तब मैं छोटा बच्चा था। लेकिन कोई शरारत नहीं करता था। मेरी गिनती भोंदू बच्चों में होती थी। मां बताती थीं कि मैं शायद पांच या छह किलो का पैदा हुआ था। ज़्यादातर लोग मुझे गोदी में लेने से कतराते थे। क्योंकि मेरा वज़न उनके गोदी लेने के सलीके पर भारी पड़ता था। जब बचपन की श्वेत- श्याम तस्वीरों को अब देखता हूं तो मुझे भी यक़ीन होने लगता है कि हां मैं मोटा और भोंदू था। बक़ौल मेरी मां मैं अक्सर आस पास के भनसाघरों में पाया जाता था। भनसाघर , जिसे हम और आप रसोई और किचन के नाम से जानते हैं। ऐसा ही एक भनसाघर था सखीचंद का। सखीचंद चाची का मैं दुलारा था। लिहाज़ा बेरोकटोक उनके किचन में जाता था। उनके खाने को अपना समझकर बहुत मन से खाता था। मेरे लिए दूध भी मंगाकर वो रखती थीं। बचपन में मुझे मांसाहार से परहेज़ था। याद है वो दिन जब पहली बार सखीचंद चाचा के यहां बनी मछली का स्वाद लिया था। वो स्वाद अब भी ज़ुबान पर है। चच्चा ने मेरे लिए ही मांगुर मछली बनाया था ताकि मेरे मन से मांसाहार की नफरत दूर हो जाए।
जिस चच्चा ने पहली बार अपने हाथों से मेरे मुंह में मछली का निवाला रखा था, बड़ा होने पर पहली बार उन्होने ही मुझे दारू का जाम थमाया। यानी कोलकाता के गारूलिया क़स्बे का वो आदमी , जो बेशक़ अनपढ़ था लेकिन समय के साथ जेनेरेशन गैप ख़त्म करने की कला जानता था। वैसै सखीचंद चच्चा बहुत कम अपने घर या शहर में मिलते थे। जब भी पूछता था कि कहां जा रहे हैं तो उनका जवाब होता था - ड्यूटी पर। ख़ैर बड़ा होने पर पता चला कि उनकी ड्यूटी क्या थी। दरअसल , सखीचंद चच्चा वैगन ब्रोकर का काम करते थे। यानी रेल की माल गाड़ी के डिब्बे से सामान चोरी करना। पहले पहल तो समझ नहीं आया कि एक बूढ़ा आदमी कैसे इतना सारा माल उड़ाता होगा लेकिन जब दारू की महफिल में उनके दोस्तों से मुलाक़ात होनी शुरू हुई तो सच्चाई परत दर परत साफ होती गई। सखीचंद चच्चा के साथ रेलवे के बाहुओं, टिकिट चेक करनेवालों और टीटी बाबुओं के साथ सांठ गांठ थी। इनकी मदद से सखीचंद चच्चा ने अपनी इस कला को धोनी की बैंटिंग की तरह मांजकर चमका दिया था। सप्ताह में दो तीन दिन उनके घर पर ट्रकों से माल उतरता था। रेशमी साड़ियां, इलेक्ट्रानिक के महंगे महंगे सामान।
चच्चा इन सामान को ख़ुले बाज़ार में बहुत कम दामों में बेच देते थे। लोकल दुकानदारों को एक रूपए का माल अट्ठनी में मिल जाता था। फिर उसे वो हम - आप जैसे ग्राहकों को एख रूपए में बेच देते थे। चच्चा का मुनाफा ये कि बग़ैर पूंजी लगाए वो भी दुकानदारों की तरह मुनाफा कमाते थे। धंधा बहुत चोखा चल रहा था। लेकिन पाप की गठरी कब तक बंधी रहती ? सखीचंद चच्चा का ये धंधा सभी लोगों की जानकारी में थी। सिर्फ पुलिसवालों को ख़बर नहीं थी। एक दिन उन्हे भी भनक लगी।
