आज के इस दौर में क्या सिर्फ ख़बरें ही बदली हैं ? या फिर ख़बर बनानेवाले भी बदल गए हैं ? आज अपन बात करेंगे टीवी पत्रकारिता की। ज़रा एक बार पीछे मुड़कर देखिए। शायद किसी कोने से अप्पन मेनन, एस.पी.सिंह या अजय चौधरी का चेहरा नज़र आ जाए। एक बार दिल टटोल कर देखिए। शायद किसी हिस्से से वो आवाज़ सुनाई पड़े कि आगा-पीछा देखकर ख़बर चलाओ। हड़बड़ी मत करो।
बात सिर्फ ख़बरों की ही नहीं है। दफ्तर के अंदर और बाहर ऐसे लोगों का कैसा बर्ताव होता था ? घर परिवार पर जब संकट आए तो कंधे पर स्नेह का स्पर्श होता था। अगर कोई बीमार पड़ जाए तो अस्पताल में नोटों की गड्डी के साथ ऐसे लोग खड़े मिलते थे। टीवी पर दिखने के बाद उन्हे भले ही स्टारडम का दर्ज़ा मिला हो लेकिन बर्ताव में वो बेहद विनम्र दिखते थे। वो कहते थे कि यार , ये चमक दमक तो टीवी की देन है। हैं तो ख़ालिस पत्रकार, वो भी बुढ़ापे में अख़बार से आया हुआ। नई विधा को साधने की कोशिश इस उम्र में हो रही है।
टीवी में आज जो कमोबेश चेहरे दिख रहे हैं। वो इस तरह से लोगों के साथ पेश नहीं आते। ख़ालिस टीवी के पत्रकार तो बदनाम हैं ही । सीनियरों की ज़ुबान पर गाहे बगाहे ये बात आ ही जाती है - अरे कभी प्रिंट में काम किया नहीं। अगर किया होता तो इस तरह से नहीं करता। लेकिन ऐसे सीनियरों के मुंह पर ताला लग जाता है जब प्रिंट से आए जवान- ज़इफ पत्रकार भी वहीं करते दिखते हैं।
भारत में जब टीवी न्यूज़ की शुरूआत हुई तब प्रिंट के पत्रकार टीवी वालों को हिकारत भरी नज़रों से देखते थे। कुछ थे जो उसी समय आ गए । पाठशाला जानेवाले बच्चों की तरह टीवी का ककहरा सीखा। फिर टीवी को साध लिया और जम गए। कुछ ऐसे भी रहे , जिन्हे बहुत देर से टीवी की तलब हुई। थैला उठाए चले आए। लेकिन अपने साथ कुंठा , अवसाद औऱ नकरात्मक सोच भी लेते आए। ये सबको आजा़दी है कि वो अपनी मर्ज़ी से टीवी न्यूज़ में आए। लेकिन यहां ऐसे लोगों का ज़िक़्र हो रहा है , जो कल तक टीवीपत्रकारों को मतिमुंड , परले दर्ज़े का बेवकूफ करार देते थे। उनकी ये सोच आज भी नहीं बदली है। आकर उसी जमात के साथ बैठते हैं लेकिन गरियाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते। अपनी कुंठा और भड़ास रह रहकर निकालते रहते हैं। उनकी पीड़ा तब औऱ बढ़ जाती है जब संस्थान में उनसे आधी उम्र के किसी लड़के - लड़की की तनख़्वाह उनसे कहीं ज़्यादा दिखने लगती है। कम उम्र के लड़के -लड़कियों को अपने से बड़ी कुर्सी पर बैठे देखकर बिलबिलाने लगते हैं। फिर ये बताने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते - देखों , फलां को देख रहे हो। उसे मैंने इंटर्न बनाया था। ये बताने के पीछे उनकी ये सोच होती है - देखो, मेरे चेले चपाटे कहां पहुंच गए। लेकिन वो एक बार भी दिल में झांककर नहीं देखते कि वो वहां तक क्यों नहीं पहुंच पाए ? उनमें ऐसी क्या कमी है कि कंपनी के अधिकारी उन्हे इस लायक़ नहीं समझते ?
