Thursday, December 13, 2018

क्या मायावती ने अपने फायदे के लिए बुना राहुल के लिए पॉलिटिकल हनीट्रैप?

हिंदी पट्टी के तीन प्रदेशों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीएसपी ने विधानसभा चुनाव के दौरान काग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को खूब आंखें दिखाई। ये संदेश दिया कि उनकी सियासी हैसियत राष्ट्रीय पार्टी से कमतर नहीं है। लेकिन  चुनाव बाद जब नतीजे आए और कांग्रेस बहुमत से दो फर्लांग दूर रह गई तो मायावती ने फौरन बिन मांगे राहुल गांधी को समर्थन दे दिया। उनकी देखा-देखी समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने भी कांग्रेस को सपोर्ट कर दिया। अगर मायावती के कांग्रेस के सामने बिछने के अंदाज की गहराई को देखें तो समझ एक नजर में ये समझ पाना मुश्किल है कि समर्थन देना उनकी मजूरी है या फिर कोई गहरी सियासी चाल। तमाम नफा-नुकसान को तौलने के बाद इसी नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि ये बहनजी का तिकड़म है। अपने सियासी फायदे की खातिर उन्होने राहुल गांधी को फंसाने के लिए हनीट्रैप बिछाया है। 

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे बहुजन समाज पार्टी के लिए अच्छे संकेत लेकर नहीं आए, जिसकी आस लगाए मायावती बैठी थी। छत्तीसगढ़ में मायवती ने जिस तरह चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस से मुह मोड़कर कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाने वाले पूर्व सीएम अजीत जोगी से हाथ मिलाया था, उससे छत्तीसगढ़ में त्रिशंकु विधानसभा के आसार दिखने लगे। कुछ चैनलों के एग्जिट पोल ने अजीत जोगी और मायवती के गठबंधन को किंगमेकर के तौर पर पेश भी कर दिया। लेकिन वोटों की गिनती के दौरान ही हालात कुछ और हो गए। नतीजों में छत्तीसगढ़ में बहुजन समाज पार्टी को करीब 4 फीसदी वोट मिले और उसे सिर्फ 2 सीटों पर संतोष करना पड़ा। कुछ यही हाल राजस्थान का भी रहा, जहां बीएसपी को 4 फीसदी वोट तो मिले। लेकिन सीट एक भी नहीं मिली। हालांकि एमपी में वो दो सीटें हासिल करने में कामयाब रही।
बीएसपी भले ही सीटों के गणित में पिछड़ गई हो। लेकिन पार्टी ये संकेत देने में सफल रही है कि अगर कांग्रेस 2019 में यूपीए का कुनबा बड़ा करना चाहती है तो बीएसपी के बिना बात नहीं बनेगी। राजस्थान और मध्य प्रदेश में जिस तरह सरकार के खिलाफ लोगों में गुस्सा होने के बाद भी कांग्रेस जैसे-तैसे करके सरकार में आई। ऐसी सूरत और हालात में इन दोनों राज्यों में अकेले दम पर लोकसभा चुनाव लड़ना कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर होगा।
मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस और बीजेपी के बीच केवल एक फीसदी वोटों का फासला रहा।   ऐसे में कांग्रेस के लिए भी मुफीद रहेगा कि इस राज्यों वो अगर 4-5 फीसदी वोट शेयर वाली बीएसपी को अपना साथी बना ले तो राह आसान हो जाएगी। बीएसपी को फायदा ये होगा कि उसे राष्ट्रीय पार्टी होने का तमगा कायम रहेगा।
कांग्रेस को समर्थन देते समय मायावती ने ये पहले ही साफ भी कर दिया कि ये सपोर्ट  केवल बीजेपी को रोकने के लिए है। अगर 2019 में कांग्रेस महागठबंधन बनाना चाहती है तो उस समय शर्तें अलग होंगी। अगर यूपी को खंगाले तो बीएसपी सुप्रीमो मायावती और एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव पहले कई बार कांग्रेस को इशारों ही इशारों में उसकी कमजोरी का अहसास कराया है। हालांकि अब इन तीन राज्यों के नतीजों के बाद कांग्रेस के सुर और तेवर हो सकता है कि बदला हुआ नज़र आए। लेकिन बीएसपी के वोट शेयर को देखते हुए कांग्रेस के लिए माया की अनदेखी करना आसान नहीं होगा।

Friday, October 19, 2018

राम ने शंबुक को क्यों मारा?