धमक गए पुलिसवाले चच्चा के घर। सबको लगा कि अब तो चच्चा गए। ऐसा सोचनेवालों की कोई कमी नहीं थी। क्योंकि बिहार के मुंगेर ज़िले में जन्मे सखीचंद चच्चा कोलकाता में बड़े ठाठ से रहते थे। उन लोगों को ज़्यादा जलन होती थी, जिन्होने दूंधमुंहे चच्चा के सिर से बाप का साया उठते देखा था। चच्चा को पालने पोसने के लिए उनकी मां को गोइठा ( उपला) बनाते देखा था। बड़ा होने पर चच्चा ने रोज़ी रोटी के लिए भले ही कोई ग़लत धंधा चुन लिया हो लेकिन ऐसे लोगों की मदद करना नहीं छोड़ा , जिन्होने मुफलिसी में उनकी अम्मा को सहारा दिया था। चच्चा जब भी मंहगा माल उड़ा कर लाते , तो वो उन लोगों के घर ख़ुद पहुंचा कर आते थे। यहां तक उन ग़रीब लोगों के घरों के फर्श पर कारपेट बिछने लगे। मखमली चादर और तकिया नसीब होने लगी। हर दूसरे -तीसे दिन रोहू, हिल्सा, कतला , रुई, मांगुर, कोई, पाब्दा मछली का स्वाद मिलने लगा। आखि़र इतने घरों से दुआओं के लिए उठे हाथ बेअसर थोड़े ही न जाते। जब पुलिसवाले उनके घर से बाहर निकले तो सबके चेहरे पर ख़ुशी थी। क़दमों में लड़खड़ाहट थी। आंखों में चमक थी। ये मुंगेरीलाल के हसीन सपनों का असर था।
अब आए दिन चच्चा के घर पर रेलवे के बाबुओं को अलावा खाकी वालों की महफिल सजने लगी। खादी वालों से बर्दाश्त नहीं हुआ तो उन्होने भी चच्चा के यहां आना जाना शुरू कर दिया। लेकिन चच्चा ने साफ कर दिए वो सिर्फ मेहनतकश लोगों की मदद करेंगे, लूटेरों की नहीं। आहे भरनेवालों के लिए चच्चा ने छापेमारी के कुछ दिनो बाद ही फिल्मी स्टाइल में तोहफा दिया। इस बार बोगी से फौज के लिए जा रही बंदूकों और पिस्तौलों पर हाथ साफ कर दिया। ये ख़बर जब खादी औक खाकी को लगी तो वो भागे भागे आए। कहा -सखीचंद मरवा दोगे। ये फौज का माल है। उन्होने कहा दिया - बिहारी हूं, डरपोक नहीं। जो कर दिया , सो कर दिया । अब अंजाम से क्या डरना । चच्चा ने बग़ैर किसी की मदद के सारे माले औने पौने दामों में बेच दिया। चच्चा की महिफलें सजती रहती। जैसे -जैसे माल बढ़ता गया , महफिलों से घुंघरूओं की खनक तेज़ होने लगी। बड़े बड़े अफसरों की आवाजाही बढ़ गई। अब सखीचंद चच्चा इस दुनिया में नहीं है। लेकिन एक सवाल छोड़ गए हैं। क्या रेलवे में अब कोई सखीचंद नहीं है ? एक बार अपने आस -पास देखिए। शायद कहीं उस बूढ़े की आत्मा मिल जाए।
3 comments:
कोई कमी नहीं है सखी चन्दों की, तकलीफ आज भी वही है जो सखी चन्द चाचा के जमाने में हुआ करती थी, कि आज के सखी चनद सबको दिखते हैं सिवाय पुलिस के।
बहुत बढ़िया लिखा आपने।
॥दस्तक॥ , गीतों की महफिल
चंदन जी, मिला ही दिया आपने असली मुंगेरी लाल से। बढ़िया है। बहुत ही रोचक तरीके से लिखा है।
सखीचंद चच्चा मरा नहीं करते. उनकी आत्मा अमर है, बस शरीर बदलती रहती है टुकड़े टुकड़े में.
जय हो सखीचंद चच्चा की और जय हो उनका अमरत्व.
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