Wednesday, July 25, 2007

पत्रकार पर हमला यानी देश पर हमला

अभी हाल की बात है। दो टीवी चैनलों के पत्रकारों को दिल्ली के कनॉट प्लेस में कुछ मनचलों ने धुलाई कर दी। हुआ यूं कि कुछ रईसज़ादे अपनी आदत और शगल के मुताबिक़, आधी रात के बाद हवाखोरी करने निकले। ये मनचले रईसज़ादे हर शनिवार और रविवार की आधी रात के बाद दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस पर राज करते हैं। दो पहियों पर सवार होकर मस्ती करते हैं। कलंदरों की तरह हरकत करते हैं। बाइक को हवा में उछालते हैं। खड़े होकर मोटरसाइकिल चलाते हैं। इसी में इन्हे आंनद आता है। कई बार हल्की फुल्की झड़प भी होती है।
पर हवाखोरी करनेवालों का ताल्लुक़ किसी रिक्शेवाले या पानेवाले के ख़ानदान से नहीं होता। बड़े घरों के औलाद होते हैं। शौक़ भी बड़े होते हैं। आधी रात की मस्ती के लिए सुरूर के जाम में डूबे होते हैं। सुरूर जब सिर चढ़कर बोलने लगता है तब गोलियां दागने में भी पल भर की देरी नहीं लगाते। बाली उम्र है। बाइक के साथ ज़ंजीर, सरिया ,रॉड, हाकी स्टिक औऱ लाठी से लैस रहते हैं। ये सब ख़ाकी वरदी के सामने होता है। लेकिन ख़ाकी वर्दी भी करे तो क्या करे ? आख़िर ख़ाकी और खादी ने ही तो इन्हे इतना ताक़तवर बनाया है। वरना हमारी- आपकी ये हिम्मत हो सकती है कि इस तरह से खुलेआम सड़क पर निकल पड़े। अख़बार बताते हैं कि अगर आप अपनी बहन बेटी को भी कहीं छोड़ने जाएं तो पुलिस वाले ख़बर ले लेते हैं। अगर वर्दी वाले भी सुरूर में हों तो छेड़छाड़ भी करने का अधिकार रखते हैं। आज के अख़बारों में छपी ख़बर इस बात को सच साबित करती हैं। बहरहाल , ख़बरिया चैनलों के तुरत फुरत पत्रकारों को ख़बर लगी तो उन्हे लगा कि बड़ा स्कूप हाथ लग गया है। शायद ऐसी घटना देश की राजधानी में पहली बार हो रही है। मनचलों ने भी शुरू में ख़ूब कॉपरेट किया। कलंदरों की तरह उछल कूद मचाते रहे और रिपोर्टर उसे शूट करता रहा। अचानक दोनों के बीच तालमेल लड़खड़ाता है और मनचलों की टोली पत्रकारों की धुलाई कर देती है।