Sunday, November 23, 2014

विदेश जाकर मोदी केवल ‘उल्लू बनाइंग’

भारतीय राजनीति के अखाड़े में ताबड़तोड़ कई रिकॉर्ड बनानेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश यात्राओं के मामले में भी नया रिकॉर्ड बना डाला है। प्रधानमंत्री बने हुए अभी छह महीने ही हुए हैं लेकिन वो नौ देशों की परिक्रमा कर चुके हैं। यानी 180 दिन में से वो 31 दिन विदेश में ही रहे हैं। विदेश घूमने का ऐसा प्रेम पहले किसी और प्रधानमंत्री में नहीं देखा गया। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह जैसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहनेवाले नेताओं ने भी इतना दौरा नहीं किया। लेकिन मोदी के पास आदतन हर आलोचनाओं का जवाब होता है। इन यात्राओं पर भी जवाब है।
विदेश यात्रा से लौटने के बाद मोदी ने अपने ब्लॉग में बहुत डींग हांकी है। दावा किया है कि उनके इस यात्रा से भारत की छवि पर बेहद सकारात्मक असर पड़ा है। अपनी यात्राओं को ये कहकर सही ठहराने की कोशिश की कि आस्ट्रेलिया जाने में 28 साल और फिजी जाने में भारतीय प्रधानमंत्री को 33 साल लग गए। जबकि सूचना क्रांति के इस दौर में लोग और क़रीब आ रहे हैं। ऐसे में इन देशों का भारत के साथ नज़दीकी कितना अहम है। हैरानी की बात है कि मोदी ने हाल ही में बीस अंतरराष्ट्रीय नेताओं के साथ भेंट की। बीस द्विपक्षीय बैठकों में शामिल हुए। मोदी इस भारत के लिए भले ही अहम क़दम बता रहे हों। लेकिन सच तो ये है कि मोदी के इन दौरों से भारत को कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। हम वर्षों पहले जहां खड़े थे, आज भी वहीं खड़े हैं।
मोदी के झूठे दावों के पहाड़ को देखिए। आस्ट्रेलिया ने यूरेनियम सप्लाई के मुद्दे पर भारत को फिर से ठेंगा दिखा दिया है। उसने मोदी से केवल वादा भर किया है कि वो भारत को यूरेनियम सप्लाई करने के बारे में सोचेगा। हद तो ये है कि आस्ट्रेलिया में एक भी परमाणु उर्जददा संयंत्र नहीं है और वो दुनियाका तीसरा सबसे बड़ा यूरेनियम उत्पादक देश है। मीठी-मीठी बात कर मोदी को टहलानेवाले आस्ट्रेलिया ने कई और मुद्दों पर भी भारत को मुंह चिढ़ाया। आस्ट्रेलिया ने भारत के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट भी नहीं किया इस मुद्दे पर भी उसने मोदी को केवल भरोसा ही दिलाया है कहा है कि वो बहुत जल्द भारत के साथ भी फ्री ट्रेड एग्रीमेंट करेगा। लेकिन उसने मोदी के सामने ही चीन के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट कर लिया। मोदी टका सा मुंह लेकर रह गए। मोदी के हिस्से आया तो केवल सांस्कृतिक समझौते।
विदेश में बुद्धू बनकर आए मोदी अपनी हो रही आलोचनाओं को लोकप्रियता में बदलने की कला में बखूबी माहिर हैं। अपनी इन्हीं त्वरित चालाकियों से वो लगातार विरोधियों को छका रहे हैं। अब मोदी का क़ाबिलयत का एक और नमूना देखिए। वो लोगों को ये बता रहे हैं कि वो ऑस्ट्रेलिया में खेती के मामले में प्रति एकड़ उत्पादन का हुनर सीखने गए थे। तर्क गढ़ रहे हैं कि हमारे देश में आबादी लगातार बढ़ रही है और खेती की ज़मीन लगातार सिकुड रही है। ऐसे में कम से कम ज़मीन में ज़्यादा पौष्टिक आहार पाने की कला सीखने गए थे ताकि उनके भाई-बहनों की सेहत नियमत बनी रहे। दावा कर रहे हैं कि देश के किसान गन्ना, गेहूं, चना, अरहर और मूंग की खेती में माहिर हैं।