न्यूज़ डेस्क- आज पूरा देश दशहरा और विजयादशमी के जश्न में डूबा है। उत्तर पूर्वी भारत के लोग महिषामर्दिनी करनेवाली देवी दुर्गा की जीत का जश्न विजयादशमी के तौर पर शुभो बिजॉया कहकर मना रहे है तो उत्तर भारत और हिंदी पट्टी के लोग महापंडित, महाज्ञानी, महाबलशाली, महाप्रतापी और शिव के सबसे परम भक्त रावण पर अयोध्या के मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम की जीत की खुशी में दशहरा मनाएंगे। राव ण का पूतला फूंककर अधर्म पर धर्म की जीत का संदेश देंगे। आज तुलसीदास के रामायण के पात्र श्रीराम के राम के कुछ अनजाने पहलुओं को समझना है तो अलग अलग भाषाओं में लिखे रामायण के पात्र राम के चरित्र को समझना होगा। 
बाल्मिकी से लेकर तुलसीदास के रामायण में बाली वध, दलित की सबसे पहली हत्या यानी शंबुक वध और सीता के साथ हुए बर्ताव को जिक्र है। बाल्मिकी रामायण में जिक्र है कि राम ने  बाली का धोखे से क़त्ल किया। राम से बाली कहता है- “आप हतबुद्धि है। आप धर्म-ध्वजी है। दिखाने के लिए धर्म का चोला पहने हुए है। आप वास्तव में अधर्मी है। आपका आचार-व्यवहार पाप-पूर्ण है। आप घास-फूंस से ढके हुए कूप के सामान धोखा देने वाले हैआप कामेच्छा के गुलाम है। क्रोधी है,मर्यादा में न रहने वाले है। चंचल है। राजाओं की मर्यादा का बिना विचार किए किसी को भी अपने तीर का निशाना बना सकते है।”
बाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड और उत्तर रामचरित में शुद्र तपस्वी शम्बूक की ह्त्या से साफ़ जाहिर है कि श्री राम अत्यंत निर्दयी और अत्याचारी राजा थे। शम्बूक की हत्या को रामायण में बाल्मीकि ने श्रीराम के ही मुख से इस तरह वर्णन किया है। राम ने घोर तपस्या करते शम्बूक से पूछा-“तुम्हे किस वस्तु के पाने की इच्छा है? तपस्या से संतुष्ट हुए इष्ट-देवता से वर के रूप में तुम क्या पाना चाहते हो-स्वर्ग अथवा दूसरी कोई वस्तु? कौन-सा ऐसा पदार्थ है, जिसके लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या करते हो, जो दूसरों के लिए दुष्कर है? तापस ! जिस वस्तु की इच्छा के लिए तुम इस घोर तपस्या में लगे हुए हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ. इसके सिवा यह भी सही-सही बताना की तुम ब्राह्मण हो या दुर्जय क्षत्रिय? तीसरे वर्ग के वैश्य हो अथवा शुद्र? तुम्हारा भला हो। मेरे इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर देना।
शम्बूक ने उत्तर दिया-“हे महायशस्वी राम! मैं शूद्र हूं। मैं निसंदेह स्वर्ग लोक जाकर देवत्व प्राप्त करना चाहता हूं। मैं इसलिए यह उग्र तपस्या कर रहा हूं। काकुत्स्थाकुल भूषण राम मैं झूठ नहीं बोलता।. देव लोक पर विजय पाने की इच्छा से तपस्या में लगा हूं। आप मुझे शुद्र जानिए। मेरा नाम शुद्र है। राम के ही शब्दों में-“उस शुद्र के मुंह से ये बात निकली ही थी, मैंने आव देखा ना ताव।  म्यान से तलवार खीच ली और उससे शम्बूक का सिर धड़ से अलग कर दिया।”
अपनी पत्नी सीता पर तो राम ने मुसीबतों के पर्वत ही तोड़ डाले। 14 सालों के बनवास के बाद उनके चरित्र पर संदेह किया गया यानी चरित्र की शुद्धता का सबूत देने के लिए उन्हें अग्नि में कूदना पड़ा। सीता कहती है-“मेरा चरित्र शुद्ध है तो भी मुझे दूषित समझ रहे है। मैं सर्वथा निष्कलंक हूं। सम्पूर्ण जगत की साक्षी अग्नि देव ! मेरी रक्षा करें। सुमित्रानंदन ! मेरे लिए चिता तैयार कर दो। मेरे इस दुख की एक ही दवा है। मिथ्या कलंक से कलंकित होकर मैं जीवित नहीं रह सकती।”


अग्नि परीक्षा के बाद भी राम की तसल्ली नहीं हुई। तंग आकर सीता को कहना पड़ा- “मैं मन, वाणी और क्रिया के द्वारा केवल श्रीराम की ही आराधना करती हूं। अगर यह कथन सत्य है तो भगवती पृथ्वी मुझे अपनी गोद में स्थान दे। सभी लोगों के देखते-देखते जानकी रसाताल को प्रयाण कर गई। सीता की आत्महत्या से राम के निर्दयी और अत्याचारी पक्ष अच्छी तरह उजागर हो जाता है।
बाल्मीकि रामायण के उत्तराखंड के सर्ग ४२ श्लोक १७-२१ में राम सीता का राजकीय उद्यान विहार का वर्णन इस तरह किया है। अशोक वनिका …१७…पान्वाश्न्गत:(२१) अर्थात : रामचंद्र ने अपने अंत:पुर से सटे हुए समृद्ध राजकीय उपवन में विहारार्थ प्रवेश किया और वे फूलों शोभित तथा ऊपर से कुश या बिछावन बिछाये हुए एक सुन्दर आसन पर बैठ गए। राजा काकुत्स्थ वंश में उत्पन्न रामचंद्र ने सीता जी को हाथ से पकड़ कर पवित्र मेरेय नामक मद्य को,जैसे इन्द्र शची को पिलाते है, वैसे ही पिलाया.।चाकर उत्तम पकाए हुए मांस तथा नाना प्रकार के फल रामचंद्र के भोजनार्थ शीघ्र लाए। रामचंद्र के समीप जाकर नाच-गान में प्रवीण अप्सराएं, नाग-कन्याएं, किन्नरियां और अन्य गुणी और रूपवती स्त्रिया  मदिरा के नशे में मतवाली होकर नाचने लगीं। 

Tuesday, August 14, 2018

काहे की आज़ादी और किसकी आजा़दी!

यक़ीन मानिए कि ये वाक्य लिखते वक़्त हाथ कांप रहे हैं और आत्मा रो रही है। लेकिन मन कह रहा है कि सच लिखना बंद मत करो। भले ही मुट्ठी भर लोग आपको देशद्रोही, समाजवादी या वामपंथी करार दें। ये वाक्य देश की असली सच्चाई को उजागर करती है। क्योंकि आजादी के बाद सत्तर सालों तक कांग्रेस की सरकारें थीं तो कई बार भगवा और गैर कांग्रेसी की सरकारें रहीं। लेकिन दिल पर हाथ रखकर कहिए कि इस देश में क्या बदला। सड़कें चौड़ी हो गईं। सड़कें चमकदार और घुमावदार हो गईं। सिर के ऊपर से दनादन हवाई जहाज़ों के गुज़रने की संख्या ज़्यादा हो गई। आज़ादी से पहले वाली रेलगाड़ियां अब चमकदार हो गईं। आप सोच रहे होंगे कि इतना कुछ बदलने की बात मैं खुद कर रहा हूं तो फिर ऐसी आज़ादी पर सवाल खड़े कर रहा हूं।
ये बात इसलिए लिख रहा हूं कि क्योंकि कान में देवरिया और मुज़्ज़फ़रनगर की अबोध बालिकाओं की चीखें गूंजती है। दिन में मानवता की बात करनेवाले कैसे सूरज के मुंह चुराते ही असली चेहरों के साथ छोटी-छोटी बालिकाओं को दिखते होंगे। पार्टियां चाहें कोई भी हों। झंडों का रंग चाहें कोई भी हो। लेकिन फितरत सबकी एक जैसी है। सत्ता में होते हैं तो जांच बिठाने का नाटक करते हैं और जब सत्ता से बाहर होते हैं तो हाथों में तख्तियां, बैनर और मोमबत्ती के साथ नज़र आते हैं। याद कीजिए उस दौर को जब देश में निर्भया कांड हुआ था। उस दौर में जिस तरह से देश की मुट्ठियां भींच गई थीं तो लगा था कि समाज अब किसी रावण को पैदा नहीं होने देगा। कानून बदला गया। बड़ी बड़ी बातें की गईं। लेकिन आज भी हर राज्य में आबरू महफूज़ नहीं है। सिर्फ आबरु ही क्यों! जि़ंदगी तक महफूज़ नहीं है।

