Tuesday, September 11, 2007

ख़बरों से खेलना बच्चों का खेल नहीं !!!

बहुत दिनों से एक मुहावरा सुन रहा था- ख़बरों से खेलना बच्चों का खेल नहीं। ये संवाद सुनकर खुशी हो रही थी। क्योंकि आज के दौर में अब ये मान लिया गया है कि ख़बरें तो बच्चे कर लेंगे। ये फार्मूला अब हर जगह अपनाया जा रहा है। सबकी सोच लगभग ऐसी हो चुकी है कि अनुभव के नाम लंबी चौड़ी टीम खड़ी कर क्यों तिजोरी हलकी की जाए। इस नए मुहावरे ने नई ताक़त दी और ख़बरों में परिपक्वता और अनुभव का अहसास दिलाया। लेकिन दिल्ली की स्कूली टीचर उमा खुराना के स्टिंग आपरेशन के बाद यक़ीन हो गया कि चमकदार मुहावरे से हमें छला गया।
एक स्टिंग आपरेशन में ये दिखाया गया कि दिल्ली की सरकारी स्कूल की एक टीचर छात्राओं से देह का धंधा करा रही है। ख़बर देखने के बाद पीड़ा हुई। ये सोचने पर मजबूर हुआ कि कल जब मेरी औलाद स्कूल में होगा तो उसके साथ क्या होगा? आंख मूदकर अपनी औलाद का भविष्य जिन टीचरों के हाथ में दे देते हैं, वो कल क्या सीख कर निकलेंगे? ये सोच सिर्फ मेरी नहीं थी। बहुत लोगों के ख़्याल ऐसे थे। बहुतों का ग़ुस्सा फूटा। कई स्कूल धमक गए। स्कूल के बाहर टीचर उमा खुराना के साथ हाथापाई की गई। कपड़े तार-तार किए गए। सबकी नज़र में वो स्कूली लड़कियों से धंधा करानेवाली महिला थी। भला हो दिल्ली पुलिस का , जो समय पर धमक गई और खुराना की जान बच गई। सब जगह ये खबर फैल गई। नज़ारा लगभग दंगे जैसा हो गया। भड़के लोगों ने पुलिस तक को नहीं बख़्शा। पुलिस की गाड़ियां फूक दीं। ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं का नारा देनेवाले पत्रकारों ने पुलिसवालों की ख़बर लेनी शुरू कर दी। ये साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि पुलिसवालों को सब ख़बर थी। लेकिन उनकी कोई मजबूरी थी। महान पत्रकारों ने नई विचारधारा देने का दावा भी कर दिया।
असलियत कुछ घंटों में सामने आ गई। स्टिंग आपरेशन ही फर्ज़ी साबित हो गया।पुलिस को पता चल गया कि जिस लड़की को स्कूली छात्रा बताकर देह व्यापार में शामिल बताया गया था , वो असल में रिपोर्टर थी। उसे नौकरी का झांसा दिया गया था। उसके साथ एक लड़का रिपोर्टर भी था। पुलिस ने उसे भी दबोच लिया। इसके बाद मुहावरेवाले भाई साहेब ने अपना पल्ला झाड़ लिया। कहने लगे - सारा दोष रिपोर्टर का है। उसी का सब किया धरा है। वो किसी और चैनल में जब काम करता था तो वहां से स्टिंग चोरी करके ले आया था।
अब सवाल ये है कि क्या ये एक रिपोर्टर की ग़लती थी?क्या वो किसी का मातहत नहीं था ? क्या दफ्तर बैठे सफेद बालों वाले संपादक प्रजाति के प्राणि लोग सिर्फ एसी का हवा खाने आते थे ? क्या चैनल में ब्यूरो चीफ नहीं होता ? खबर चलाने से पहले किसी ने सच्चाई पता करने की कोशिश नहीं की ? किसी और चैनल का स्टिंग उठाकर अपने चैनल में चला देना नैतिकता है ? क्या ख़बर से खेलने से पहले अनुभव का इस्तेमाल नहीं किया गया ? या बच्चों को ख़बरों से खेलने का मौक़ा दे दिया गया ? या फिर उस मैनेजमेंट का दोष है, कम लागत में