विधानसभा के चुनाव सिर पर थे और विदेश दौरों की नाकामियों को लेकर विरोधियों का हमला भी हो रहा था। ऐसे मौक़े पर चतुर मोदी ने अपने विदेश दौरे को गरीबी से जोड़कर छलावे की राजनीति का एक और परिचय दिया। झारखंड में ये ज्ञान दिया कि हमारे देश में केले का उत्पादन होता है। केला गरीबों का फल है। लेकिन वैज्ञानिक तरीके से उनके अंदर ज्यादा विटामिन और लौह तत्व आ जाएं ताकि उसके खाने के बाद गर्भवती महिलाएं स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकें। बच्चा ताकतवर पैदा हो। केला खाने से बच्चों की आंखों की रौशनी तेज़ हो। मीडिया की हर विधा को साधने में माहिर मोदी ने केला को भी गरीब से साध दिया। दावा किया कि उन्होंने आस्ट्रेलिया जाकर वहां के विश्वविद्यालय से केवल इसलिए हाथ मिलाया ताकि गराबों को खाने में ज़्यादा विटामिन और लौह तत्व वाले केले मिल सकें।

मोदी बोलते बहुत अच्छा हैं। इससे भी अच्छा वो मीडिया को मैनेज करना जानते हैं। गरीबी और चायवाले की दुर्दशा की ब्रैंडिंग कर पीएम बने मोदी ने विदेश जाकर अपनी तमाम हसरतें पूरी कीं। लेकिन मीडिया के ज़रिए लोगों में ये संदेश नहीं जाने दिया कि ये आरामतलबी या हवाख़ोरी है। मोदी बहुभाषी हैं। गुजराती के अलावा वो ठीक ठाक हिंदी और अंग्रेजी भी बोल लेते हैं। माध्यों को साधना जानता हैं। अपनी इन्ही कलाओं का लोहा मनवाते हुए उन्होंने समंदर के किनारे अच्छी-अच्छी तस्वीरें खिंचवाईं। इंस्टाग्राम के ज़रिए सोशल मीडिया पर बांट भी दिया और मोदियापा करनेवाले समर्थक इन तस्वीरों को लेकर जनता को ये बताने में जुट गए कि मोदी ने विदेश जाकर वो काम किया है, जो अभी तक बड़े-बड़े सूरमा नहीं कर पाए।
संवाद, भाषण और संप्रेषण के मामले में मोदी के ऊपर रिसर्च होना चाहिए। अभी ये बात हैरान करनेवाले ज़रुर हो सकती है। लेकिन मोदी की बातों पर गंभीरता से गौर करेंगे तो ये बात गले उतर जाएगी। आस्ट्रेलिया ही नहीं बल्कि मोदी ने अपनी जापान यात्रा को भी आदिवासियों के कल्याण से जोड़कर प्रसारित किया था। मीडिया में प्रसारित करवाया कि जापाना में 'सिकल सेल एनीमिया' बीमारी को लेकर उन्होंने शिन्या यामानाका से मुलाकात की शिन्या यामानाका को स्टेम सेल में शोध के लिए वर्ष 2012 का नोबेल प्राइज़ मिला था ये बीमारी भारत के आदिवासी इलाकों में आम तौर पर पाई जाती है मोदी और उनके समर्थकों ने मुलाकात को झारखंड में इस तरह पेश किया कि मानों अगर वो जापान नहीं जाते तो फिर आदिवासियों की ये बीमारी कभी दूर नहीं होती। क़िस्सागोई में माहिर मोदी ने लोगों को बताया जो मेरे आदिवासी भाई बहन हैं, सदियों से पारिवारिक बीमारी के शिकार हैं अगर मां-बाप को बीमारी है तो बच्चों को बीमारी हो जाती है। आज दुनिया में इसकी कोई दवाई नहीं है। वो शोध के लिए केवल इसलिए पैसा दे रहे हैं ताकि जब दवा आ जाए तो आदिवासियों की ये बीमारी जड़ से ख़त्म हो जाए।
ये बात सोलहों आने सच है कि विदेश में मोदी फ्लॉप रहे हैं। यहां तक कि वो संयुक्त राष्ट्र में भारत की सदस्यता का मुद्दा भी नहीं उठा पाए। इन तमाम नाकामियों के बावजूद वो विरोधियों के लिए बड़ा मुद्दा हैं। लेकिन हैरानी की बात तो ये कि मोदी के लिए उनके विरोधी मुद्दा ही नहीं हैं वो जनता से संवाद कर शक ओ शुबहा दूर करते हैं। माडिया के तल्ख सवालों से कन्नी काटने में भलाई समझते हैं। ज भी लगता है कि भाषण में दोहरापन आने लगा है, तो मुद्दा बदल देते हैं कुछ नया टेप बजाने लगते हैं। इन बातों की सच्चाई से लेकर दावों का राजनीतिक विश्लेषण हो सकता है। तथ्यात्मक गलतियों को लेकर बहस भी हो सकती है। लेकिन संवाद क़ायम कर बुद्धू बनाइंग की इस कला पर बहस की गुंजाइश किसी और नेता में फिलहाल तो नहीं दिखती। 

Friday, November 14, 2014

मोदी के मन में ममता के लिए क्या है?