जो सत्तर साल में नहीं हुआ, वो आज हो रहा है। सत्ता की चाबी दे दो भ्रष्टाचार मिटा दूंगा। ग़रीबों के साथ डटकर खड़ा रहूंगा। ये नारा देनेवाली दोनों ही पार्टियां यानी बीजेपी और आम आदमी पार्टी दिल्ली पर काबिज़ है। फिर भी उस नगरी में तीन बच्चियां भूख से तड़प कर दम तोड़ देती हैं। अभी इस शोरगुल और लीपापोती का शोर खत्म भी नहीं होता है कि ग़ाज़ियाबाद में भी भूख से एक मौत हो जाती है। बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इस तरह के वाकए आए दिएन सुनने को मिलते हैं। लेकिन सरकारें और विपक्ष अपने अपने फायदे और नुक़सान के लिहाज़ से तथ्यों को तोड़ मरोड़ देते हैं। इन घटनाओं को देखकर मुझे रिपोर्टिंग का वो दौर याद आता है। ओड़ीशा में एक जगह बालासोर। वहां पर मैंने एक जनजाति के लोगों को भूख मिटाने के लिए चींटियां खाते हुए देखा था। ये रिपोर्ट एक साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। बिहार में एक जनजाति है। उसे मूसहर कहते हैं। इस जाति के लोग मूस यानी चूहा खाकर अपनी भूख मिटाते हैं। ये उस प्रदेश की सूरत हैं, जहां सुशासन बाबू की सरकार है। सबका साथ सबका विकास का नारा देनेवाली पार्टी भी सत्ता में है। उस राज्य में परिवर्तनकारी लालू यादव और कांग्रेस की सरकारें रही हैं। लेकिन जो तस्वीर सदियों पहले थीं, वो आज भी बदस्तूर है। ये उस देश की भयावह तस्वीर है, जहां लाखों-करोड़ों अनाज भंडारण के सही रख-रखाव के अभाव में सड़ जाते हैं।

आज भी हमारे देश की पार्टियां, नेता और सरकारें मूल समस्याओं पर बात करने को तैयार नहीं होतीं। अगर भूख की बात कीजिए तो पलटकर सुनने को मिलता है गौ माता की पूजा करो। रोज़गार की बात कीजिए तो सुनने को मिलता है सबसे पहले देश। लॉ एंड ऑर्डर की बात कीजिए तो नारा आता है कि राम राज्य आ गया। अब तो बस मंदिर बनना बाक़ी है। हमारी सरकारें बताती हैं कि सिर्फ दिल्ली ही दिल्ली में पचास फीसदी से ज़्यादा लोग अमीर है। मुंबई में साढ़े छह हज़ार करोड़पति बसते हैं। शेयर बाज़ार लगातार कुलांचे भर रहा है। जीडीपी तो बस आसमान छूने को बेताब है। हमारा सीना फूलकर इतना कूप्पा हो गया है कि पाकिस्तान और चीन को तो छोड़िए दुनिया का सबसे ताक़तवर देश अमेरिका का राष्ट्रपति भी कोर्निश करने को बेताब रहता है। हम दुनिया के छठे सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति हैं। एक तरफ चमकदार नारे हैं। टीवी चैनलों और अख़बारों में बदल चुके भारत की ख़बरों की ज़़ेर ए बहस है। दूसरी तरफ मुंह चिढ़ाती कड़वी सच्चाई है। इसलिए बहुत दुखी मन से खुद से ही ये सवाल कर रहा हूं कि ये कैसी आज़ादी है। ये काहे की आज़ादी है। हमारे पुरखों ने खून से सींचकर जो आज़ादी हमें दिलाई, उसकी मलाई कौन काट रहा है।

Wednesday, July 25, 2018

बीजेपी को रोकने के लिए राहुल आगे बढ़ा सकते हैं किसी महिला नेता का नाम

न्यूज़ डेस्क- 2019 के लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। कांग्रेस ने राहुल गांधी को 2019 में पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है। इस फैसले के कुछ देर बाद ही यूपीए में कांग्रेस के सहयोगी दल के सुर बदलते हुए​ दिखाई नहीं दे रहे हैं। ऐेसे में कांग्रेस ने भी संकेत दे दिए हैं कि पीएम पद के लिए वह सहयोगी पार्टियों के नेताओं का समर्थन करने को तैयार है, बशर्ते वो उम्मीदवार आरएसएस समर्थित न हो। पार्टी के बड़े नेताओं की रणनीति है कि बीजेपी को 2019 में सत्ता में आने से रोकने के लिए कांग्रेस राज्‍यों में विभिन्न दलों का गठबंधन बनाने पर गौर करेगी। दरअसल लोकसभा चुनाव में मोदी को मात देने के लिए विपक्षी दल एकजुट होकर मुकाबला करना चाहते हैं लेकिन नेतृत्व को लेकर सहमति नहीं बन पा रही है। विपक्षी खेमे में ऐसी अटकलें हैं कि अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर किसी महिला को पेश किया जाए। ऐसे में बीएसपी नेता मायावती और तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी का नाम उभरकर सामने आ रहा है।

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी को 2019 के लिए पीएम पद के चेहरे के तौर पर पेश किया है। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि पार्टी का निर्णय सटीक, सपाट और स्पष्ट है। राहुल गांधी हमारा चेहरा हैं, हम उनके नेतृत्व में जनता के बीच जाएंगे। अब पार्टी के नेताओं का कहना है कि भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए वह क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार है। हालांकि कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस के लिए रास्ता इतना आसान नहीं है पार्टी को सपा, बसपा और राजद की शर्तें भी स्वीकार करनी होगी।
आरजेडी ने इशारों-इशारों में राहुल की पीएम पद की दावेदारी पर सवाल उठाए थे। वहीं तेजस्वी के बाद मायावती ने भी कांग्रेस को दो टूक संदेश देते हुए कहा कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में गठबंधन तभी संभव है, जब उनकी पार्टी को सम्मानजनक सीटें मिलेंगी। अगर इस समझौते में सम्मानजनक सीटें नहीं मिलती हैं तो भी उनकी पार्टी अकेले लड़ने को पूरी तरह तैयार है। सूत्रों के अनुसार राहुल की दावेदारी पर सहयोगी दलों की नाराजगी को देखते हुए कांग्रेस ने भी अपने कदम पीछे खींच लिए हैं। दरअसल पार्टी किसी भी कीमत पर महागठबंधन में बिखराव नहीं चाहती है।
राहुल गांधी खुद भी विपक्षी गठबंधन की किसी महिला उम्मीदवार के लिए पीछे हटने के लिए तैयार है। कहा जा रहा है कि आरएसएस समर्थित व्यक्ति के अलावा वह किसी के भी प्रधानमंत्री बनने पर सहज हैं। वहीं मंगलवार को महिला पत्रकारों से बातचीत करते हुए राहुल गांधी ने भी कांग्रेस की इसी राजनीतिक लाइन को आगे बढ़ाते हुए कहा था कि वह किसी भी ऐसे प्रत्‍याशी का समर्थन करेंगे जो बीजेपी और आरएसएस को हराएगा।