मनचलों को ख़लल इतना नागवार गुज़रा कि कुछ पुलिसवालों की भी धुलाई कर दी। फिर पल में सारा सुरूर काफूर हो जाता है। देखते ही देखते मनचलों की टोली नौ दो ग्यारह हो जाती है। बस चालीस- पचास धरे जाते हैं। अब तक इसे मस्ती मान रहे लोगों को अचानक ये सब गुंडागर्दी लगने लगता है। अपनी पहचान और वजूद बचाने की कोशिश में लगे एक चैनल के अधिकारियों ने अस्पताल जाकर आसमान सिर पर उठा लिया। एक क़ौम विशेष को निशाना बनाकर ग़ुस्से में बयानबाज़ी करने लगे। वहां भी नोंक झोंक हो गई। गनीमत थी कि उस क़ौम विशेष के कुछ लोग समझदार थे। दो टूक कह दिया - पांचो उंगलियां एक जैसी नहीं होती। दोषी को सज़ा दो, पूरे क़ौम को नहीं । बहरहाल , उस चैनल ने अपनी भूमिका बदली और वो अदालत बन गया। सुबह से ख़बरें चलनी शुरू हो गईं। सड़क पर गुंडागर्दी, गुंडाराज , पुलिस की नाकामी और लाचारी जैसे विशेषणों के साथ ख़बरें दिखाई जाने लगीं। पूरी बिरादरी ने इस घटना को लोकतंत्र और देश पर चोट माना। बयान आने लगे। आख़िर देश लहुलूहान हो रहा था। ये मनचले जो इतने बरसों से दिल्ली की सड़कों पर खुलेआम राज कर रहे थे, खटकने लगे। इन मनचलों ने इतने बरसों तक आम लोगों को तंग किया था वो हिंदी सिनेमा की तरह फ्लैश बैक की तरह दिखने लगा। हां तब इन मनचलों ने देश या लोकतंत्र पर वार नहीं किया था। ये तो इस बार हुआ था। लिहाज़ा जनहित में सभी सहमत चैनल हो गए। सबके कैमरे उन घरों में पहुंच गए, जो बरसों से इनकी मनमानी से तंग आ चुके थे। ख़ाकी वर्दी से फरियाद कर करके थक चुके थे। कैमरे की चमक ने उनकी आंखे खोल दी। उन्हे लगने लगा - अब पाप का अंत होगा। क्योंकि वो आम आदमी थे। आम आदमी की ताकत भी आम होती है। उसकी आवाज़ भी आम होती है। इस बार इन मनचलों ने सीधे देश पर हमला किया है। देश यानी लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला। इस स्तंभ में जार्ज बुश की तरह ताक़त है। सद्दाम हुसैन जैसी आवाज है। लिहाज़ा अब इंसाफ मिलेगा। देश के बाइट मंत्री ने भी भरोसा दिला दिया। दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्रवाई होगी। दोषियों को बख़्शा नहीं जाएगा। जांच की जाएगी। ये बाइट मंत्री का भरोसा है। शांति बनी रहेगी। किसी पत्रकार पर हमला नहीं होगा। होगा भी तो ख़ाकी चौकन्नी रहेगी। ये खादी का हुक़्म है। आख़िर ये देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है। अब लोगों का तो पता नहीं लेकिन इस बात की गारंटी है कि लोकतंत्र महफूज़ रहेगा।