इस तथ्य को मानने से कोई गुरेज़ नहीं कि नरेंद्र मोदी ने देश में अपनी छवि एक निर्भीक, ईमानदार और काम करनेवाले नेता के तौर पर बनाई है। लेकिन हैरानी तब होती है जब यही निर्भीकता, ईमानदारी और कर्मठता कई बार ताक पर रखी नज़र आती है। क्योंकि देश को बदलने का दम भरनेवाले प्रधानमंत्री के राज में घोटालों के दमदार आरोपी पाक-साफ बन छुट्टे घूमने के आरोप लग रहे हैं और कमज़ोर आरोपी अपने को बेगुनाह साबित करने के लिए जान देने पर आमादा होना पड़ रहा है। ये बात किसी से अब छिपी नहीं है कि अब तक ईमानदारी का लबादा ओढ़ कर घूम रहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बैनर्जी के दामन पर शारदा चिट फंड घोटाले के छींटे पड़े हैं। लेकिन इस मुद्दे पर बीजेपी की अब बोलती बंद है। प्रधानमंत्री के मुंह पर ताला लगा है। जबकि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मोदी और बीजेपी ने इस मुद्दे को लेकर ख़ूब तासा बजाया था। खुद प्रधानमंत्री ने मुख्य आरोपी सुद्पीतो सेन द्वारा ममता की पेंटिंग करोड़ों रुपए में खरीदे जाने पर सवाल खड़े किए थे। हैरानी इस बात पर भी है कि सीबीआई के हाथ केवल उन्हीं लोगों तक पहुंच पा रहे हैं, जहां तक वो पहुंचाना चाह रही है। बाक़ी के मज़बूत आरोपियों का बाल भी बांका नहीं हो पा रहा है।
ये मामला इसलिए भी गंभीर है क्योंकि जेल में बंद आरोपी कुणाल घोष ने कोलकाता के प्रेसीडेंसी जेल में नींद की कई सारी गोलियां खाकर जान देने की कोशिश की है। लेकिन मामले की तह तक जाने की बजाए सरकारें जेल अधीक्षक को सस्पेंड कर खानापूर्ति करने का ड्रामा कर रही हैं। सवाल ये है कि जब घोटाले का गिरफ्तार आरोपी चीख-चीख कर कह रहा है कि घोटाले का असली ताना-बाना मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का बुना हुआ है। फिर भी सीबीआई ने अब तक क्यों नहीं ममता के ख़िलाफ़ शिकंजा कसा है। क्यों सीबीआई के हाथ ममता के इर्द-गिर्द मंडराने वालों तक ही घूम कर ठिठक जाते हैं। ये बात भी किसी से अब छिपी नहीं है कि सीबीआई केवल दिखाने भर की स्वायत्त संस्था है। देश की शीर्ष अदालत तक ने कह रखा है कि सीबीआई एक सरकारी तोता है। फिर भी सीबीआई ने अभी तक ममता के गिरेबान में हाथ डालने की जुर्रत नहीं की है।
दरअसल, ममता बैनर्जी शुरू से ही इस घोटाले के चक्रव्यूह में फंसी हुई दिख रही हैं। सीबीआई को उनके नंबर दो रहे मुकुल रॉय के ख़िलाफ़ पुख्त़ा सबूत मिल चुके हैं। मुकल कभी ममता के कितने क़रीबी थे, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब उनकी पार्टी के कोटे से रेल मंत्री बने दिनेश त्रिवेदी ने रेल किराया कम करने से ममता को मना कर दिया था। तब ममता ने मनमोहन सिंह पर दबाव डालकर मुकुल रॉय को रेल मंत्री बनवाया था। हालांकि मुकुल रॉय आरोपी बनाए गए और उन्हें अलीपुर जेल में ठूंस भी दिया गया। लेकिन जनता जानती है कि मुकुल को जेल में ठूंसकर केवल क़ागज़ी लीपापोती भर की गई है। असल में राजनीतिक आकाओं की वजह से सीबीआई के हाथ मुकुल के आगे तक नहीं बढ़ पाए।
