लखनऊ में मेरे एक मित्र हैं। मोनू आलम। अगर कोई इन्हे पहली बार मिले तो ये विशुद्ध तौर पर एक खालिस बिजनेसमैन ही लगते हैं। उस रेस्टोरेंट से ज्यादा मुनाफा नहीं हो रहा है। धंधा ठीक-ठाक ही है। प्लाजा वाली दुकान घाटे में जा रही है। अब हाई कोर्ट के पास रेस्टोरेंट खोलेन जा रहा हूं। अमां मिया, रेस्टोरेंट-रेस्टोरेंट बहुत हो गया। अब गोमतीनगर में फ्लैक्स छापने की मसीन लेकर डाल दी है। वगैरह-वगैरह। ये रही मोनू की बाहरी छवि। लेकिन जब इनके किसी रेस्टोरेंट में घूमते हुए इनके केबिन में जाएंगे तो धूल फांकती लेकिन कपड़ों से ढंकी तस्वीरें बेतरतीब से पड़ी हुई मिलेंगी। तस्वीरें आपको ललचाएंगी। अच्छी लगेगी। पूछने पर मोनू आलम का जवाब होता था- यार, रात को खाली था। वक़्त नहीं कट रहा था तो बना डाली।
आप भी देखिए इनकी पेंटिंग्स को और पसंद आए तो दीजिए दाद।
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