ज़्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में अनुभवहीन लोगों की फौज खड़ा करती है। ऐसे पदों पर लाकर बच्चों को बिठा देती है , जिस पर अगर कोई अनुभवी व्यक्ति बैठे तो इस तरह की चूक न हो। एक छोटी सी ग़लती की सज़ा उमा खुराना को,उसके घरवालों और रिश्तेदारों को, समाज को और हर मां बाप को नहीं मिलती। टीआरपी पाने के लिए ऐसी ओछी हरकत नहीं की जाती और अपनी ग़लती छिपाने के लिए तरह तरह के तर्क नहीं गढ़े जाते। एक व्यक्ति से हुई ग़लती की सज़ा पूरे क़ौम को , पूरी बिरादरी को नहीं मिलती। मीडिया पर अंकुश लगाने का बहाना खोज रहे कुछ नेताओं और अफसरों को बैठे बिठाए हल्ला मचाने का मौक़ा मिल गया। पत्रकारों और स्टिंग आपरेशन पर जनता जो एतबार कर रही थी , वो पल भर में मटियामेट हो गया। सवाल ये है कि किसी एक व्यक्ति या कंपनी की ग़लती की सज़ा पूरी बिरादरी को क्यों मिलनी चाहिए। ग़लती जिसने की है , सज़ा भी उसे मिले। लेकिन एक केस के बुनियाद पर स्टिंग आपरेशन को ही कटघरे में खड़ा कर देना कहां तक जायज़ है ? पुलिस के पास अगर दोषियों के ख़िलाफ़ सबूत हैं, तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करे।
सबसे अहम सवाल ये है कि जिन लोगों ने अपने फायदे के लिए स्कूली टीचर उमा खुराना की मिट्टीपलीद कर दी, उनके साथ क्या सलूक किया जाए। क्या समाज उन पत्रकारों को वहीं सज़ा देने की हिम्मत औऱ हैसला रखता है, जो उसने उमा खुराना को दी थी ? ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं का नारा देनेवालों के कपड़े भी तार तार करने के लिए समाज तैयार है ? क्या एक या दो रिपोर्टर को सज़ा देकर या उन्हे सस्पेंड करके अधिकारी दोषमुक्त हो सकते हैं ? क्या अधिकारी इस सवाल का जवाब दिल पर हाथ रखकर दे सकता है कि अगली बार जब किसी कुकर्मी, बेइमान, भ्रष्ट अफसर या नेता या पुलिस वाले की पोल पट्टी खोलने के लिए स्टिंग आपरेशन किया जाएगा तो जनता उस पर भरोसा करेगी या नहीं ? अगर नहीं तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को मज़बूत बनाने में जिन लोगों ने अपना ख़ून पसीना बहाकर और पुलिस - सरकार के हर जुल्म सहकर जो आदर्श औऱ सिद्धांत अगली पीढ़ी को सौंप गए थे, उसकी बरबादी की ज़िम्मेदारी किसकी होगी ?समय आ गया है कि लोग अपनी ग़लती का अहसास करें। अपनी ग़लती किसी और पर न थोंपे। क्योंकि समाज ये बरसों से जानता है- ख़बरों से खेलना कोई बच्चों का खेल नहीं ।

2 comments:

Shastri JC Philip said...

आज पहली बार आपके चिट्ठे पर आया एवं आपकी रचनाओं का अस्वादन किया. आप अच्छा लिखते हैं, लेकिन आपकी पोस्टिंग में बहुत समय का अंतराल है. सफल ब्लागिंग के लिये यह जरूरी है कि आप हफ्ते में कम से कम 3 पोस्टिंग करें. अधिकतर सफल चिट्ठाकार हफ्ते में 5 से अधिक पोस्ट करते हैं. -- शास्त्री जे सी फिलिप

मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!

Ramashankar said...

सही लिखा आपने. कुछ पत्रकारों की हरकतों ने लोगों का विश्वास ही पत्रकारिता से कम करा दिया है. देखें http://sahabsalam.blogspot.com/2007/07/blog-post_06.html