क़ानून की पेचदेंगियों में सच्चाई को उलझाने की कला कोई बीजेपी और सीबीआई से सीखे। जिस लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने नैतिकता और ईमानदारी का पाठ पढ़ाते हुए ममता बैनर्जी की पेंटिंग्स का मुद्दा उठाया था। दरअसल बीच में ममता बैनर्जी को पेंटर बनने का शौक़ चर्राया था। उन्होंने कैनवास पर एक चिड़िया की पेंटिंग बनाई थी। इस पेंटिंग को समझने की तासीर ऊपरवाले ने पिकासो और एमएफ हुसैन को दे रखी थी। लेकिन अफसोस की ममता की पेंटिंग को समझने के लिए दोनों ही इस दुनिया में नहीं रहे। लेकिन इस पेंटिंग की समझ शारदा चिट फंड कंपनी के मालिक सुदीप्तो सेन को चुनाव के दौरान हो गई थी। उन्होंने इस पेंटिंग को एक करोड़ अस्सी लाख रुपए में ख़रीदा था। हालांकि ममता की पार्टी ने पेंटिंग की इस रक़म पर इनकम टैक्स भी दिया था। लेकिन सवाल ये कि नौसिखिया पेंटर की एक पेंटिंग में ऐसे क्या सुर्ख़ाब के पर लग गए कि एक कारोबारी ने दिल खोलकर पैसे लुटाए। कांग्रेस की मजबूरी थी कि वो ममता के इस धतकरम का विरोध नहीं कर सकती थी। अव्वल अपनी सरकार बचाने के लिए वो ममता के इशारे पर नाच चुकी थी और वो इस बात का ज़ोखिम नहीं लेना चाहती थी कि भविष्य में ज़रुरत पड़ने पर ममता हाथ झटक दें। लेकिन जीत के आत्मविश्वास से लबरेज़ बीजेपी और मोदी के लिए ऐसा कोई ख़तरा नहीं था। इसलिए मोदी ने चुनाव के दौरान पेंटिंग का मुद्दा बड़े ज़ोर-शोर से उठाया। लेकिन सरकार बनते ही वो भीमरति के शिकार हो गए। वो शारदा घोटाले, करोड़ों की पेंटिंग और ममता के शामिल होने के आरोपों को भूल गए और देश की जनता को झाड़ू लगाने का ककहरा सिखाने लगे।
आख़िर क्या वजह है कि जान देने पर उतारू घोटाले का आरोपी चीख-चीख कर अपनी ही पार्टी की सुप्रीमो सहित कई और नेताओं का नाम ले रहा है। लेकिन सीबीआई सांस तक नहीं ले रही है। आरोपी छाती पीटकर कह रहा है कि इस घोटाले में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर सबसे ज़्यादा फायदा ममता बैनर्जी को हुआ है। फिर भी, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ये आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है। इस घोटाले में करोड़ों आम लोगों की गाढ़े की कमाई डूब चुकी है। तृणमूल कांग्रेस के तीन सांसद, राज्य के मंत्री मदन मित्रा सहित ममता बैनर्जी का नाम इस घोटाले शामिल है। लेकिन चारों तरफ घनघोर अंधेरा छाया है।
क्या देश को ये हक़ नहीं बनता कि वो अपने प्रधानमंत्री से पूछे कि रामराज लाने का दावा करने वाले नरेंद्र मोदी को अंधेरनगरी क्यों नहीं दिखाई दे रही। एक लुट चुकी प्राइवेट कंपनी को बचाने के लिए सूबे की मुखिया सरकार का ख़ज़ाना पानी की तरह बहाने लगती है। लेकिन इस पर केंद्र सरकार एक बार भी एतराज़ नहीं करती। जबकि ये पैसा पश्चिम बंगाल की गाढ़ी कमाई का हिस्सा है। क्या केंद्र सरकार का ये फर्ज़ नहीं बनता कि वो राज्य सरकार से पूछे कि उसने किस हैसियत से एक घोटालेबाज़ प्राइवेट कंपनी को बचाने की कोशिश की है। चुनाव प्रचार में दहाड़नेवाले नरेंद्र मोदी के अंदर ये सत्साहस क्यों नहीं बचा है कि अदालत से कहें कि स्वायत्त संस्था सीबीआई ने अभी तक ममता बैनर्जी से पूछताथ करने की हिम्मत क्यों नहीं जुटाई है। देश की जनता ये जानने का हक़ रखती है कि प्रधानमंत्री साफगोई से ये मन की बात बताएं कि उनके दिल में ममता के लिए क्या है।   

