Thursday, December 31, 2020

सोनिया को हटाने की रणनीति को अमलीजामा पहनाने लगे पवार

शायद राजनीति का ही दूसरा नाम मौकापरस्ती है। क्योंकि ये केवल राजनीति में ही रिवाज है कि जब जहां जिससे फायदा मिले, फौरन उसके गले मिले। फायदा निकल जाने पर उसके सीने पर पैर रखकर उससे बड़े फायदे के लिए किसी और के साथ हाथ मिला ले। भारतीय राजनीति में अगर कोई इस कला की राजनीति का उस्तादों का उस्ताद है तो उनका नाम एनसीपी चीफ शरद पवार है। कभी कांग्रेस की कार्यवाहर अध्यक्ष सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर 1999 में दूसरी बार कांग्रेस छोड़कर अपनी अलग पार्टी बनाने वाले पवार ने बाद के दिनों में फिर से सोनिया का पल्लू थामा। क्योंकि दुश्मनी के बाद दोस्ती में ही भलाई दिखी। अभी तक साथ दिख रहे हैं। वो हर मुश्किल घड़ी में सोनिया के लिए ऐसे संकटमोचक बनकर उभरते हैं कि मानों वो सहयोगी पार्टी की नहीं बल्कि कांग्रेस के नेता हों। हाल के महाराष्ट्र चुनाव में कांग्रेस और एनसीपी जब हार गई तब पवार ने वो कारनामा कर दिखाया जो मुमकिन नहीं था। उन्होंने सूरज और चांद को मिलाने वाली कहावत की तरह कट्टर हिंदुत्व की राजनीति करनेवाली शिवसेना और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली। भले ही वो सरकार लंगड़ा लंगड़ा कर चल रही हो। 

कहते हैं ना कि हाथी के दो दांत होते हैं। खाने के और दिखाने के और। पवार की भी राजनीति में कई मुखौटे हैं। अभी वो दिख तो सोनिया गांधी के साथ रहे हैं। लेकिन पत्ता फेंट रहे हैं कि कैसे सोनिया गांधी की कुर्सी हथिया ली जाए। नब्बे के दशक में राजीव गांधी की मौत के बाद पीएम बबने की हसरत रखनेवाले पवार का सपना सोनिया गांधी ने नरसिम्हा राव को पीएम बना दिया था। जबकि सारे कांग्रेसी सोनिया को चाह रहे थे। पीएम बनने के लिए पवार ने बहुत पापड़ बेले थे। कई कांग्रेसियों को चुनाव में बड़े कॉरपोरेट घराने से मोटी फंडिंग कराई थी। फाइव स्टार होटलों में कई बार दावत भी दी। लेकिन दिल के अरमान आंसुओं में बह गए थे। पवार ेक दिल में वो कसक आज भी बाकी है। 

नरेंदर मोदी की राजनीति के आगे कमजोर हो चुकी कांग्रेस में आज अध्यक्ष और नेतृत्व को लेकर जो संकट और प्रश्नचिन्ह लग रहा है, उसके पीछे भी शरद पवार का ही हाथ है। उनके साथ के ही कांग्रेसी पार्टी में नेहरू गांधी परिवार से बाहर का नया अध्यक्ष खोज रहे हैं। पवार ये भी उकसा रहे हैं कि एक एक सभी नेता सोनिया गांधी के यूपीए अध्यक्ष बने रहने पर सवाल खड़े करें कि जो अपनी पार्टी नहीं संभाल सकती हैं तो कई पार्टियों का समूह यानी यूपीए कैसे संभाल सकती हैं। कई कांग्रेसी कानाफूसी कर भी रहे हैं। लेकिन पवार की नई दोस्त शिवसेना खुलकर ये बात कहने लगी है। 

