एक बाबा को मनाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना दूत अयोध्या भेजा था। वो बाबा भी ऐसे वैसे नहीं थे। काफी बुज़ुर्ग थे और चालीस के दशक से राम मंदिर का अलख जगा रहे थे। अब वो बाबा राम के प्यारे हो गए। बड़े अरमान थे उनके कि एक बार राम मंदिर में मत्था टेक कर ही जगत को अलविदा कहें। नब्बे के दशक में बीजेपी के मोहक नारे के छलावे के मोह में वो बाबा भी फंस गए थे। जो दुनिया की सब मोब तजकर बेचारे साधु संत बने थे। याद कीजिए- मंडल के आंदोलन के दौरान वाजपेयी ब्रिगेड का नारा- सौगंध राम की खाते हैं हम , मंदिर वहीं बनाएंगे। राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। गंगा -जमुनी तहज़ीब में बंधे देश में नारा लगा- बाबर के औलादों से ख़ून का बदला लेना है। जिस हिंदू का ख़ून न खौला, ख़ून नहीं वो पानी है। जो मंदिर के काम न आए, वो बेकार जवानी है। याद है वो दिन भी , जब राम मंदिर बनाने के लिए पूरे देश से ईंट जमा किया गया था। राम के भक्तों ने पांच - पांच सौ रूपए एक ईंट के चुकाए थे। ताकि अयोध्या में मंदिर बन सके। जनभावना को भड़कानेवाली फौज 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में हंगामा बरपाया। देखते ही देखते बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया। बीजेपी के बड़े नेताओं और न जाने इनके कितने तरह के संगठनों ने नारा भी लगाया। बजरंग दल, हनुमान दल, वानर दल और न जाने कितने तरह के दल के बजरंगी अयोध्या में तैनात थे। ज़ोर ज़ोर से नारा लगा- एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो। मस्जिद के भरभराते ही अब की रूठी और तब की दुलारी उमा भारती ने मुरली मनोहर जोशी से गलबहियां कर लिया था। सत्ता के भूखे नेताओं ने एक के बाद एक बयान देने शुरू कर दिए। मस्जिद तोड़ने का इरादा नहीं था। हमने नहीं उकसाया। उन्माद को क़ाबू कर पाना संभव नहीं था। वाजपेयी जी की तंद्रा टूटी। बयान आया - जो हुआ, बहुत बुरा हुआ। शर्मसार है देश । अटल जी ने पहले इससे पल्ला झाड़ा। फिर सेहरा बांधने से भी नहीं हिचके। करोड़ों लोगों का वोट बीजेपी को सिर्फ इसलिए मिला था ताकि सत्ता में आते ही राम का मंदिर बनवाएं।
याद कीजिए बीजेपी के और सारे कई वादे। सत्ता में आए तो देश में एक क़ानून होगा। क्या बना सबके लिए एक क़ानून ? 370 खत्म कर देंगे। क्या ख़त्म हुआ 370 ? इन नारों के लिए फायर ब्रांड साध्वी ऋंतभरा को उतारा गया था। जो खुलकर कहती थीं- नहीं चाहिए कटा हुआ देश औऱ कटे हुए लोग। सत्ता में आते ही बीजेपी सब भूल गई।
आडवाणी के राम छलिया हैं। ये राम सिर्फ चुनाव की आहट पाकर जगते हैं। ये रोम रोम में नहीं बसते। चुनाव के समय अयोध्या से निकलकर पूरे देश में बसते हैं। आडवाणी के राम चुनावी हैं।
हमारे राम मायावी हैं। कृपालु हैं। सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय हैं। वो अंतर्यामी हैं। वो मर्यादा का पाठ पढ़ाते हैं। छल कपट से दूर रखते हैं। हमारे राम सिर्फ मंदिरों में नहीं बसते। हमारे राम मन में बसते हैं। हमारे राम रोम -रोम में बसते हैं। हमारे राम चुनावी नहीं है। हमारे राम हर पल हमारे साथ रहते हैं। वो हमारी आत्माओं में बसते हैं। वो इधर भी बसते हैं, उधर भी रचते हैं। वो हिंदुओं के राम है। वो मुसलमानों के राम हैं। वो सिख, ईसाई, पारसी , युहूदी सबके राम हैं। हमारे राम जय श्री राम नहीं है। हमारे राम- जय राम जी की हैं। हमारे राम ज़ाकिर भाई के भी मन में हैं। इसलिए वो हमेशा पलटकर जवाब देते हैं- राम राम भाई जान । हमारे राम गांधी जी में बसते थे। मरते वक़्त भी राम का दामन नहीं छोड़ा। हमारे राम महान है।