तक़रीबन सात साल पुरानी बात है। हिंदी अख़बार के एक मंजे हुए रिपोर्टर पत्रकार को एक टीवी चैनल में नौकरी मिली। पद मिला प्रोड्यूसर का। ये दीगर बात है कि उन्हे नौकरी कैसे मिली थी ? बड़े अरमानों के साथ पहले पहले दिन आफिस आए। आते ही चौंक गए। जिन लड़कों को उन्होने निकर में कभी देखा था। उन्हे वो बड़े - बड़े केबिन में बड़ी-बड़ी कुर्सी पर बैठे देख रहे थे। पद- मर्यादा और नक़दी के मामले में कल के छोरे भारी पड़ रहे थे । हालात देखकर उन्हे रोना आ रहा था। उनके दिल में जो बात थी , वो ज़ुबां पर आ गई।बारी आई ख़बर लिखने की। आदत थी अख़बार की। कई पन्नों की ख़बर लिखकर आ गए। न्यूज़ डेस्क को अपनी कॉपी दिखाना शान के ख़िलाफ़ समझा। सीधे चैनल हेड के दरबार में हाज़िर हो गए। उनकी कॉपी देखने के बाद उन्हे सलाह दी गई कि वो टीवी की ज़ुबान सीख लें। इस काम में मदद के लिए उनके साथ किसी को लगाया गया। यही बात उन्हे खटक गई- कल का छोरा मुझे ख़बर लिखने की तमीज़ सिखाएगा। कुंठा बढ़ती गई। ज़ुबान तल्ख़ होती गई। एक दिन ऐसा आया जब वो जिस रास्ते रास्ते से आए थे, उसी रास्ते से लौट गए।
एक ऐसा ही क़िस्सा एक और चैनल का है। प्रिंट के एक सज्जन को बुढ़ापे में टीवी चैनल में काम करने का शौक़ चर्राया। क़िस्मत ने साथ दिया और नौकरी मिल गई। पेशा तो बदल लिया लेकिन अपनी आदत नहीं बदली। टीका - टिप्पणी की आदत बनी रही। दूसरों को टीवी का काम सीख लेने का सबक़ दे रहे हैं। लेकिन उन्हे स्टिंग और मोंटाज का फ़र्क़ नहीं मालूम। न ही वो इसे सीखने के लिए तैयार हैं। उन्हे ये भी नहीं मालूम कि रियल सेट पर क्रोमा या वर्चुअल नहीं हो सकता। लेकिन वो इसे लागू कराने पर आमादा है। शायद किसी दिन सफेद बालों की वजह से एक दिन ये करिश्मा भी हो जाए। अख़बार में बरसों काम किया है। अब टीवी में काम कर रहे हैं। दोनों जगह तो एक ही काम है - लिखना। इसलिए वो तश्चपश्चात, परंतु, हेतु, कदापि शब्दों से बेहद प्यार करते हैं। उन्हे सुप्रीम कोर्ट पसंद नहीं। वो सर्वोच्च न्यायालय लिखने पर ज़ोर देते हैं। उन्हे बीजेपी, बीएसपी , सीपीएम से एलर्जी है। वो माकपा, बसपा को पसंद करते हैं। उन्हे उम्मीद ही नहीं , पूरा एतबार है कि एक न एक दिन सारे लोग इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करेंगे और मरणासन्न शब्दों को नई ज़िंदगी मिलेगी।
वो कहते हैं - सब ' जबरदस्ती भासा बिगार " रहे हैं । उन्हे टीवी पत्रकारों पर भरोसा नहीं। इसलिए डमडमडिगा टाइम्स से टीवी पत्रकारों की नई फौज खड़ी कर रहे हैं।
दोस्तों , ये कहानी भर नहीं है। न ही किसी व्यक्ति विशेष के लिए दुराग्रह है। न ही प्रिंट के लोगों के लिए दिल में कोई मैल। ये लेख इस बहस की शुरूआत के लिए है कि क्या टीवी की पत्रकारिता अख़बारी पत्रकारिता से अलग नहीं है। अगर अलग है तो उस पत्रकारिता को मानने या आत्मसात करने में दिक़्क़त कहां और क्यों है ? उम्र चाहे जो हो, नई विधा को सीखने में परहेज़ क्यों ? उन्हे ये मानने में गुरेज़ क्यों है कि आज की तारीख़ में टीवी पत्रकारिता में ज़्यादातर चेहरे प्रिंट से ही निकले हुए हैं। टीवी का पत्रकार आसमान से नहीं उतरता। उन्हे नई पीढी़ से दिक़्क़त क्यों नहीं होती ? क्या इसलिए कि उन्होने इस विधा को सीख लिया है ? बहस खुली है।
1 comment:
चंदन जी पहले तो धन्यवाद जो आपने इस गंभीर मुद्दे पर बहस की शुरुआत की है. आपने अच्छा और सही लिखा है. यह सही है पुराने लोग नए को जल्दी स्वीकार नहीं कर पाते और यह प्रिंट मीडिया में भी है और मैं स्वयं इससे गुजरा हूं. किसी जमाने में सीनियर सब रहे एक सज्जन आज वरिष्ठता क्रम में मेरे से नीचे होने पर तमाम तरह के प्रलाप करते हैं. खैर ... रही बात टीवी पत्रकारों की तो उनकी योग्यता में कहीं कोई कमी नहीं है लेकिन कई बार वे खबरो की नब्ज या तो तरीके से नहीं पकड़ पाते या फिर सनसनी या समयाभाव या फिर जल्दी दिखाने की होड़ की वजह से खबर को हल्का कर देते हैं. इसके विपरीत प्रिंट में यह हड़बड़ी नही होती और उनके पास तमाम तथ्यों को समेटने और लिकने का पर्याप्त समय और पर्यापत जगह होती है. मेरी नजर में बस यही मुख्य अंतर होता है कि कई जगहों पर प्रिंट मीडिया थोड़ा सा भारी और गंभीर नजर आता है. रही बात तो पत्रकार तो पत्रकार ही होता है चाहे वह प्रिंट का हो या फिर टीवी का. फिर काफी कुछ आज निर्भर करता है मैनेजमेंट पर ....
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