Monday, July 9, 2018

राजनीति और अपराध के सांठगांठ की कलई खोलती है मुन्ना बजरंगी की हत्या

माफिया प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी की दिन दहाड़़े जेल में हुई हत्या को एक मामूली अपराध की घटना से नहीं जोड़ा जा सकता और ना ही इस हत्या को माफियाओं का गैंगवॉर कहा जा सकता है। दरअसल मुन्ना बजरंगी की ये हत्या गंदी राजनीति और अपराधियों- नेताओं के सांठ-गांठ की पोल खोलती है। ये हत्या चीख चीख कर कहती है कि हर पार्टी का चाल, चरित्र और चेहरा एक जैसा हैं। बस सबके मुखौटे अलग अलग हैं। मुन्ना की हत्या के पीछे की सियासी गांठ को खोलने के लिए ज्यादा नहीं केवल दस दिन पहले का कैलेंडर पलटना होगा।
मुन्ना बजरंगी की पत्नी सीमा सिंह जौनपुर से चलकर यूपी की राजधानी लखनऊ आती हैं। बाकायदा प्रेस कांफ्रेस करती हैं। बीजेपी वाली सरकार के मुखिया और यूपी के मुख्यमंत्री योगी से अपील करती हैं कि जेल में बंद उनके पति की जान माल की हिफाजत सरकार करे क्योंकि उनके पति की हत्या की साजिश रची जा रही है। सीमा सिंह ने खुलकर कहा कि भ्रष्ट तंत्र के कुछ अधिकारी, यूपी पुलिस के उच्चाधिकारी और एसटीएफ जेल में बंद मुन्ना बजंरगी की हत्या की साजिश रच रहे हैं। सीमा सिंह के बयान को आसान भाषा में ट्रांसलेट करें तो भ्रष्ट तंत्र के कुछ अधिकारी यानी आईएएस और यूपी पुलिस के कुछ उच्चाधिकारी यानी आईपीएस हत्या की साजिश का तानाबाना बुन रहे थे।
अब सवाल ये कि एक माफिया की हत्या में आईएएस और आईपीएस की क्या दिलचस्पी हो सकती है? इस हत्या से उनको क्या फायदा हो सकता है? एक बार इस गुत्थी को समझने के लिए पीछे चलना होगा। मुन्ना बजरंगी ने अपनी जिंदगी में चालीस हत्याएं की हैं। इन हत्याओं में दो नाम बीजेपी नेताओं के हैं, जिनमें से एक हत्या बेहद सुर्खियों में थी। वो हत्या थी ठेकेदार से गाजीपुर के विधायक बने बीजेपी के कृष्णानंद राय की। इस हत्या को सियासी रंग दे दिया गया, जबकि असलियत में ये हत्या धंधे से जुड़ी हुई थी। गाजीपुर वाले बाहुबली मुख्तार अंसारी मऊ से माफियाराज चला रहे थे। उनके खास चेलों में मुन्ना बजरंगी भी हुआ करता था। उसकी इतनी हैसियत हो गई थी कि वो मुख्तार के दम पर अपने चेले चपाटों को भी ठेके दिलवाने लगा था। मुख्तार के धंधे में आड़े आ रहे थे कृष्णानंद राय।

मुख्तार अंसारी ने अपने जीवन का एक और बड़ा फैसला कर लिया और इसके लिए चुना अपने सबसे खास चेले मुन्ना बजरंगी को। अंडरवर्ल्ड से जुड़े लोग बताते हैं कि विधायक मुख्तार अंसारी ने मुन्ना को कृष्णानंद राय की हत्या का रुक्का थमा दिया। मुन्ना बजरंगी भी बड़ा बेरहम निकला। लखनऊ हाइवे पर उसने कृष्णानंद राय के काफिले पर एक.के. 47 से धावा बोल दिया। इस हमले में कृष्णानंद राय समेत छह लोग मारे गए। पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट में हरेक बदन से सौ-सौ गोलियां निकलीं।
अब अतीत से निकलकर आते हैं मौजूदा सियासत पर। सीमा सिंह के पास ऐसा कौन सा सूचना तंत्र है, जो सरकारी खुफिया तंत्र से भी ज्यादा तेज और मजबूत है। ऐसा कौन सा सूत्र उनके पास है, जो उन्हें पहले ही बता देता है कि जेल में बंद उनके पति की हत्या होनेवाली है और वो इस सूचना को सार्वजनिक भी कर देती हैं। राज्य सरकार का दावा है कि नई सरकार के इकबाल की डर से गुंडे और माफिया यूपी छोड़कर भाग गए हैं। लॉ एंड ऑर्डर की सख्ती का हवाला देते हुए सरकार ये भी दम भरती है कि सूबे की हर जेल की सुरक्षा व्यवस्था बेहद चाक चौबंद है। फिर जेल में मुन्ना बजंरगी की हत्या कैसे हो जाती है। सुबह साढ़े छह बजे जब बैरक में मुन्ना की सीने में एक बाद एक दस गोलियां उतार दी जाती हैं, तब सिपाही कहां थे। कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद जेल में हथियार कैसे पहुंच गए। हथियार किसने पहुंचाए। हथियार कहां छिपा कर रखे गए थे। इसकी भनक जेलर और संतरियों को क्यों नहीं लगी। क्या यही चाक चौबंद सुरक्षा व्यवस्था है।
इस हत्या के पीछे की गंदी सियासत को समझिए। लगभघ साल भर पहले की हात है जब मुन्ना बजरंगी के आका कौमी एकता दल वाले मुख्तार अंसारी शिवपाल सिंह यादव और मुलायम सिंह के कहने पर पार्टी और कुनबे समेत समाजवादी पार्टी में शामिल हुए। अखिलेश यादव ने विरोध किया तो साइकिल छोड़कर हाथी पर सवार हो गए। मायावती ने उन्हें टिकट दिया और वो चुनाव जीत भी गए। पूर्वांचल में वो मायावती के लिए नगीना है। उनकी गिनती मायावती के नवरत्नों में होती है। मुन्ना बजरंगी उन्ही का चेला था। बताते हैं कि बनारस में कांग्रेस वाले अजय राय की भी मुन्ना से खूब छनती थी। बनारस और आस-पास के इलाकों में अजय राय की तूती बोला करती है। सियासत में सत्ता केवल समर्थकों के उत्साह से नहीं मिलती। सत्ता के लिए जनबल के अलावा धन बल और बाहुबल की भी जरुरत होती है। लोकसभा चुनाव सिर पर है और मायावती का कद यूपी में लगातार बड़ा होता जा रहा है। यहां तक कि कई नेता और पार्टियां मायावती को पीएम बनाने का भी ख्वाब देखने लगी हैं। मायावती का बढ़ता कद और मुन्ना बजरंगी के कनेक्शन दर कनेक्शन को आपस में जोड़कर देखें तो सवाल उठता है कि क्या ये हत्या केवल गैंगवॉर की नतीजा है या फिर इसके पीछे कोई घिनौनी राजनीति है।