Friday, July 13, 2007

एक था अंगद

ये कहानी मेरे एक दोस्त की है, जो मैंने किसी और दोस्त की ज़ुबान से सुनी है। कोलकाता में मेरे एक मित्र है गुड्डू उपाध्याय। वैसे मां बाप ने बचपन में उनका नाम उनका स्वभाव देखकर कर रखा था- सिद्धार्थ। लेकिन ज्यों ज्यों वो बड़े होते गए वो अपने नाम की सार्थकता को भूलते गए। उनकी पढ़ाई लिखाई कोलकाता के मशहूर स्कूल कॉलेजों से हुई है। बात उन दिनों की है जब वो क्लास आठ या नौ में पढ़ते रहे होंगे। उस दौरान उनके मित्र मंडली को जॉगिंग का शौक़ चर्राया। दोस्तों ने तय कर लिया कि कल सुबह से जॉगिंग पर निकलना है। मित्र मंडली में अंगद पांडे भी थे। उनके पिता कोलकाता पुलिस में हवलदार थे। तनख़्वाह की बात करें तो उनके बेटे को उस स्कूल में पढ़ने की हैसियत नहीं थी। लेकिन भला हो कोलकाता में फल फल रहे मार्क्सवाद की कि उनके पिता ने अपने बेटे को पालने पोसने के लिए कभी तनख़्वाह की परवाह नहीं की। नेताओं और मंत्रियों के साथ घूमने फिरनेवालों के कर्मकांडों के भरोसे उनके घर में राम राज था। रहनेवाले बिहार के छपरा थे। पत्नी गांव में ही रहती थीं। ख़ैर में भटक गया था। बात अंगद की हो रही थी। दोस्तों ने तय किया कि जब जॉगिंग ही करनी है तो क्यों न ट्रैक सूट ख़रीद ली जाए। लिहाज़ा अगले दिन से सभी दोस्तों ने न जॉगिंग की शुरूआत कर दी। कई दिनों तक एक ही रास्ते पर कसरत करने के बाद सब का जी भर गया। अंगद पाड़े ने सलाह दी कि कल से उनके इलाक़े में जॉगिंग हो। सैर के साथ साथ आंखों को सुकून मिलेगा। अगल दिन सभी मित्र सुबह सुबह अंगद पांड़े के घर धमक गए। एक साथ इतने सारे लड़कों को देखकर अंगद पांड़े के पिता घबरा गए। उन्होने पूछा- का जी, एतना बिहाने केन्ने निकल रहे हो। मंडली में सबसे समझदार गुड्डू ने मोर्चा संभाला। अंकल , आजकल हम लोग सेहत बना रहे हैं। वो घर के बरामदे में कंधे पर लाल गमछा रखकर हिंदी अख़बार पढ़ रहे थे। अचानक उठकर खड़े हो गए। तोंद पर हाथ फेरते हुए आवाज़ लगाई- ए अंगद, तुम्हरा दोस्त लोग आया है जी। आके मिल लो। जॉगिंग सूट में अंगद को बाहर निकलते देख उसके पापा की आंखें हैरत से फैल गई। पूछा- का जी, कहवां जा रहे हो। पाप, जॉगिंग करने जा रहा हूं। पापा- जागिंग करके का होता है। अंगद- पापा, सेहत बनती है। पापा- ...... सेहत बना के ...... करोगे। अचानक अंगद के पिता के तेवर बदल गए। बस कमी थी उनके बदन पर कोलकाता पुलिस की वर्दी की। शेर की तरह झपट्टा मार कर अंगद को बरामदे में गिरा दिया। लात घूंसों से अंगद की पिटाई करने लगे। सभी दोस्त सकते में थे। अचानक ये क्या हो गया। तभी अंगद के पिता पिटाई के साथ साथ रामलीला शैली में संवाद भी करने लगे। गुड्डू से पूछा- सिगरेट, बीड़ी पीते हो। गुड्डू- नहीं अंकल। इ साला पीता है। दारू , बीयर पीते हो। गुड्डू- नहीं , अंकल। इ साला पीता है। गांजा , भांग खाते हो। गुड्डू- नहीं , अंकल। इ साला सब करता है। जॉगिंग का भूत सबके सिर से उतर चुका था। दोस्तों के सामने पिता से लात जूता खाकर अंगद सिर झुकाए खड़ा था। समय के साथ सभी दोस्त इस हादसे को भूल चुके थे। अब सभी दोस्त कॉलेज पहुंच चुके थे। लेकिन उसी समय गुड्डू के अंदर खोजी पत्रकारिता का कीड़ा कुलबुलाया। उसे अंगद की घटना याद आई। खोजी पत्रकार गुड्डू ने सनसनीख़ेज़ ख़बर दोस्तो को दी। दरअसल,बहुत दिनों से पत्नी सुख से वंचित अंगद के पिता की दोस्ती कोलकाता की एक भद्र महिला से हो गई थी। दोनों बेहद क़रीब हो गए थे। जब इस बात की भनक अंगद को लगी तो उसने अपने अंदाज़ में अपने पिता को रास्ते पर लाने का फ़ैसला किया। उसने भी उसी महिला से दोस्ती कर ली। वो दोनों बेहद क़रीब हो चुके थे। जब इस बात की भनक उसके पिता को लगी तो वो भड़क गए। अपने बेटे को सबक सीखाने के लिए बहाना खोजने लगे। उन्हे ये मौक़ा बैठे बिठाए जॉगिंग के भूत से मिल गया। उस दिन उन्होने अपनी भड़ास निकाल ली। सुना है कि अंगद के पिता रिटायर होने के बाद छपरा में अपनी पत्नी के पास हैं। और अंगद.... वो अब दो बच्चों का बाप है। जब भी पुराने दोस्तों से मिलता है तो बस इतना ही कहता है... यार , उस दिन की मत करो यार....अब मैं बाल बच्चेदार आदमी हूं। बीवी को ख़बर लग गई तो घर में कोहराम हो जाएगा। प्लीज़ यार......

