Wednesday, April 18, 2012

फिर लौट आया बंगाल में ‘संत्रास काल’


पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी एक के बाद एक जिस तरह से ताबड़तोड़ फैसले कर रही हैं, उसके बाद सियासी फिज़ा में यही सवाल गूंज रहा है कि क्या 1972 के संत्रास यानी आतंक काल की वापिसी हो चुकी है। सरकार के फैसलों के इतर जिस तरह से सूबे में तृणमूल कांग्रेस के समर्थक और मंत्री तांडव कर रहे हैं, उससे इस क़यास को और बल मिल रहा है। शहर में दिन दहाड़े वैज्ञानिक की पिटाई हो रही है। वैज्ञानिक की बेटी की इज्ज़त पर हाथ डाला रहा है और पुलिस फरियाद सुनने से ही इनकार करती है। हद तो ये है कि ऊपर से ममता के मुंहलगे मंत्री खुलेआम वामपंथी नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों को धमका रहे हैं। तुग़लकी फरमान जा कर रहे हैं। ऐसे नेताओं और मंत्रियों पर लगाम कसने की बजाए तृणमूल सुप्रीमो ममता बैनर्जी उल्टे मीडिया को धमका रही हैं। आरोप लगा रही हैं कि मीडिया उनकी छवि ख़राब करने पर लगा है। मीडिया केवल उनकी सरकार की निगेटिव इमेज को जनता के सामने परोस रहा है।
बारूइपुर की एक घटना ने बीस साल पुरानी घटना की याद दिला दी और इसी के साथ महात्मा गांधी को वो सूत्र याद पड़ गया कि किसी की ईमानदारी और वादे को परखना हो तो पहले उसके हाथ में सत्ता दो। नब्बे के दशक में नदिया ज़िले की एक गूंगी और बहरी लड़की के साथ कथित तौर पर बलात्कार हुआ। ममता बैनर्जी तब कांग्रेस में हुआ करती थी और राजीव गांधी की सरकार में राज्य मंत्री हुआ करती थीं। ममता ने आरोप लगाया कि उस लड़की के साथ सीपीएम के स्थानीय नेता ने बलात्कार किया है और सरकार के दबाव में आकर पुलिस कार्रवाई नहीं कर रही। उस समय ज्योति बसु मुख्यमंत्री हुआ करते थे। ममता बनर्जी उस लड़की के अलावा दर्जनों मुंहलगे पत्रकारों के साथ राइटर्स बिल्डिंग पहुंच गईं औऱ बिना अप्वाइनमेंट के मुख्यमंत्री के साथ मिलने की ज़िद पर अड़ गईं। लेकिन जब उन्हें ख़बर लगी कि मुख्यमंत्री नहीं आए हैं तो मौक़े पर मौजूद एक युवा आईपीएस ऑफिसर के गाल पर चांटे रसीद कर दिए। आईपीएसपी भी कम न था। उसकी टीम ने भी तबीयत से ममता की ख़बर ले ली। इसके बाद ममता ने बड़ा बखेड़ा किया।
कहते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। लगभग बाइस चौबीस साल पुरानी घटना फिर घटी। फर्क़ इतना रहा कि केवल पात्र बदल गए। इस बार कोलकाता से सटे दक्षिण चौबीस परगना के बारूइपुर में किराए के घर में रहने वाले वैज्ञानिक डॉक्टर अपरेश भट्टाचार्य के घर पर तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने आधी रात को हमला बोल दिया। उनकी तीस साल की बेटी को घसीटकर घर से बाहर निकाला। बुज़ुर्ग पिता के सामने उसकी बेटी को नंगा किया। बकौल पिता, उनकी बेटी के साथ ‘श्लीलताहानि’ यानी