Thursday, June 28, 2018

सत्ता के लिए बीजेपी को चाहिए राम, रहीम, कबीर और अंबेडकर का साथ

केंद्र की सरकार अब इलेक्शन गियर में चल रही है। अब हर बात-हर घोषणा अगले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर की जा रही है। चार साल तक राम मंदिर पर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहनेवाली बीजेपी और संघ से जुड़े अब तमाम बड़े नेता मंदिर को लेकर गरजने लगे हैं। हर हाल में चुनाव जीतने है। मछली पर आंख की तरह लक्ष्य रखनेवाली बीजेपी केवल अपने आपको प्रभु श्री राम तक ही सीमित करके रखना नहीं नहीं चाहती। यूपी में अखिलेश यादव और मायावती की जोड़ी दलित-पिछड़ों और मुस्लिमों के वोट बैंक पर कुंडली मारकर बैठी है। ये जुगलबंद बीजेपी और उसकी मातृ संस्था आरएसएस को खल रही है। दोनों ही जानते हैं कि अगर इस जोड़ी को नहीं तोड़ा गया तो यूपी में पुंगी बज जाएगी। हर रोज़ इतवार नहीं होता। इसी तरह से साल 2019 भी साल 2014 की तरह नहीं होगा। कहने को संघ सांस्कृतिक संस्था है। लेकिन सदियों से वो बेचैन रहती है कि कैसे अपने लाल यानी बीजेपी को सत्ता के झूले पर झुलाती रहे। सरकार के दावों की खुलती पोल, नरेंद्र मोदी के झुमलेबाजी से आई साख गिरावट और सांसदों के मतदाताओं से बढ़ती दूरियों की खबर जब संघ तक पहुंची तब मोहन भागवत ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को तलब किया। समझाया कि केवल ब्राह्नमणों और बनियों के समर्थन से सरकार नहीं बनने वाली। पिछली बार दलित और पिछड़े मिले थे, तब कम खिला था। ये तबका अब छिटक चुका है। इसे साधने की कोशिश करो। फिर संघ ने यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को बुलाकर उनके राज में दलितों पर बढ़े सितम और सवर्णों के मनचढ़ी को लेकर हिदायत दी। इसका असर ये हुआ है कि मोदी दलितों-पिछड़ों के मगहर में मसीहा संत कबीर की मजार पर पहुंच गए। बड़े-बड़े दावे किए। दलितों और पिछड़ों के लिए अपना दर्द दिखाया और कांग्रेस-सपा-बसपा के मत्थे दोष मढ़ा कि इन पार्टियों ने इन लोगों के लिए रत्ती भर काम नहीं किया।
कबीरपंथियों की शिकायत है कि चार साल मोदी अपने संसदीय क्षेत्र बनारस कई दफे आए लेकिन कबीर की जन्मस्थली आने का वक्त नहीं निकाल पाए। उन्हें चुनावी साल में कबीर की याद मोदी जी को आई है। इस आरोप में चाहे सच्चाई हो या नहीं हो लेकिन यह बात जरूर सच है कि चुनावी साल में बीजेपी को यूपी में खासतौर से कबीर में संभावना दिखने लगी है।  दरअसल कबीर गरीबों, दलितों, पिछड़ों, शोषितों के मसीहा माने जाते हैं। सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के रूप में कबीर की पहचान है, सामाजिक न्याय के लिए कबीर का नाम बड़े आदर से लिया जा सकता है। कबीर को दुनिया का पहला सच्चा समाजवादी भी कहा जा सकता है।  दरअसल कबीरपंथियों की संख्या लगभग ढ़ाई करोड़ है, जिनमें दलित और पिछड़ों की संख्या ज्यादा है। कबीर खुद जुलाहे थे। इस साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं, उनमें भी कबीर के अनुयायी काफी तादाद में है। छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ की कई शाखाएं और उप शाखाएं हैं। राजस्थान के नागौर में , पटना में फतुहा मठ, बिद्दूपुर मठ, भगताही शाखा, छत्तीसगढ़ी या धर्मदासी शाखा, हरकेसर मठ, लक्ष्मीपुर मठ, पश्चिम बंगाल जैसे  राज्यों में कई मठों, संस्थाओं पर कबीर पंथ के अनुयायी हैं।