Thursday, November 6, 2014

बासी खिचड़ी में फिर से उबाल

पुरानी कहावत है कि राजनीति में कुछ भी मुमक़िन है। राजनीति की अखाड़े के पुराने समाजवादी पहलवान मुलायम सिंह यादव अभी तक इसी मुहावरे की पूंछ पकड़कर बैठे हुए हैं। इसलिए पुराने समाजवादियों के साथ फिर से गलबहियां करना शुरू कर दिया है। देश की राजधानी दिल्ली में हुई पुराने समाजवादियों की बैठक को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। मुलायम सिंह चाहते हैं कि वो किसी भी तरह से एक बार देश का प्रधानमंत्री बन जाएं। लेकिन उनका ये सपना बार-बार चूर हो रहा है। सबसे पहले नब्ब के दशक में ज्योति बसु और लालू प्रसाद ने लंगड़ी मारी थी। हालिया लोकसभा चुनाव में बीजेपी के नरेंद्र मोदी ने चारों खाने चित्त कर दिया। राजनीति के अखाड़े में मुलायम सिंह यादव हांफ ही रहे थे कि यूपी में विधानसभा के लिए उपचुनाव हो गए। विचित्र किंतु सत्य की तरह ही मुलायम सिंह यादव की पार्टी को अप्रत्याशित जीत मिल गई। इस जीत ने एक बार फिर से मुलायम सिंह यादव में जोश भर दिया। इसलिए मुलायम ने कांठ की हांडी फिर से चढ़ाने की ठान ली।
जो कभी एक दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते थे, आज हमप्याला- हमनिवाला बनने के लिए मजबूर हो गए हैं। मुलायम सिंह यादव योद्धाओं की एक ऐसी सेना बनाने में लगे हैं, जो हाल-फिलहाल के युद्धों में लस्त-पस्त हो चुकी है। कपड़े तार-तार हैं और ढाल ले सेलकर तलवार तक बेहाल हैं। लेकिन सपने अब भी बड़े-बडे देखे जा रहे हैं। एक सूबा तो ढंग से संभाला नहीं जा रहा। लेकिन तुर्रा ये कि पूरा देश संभाल लेंगे। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, एचडी देवेगौड़ा और देवीलाल घराने का सबसे उभरता हुए युवा समाजवादी चेहरा दुष्यंत चौटाला के साथ मिलकर मुलायम ने खिचड़ी पकाने की कोशिश की है। हैरानी की बात तो ये है कि इनमें से एक भी योद्धा ऐसा नहीं है, जिसके दम पर मुलायम सिंह रणभेरी बजा सकें। बिहार में नीतीश कुमार की नाव हिचकोले खा रही है। लोकसभा चुनाव के दौरान नीतीश को अपनी ताक़त और सामाजिक समीकरण की हैसियत का अंदाज़ा हो चुका है। कुछ यही हाल लालू प्रसाद का भी है। कोर्ट-कचहरी के चक्कर में जूते घिसा चुके लालू भी बिहार की राजनीति में हाशिए पर धकेल दिए गए हैं। वो तो भल हो हालिया उपचुनावों का , जिसनें इन दोनों नेताओं को गाल बजाने का थोड़ा मौक़ा दे दिया। जो नेता पिछले बीस सालों से एक दूसरे के ख़िलाफ़ तलवार लहरा रहे थे, उन्हें मोदी की लहर ने एक मंच पर आने के लिए मजबूर किया। उप चुनाव में जीत मिली तो फिर से लंगोट पहनकर ताल ठोंकने लग गए।