Wednesday, March 19, 2008

ये अपुन का आंदोलन है बीड़ू

मोहनदास करमचंद गांधी किसी पार्टी विशेष या नेता विशेष की थाती नहीं हैं। ये दीगर बात है कि ऐसे लोगों को दो अक्तूबर और 30 जनवरी को ही बापू की याद आती है। इन ख़ास दिनों पर ऐसे तबकों के लोग दहाड़ मार कर रोने लगते हैं । समाज को नसीहत देने लगते हैं कि ग्लोबल होने के बावजूद बापू को मन भूलो। ये बात मैं इसलिए कह रहां हूं कि बापू की नीतियों को बड़े बड़े गांधीवादी भी कई बार भूल जाते हैं। लेकिन इस देश की राजधानी में अब भी एक ऐसा कोना है, जहां के बच्चों में बापू का मूलमंत्र रचा बसा है।
नेशनल हाइवे नंबर चौबीस पर सड़क चौड़ा करने का काम चल रहा है। मयूर विहार से ग़ाज़ियाबाद जानेवाली पतली सड़कों इतना चौड़ा बनाया जा रहा है ताकि लोगों को आने जाने में अब घंटों ट्रैफिक में न फंसना पड़े। ये सारी क़वायद कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर है। बहरहाल, मयूरविहार फेज़ वन से आगे बढ़ते ही एक गांव आता है समसपुर। इसके उल्टे हाथ पर बसा है पटपड़गंज। हाइवे पर ही ग़ाज़ीपुर गांव आता है। सरकार समसपुर से लेकर ग़ाज़ीपुर तक सड़कों को चौड़ा कर रही है। इसके लिए सड़कों पर ईंट, पत्थर से लेकर चारकोल तक का अंबार लगा है। सड़क जब चौड़ी होगी, तब की तब। फिलहाल ईंट, पत्थरों की वजह से सड़क तंग हो गई है। ऐसे में आफिस आने जाने वालों की दिक़्क़तें और बढ़ गई हैं। हद तो तब हो जाती है जब दो पहिए पर सवार जाबांज़ ख़तरनाक करतब दिखाते हुए बाइक दौड़ाते हैं। बाइकसवारों को इतनी जल्दी होती है कि जहां से सूई भी नहीं गुज़र सके, वहां वो पहिया घुसा देते हैं। बस किसी तरह आफिस या घर जल्दी पहुंच जाए।
सड़क पर ईंट, पत्थर के अलावा मिट्टी भी पड़ी है। गाज़ीपुर गांव के बच्चों ने अपनी मेहनत से मिट्टी को समतल कर खेलने लायक़ मैदान बना लिया। आख़िर वो खेले भी तो कहां। उनके गांव में क्रिकेट या फुटबॉल का मैदान तो है नहीं। न ही उनके मम्मी - पापा, माफ कीजिएगा- माता पिता उन्हे किसी एम्युसमेंट पार्क, वॉटर पार्क, मॉल्स लेकर जाते हैं। न ही उन्हे खेलने के लिए बार्बी डॉल या पोको मैन जैसे खिलौने देते हैं। बच्चे तो ठहरे बच्चे। लिहाज़ा उतर आए सड़क पर खेलने। उन बच्चों को ये भी मालूम है कि सड़क पर खेलना ख़तरे से खाली नहीं है। लेकिन वो भी बचपने के आगे मजबूर हैं। वो निपट देहाती खेल खेलते हैं। गिल्ली-डंडा, रूमाल चोर, डॉक्टर-नर्स। लेकिन उन्हे तब खीज होती है जब जल्दी जाने की होड़ में बाइकवाला सड़क छोड़कर मिट्टी पर अपनी बाइक सरपट दौड़ाने लगता है। इससे उन खेल का ख़राब हो जाता है। एक दो बार की बात हो तो वो मान भी जाएं। यहां तो हर लम्हा किसी न किसी को जल्दी पड़ी होती है। उन्होने कई बार बाइकवालों को समझाया- अंकल, इधर बाइक मत चलाओ। लेकिन बाइकवालों की कान पर जूं नहीं रेंगी। बच्चों के ऐसे समय में बापू की याद आई। पता नहीं कि ये मुन्नाभाई एमबीबीएस का कमाल था या स्कूकी किताबों का असर। लेकिन उनका आइडिया धांसू था। एक शाम जब मैं घर लौट रहा था तो लगा कि आज जरूरत से ज़्यादा जाम है। वक़्त ज़्यादा लग रहा है। गाड़ियां रेंग भी नहीं पा रही हैं। किसी तरह थोड़ा आगे बढ़ा तो पाया कि आज बच्चों की संख्या बहुत ज़्यादा है। पता नहीं उन्होने रातों रात कहां से वानर सेना तैयार कर लिया था। सारे बच्चे मिट्टी वाले लाइन से लेकर बीच सड़कों पर आ गए थे। न कोई नारा, न कोई बैनर-पोस्टर, न किसी पार्टी का झंडा। जब लोग उनसे हटने का आग्रह करते थे तब उनका यही जवाब होता था कि क्या आपने हमारी बात कभी मानीं ? लोगों का सब्र जवाब दे रहा था। लेकिन उपाय भी नहीं था। कई लोगों ने बच्चों से वादा किया कि आइंदा वो रंग में भंग नहीं डालेंगे। गाड़ी सड़क पर ही चलाएंगे। तब जाकर कहीं बच्चों ने रास्ता खाली किया। मेरे मुंह से बस यही निकला - बापू तेरे देश में ........