Thursday, July 12, 2007

हड़बड़ी और गड़बड़ी

हम सभी अपने अपने काम में लगे थे। अचानक न्यूज़ रूम में हड़कंप मच गया। रिपोर्टर ने ख़बर फ्लैश की थी- संसद पर आतंकवादी हमला। पल भर में न्यूज़ रूम में अफ़रा तफरी का माहौल। हम सभी पीसीआर( प्रोडक्शन कंट्रोल रूम ) भागे। समाचार संपादक अपने रिपोर्टर पर बरसने लगा। फौरन वॉकथ्रू करके भेजो। सबसे तेज़ होना है। रिपोर्टर फौरन संसद भागा। फोन पर वो बताने लगा। संसद में कई आतंकवादी घुस आए है। दनादन गोलियां दाग रहे हैं। सुरक्षाकर्मी भी इधर उधर भाग रहे हैं। सभी नेता सुरक्षित है। कुछ नेता फलां मंत्री के कमरे में छिपे हैं। फिर ख़बर आई। सुरक्षाकर्मियों ने आंतकवादियों को घर लिया है। बच के निकलना उनका मुश्किल है। संसद के अंदर जान बचाते भागे भागे फिर रहे नेताओ के फ़ोन पल भर में आन हो गए। वो भी बताने लगे कि अंदर क्या हो रहा है। दोपहर बाद ख़बर आनी शुरू हो गई - एक एक कर आतंकवादियों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। संसद से टेप आने लगा था। उस पर आदर्शवादी पत्रकारिता की मुहर लाइव का बग लिखकर दिखाया जाने लगा। रिपोर्टर ने फोन पर चहक कर बताया। सभी आतंकवादी मारे जा चुके हैं। वो आख़िरी सीन था- जब असलहों से लदे बैग को लेकर एक आतंकवादी गिर पड़ा औऱ सुरक्षाकर्मियों की गोलियां उसे छलनी कर रही थीं। संपादक बार बार अपने रिपोर्टर को कह रहा था- संभल कर रहना। एहतियात बरतना। इस भागमभाग में किसी ने उस कैमरामैन की सुध नहीं ली , जो जान पर खेलकर रीयल लाइफ़ को रील लाइफ में बना रहा था। थोड़ी देर में सब कुछ शांत हो गया। एक समाजवादी नेता अपनी नई पजेरो कार को दिखा कर बता रहे थे- गोलियों से गाड़ी कैसे छलनी हो गई है। लेकिन चेहरे पर विजयी मुस्कान थी। देश के नाम लाखों रूपयों की गाड़ी क़ुर्बान करने की। तभी पीसीआर में फोन की घंटी घनघना उटती है। कैमरामैन चीख पड़ता है- आतंकवादियों के चेहरे की तस्वीर सिर्फ उसी ने क़ैद की है। दोपहर में ही वो फुटेज भेज चुका है। फिर वो शॉट क्यों नहीं दिखा रहे। इतने सुनते ही फिर से भागमभाग शुरू हो गई। आपरेशन- टेप खोजो अभियान। बॉस सबको गालियां बक रहा था। किसी को एक्सक्लूसिव फुटेज की अहमियत नहीं नहीं मालूम। ये फुटेज दिखाकर चैनल रातों रात बुलंदी छू सकता है। तभी चपरासी भागते हुए टेप लेकर आता है। सर- ये टेप। बॉस फिर उबल पड़ता है। ये टेप किसके पास से मिली। उसे लात मार कर आफिस से निकाल दो। उसे फुटेज की अमहमियत नहीं मालूम। उसे ख़बर की तमीज़ नहीं। चपरासी घिघयाते हुए सफाई देता है- सर , ये आपके टेबल से लेकर आ रहा हूं। बॉस हक्का बक्का। फिर संभला। बस इतना ही कहा- ख़बर आते ही वो ख़ुद पर कंट्रोल नहीं रख पाए। पीसीआर औऱ न्यूज़ रूम के बीच भागमभाग करते रहे। ऐसे प्रेशर में उन्हे ये टेप कब औऱ कैसे दे गया- याद नहीं रहा। वो पीसीआर से बाहर निकलते हुए आदेश दे गए- ये एक्सक्लूसिव फुटेज सभी चैनलों को दो। ये देश हित में है। सभी एक दूसरे का चेहरा ताक रहे थे।

