Thursday, July 2, 2009

मां, माटी और मानुष की वजह से लेफ्ट की मिट्टी दरकी


लोकसभा चुनाव के बाद नगरपालिका, पंचायत और परिषद के चुनावों में भी वाम मोर्चा को मुंह की खानी पड़ी है। लोकसभा की तरह कई नगरपालिका भी वाम मोर्चा के हाथ से ऐसे निकले, जैसे कि मुट्ठी से रेत सरकती है। वाम मोर्चा सकते में हैं, सदमें में हैं। वहीं, तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन जश्न में डूबा है। अब सवाल ये कि क्या मतदाताओं ने एक बार फिर वाम मोर्चा को नकारा है और तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन को जनादेश दिया है। या फिर लोगों की जो नाराज़गी है, उसे अभी तक लेफ्ट दूर नहीं कर पाई है और एक के बाद एक धक्के खा रही है।
पश्चिम बंगाल में सोलह नगरपालिकाओं के लिए चुनाव हुए। इसमें से तेरह नगरपालिकाओं पर ममता बनर्जी और साथियों का झंडा लहराया। इसके साथ ही इन तेरह नगरपालिकओं से वाम मोर्चा का झंडा बेरंग होकर उतर गया। पिछले तैंतीस साल से बंगाल पर राज कर रही लेफ्ट पार्टियां केवल तीन नगरपालिकाओं पर लाल झंडा लहराने में क़ामयाब हुई है। विरोधियों के क़ब्ज़े से लेफ्ट केवल जलपाईगुड़ी की मालबाज़ार नगरपालिका ही छीन सकी है। लेकिन लेफ्ट को ये जीत भी बेहद मामूली सीट से नसीब हुई है। इस नगरपालिका पर पिछले दस साल से बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस का राज था। पिछले चुनाव में लेफ्ट और गठबंधन को बराबर सीटें मिली थीं। इसके बाद लॉटरी के ज़रिए सत्ता तय की गई और ये लॉटरी गठबंधन के हाथ लगीं। इस बार भी मालबाजार नगरपालिका में लेफ्ट पार्टी को केवल एक वार्ड के ज़रिए सत्ता हाथ लगी है। पंद्रह वार्डों में से आठ पर लेफ्ट को और सात वार्ड पर कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस को जीत मिली है। इसके अलावा गंगारामपुर और राजारहाट-गोपालपुर नगरपालिका पर लेफ्ट को जीत नसीब हुई है। जबकि दमदम, दक्षिण दमदम, उलबेड़िया, आसनसोल, मध्यमग्राम, महेशतला, सोनारपुर –राजपुर नगरपालिका वाम मोर्चा के हाथ से निकल गए।
अगर हम हर नगरपालिका, पंचायत और परिषद के नतीजों को तफसील से देखें तो साफ पता चलता है कि लेफ्ट फ्रंट को जहां भी जीत मिली है, वो बेहद मामूली अंतर से हैं। जबकि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को हर जगह अप्रत्याशित जीत मिली है। अपवाद के तौर पर दक्षिण दिनाजपुर की गंगापुर नगरपालिका में 18 सीटों में से लेफ्ट को 12 और गठबंधन को 6 सीटों पर जीत मिली है। जबकि राजराहट-गोपालपुर में 35 वार्ड में से लेफ्ट को 19 और कांग्रेस –तृणमूल गठबंधन को 15 वार्डों पर जीत नसीब हुई है। एक वार्ड से निर्दल जीता है। यानी साफ तौर पर ये नगरपालिका भी लेफ्ट के हाथ से जाते-जाते बची है।
हैरानी की बात है कि उत्तर चौबीस परगना के तीनों नगरपालिका लेफ्ट के हाथ से फिसल गए। जबकि इस ज़िले में सीपीएम के दिग्गज सुभाष चक्रवर्ती, नेपाल देब भट्टाचार्य, असीम दासगुप्ता, अमिताभ नंदी जैसे दिग्गज नेता हैं। लेकिन लाल क़िला को भरभराने से नहीं रोक पाए। दक्षिण दमदम के 35 वार्डों में से लेफ्ट को केवल 11 वार्डों पर जीत मिली है। जबकि गठबंधन को 24 वार्डों पर जीत मिली है। दमदम के 22 वार्डों में से तृणमूल को 13 और लेफ्ट को केवल 9 वार्डों पर जीत मिली है। मध्यमग्राम नगरपालिका के 25 वार्डों में से 18 पर कांग्रेस और तृणमूव कांग्रेस जीती है। महानगर से दूर दराज ज़िलों की बात करें तो उत्तर दिनाजपुर के इस्लामपुर नगरपालिका के 17 में से 13 वार्ड पर गठबंधन जीता है और लेफ्ट को तीन वार्डों से संतोष करना पड़ा है।
आख़िर लेफ्ट के नसीब में अब हार क्यों लिखी है। लोकसभा चुनाव में बात समझ में आ रही है कि नंदीग्राम के तूफान ने वाम मोर्चा के तंबू को उखाड़ फेंका था। आइला तूफान को बीते अब ख़ासा समय हो गया, फिऱ भी लेफ्ट अपनी वजूद नहीं बचा पा रहा। जीत के जश्न में डूबे कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के नेता इसे मां, माटी और मानुष की जीत बता रहे हैं। अगर इसका राजनीतिक मतलब निकालें तो जिन तीन बिंदुओं पर लाल क़िला खड़ा था, वो तीनों बिंदु अब उसके विरोधियों के हाथ में हैं। महानगर कोलकाता और या दूर –दराज़ का कोई गांव- हर जगह से महिलाओं के साथ बलात्कार और दुराचार की ख़बरें आती रहती हैं। महिलाओं के ख़िलाफ हो रहे अत्याचार परिवारों को लेफ्ट से दूर करने का काम किया है। दूसरा बिंदु ये है कि बरगा आंदोलन के बाद लेफ्ट ने गांवों और किसानों का दिल जीत लिया था। शहरी मतदाता भले ही तर्कों के आधार पर वाम को ख़ारिज कर देता था। लेकिन केत खलिहान की भावनाएं लेफ्ट के साथ होती थीं। लेफ्ट नारा भी देता था कि वो निरपेक्ष नहीं वो मेहनती मानुषों के पक्ष में हैं। लेकिन सिंगुर के बाद लेफ्ट सरकार की खेत खलिहानों और किसानों के लेकर नीति को पोल खुल गई। सर्वहारा के नारे पर टिका वाम के लिए अब सर्व हारा ही हो गया है। तीसरा बिंदु मानुष का है। यानी गांव हो या शहर – हर जगह लोगों का जीना दुश्वार हो गया है। बेरोज़गारी बढ़ी है। राज्य सरकार रोज़गार देने में असफल रही है। कभी जूट और सूती मिलों के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश तक में मशहूर रहे राज्य में एक-एक कर सारे कारखाने बंद होते गए। रोज़गारों से रोज़गार छिनें और नए बेरोज़गारों की संख्या लगातार बढ़ती गई। पूरे देश में उत्तम शिक्षा के लिए मशहूर राज्य में शिक्षा का राजनीतिकरण हुआ। ये तमाम वजहें , जिनकी वजह से लेफ्ट को नुक़सान उठाना पड़ा। लोकसभा चुनाव में जब तृणमूल के सुलतान अहमद ने उलबेड़िया में हन्नान मोल्ला को हराया या फिर हावड़ा से अंबिका बनर्जी जीते या दमदम से पुराने कांग्रेसी सौगत राय ने अमिताभ नंदी को हराया तो समीक्षा में बात निकलकर सामने आई कि लोगों के मन लेफ्ट के लिए ग़ुस्सा था। वो लोकसभा में फूटा है। कांग्रेस और तृणमूल कहने लगे कि अब बारी विधानसभा की है। लेकिन एक तबका ये मानता रहा कि लोगों के दिल में जो गुबार था , वो निकल चुका है। लेफ्ट को इस हार से सबक मिली है। लेकिन नगरपालिका के चुनावों ने साबित कर दिया है कि लेफ्ट के लिए खोई हुई ज़मीन हासिल करना अब बेहद चुनौतीभरा काम है।

