Tuesday, October 2, 2007

मायावती की पुलिस सवालों के कटघरे में

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से कहीं ज़्यादा उनकी पुलिस जल्दी में दिखाई दे रही है। हाल के दो घटनाओं को ग़ौर से देंखे तो यही लगता है। इन घटनाओं से उत्तर प्रदेश की पुलिस की किरकिरी तो हुई है। साथ में उत्तर प्रदेश सरकार की जो फ़ज़ीहत हुई है, सो अलग। लेकिन इन दोनों घटनाओं पर मायावती ने चुप्पी साध रखी है। उनकी इस ख़ामोशी से बहुत सारे सवाल खड़े होते हैं। अगर मायावती पुलिस बेदाग है तो मुख्यमंत्री को बयान देने में हिचक क्यों हैं ? अगर पुलिस वाले सवालों के कठघरे में खड़े हैं तो उनके ख़िलाफ़ क़दम उठाने में सरकार के क़दम क्यों लड़खड़ा रहे हैं ? इन सवालों का जवाब या तो मायावती दे सकती हैं या फिर कोई स्वतंत्र जांच एजेंसी। क्योंकि लोगों का भरोसा मायावती पुलिस पर से उठ चुका है।
सबसे पहले सबसे ताज़ा घटना की बात करें। उत्तर प्रदेश सरकार ने एक बार फिर सात हज़ार चार सौ पुलिसवालों को नौकरी से निकाल दिया। सरकार का आरोप है कि पिछली सरकार ने गड़बड़झाला करके इन्हे पुलिस की वर्दी दी थी। नौकरी के लिए फर्ज़ी दस्तावेज़ जमा कराए गए थे। सबसे बड़े जांच अधिकारी शैलजाकांत मिश्र ने सीना तानकर बताया कि एडीजी बी.के.भल्ला समेत सात आईपीएस अफसरों पर भी गाज गिरी है। भर्ती बोर्डों के इकसठ पीपीएस और वायरलेस अफसरों के ख़िलाफ़ जांच शुरू कर दी है। शैलेजाकांत मिश्र के मुताबिक़, नौकरी के नाम पर महिला पुलिसकर्मियों का यौन शोषण हुआ। कैसे हुआ, कब हुआ, किसने किया- ये सब बात अभी शैलेजाकांत ने नहीं बताई है। उन्होने बस इतना भर कहा कि इस कर्मकांड में पिछली सरकार के एक नेता के हाथ होने के सबूत मिले हैं। मायावती की सरकार ने अब तक क़रीब अट्ठारह हजा़र पुलिसवालों को नौकरी से अलग कर दिया है। शैलेजाकांत मिश्र के बयान के बाद ही लखनऊ में कुछ महिला पुलिसकर्मी सड़कों पर उतर आईं। उनके ख़िलाफ़ नारेबाज़ी हुई। सबने एक सुर में कहा- शैलेजाकांत झूठ बोल रहे हैं। शैलेजाकांत ने यौन शोषण की बात कुछ महिला पुलिस कर्मियों से बातचीत के आधार पर कही थी। शैलेजाकांत ने बताया कि उन्हे कुछ महिलाओं ने बताया कि नौकरी दिलाने के नाम पर यौन शोषण हो रहा था। जो राज़ी हुईं, उन्हे नौकरी मिल गई। जो नहीं मानीं, उन्हे वर्दी नसीब नहीं हुई। अब ये शैलेजाकांत मिश्र ही बता सकते हैं के ये जानकारी उनके हाथ कहां से लगी ? लेकिन महिला पुलिसकर्मियों का आंदोलन, धरना -प्रदर्शन और नारेबाज़ी ये इशारा करता है कि दाल में कहीं काला है। दूसरा बड़ा सवाल ये है कि अगर शैलेजाकांत मिश्र के पास पुख़्ता जानकारी या सबूत है तो यौन शोषण से जुड़े पिछली सरकार के नेता के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई कर रहे हैं ? अगर सबूत है तो उस नेता को अब तक पकड़ा क्यों नहीं गया है ? क्या पुलिस बहुत जल्दी में है ? या फिर वो किसी दबाव में है ? अगर जांच कमेटी के अगुवा शैलेजाकांत मिश्र के पास यौन शोषण के ठोस सबूत हैं तो सड़कों पर उतरकर सरकार की धज्जियां उड़ानेवाली महिला पुलिस कर्मियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती ? कार्रवाई तो दूर,यौन शोषण की बात मीडिया को बतानेवाले अधिकारी ख़ामोश क्यों हैं ? सवाल बहुत सारे कुलबुला रहे हैं। लेकिन जवाब अभी तक नहीं मिला है।