इज्ज़त पर हाथ डाला गया। पढ़े-लिखे वैज्ञानिक को पूरा भरोसा था कि बदली हुई सरकार में उनके साथ पूरा इंसाफ मिलेगा। वो अपनी बेटी के साथ थाने गए। दारोगा को बताया कि वो अपने मकान मालिक के घर ख़रीदना चाहते थे। दो लाख की पेशगी भी दी। लेकिन बाद में पता चला कि दस्तावेज़ फर्ज़ी हैं। उन्होंने असली काग़जात की मांग की तो उनके साथ ये हाल हुआ। लेकिन दारोगा का जवाब सुनकर डॉक्टर साहेब के पैरों तल ज़मीन खिसक गई। थानेदार ने बैरंग लौटा दिया। दूसरे दिन बडे उम्मीदों के साथ ‘मां, माटी, मानुष’ की सरकार की मुखिया ममता बैनर्जी से मिलने चले गए। लेकिन आम लोगों की मुख्यमंत्री ने मिलने से इनकार कर दिया। मुख्यमंत्री के सरकारी बाबुओं ने कोई भी शियाकत लेने से मना कर दिए। वैज्ञानिक साहेब टका सा मुंह लेकर लौट आए। उनके सामने कट्टरवादी वामपंथी सरकार बनाम उदारवादी सरकार का असली चेहरा सामने आ चुका था।
उदारवादी सरकार का एक और चेहरे पर ग़ौर फरमाइए। पश्चिम बंगाल के नए खाद्य मंत्री ज्योतिरर्प्रिय मल्लिक ने तुग़लकी फरमान जारी कर दिया। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को हुक़्म जारी कर दिया कि अगर किसी ने वामपंथी नेताओं और ख़ास तौर पर सीपीएम के नेताओं, कार्यकर्ताओं और सनर्थकों के घर में शादी की तो ख़ैर नहीं। टीमीएस का कोई भी आदमी किसी भी वामपंथी के न्योते को स्वीकार नहीं करेगा। यहां तक की कि किसी वामपंथी के बगल में नहीं बैठेगा। कहीं हाट- बाज़ार, सड़क- चौराहे पर मुलाक़ात हो जाए तो दुआ सलाम भी नहीं करेगा। क्योंकि वामपंथियों का सामाजिक बहिष्कार करना है। मंत्री जी को ये कहने में तनिक भी हिचक नहीं हुई और न ही शर्म आई। उन्होने दो टूक दिया कि वामपंथियों के साथ प्रतिशोध लेना है। अगर मेल जोल बना रहा तो प्रतिशोध लेने में दिक्कत आएगी। लोकतंत्र में अगर कोई मंत्री हिंदी फिल्मों की तरह ख़ून के बदले ख़ून का नारा दे रहा हो और पुलिस और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे, तो इससे बड़े बेचारगी भला और क्या हो सकती है। ममता बैनर्जी के मुंहलगे मंत्री के इस चेतावनी और फरमान को वैज्ञानिक पर हुए ज़ुल्म से जोड़ कर देखा जा सकता है।
ज्योतिर्प्रिय मलिक मंत्री हैं। इसलिए उनकी बात दूर तलक फैल गई। लेकिन वो बातें आज भी बड़े फलक पर नहीं आ रहीं , जो पश्चिम बंगाल के दूर दराज़ के गांवों से लेकर महानगर कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस के छोटे-मेट नेता और कार्यकर्ता कर रहे हैं। बंगाल के स्कूल कॉलेजों में शिक्षकों और प्रोफेसरों को लगातार अपमानित किया जा रहा। उन पर ये आरोप लगाया जा रहा है कि वो वामपंथी हैं और स्कूल- कॉलेजों में बच्चों के दिल ओ दिमाग़ में वामपंथ का ज़हर बोया। यही हाल सरकारी अस्पतालों का भी है। तृणमूल के छुटभैय्ये नेता आए दिन तरह तरह के मरीज़ों को भर्ती करने का सिपारिशी पत्र भेज रहे हैं। जो अस्पताल या डॉक्टर उनकी नहीं सुनते हैं तो फिर शामत आ जाती है। डॉक्टरों, कंपाउंडरों, नर्सों और अस्पताल कर्मियों की पिटाई कर अपनी लोकतांत्रिक ताक़त दिखाने का मौक़ा नहीं चूकते।