ये सारा ऐसा वोट बैंक है जो आसानी से सत्ता तक ले जाता है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों के साथ यूपी की 80 में से 73 सीटों पर कब्जा किया था। उस समय विपक्ष बिखरा था। गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों के बीच संघ का किया काम कमल के काम आ गया था। लेकिन पिछले एक साल में कहानी बदल गई है। ऐसे में दलितों और ओबीसी को अपने पाले में लाने पर मोदी पूरा जोर दे रहे हैं।  मोदी जानते हैं कि हिंदुत्व की हांडी बार बार नहीं चढ़ाई जा सकती। सुप्रीम कोर्ट का फैसला राम मंदिर के पक्ष में नहीं आया तो उन्हें बड़े हिंदू वर्ग को जवाब देना पड़ सकता है। ऐसे में दलित ओबीसी वोट की पूंछ सत्ता की वैतरणी को पार करने में सहायक साबित हो सकती है। मायावती और अखिलेश के गठबंधन में सेंध लगाई जा सकती है और इस सबके महासेतु कबीरदास साबित हो सकते हैं।
कबीर के दिल में तो राम बसे थे लिहाजा उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह काशी में शरीर त्यागते हैं या मगहर में, लेकिन सियासी जन्म मरण को देखते हुए काशी और मगहर अचानक से महत्वपूर्ण हो चुके हैं।  वैसे मोदी ऐसे पहले नेता नहीं है जो कबीरदास के नाम पर सियासत करने निकले हों,  इससे पहले सभी अन्य दल भी अपने अपने तरीके से कबीरदास का नाम लेते रहे हैं और सियासत चमकाने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन यूपी में नये चुनावी समीकरण और नई तरह की सोशल इंजिनियरिंग को देखते हुए कबीरदास का नाम और काम या यूं कहा जाए कि उनकी पहचान को नये सिरे से चमकाना जरुरी हो गया है। यूपी को सिर्फ सवर्ण वोटों के सहारे जीता नहीं जा सकता। यूपी की जातिवादी राजनीति को हिंदुत्व के दम पर तोडऩा भी मुश्किल नजर आ रहा है।  इसलिए संघ और बीजेपी को केवल राम ही नहीं चाहिए। बौद्ध वोट के लिए गौतम बुद्ध भी चाहिए और दलित-पिछड़ों के वोट के लिए कबीर और अंबेडकर भी।

Saturday, June 9, 2018

एक महीने तक जांच नहीं लेकिन नतीजे दे दिए चंद घंटों में !

लोग अक्सर मज़़ाक में कहते हैं कि ये यूपी पुलिस है। अगर इसकी पकड़ में कुछ घंटे के लिए तोता भी आ जाए तो वो रट लगाने लगेगा कि वही ओसामा बिन लादेन है। दुनिया की शायद ये इकलौती पुलिस है, जो हत्यारों, बलात्कारियों और डकैतों को समय रहते तो नहीं पकड़ सकती लेकिन डकैती की योजना बनाते डकैतों को पहले ही ज़रुर धर लेती है। मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव एस.पी. गोयल पर काम के बदले पच्चीस लाख रुपए की घूस मांगने का आरोप लगाने वाले लखनऊ के इंदिरा नगर के अभिषेक गुप्ता के क़ुबूलनामे के बाद फिर से ये लतीफे सियासी फिंज़ा में तैरने लगे है। अभिषेक गुप्ता की गिरफ्तारी और उसके कुबूलनामे से कई शदीदी सवाल खड़े होते हैं।
पहले सवाल ये है कि आरोप अप्रैल में लगाए गए लेकिन उनके खिलाफ एफआईआर 6 जून को दर्ज कराई गई। ये एफआईआर मुख्यमंत्री सचिवालय ने नहीं बल्कि यूपी बीजेपी ऑफिस ने कराई। शिकायत करने में इतनी देरी क्यों की गई। पुलिस को ये शिकायत तब क्यों की गई जब घूस की जांच करानेवाली राज्यपाल की चिट्ठी मीडिया के हाथ लग चुकी थी। अभिषेक गुप्ता की गिरफ्तारी को पुलिस ने हिरासत में क्यों बताया। हिरासत में लेते समय अभिषेक के घरवालों को क्यों जानकारी नहीं दी गई। अभिषेक गिरफ्तारी तब क्यों की गई जब समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने सीबीआई जांच की मांग कर सियासी रंग दे दिया।दरअसल, अभिषेक गुप्ता ने 18 अप्रैल को ईमेल कर राज्यपाल राम नाइक से शिकायत की थी कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रमुख सचिव एस,पी. गोयल काम के बदले में पच्चीस लाख रुपए मांग रहे है। राज्यपाल ने 30 अप्रैल को मुख्यमंत्री से जांच कराने की संस्तुति वाली चिट्ठी प्रेषित कर दी। ये चिट्ठी सात जून को मीडिया के हाथ लग गई और आठ जून को वायरल हो गई। मीडिया के हाथ चिट्ठी लगने की भनक मिलते ही बीजेपी ऑफिस के प्रभारी भरत दीक्षित ने हजरतगंज थाने में आईपीसी की धारा 501 और 420 के तहत केस दर्ज कराया। आरोप लगाया कि अभिषेक बीजेपी नेताओं का नाम लेकर सीएम ऑफिस पर दबाव बना रहा है। इसकी जानकारी उनको मुख्यमंत्री के विशेष सचिव संभ्रात शुक्ला ने दी है। इसके बाद पुलिस ने आठ मई को अभिषेक को धर लिया। इस पूरे प्रकरण से कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं।
पहला ये कि पुलिस को ये शिकायत इतनी देर से क्यों की गई। ये शिकायत बीजेपी ऑफिस के प्रभारी ने क्यों की। बीजेपी नेताओं के नाम पर दबाव बनाने की बात जब मुख्यमंत्री के विशेष सचिव के संज्ञान में आई तो इसकी जानकारी मुख्यमंत्री से न कर बीजेपी ऑफिस में क्यों की। वो सीधे पुलिस में क्यों नहीं गए। 30 अप्रैल की चिट्ठी पर कुंडली मारकर बैठे सीएम योगी आदित्यनाथ ने अखिलेश यादव के आरोपों के बाद ही जांच रिपोर्ट क्यों मांगी। 30 अप्रैल की चिट्ठी पर मुख्यमंत्री के निर्देश मिलने पर आनन-फानन में मुख्य सचिव राजीव कुमार ने क्लीन चिट रिपोर्ट कैसे दे दी। अभिषेक का आरोप था कि सड़क की चौड़ीकरण के लिए उससे घूस मांगे गए। लेकिन रिपोर्ट में ये दिखाया गया कि अभिषेक ने हरदोई के रेसो गांव के गाटा संख्या 184 का विनिमय ग्राम समाज की जमीन गाटा नंबर 187 करने की प्रार्थना की थी। इसका फैसला मुख्यमंत्री और राजस्व विभाग के विवेक पर होता है। इसलिए उसकी प्रार्थना रद्द कर दी गई। मज़ेदार बात तो ये है कि एक तरफ प्रशासन ने क्लीन चिट दी वहीं। पुलिस की भी क्लाीन चिट आ गई, जिसमें अभिषेक ने माफी मांगते हुए कहा कि मानसिक दबाव में आकर ये आरोप लगाए थे। अब सवाल फिर ये कि अगर ये आरोप मेंटल प्रेशर का नतीजा है तो फिर अभिषेक ने सीधे सीएम या पीएम पर आरोप क्यों नहीं लगाए। कुल मिलाकर विरोधी दल और लोगों को लगता है कि दाल में काला तो ज़रुर है । हो सकता है कि पूरी दाल ही काली हो।