दूसरी घटना राजधानी लखनऊ से दूर बनारस की है। तेरह सितबंर को शहर के जाने -माने डॉक्टर देवेंद्र प्रताप सिंह यानी डी.पी.सिह की दिन -दहाड़े हत्या कर दी गई। इस घटना से शहर में सन्नाटा पसर गया। जितनी मुंह , उतनी बातें। ज़्यादातर लोगों की ज़ुबान पर बस यही बात थी कि अगर शहर में जाने-माने डॉक्टर की जान महफूज़ नहीं तो आम लोगों का क्या होगा ? क्या इस हत्या के पीछे रंगदारी या फिरौती का कोई मामला तो नहीं है ? इस हत्या से स्तब्ध पूरबिया डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी। डॉक्टरों की इस हड़ताल की असर सीधे पुलिस - प्रशासन पर पड़ा। पुलिस ने आनन- फानन में केस सॉल्व कर देने का दावा पेश कर दिया। कुछ बदमाशों को पकड़ कर लाई। मीडिया के सामने ये ख़ुलासा किया कि हत्या किसी और ने नहीं बल्कि डी.पी.सिंह की पत्नी शिल्पी राजपूत ने ही कराई है। शिल्पी भी शहर की जानी मानी डॉक्टर हैं और वो अपना एक नर्सिंग होम चलाती है। पुलिस बहुत दूर की कौड़ी खोज कर लाई थी। पुलिस के मुताबिक़, शिल्पी और देवेंद्र में नहीं पटती थी। घटना के कुछ दिनों पहले डॉक्टर देंवेद्र ने डॉक्टर शिल्पी को पीटा था। इस घटना से शिल्पी बौखला गई थी। उसने अपने फुफुरे भाई से बात की। भाई ने भरोसा दिलाया। पुलिस की मानें तो फुफुरे भाई ने कांट्रेक्ट किलरों से बात की। सौदा तय हो गया। सौदे के तहत सुबह -सुबह तीन बदमाश डॉक्टर देवेंद्र के पास आए और पता पूछने के बहाने उन्हे बीच राह में रोककर गोलियों से छलनी कर दिया। पुलिस को सारे बदमाश एक साथ हाथ लगे थे। बदमाशों के पास से पुलिस को हथियार भी मिल चुका था। ये सारे उस समय पुलिस के हाथ लगे , जब वो सारे एक साथ एक ही गाड़ी में सवार होकर बनारस से कहीं दूर भागने की फिराक़ में थे। पुलिस ने डॉक्टर शिल्पी को गिरफ्तार कर लिया। शायद पुलिस पर केस जल्दी सॉल्व कर लेने का दबाव था। एक तो शहर के डॉक्टरों का रूख़ कड़ा था। दूसरी बात ये इस ख़बर देश के बड़े -बड़े अख़बारों और टीवी चैनलों की नज़र थी। पुलिस ने चुटकी बजाकर केस सॉल्व कर लेने का दावा कर दिया। लेकिन पुलिस ही अंतिम सत्य नहीं। पुलिस का काम जहां से ख़त्म होता है, वहीं से अदालत का काम शुरू हो जाता है। अदालत ने डॉक्टर हत्याकांड की सुनवाई के दौरान पुलिस पर ही सवाल खड़े कर दिए। इसके बाद से ही पुलिस एक बार फिर सवालों के कठघरे में है।
ज़िला और सत्र न्यायाधीश डॉक्टर चंद्रदेव राय ने केस की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराने की सलाह दी। अदालत ने अपने पांच पन्नों के फैसले की कॉपी ज़िलाधिकारी और गृह सचिव को भेजने का निर्देश दिया। अदालत ने डॉक्टर शिल्पी राजपूत की ज़मानत तो मंज़ूर की ही। अदालत ने साफ कहा कि सुनाई के दौरान उमड़ी भीड़ और जनभावना का हवाला देकर कहा - इस केस की जांच स्वतंत्र एजेंसी से ही कराना बेहतर होगा। अदालत में अभियोजन पक्ष ठोस सबूत और गवाह नहीं पेश कर सका। उलटे डॉक्टर देंवेंद्र के पिता और बेटे ने भरी अदालत में डॉक्टर शिल्पी के पक्ष में बयान दिया। अदालत को डॉक्टर शिल्पी की गिरफ्तारी की जगह और समय में झोल दिखा। वादी ने अदालत में यहा कर कहा कि उसे पांच दिनों तक थाने में रखा गया। इस दौरान कुछ कोरे कागज़ पर पुलिस ने दस्तख़त करा लिए। अदालत में पुलिस ने जिस गवाह को पेश किया था, अदालत ने उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया। क्योंकि गवाह का कहना था - वो अपनी पत्नी का इलाज कराने नर्सिंग होम गया था। लेकिन वो अदालत में दवा की पर्ची से लेकर बीमारी तक के कोई दस्तावेज़ पेश नहीं कर पाया। जज ने जब इस बारे में पूछा तब पुलिस बगले झांकने लगी।
ये दूसरी घटना है , जब मायावती की पुलिस सवालों के कठघरे में है। पुलिस ने इस केस में भी हड़बड़ी दिखाई है। अदालत की राय को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। क्योंकि अदालत की नज़र में कोई गड़बड़ी पकड़ में आई होगी। तभी इस केस की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराने की सलाह दी गई होगी। इस केस में भी बहुत सारे सवाल है। क्योंकि इस केस में बहुत सारे पेंच दिख रहे हैं। ऐसे में मायावती की पुलिस की विश्वसनीयता पर सवाल होना लाज़िमी है।

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