2 comments:

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

किसी भी राज्य या मनुष्य के विकास के लिए वामपंथी हमेशा बाधक रहे हैं | आर्थिक विकास पे तो वो चाहते ही हैं की विकास ना हो, क्योंकी विकास हुआ तो उन्हें वोट कौन देगा? वामपंथी तो भगवन को मानते हे नहीं तो आदमी का अध्यात्मिक विकास क्या होगा? इन वामपंथियों के कारन ही बंगाल जो एक समय बुद्धिजीवियों का गढ़ माना जाता था आज नास्तिकों का जमावाडा बन गया है | बंगाल की गिनती आजादी के बाद टॉप ५ विकसित राज्यों मैं होती थी, और आज ये बॉटम ५ पे हैं |

शिक्षा का तो ऐसा बेडा गर्क किया इन वामपंथियों ने की क्या बताएं | पुरे भारत के इतिहास तो इन्होंने ऐसा थोडा मरोड़ा की इतिहास पढ़ कर लगता है की हर चीज के लिए हिन्दू ही दोषी है | बंगाल के विकाश के लिए वामपंथियों का राम नाम सत्य होना ही चाहिए |

Gyan Darpan said...

अति हमेशा आत्मघाती होती है | वाम मोर्चा के काडर द्वारा किए जाने वाले पाप का कभी तो घडा भरना ही था शायद वो भर चूका है अब सिर्फ इनकी जड़ों में मट्ठा डालने वाले की जरुरत थी जो ममता के रूप में पूरी होती दिखाई दे रही है | इन वामपंथियों के बजाय तो तुनकमिजाजी ममता को झेलना ही ज्यादा समझदारी है जो शायद बंगाल की जनता समझ चुकी है |