टीवी का पहला पाठ

न्यूज़ रूम मेरी मुलाक़ात रिद्धि शतपथी से हुई। सुंदर थी। हिंदी चैनल के दफ़्तर में उसे हिंदी बोलने में कठिनाई होती थी। बहुत बाद में पता चला कि उसे हिंदी से तकलीफ़ क्यों होती है। समय के साथ हमारे बीच संवाद क़ायम हुआ। तब जाकर पता चला कि देवनागरी में वो अपने नाम की वर्तनी नहीं लिख पाती है। इस दौरान ख़बरों को लेकर मालिकानों के साथ मेरे संबंध बिगड़े। उन्हे पार्टी विशेष से लगाव था। मेरे लिए सब धान बाइस पसेरी। वो मालिकानों की प्रिय थी। मुझे कहा गया कि अब से उसे रिपोर्ट करो। मैंने उसे साथ काम करना शुरू कर दिया। लेकिन वो मेरे साथ सहज नहीं थी। बात बात पर झिड़कना, कई लोगों के बीच मुझे ज़लील करना- अब ये उसकी आदत थी। एक दिन सब्र का प्याला छलक गया। मैंने तुनक कर कहा- जिस दिन सूरत ढल जाएगी, उस दिन से सीरत की क़द्र होने लगेगी। ज़ाहिर ये बात उसे नागवर ग़ुज़री। मेरी शिकायत हुई। डांट पड़ी सो अलग। समय बीतता गया। मालिकानों से मेरे रिश्ते सुधरने लगे। उसे अहसास हो चुका था कि ये दूरी किसने औऱ क्यों बढ़ाई हैं। मेरा तबादाला फिर से न्यूज़ में कर दिया गया। एक दिन मैंने उस संस्थान की नौकरी छोड़ दी। वो तब भी वहां बनी रही। मालिकों को उस पर बहुत नाज़ था। वो खुलकर कहते थे- इस चेहरे की वजह से उनका बुलेटिन हर घर में देखा जाता है। एक दिन मालिक का नाज़ टूट गया। उसने मालिकों का साथ छोड़ दिया। उसे दूसरे सेठ ने ज़्यादा पैसे दिए। तब से वो अब उस चैनल की शान है। एक दिन उसे उसी चैनल पर हिंदी में कविताएं पढ़ते देखा। कविता में दर्द था। उसे स्कूली बच्चों के मारे जाने की ख़बर रूला रही थी। आंखों में आंसू थे। चेहरा ग़मगीन था। उसे अब ख़बरें विचलित करने लगी हैं। मुझे याद आता है उसका ये कहना- आई एम नॉट ए जर्नलिस्ट।एंड आई डोंट वांट टू बी जर्नलिस्ट। अब मैं उसके इस नए चेहरे के पीछे चेहरे को तलाशता हूं। क्या अब उसने मुखौटा पहन लिया है या जो मैंने बरसों पहले चेहरा देखा था- वो मुखौटा था। ये बदलाव की पहली कड़ी है।