बंगाल में ये हालात देखकर ये कहना ग़लत नहीं होगा कि जब सैंया भए कोतवाल तो अब डर काहे का। लोकतंत्र में तानाशाही और नादिरशाही रवैया दिखानेवालों पर नकेल कसने के बजाए मुख्यमंत्री उल्टे मीडिया को दोष दे रही हैं। ममता को तकलीफ इस बात की है कि इस तरह की घटनाओं को मीडिया क्यों दिखा और छाप रहा है। कल तक वामपंथी सरकार का पाप को घड़ा दिखाने के लिए ममता मीडिया के सामने बिछी रहती थीं। तब उन्हें भरोसा था कि मीडिया जो दिखाता है, वो सच होता है। लेकिन आज उनका अपना आप पर से ही भरोसा उठ गया है। उन्हें लगता है कि मीडिया सच नहीं दिखाता। वो राइटर्स बिल्डिंग में ये कहने में संकोच नहीं करतीं कि मीडिया केवल सरकार के ग़लत कामों को दिखा रहा औऱ अच्छे कामों पर पर्दा डाल रहा है। सत्ता के मद में चूर ममता ये आरोप लगाने से भी नहीं चुकतीं कि मीडिया उन्हें साज़िश के तहत बदनाम कर रहा है। उल्टे वो झूठा दम भर रही हैं कि उन्होने सूबे के विकास के लिए किए गए तमाम वादों को पूरा कर दिया है। ये दम उस समय ममता भर रही हैं, जब सरकार के पास ग़रीबों को राशन में देने के लिए चावल और गेहूं नहीं है और इसके लिए वो केंद्र सरकार के सामने हाथ फैला रही है।
अब सवाल ये है कि क्या पश्चिम बंगाल की जनता ने व्यक्तिगत दुश्मनी निभाने के लिए ममता सरकार को जनादेश दिया था। या फिर जनता ने इसलिए ममता बैनर्जी को सरकार की चाबी सौंपी थी ताकि जो काम पिछले 34 साल में वामपंथी सरकार नहीं कर पाई। वो काम अब ग़ैर वामपंथी सरकार करके दिखाए। लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि जिस वादे और भरोसे के साथ ममता बैनर्जी सरकार में आई थीं, आज उसी को ठेंगा दिखा रही हैं। खुद ममता स्वीकार कर चुकी हैं, उन्हें ख़ज़ाना खाली मिला है। सूबे के विकास के लिए धेले भर भी पैसा वामपंथी सरकार ने नहीं छोड़ा। इसके लिए उन्होंने विशेष पैकेज की मांग कर केंद्र पर दबाव भी बनाया। लेकिन ये मांग भी दिखावे का ही साबित हुआ। क्योंकि जल्द ही वो सब कुछ भूल गईं और विशुद्ध तौर पर सियासत में मशगूल हो गईं।
सरकार बनने को एक साल पूरे होने जा रहे हैं। लेकिन इन महीनों में ममता बैनर्जी बतौर मुख्यमंत्री अपना छाप छोड़ पाने में नाकाम रहीं। आज भी उनकी छवि एक सियासी सौदेबाज़ के तौर पर ही बनी रही। एक ऐसे राजनेता की छवि बनी जो बात-बात पर तुनक जाता है और बेसिर पैर की शर्तें केंद्र सरकार के सामने रखता है । राज्य क़र्ज़ में डूबा है। बेरोज़गारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। जो कारखाने बंद हो गए, वो आज भी ताला खुलने की राह देख रहे हैं। नक्सली समस्या आज भी बरक़रार है। राजनीतिक हिंसा आज भी बंद नहीं हुई है। शिक्षा का स्तर अब भी नहीं सुधरा है। लेकिन सौ फीसदी लक्ष्य हासिल कर लेने का दावा करनेवाली ममता इन तमाम मुद्दों को हाशिए पर रखकर डिज़िइलटल के दौर में जा रहे टीवी के सैट टॉप बॉक्स की राजनीति कर रही हैं।