लेकिन सवाल केवल ये नहीं है कि मुलायम की मंशा रंग दिखा पाएगी या नहीं। सवाल इन पुराने समाजवादी नेताओं की मौजूदा राजनीतिक हैयिसत की भी नहीं है। सवाल इन नेताओं की फितरत और इनकी सोहबत की भी है। इसमें कोई शक़ नहीं कि भारतीय जनमानस का मन सत्तालोलुप कांग्रेस से भर चुका है। अगर ऐसा नहीं होता तो नई नवेली पार्टी उस दिल्ली में जीत हासिल नहीं करती, जिसके बारे में लोग पढ़ा लिखा शहर होने की बात करते हैं। जनता को विकल्प की तलाश थी। फिलहाल जनता इस विकल्प के तौर पर केवल बीजेपी को ही पसंद कर रही है। इसके पीछे कई सारी वजहें हैं।
जनता चाहती है कि अब देश में जाति और धर्म की राजनीति में बंद हो। विकास के काम हों। युवाओं को रोज़गार मिले। हर घर में संपन्नता हो। ये देश अब नब्बे के सामाजिक और राजनीतिक सोच से ऊपर उठ चुका है। एक ऐसी पीढी तैयार हो चुकी है, जिसकी नज़र में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद झगड़े की कोई अहमियत नहीं रह गई। 12-14 साल की ऐसी पीढ़ी भी तैयार हो चुकी है, जिसके मन में गुजरात दंगों को लेकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई दुर्भावना भी नहीं है। नौजवानों की ये पीढ़ी जब अपनी जीवन शैली बदलने के साथ ही देश की राजनीति की तरफ ताकती है तो उसे पीड़ी होती है। उसे समझ में नहीं आता कि लोकतंत्र में शासन करने का अधिकार केवल एक ही ख़ानदान को क्यों दिया जाए। इस पीढ़ी ने जब विकल्प तलाशना शुरू किया तो समाजवादियों की असलियत सामने आ गई। पाया कि जिन समाजवादियों ने वंशवाद और भ्रष्टाचार के विरोध में वर्षों तक तकरीरें दी हैं, वो ख़ुद ही इसके दलदल में धंसे हुए हैं। लालू की पार्टी में जब नेतृत्व की बात होती है तो लालू या राबड़ी देवी के अलावा कोई चेहरा नज़र नहीं आता। मुलायम सिंह यादव की पार्टी में नेतृत्व की बात होती है तो नाती-पोते तक सांसद-विधायक बन जाते हैं। यहां तक महिलाओं के संसद में आने का विरोध में परकटी मुहावरे उछालने वाले मुलायम सिंह यादव मौक़ा मिलते ही अपनी बहू डिंपल को सांसद बना देते हैं। देवगौड़ा और ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी भी इससे इतर नहीं है। चौटाला परिवार को अजय और अभय के बाद तीसरी पीढ़ी दुष्यंत में ही नेतृत्व क्षमता दिखी। देवगौड़ा को अपने बेटे कुमारस्वामी में ही भविष्य दिखता है।

समाजवादियों की ये छल-कपट देखने के बाद जनता का मन अब तीसरे मोर्चे से भर गया है। जनता जानती है कि ये नेता केवल कुर्सी के लिए एक होने का दिखावा कर रहे हैं। जिस दिन कुर्सी दिखने लगेगी, उसी दिन से इस मोर्चे में सिर फुटव्वल की नौबत शुरू हो जाएगी। इस मोर्चे की मुश्किल ये भी कि इस एख डोरे से बांधे रखने वाले चंद्रशेखर, वी.पी. सिंह, रामकृष्ण हेगड़े, मधु लिमए जैसे नेता भी नहीं रहे। लिहाज़ा लालू और नीतीश के साथ मिलकर मुलायम सिंह यादव लाख उछल कूद मचा लें, उनके हाथ फिलहाल कुछ लगनेवाला नहीं है।