अस्सी बरस के हो चुके पवार भले अब उतने ऊर्जावान नहीं रह गए हैं, जैसा कि वह 1978 में इंदिरा गांधी और 1999 में सोनिया गांधी से बगावत करते समय थे। लेकिन हसरतें अब भी जवान हैं। थे। वो 1996 96 और 98 की कहानी को दोहराने का इरादा रखते हैं। जब कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन राष्ट्रीय मोर्चा का लीडर टीडीपी सुप्रीमो और आंध्र के सीएम रहे नंदमुरी तारक रामाराव को चुना गया था। इसलिए पवार ऐसा शिगूफा छोड़ रहे हैं कि अगर अतिशक्तिशाली हो चुके नरेंद्र मोदी को हराने के लिए कोई उन तमाम नेताओं को एक मंच पर लाकर मुट्ठी बना सकता है तो वो केवल वहीं है। सोनिया के नाम पर बहुत सारी पार्टियां और नेता नहीं आएंगे। लेकिन वो वो टीएमसी सुप्रीमो ममता बैनर्जी, बीजेडी सुप्रीमो नवीन पटनायक, आरजेडी के लालू यादव, जेडीयू के नीतीश कुमार, यूपी से मुलायम सिंह यादव-अखिलेश यादव, तेलंगाना से असदुद्दीन ओवैसी, असम से पूर्व सीएम प्रफुल्ल महंत, टीआरएस के के चंद्रशेखर राव, वीआईएसआर के जगनमोहन रेड्डी, जेडीएस के एचडी देवगौ़ड़ा को लाकर मोदी का तख्ता पलट सकते हैं। अब देखना है कि पवार का पावर सेंटर के लिए ये नया खेल क्या गुल खिलाता है। 


Sunday, December 13, 2020

ममता बैनर्जी संभल जाओ-ठाकुरबाड़ी से ये पंगा हर सरकारों को महंगा पड़ा है

अपनी ज़मीन खो चुकी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की चीफ ममता बैनर्जी पूरी तरह से तानाशाही पर आमादा हैं। बीते दिनों जनवरी 2020 में बंद हो चुपके हत्या के एक केस में टीएमसी छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को हराकर सांसद बने अर्जुन सिंह और विधायक सुनील सिंह के घरों पर सात थानों की फोर्स के जरिए छापेमारी की कोशिश की। जबकि एक दिन पहले ही अर्जन के सहयोगी रहे हालीशहर के एक कार्करता की हत्या समेत छह कार्यकर्ताओं को टीएमसी वालों ने घायल कर दिया। इस घटना ने साबित कर दियाय कि ममता बैनर्जी की सरकार एंड ऑर्डर पर पूरी तरह से फेल हो चुकी है। हिंदी भाषी और मुसलमानों का वोट गभग खो चुकी ममता बैनर्जी बीजेपी के बढ़ते असर से पूरी तरह से घबरा गई हैं। इसलिए वो हिंदीभाषियों और मुसलमानों के बड़े नेता बन चुके सुनील सिंह और अर्जुन सिंह पर लगातार वार कर रही हैं। बहुत पुरानी बात नही्ं है जब कांकीनाड़ा में अर्जुन सिंह के घर के बाहर जय श्रीराम का नारा लगा रहे अर्जुन सिंह के समर्थकों पर भड़ गई थीं। गाड़ी से उतर कर यूपी वालों को वापिस भेजने की धमकी दी थी।



आज ममता को अर्जुन और सुनील अपराधी नजर आते हैं। लेकिन वो उस दिन को भूल गईं कि जब उनके कभी राइट हैंड माने वाले वकील विकास बाु की हत्या में अर्जुन और सुनील पर केस ला था। तब ममता को ये दोनों नेता बाहुली नज़र नहीं आए थे। अपना सबसे खास सहयोगी की हत्या के बाद भाी नोयापाड़ा आकर सुनीलल और अर्जुन को टीएमसी में ले गई थीं। क्योकि तब उन्हें ताक़तवर वामपंथिों को हराने के लिए कद्दावर और ताक़वर लोगों का साथ चाहिए था। अब साथ छूट गया तो पिछले डेढ़ सालों में दोनों नेताओं पर डेढ़ सौ ज़यादा मुक़दमें लाद लिए। ममता बैनर्जी भूल रही हैं कि बंगाल काशी और ऋषिकेश से भी ज़्यादा हिंदुओं के लिए पवित्र जगह है। यहां नारा लगतदा रहा है कि सारा तीरथ सौ बार और गंगासागर बस एक बार। ईश्वर इसी जन्म में पाप और पुण्य का फैसला कर देता है। ममता बैनर्जी समय रहते संभल जाएं। वर्ना रघवंशी ठाकुरों का श्राप लगेगा। मई 2021 में महिषासुर वध हो सकता है। बेहतर हो कि ममता अमेटी कॉलेज नोएडा से पढ़कर निकले अपने भतीजे अभिषेक को शेडो सीएम और टीएमसी चीफ बनने से रोकें। उसी की जह से ममता की ये दुर्गति हो रही है। वर्ना ये ठाकुरबाड़ी टीएमसी के सर्वनाश के लिए तैयार बैठी है।