दरअसल, कमज़ोर विपक्ष की वजह से ममता बैनर्जी निरंकुश हो चुकी हैं। उन्हें लगता है कि जिस तरह से जनता ने उन्हें जनादेश देकर सरकार में बिठाया, उसके बाद वो कुछ भी करने के लिए आज़ाद हैं। जनता उनके फैसले पर सवाल खड़े नहीं करेगी, क्योंकि वो ये कहकर उनका मुंह बंद कर देंगी, कि 34 सालों में वामपंथियों ने जो कबाड़ा किया था, उसे दुरूस्त करने में वक्त लगेगा और इसके लिए उन्हें कठोर फैसले भी लेने पड़ेंगे, जो लोगों को नागवार भी गुज़र सकते हैं। लेकिन वो ये तमाम क़दम इसलिए उठा रही हैं ताकि राज्य और आम आदमी का भला हो सके। लेकिन ममता के ये क़दम ‘मां, मांटी और मानुष’ वाले राज्य के लोगों को हजम नहीं हो रहा। क्योंकि ये राज्य कभी अपने पड़ोसी राज्यों के सियासी अक्खड़पन और लाचारी पर हंसता था। इस राज्य के लोग ये देखकर खुश होते थे कि केंद्र में चाहें किसी की भी सरकार हो लेकिन जब भी कोई राष्ट्रीय मुद्दे की बात आई तो सलाह के लिए प्रधानमंत्री ख़ुद चलकर कोलकाता आए और मुख्यमंत्री से मिले। चाहें इंदिरा गांधी रही हों या फिर वी पी सिंह या चंद्रशेखर । केंद्र की हर सरकारों ने बड़े मुद्दे पर इस छोटे से राज्य से सलाह मशविरा किया और उन्हें माना। बंगाल इस पर नाज़ करता था। लेकिन आज बंगाल ये देखकर हैरान है कि आज छोटी सी छोटी बात के लिए भी केंद्र के सामने बंगाल की छवि एक ब्लैकमेलर सरकार के तौर पर बन रही है। ममता को अहसास हो चला है कि जिस तेज़ी से उन्होंने लोकप्रियता हासिल की थी, आज उसी तेज़ी के साथ उनकी लोकप्रियता गिर रही है। क्योंकि उनके पास लोगों को दिखाने के लिए कोई काम नहीं है। वो खम ठोक कर ये नहीं कह सकतीं कि इतने कल कारखाने खुलवा दिए या नए लगवा दिए। इनतने हज़ार करोड़ रुपए का पूंजी निवेश हुआ है। या फिर इनते हज़ार, लाख या करोड़ लोगों को रोज़गार दिए हैं। ज़ाहिर ये सब न कर पाने की मजबूरी में आकर ममता इनदिनों और आक्रामक हो गई हैं। और अपनी छवि बनाए रखने के लिए ऐसे फैसले और बयटान दे रही हैं, जो उनकी छवि को सुधारने की बजाए और धूल धूसरित कर रहा है।

Saturday, March 31, 2012

ममता बैनर्जी का फासीवाद