Tuesday, June 5, 2018

कहां से कहां आ गई फिल्म इंडस्ट्री की हीरोइनें

एक दौर था जब हिंदी सिनेमा में अच्छे घराने को लड़कियां काम नहीं करना चाहती थीं। क्योंकि उस दौर में फिल्म इंडस्ट्री को बेहद घटिया पेशा माना गया था। इसलिए हीरोइन की भूमिका के लिए कई बार पुरुषों को हीरोइन बनना पड़ा था। या फिर तवायफों और वेश्याओं से भूमिका कराई जाती थी। समय बहदा। नजरिया बदला। सोच बदली। लड़कियां होरीइनें बनने लगीं। लेकिन वो बदन उघाड़ू सीन्स के लिए तैयार नहीं होती थीं। बेड रुम सीन्स, किसिंग सीन्स और बोल्ड सीन्स तो बहुत दूर की बात है। इसलिए उस दौर में रोमांस दिखाने लिए लव बर्ड के लव या दो फूलों को आपस में टकराते हुए दिखाया जाता था। दर्शकों को पटाने के लिए या कहानी की डिमांड पर बिकनी शॉट्स, कैबरे और बोल्ड सीन्स की मांग होती तो एक्ट्रेस ठुकरा देती थी। तब हिंदी सिनेमा में वैंप्स की इंट्री हुई। समय का पहिया इतनी तेजी से घूमा कि वैंप्स और हीरोइनों की लकीर मिट गई। आजकल की हीरोइनों को बोल्ड सीन्स और बेडरूम सीन्स देने में कोई हिचक नहीं होती। वो बिंदास हो गई है। बात रोल तक हो तो बादत समझ में आती है।

ये पर्सनल लाइफ में भी भारतीय संस्कृति को ताक पर रख चुकी हैं। हाल में शमा सिकंदर ने कहा कि बच्चा पैदा करने के लिए उन्हें शादी करने की जरुरत नहीं है। कई हीरोइनें सेक्स रैकेट पकड़ी जा चुकी हैं। कई क्राइम में शामिल रही है। किसी जमाने की मशहूर हीरोइन मंदाकिनी के बारे में कहा जाता है कि वो माफिया दाऊद इब्राहिम की रखैल है। ममता कुलकर्णी की लाइफ भी क्राइम से कलंकित है। मुनमुन सिंह की बेटियां और सुचित्रा सेन की नातिनों राइमा और रिया सेन का नाम झारखंड के मुख्यमंत्री रहे मधु कौड़ा के एक स्कैंडल से जोड़ा जा चुका है। एक्ट्रेस जया प्रदा नाहटा की भी पर्सनल लाइफ विवादित है। बिपाशा बसु और अमर सिंह की फोन पर हुई बातचीत भी दुनिया जानती हैं, जिसमें वो समाजवादी पार्टी के एक बहुत बड़े नेता के सेक्स लाइफ पर बात कर रही हैं। नीना गुप्ता ने तो बिन ब्याही मां बनने का ट्रेंड स्थापित कर दिया। एक्ट्रेस जिया खान ने खुदकुशी करने से पहले सुसाइड नोट में एबॉर्शन करवाने की बात लिखी थी। जिया ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि अपने बच्चे को मैंने खो दिया जिसने मुझे बहुत गहरा दर्द दिया। टीवी रियलिटी शो 'बिग बॉस 5' से सुर्खियों में आईं पाकिस्तानी एक्ट्रेस वीना मलिक भी शादी से पहले ही प्रेग्नेंट हो गई थीं। वो अपने बॉयफ्रेंड प्रशांत से प्रेग्नेंट थीं लेकिन उन्हें किसी कारणवश एबॉर्शन करवाना पड़ा। टीवी सीरियल 'बालिका वधू' में आनंदी का फेमस किरदार निभाने वाली एक्ट्रेस प्रत्युषा बनर्जी ने महज 24 साल की उम्र में सुसाइड करके सनसनी मचा दी थी। ऐसे में ये बात भी सामने आई थी कि उन्होंने सुसाइड से पहले एबॉर्शन करवाया था। सन टीवी के फेमस सीरियल वानी रानी की एक्ट्रेस संगीता बालन को पुलिस ने  जिस्मफरोशी के कथित आरोपों में गिरफ्तार हैं। श्वेता बसु प्रसाद, मिष्टी मुखर्जी, श्रावणी, भुवनेश्वरी और सायरा बानों जैसी साउथ की एक्ट्रेस कॉल गर्ल के धंधे में अरेस्ट हो चुका है। ये सच्चाई है आज की चमकते-दमकते हिंदी सिनेमा की, जिसमें इंट्री के लिए आज का युवा दीवाना है।

Tuesday, May 29, 2018

हर मोर्चे पर मोदी रहे फेल

26 मई 2018 को नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए सरकार इलेक्शन मोड में आ गई। मोदी सरकार के चार साल पूरे हो चुके हैं। अब गिने-चुने दिन ही बचे हैं। मोदी सरकार 48 साल बनाम 48 महीने और विकास के जुमले को उछालकर फिर से सरकार बनाने का सपना देख रही है। याद कीजिए कि मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली सरकार ने भी विकास के नारे पर चुनाव लड़ा था। लेकिन नतीजे किसी से छिपे नहीं है। इसमें कोई शक़ नहीं कि मोदी की सरकार और इनके नेता तर्क गढ़ने में माहिर हैं। इस तरह के आंकड़ें उछालते हैं कि अच्छे-अच्छों का सिर चकरा जाता है।  पिछले चार सालों में इस सरकार ने अगर कुथ अच्छे काम किए हैं तो बुरे और ग़लत कामों का भी भंडार है।  ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जिनमें मोदी सरकार कोई अहम सुधार करने में नाकाम रही है। इसकी एक मिसाल भर  है जमीन और लेबर सुधार।  ये उन लोगों के लिए सबसे बड़ी बाधा हैं, जो भारत में कारखाने लगाना चाहते हैं।