कहने को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो लोकतंत्र की सबसे बड़ी पैरोकार हैं। लेकिन उनके फैसलों से सामंती सोच और एकनायकवाद की बू आती है। ममता ने हाल ही में एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसे सुनकर सब सन्न हैं। क्योंकि ममता का ये फैसला या यूं कहे कि आदेश कतई लोकतंत्र का सम्मान नहीं करता। ममता ने फरमान जारी किया है कि सूबे में सरकारी और सरकारी पैसे से चलनेवाले लाइब्रेरियों में केवल आठ ही अख़बार आएंगे। वो अख़बार कौन से होंगे, इसका फैसला भी ख़ुद ममता बैनर्जी ही करेंगी। ममता ने एक झटके में सभी अंग्रेज़ी अख़बार बंद कर दिए। हिंदी के एक अख़बार को लाइब्रेरी में जगह दी। उर्दू के दो और बांग्ला के पांच अख़बारों को ख़रीदे जाने की अनुमति दी है। सरकार ने इसके लिए बाक़ायदा सर्कुलर भी जैरी कर दिया है। ममता का दावा है कि वो नहीं चाहतीं कि पाठकों पर ज़बरदस्ती कोई वाद या सोच थोपी जाए। इसलिए ऐसे अख़बारो पर पाबंदी लगाई गई , जो किसी पार्टी के सिद्धांत, वाद, स्वार्थ, मतलब और हितों को साधते हैं।
सरसरी तौर पर देखें तो ममता का ये फैसला लोगों को जायज़ लगेगा। लेकिन जो लोग पश्चिम बंगाल को समझते हैं और वहां के बौद्धिकता को पहचानते हैं, उन्हें ये समझने में तनिक भी देर नहीं लगेगी कि ममता ने मीडिया पर अंकुश लगाने की कोशिश की है। ममता के इस फैसले से साफ हो गया है कि तृणमूल सरकार और ममता बैनर्जी की बैंड बजाने वाले अख़बारों की ख़ैर नहीं है। जो अख़बार ममता का भोंपू बनने को तैयार हो, जो पत्रकार ममता के इशारे पर अपनी कलम गिरवी रखने को तैयार हो, ममता उसी अख़बार को लाइब्रेरी में जगह देंगी।
ममता कितनी बड़ी झूठ बोल रही हैं, इसका नमूना लाइब्रेरी में आनेवाले अख़बारों से ही पता चल जाता है। लाइब्रेरी में बांग्ला अख़बार संवाद प्रतिदिन के आने पर कोई रोक नहीं लगाई गई है। जबकि इस अख़बार के दो पत्रकार सीधे-सीधे तौर पर तृणमूल कांग्रेस से जुड़े हुए हैं। इस अख़बार के संपादक सृजय बोस और सहायक संपादक कुणाल घोष दोनों ही तृणमूल कांग्रेस से हाल ही में राज्यसभा के सांसद चुने गए हैं। वैसे, बांग्ला भाषी राज्य में अच्छी खासी आबादी वाले हिंदी भाषियों के होने के बावजूद हिंदी की दुर्दशा हो रही है। कोलकाता से गिने चुने ही हिंदी अख़बार निकलते हैं। लेकिन ममता ने एक ही हिंदी अख़बार को हरी झंडी दी है। इस अख़बार के मालिक- संपादक विवेक गुप्ता हैं। विवके गुप्ता भी राज्यसभा से तृणमूल कांग्रेस के सांसद हैं। लाइब्रेरी में केवल दो उर्दू के अख़बार आज़ाद हिंद और अख़बार ए मशरीक़ आएगा। अख़बार ए मशरीक के संपादक नदीमुल हक़ भी तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद हैं। अगर ममता की पहले के दावे पर यक़ीन करें तो सवाल खड़ा होता है कि जिन अख़बारों के मालिक और संपादक तृणमूल कांग्रेस के नेता हैं, उनके अख़बारों को ममता ने कैसे निष्पक्ष मान लिया।