देश आज भी 8 नवंबर 2016 को भूला नहीं है। नोटबंदी का काला अध्याय वाला दिन। 500 और 1000 के नोटों को अगले कुछ घंटों में गैरकानूनी ठहराने के ऐलान के साथ ही मोदी ने अर्थव्यवस्था की डूबती-उतराती नैया में छेद कर दिया था। इस तरह मोदी ने एक झटके में देश में चलने वाली 86 फीसद करेंसी को गैरकानूनी बना दिया। मोदी के विरोधी कहते हैं कि ये आधुनिक भारत के आर्थिक इतिहास की सबसे बड़ी आर्थिक तबाही थी। दस साल तक अपने गृह राज्य गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के बाद एक तजुर्बेकार राजनेता मोदी ने 2014 की शुरुआत में भारतीयों से 'अच्छे दिन' और लाने और 'सबका साथ, सबका विकास' करने का वादा किया। तब से चार साल गुजर चुके हैं। क्या मोदी ने उन वादों को पूरा किया है?
कई बार आंकड़े आप को बरगला देते हैं। फिर भी हमें आंकड़ों को देखकर ये पता लगाना होगा कि आखिर वो क्या कहते हैं।  ये 10 चार्ट बताते हैं कि एशिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था भारत ने मोदी के राज में कैसा प्रदर्शन किया है। बात जीडीपी की। पिछले चार सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था की औसत जीडीपी 7.3 फीसद की दर से बढ़ी है।  ये यूपीए-2 के पहले चार सालों की जीडीपी विकास दर 7.2 फीसद के मुकाबले में एकदम बराबर ही है। यानी इस मोड़ पर भी मोदी ने कोई कमाल नहीं किया। . मज़े की बात है कि आंकड़ों की बाज़ीगर मौजूदा सरकार ने जीडीपी का हिसाब लगाने का तरीका जनवरी 2015 से बदल  ही दिया।
इसके अलावा अगर हम अलग-अलग क्षेत्रों की बात करें, तो कृषि की विकास दर मोदी सरकार के दौर में घटकर 2.4 फीसद ही रह गई है। यूपीए-2 के पहले चार सालों में कृषि क्षेत्र की विकास दर औसतन 4 फीसद रही थी। मोदी सरकार के चार सालों में औद्योगिक विकास की दर 7.1 प्रतिशत रही. जो यूपीए-2 के 6.4 फीसद के मुकाबले मामूली रूप से ज्यादा है।   मोदी सरकार के राज में सर्विस सेक्टर का विकास 8.8 फीसद की सालाना दर से हुआ। जबकि यूपीए-2 में ये दर 8.3 प्रतिशत और यूपीए-1 में ये 9.9 प्रतिशत रही थी।
मोदी सरकार के शुरुआती कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम काफी कम थ।. इसकी वजह से थोक महंगाई दर का चार सालों का औसत 0.59 प्रतिशत बैठता है। वहीं यूपीए-2 के राज के पहले चार सालों में थोक महंगाई दर 7.4 प्रतिशत रही थी। यहां ये बात भी गौर करने लायक है कि थोक महंगाई दर तय करने का आधार मोदी सरकार ने 2004-05 से बदलकर 2011-12 कर दिया था।
उपभोक्ता मूल्य महंगाई दर में भी खेल हुआ। ये वो दर है जिसकी मदद से रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति तय करता है। मोदी सरकार ने इसके मापने की दर में भी थोक मूल्य सूचकांक की तरह ही बदलाव किया था। मोदी सरकार ने इसे मापने का आधार वर्ष 2010 से बदलकर 2012 कर दिया था. इस दौरान औसत उपभोक्ता मूल्य सूचकांक वित्त वर्ष 2014 में 9.49 प्रतिशत थी।
ये बात साफ है कि शेयर बाजार में निवेश करने वालों ने यूपीए सरकार के दौरान ज्यादा पैसा कमायाष सेंसेक्स ने मोदी सरकार के पहले चार सालों में औसतन 10.9 फीसद की दर से रिटर्न दिया। वहीं निफ्टी ने 11.6 प्रतिशत के औसत से निवेशकों को मुनाफा दिया है। जबकि यूपीए-2 के कार्यकाल में सेंसेक्स ने 22.3 और निफ्टी ने 20.7 फीसद की दर से रिटर्न दिया था। मौजूदा एनडीए सरकार के कार्यकाल में वित्त वर्ष 2015 में सेंसेक्स ने 24.9 प्रतिशत और निफ्टी ने 26.7 फीसद की दर से रिटर्न दिया। यहां भी मोदी सरकार फिसड्डी साबित हुई।
मोदी सरकार के लिए इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती पेट्रोल-डीजल के दाम में लगी आग है। मनमोहन सरकार में जब तेल के भाव बढञते थे, तब यही मोदी कहते थे कि दिल्ली की सरकार निकम्मी है। उसकी नीतियां भ्रष्ट हैं। आज वही मोदी है। उनके राज में पेट्रोल और डीज़ल धधक रहा है।  मोदी के मंत्री कुतर्क पेश कर रहे हैं कि दाम कम होने का असर कल्याणकारी नीतियों पर पड़ेगा। 
कभी बीजेपी विदेशी पूंजी निवेश का घोर विरोधी थी। उमा भारती कहती थीं कि आगर भारत में वॉलमार्ट आया तो आत्महत्या कर लेंगी। लेकिन सच्चाई ये है कि एनडीए सरकार के दौरान सीधा विदेशी निवेश जमकर हुआ।. मोदी सरकार के पहले चार साल में देश में औसतन 52.2 अरब डॉलर सालाना का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ। यूपीए-2 में सालाना औसतन 38.4 अरब डॉलर और यूपीए-1 के दौर में 18.1 अरब डॉलर सालाना का विदेशी निवेश आया था।
किसी भी सरकार के लिए टैक्स वसूली आमदनी का बहुत अहम जरिया है। अच्छी टैक्स वसूली होने पर कोई भी सरकार जनता की भलाई के कार्यक्रम और बुनियादी ढांचे के विकास के प्रोजेक्ट चला सकती है। एनडीए सरकार के पहले चार साल के कार्यकाल में सरकार ने औसतन हर साल 15.91 लाख करोड़ रुपए टैक्स वसूली की. यूपीए-2 की टैक्स से सालाना आमदनी 8.36 लाख करोड़ थी। अब सवाल ये है कि अपने कार्यकाल के आखिरी साल में प्रधानमंत्री मोदी क्या करेंगे? सवाल ये है भी कि क्या अगले साल मोदी मैजिक काम करेगा? क्या वो 2019 में सत्ता में लौटेंगे? आम भारतीयों से लेकर अंतरराष्ट्रीय निवेशकों तक के सामने ये सवाल मुंह बाए खड़े हैं।