हैरानी इस बात की भी है कि ममता ने बांग्ला के जिन दो अख़बारों पर रोक लगाई है, वो सूबे के सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हैं। हैरानी इस बात पर भी है कि आनंद बाज़ार पत्रिका और बर्तमान अख़बार को ममता समर्थक माना जाता रहा है। ये दोनों अख़बार लंबे समय से वाममोर्चा और ख़ासकर सीपीएम को निशाना बनाते रहे हैं। चाहे ज्योति बसु की सरकार रही हो या फिर बुद्धदेब भट्टाचार्य की, इन अख़बारों ने सरकार की बखिया उधेड़ेने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। बर्तमान ने तो सबसे पहले ममता बैनर्जी को बंगाल की शेरनी का ख़िताब तक दे दिया था।

ममता के फैसले को लेकर और भी कई सवाल उठ रहे हैं। पहला सवाल तो यही पूछा जा रहा है कि भाषा को लेकर ममता बैनर्जी इतना दुराग्रही क्यों हैं। आख़िर ममता ने क्यों अंग्रेज़ी के अख़बारों को निशाना बनाया। क्यों अंग्रेज़ी के अख़बार ख़रीदने पर रोक लगाई। अगर ममता हिंदी के एक अख़बार को अनुमति दे सकती हैं तो कम से कम एक अंग्रेज़ी अख़बार को तो अनुमति दे ही सकती हैं। ये सवाल इसलिए भी गंभीर है कि क्योंकि पश्चिम बंगाल के लोग अपने बच्चों की अंग्रेज़ी अच्छी चाहते हैं। बांग्ला भाषा को लेकर मरने- मारने पर उतारु रहनेवाला समाज शुरू से ही अंग्रेज़ी को लेकर चौकन्ना रहा है। इसकी एक बड़ी वजह तो बंगाल पर अंग्रेज़ों का राज रहा है। इसलिए लोग शुरू से ही अंग्रेज़ी को लेकर ख़ासा दिलचस्पी रखते आए हैं। औलादा बेशक़ किसी भी भाषा से स्कूली पढ़ाई करता हो लेकिन उसे घर में अलग से अंग्रेज़ी ज़रुर सिखाई जाती है। एक ज़माने में संभ्रात परिवार का अख़बार माने जाने वाले द स्टेट्समैन मध्य और उच्च वर्ग के घरों में ज़रुर ख़रीदा जाता था। परिवार के बड़े-बुज़ुर्ग अपने बच्चों को समझाते थे कि इस अख़बार के ज़रिए वो अपनी भाषा और शब्द ज्ञान को और मज़बूत कर सकते हैं।
ममता के इस फैसले को लेकर हैरानी इस बात पर भी हो रही है कि कभी अंग्रेज़ी के घोर विरोधी रहे समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने समय के साथ क़दमताल करते हुए अंग्रेज़ी विरोध त्याग दिया। लेकिन आज जो ये राज्य सोचता है, कल वो सारा देश सोचता है का नारा देनेवाले सूबे की मुखिया ने अंग्रेज़ी पर ही रोक लगा दी। जिन्हें अंग्रेज़ी से प्रेम है और जो समृद्ध हैं, वो तो अंग्रेज़ी अख़बार ख़रीद लेंगे। लेकिन जो बच्चे ग़रीब परिवार से आते हैं और जो लाइब्रेरी में ही पढ़ाई करते हैं, उनका क्या होगा। अगर उनकी इतनी हैसियत होती तो क्या वो लाइब्रेरी में पढ़ने आते। लेकिन ग़रीबों की हिमायती बनने वाली ममता बैनर्जी की सेहत पर फर्क नहीं पड़ता। वो बड़े दंभ के साथ कहती हैं, जिसे जो अख़बार पढ़ना है, वो ख़रीद कर पढ़े। ये उसी ममता बैनर्जी का बयान है, जो रेल किराया बढ़ाए जाने के फैसले के ख़िलाफ़ ये कहते हुए छाती पीट रही थीं कि ग़रीबों का क्या होगा।
अख़बारों पर पाबंदी के फैसले को लेकर ममता बैनर्जी की तीखी आलोचना होने लगी है। लेकिन ममता को अपनी आलोचना भी बर्दाश्त नहीं। आलोचनाओं से घबराई ममता उल्टे मीडिया को ही नसीहत दे रही हैं। अपने फैसले से फासिस्ट कहे जाने से आहत ममता अब ये कह रही हैं कि फासीवाद उन्हें मीडिया से सीखने की ज़रुरत नहीं है। तमतमाई ममता पूछती हैं कि जब नंदीग्राम और सिंगूर में हिंसा हुई थी, तब ये अख़बार वाले कहां मुंह छिपाए बैठे थे। अपने चेहते दो चार प्रादेशिक न्यूज़ चैनलों को हथियार बनाकर सफाई देते घूम रही हैं। ममता का कहना है कि लाइब्रेरी का मामला बेहद छोटा है। ममता की मासूमियत देखिए। कह रही हैं कि छोटा लाइब्रेरी होता है। सरकार के पास बेहद छोटा बजट होता है। इसलिए सरकार चाहती है कि इन लाइब्रेरियों के ज़रिए छोटे-छोटे अख़बारों को प्रोमोट किया जाए। लेकिन इस छोटी सी बात को लेकर मीडिया का एक तबका गंदी राजनीति कर रहा है। ममता इस बात से भी नाराज़ हैं कि उन्हें मौक़ापरस्त कहा जा रहा है। सूबे में सबकी ज़ुबान पर एक ही सवाल है कि जिन अख़बारों ने ममता को सत्ता तक पहुंचाया, उसके साथ ममता ने ऐसा सलूक क्यों किया। ममता को ये सवाल अखर रहा है। इसलिए वो ये दावा कर रही हैं कि इन अख़बारों की पैदाइश के पहले से ही वो राजनीति कर रही हैं। अब ममता को कौन समझाए कि बांग्ला के एक मशहूर अख़बार तब से निकल रहा है, जब उनके पिताजी शायद हाफ पैंट में स्कूल में पढ़ने जाते होंगे।
इसमें कोई शक़ नहीं कि ममता बैनर्जी को पश्चिम बंगाल की मीडिया ने बनाया। स्थानीय मीडिया ने इस बात को भी छिपाया कि ममता ने अपने राजनीतिक गुरू सुब्रतो मुखर्जी के साथ क्या सलूक किया। एक समय पश्चिम बंगाल में सुब्रतो के नाम का डंका बजा करता था। उसी सुब्रतो ने हाथ पकड़कर ममता को सियासत का ज्ञान दिया। लेकिन जब सुब्रतो के दिन लदे तो शिष्या ममता ने भी मुंह फेर लिया। बेशक़ अपनी पार्टी में उन्हें जगह दी। लेकिन भरोसा कभी नहीं किया। सुब्रतो मुखर्जी जब कोलकाता के मेयर चुने गए तो अपने ख़ास पार्थो चैटर्जी से जासूसी करवाई। हद तो ये हो गई कि जब लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के कई सांसद चुनाव जीतकर आए। इनमें से तो कई ममता से बहुत वरिष्ठ हैं। सियासत में भी और उम्र में भी। एक दो तो 1971 में सिद्धार्थ शंकर रे की सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। लेकिन जब केंद्र में मंत्री बनाने की बात आई तो किसी को भी केंद्रीय मंत्री नहीं बनाया। यहां तक कि सौगत राय को भी राज्य मंत्री ही बनवाया। लेकिन मीडिया ने इस मामले को तूल नहीं दिया। समर्थक अख़बार दीदी की गुणगान में ही लगे रहे।
ममता के इस फैसले की तुलना आपातकाल से की जाने लगी है। यहां तक कहा जा रहा है कि जो पाबंदियां आपातकाल के दौरान नहीं लगी, अब वो ममता पूरा करने जा रही हैं। दरअसल, सत्ता में आने से पहले मीडिया से घुल मिल कर रहने वाले ममता बैनर्जी मीडिया को समझ ही नहीं पाईं। किसी भी आंदोलन से पहले अपनी एक महिला सहयोगी और पुरुष सहयोगी के ज़रिए मीडिया से संपर्क साधने वाली ममता को ये लगने लगा था कि मीडिया तो उन्ही के इशारे पर नाचेगा। क्योंकि उनके कहने पर अगर मीडिया का एक बड़ा तबका वाम मोर्चा सरकार की धज्जियां उड़ा सकता है तो उनके कहने पर उनकी सरकार की तारीफ नहीं कर सकता। लेकिन ममता को जल्द ही समझ में आ गया कि मीडिया उनके इशारे पर नाचने से रहा। क्योंकि मीडिया को जो दिखेगा, वो उसे छापेगा और दिखाएगा। क्योंकि उसका काम ही सरकार की खामियों को जनता के सामने लाना और जनता को बताना कि जिसे उसने चुनकर भेजा है, वो उसके साथ क्या कर रहा है। उसके गाढ़ी कमाई का कैसे बेजा इस्तेमाल कर रहा है।
अख़बारों और न्यूज़ चैनलों में अपनी करतूत देखना ममता को गंवारा नहीं हुआ। पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में जब बच्चों की मौत हुई तो मीडिया ने इसे प्रमुखता से दिखाया और छापा। मीडिया का ये तेवर ममता को रास नहीं आया। ग़ुस्से में आकर वो बोल गईं, जो एक मुख्यमंत्री को कतई नहीं कहना चाहिए। तमतमाई ममता ने ये कह दिया कि बच्चों की मौत तो वाम मोर्चा सरकार के दौरान भी होती थी। ममता के इस बयान को पश्चिम बंगाल की जनता ने पसंद नहीं किया। हद तो तब हो गई, जब अपनी पढ़ाई लिखाई पर नाज करने वाला बांग्ला भाषी समाज ने दसवीं की परीक्षा में खुलेआम ‘टुकली’ यानी नक़ल होते हुए देखा। इस तस्वीर को देखने के बाद लोगों को शिक्षा का भविष्य दिखने लगा। इन दोनों घटनाओं से सरकार की बहुत किरकिरी हुई। इसका अहसास मुख्यमंत्री को भी हो गया। उन्हें समझ में आ गया कि दस महीने के दौरान उनकी छवि बिगड़ने लगी है। इसलिए ममता ने ये कहने में तनिक भी गुरेज नहीं किया कि मीडिया वाले धड़धड़ाते हुए अस्पतालों में चले जाते हैं। स्कूलों में चले जाते हैं और ख़बर बेचेने के लिए फर्ज़ी ख़बरें बनाकर दिखाते हैं।
दरअसल, लाइब्रेरी तो बहाना है। असल में ममता बैनर्जी ने अपना ग़ुस्सा मीडिया पर उतारा है। इशारों ही इशारो में बता दिया है कि जो अख़बार और पत्रकार सरकारी भोंपू नहीं बनेगा, उनके साथ यही होगा। क्योंकि ढाई हज़ार लाइब्रेरियों में इन अख़बारों के जाने या न जाने से अख़बारों के मालिकों और पत्रकारों की सेहत पर फर्क़ नहीं पड़ता। इससे सर्कुलेशन और पाठकों की संख्या पर भी फर्क़ नहीं पड़ेगा। फर्क पड़ेगा तो विज्ञापनों पर। किसी भी अख़बार या चैनल के लिए विज्ञापन बेहद अहम होता है। ग़ैर सरकार विज्ञापन और सरकारी विज्ञापन एक तरह से मीडिया की रीढ़ की हड्डी होते हैं। इसलिए ममता ने संकेतों से ज़ाहिर कर दिया है कि आने वाले दिनों में रेल के विज्ञापन, राज्य सरकार के विज्ञापन और निविदाओं से हाथ धोने के लिए ये अख़बार अभी से मन बना लें।