कांग्रेस के होनेवाले नए
अध्यक्ष राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव में फिर वहीं ग़लती दोहराई है, जो अब तक वो
करते आए हैं। उनके पास शानदार
मौक़ा था कि वो मोदी के गढ़ में ही बीजेपी को चित्त कर सकते थे। लेकिन ड्राइंगरूम
पॉलिटिक्स करनेवाले उनके सलाहकारों ने उन्हें सही सलाह नहीं दी। लिहाज़ा गुजरात
में मोदी की ग़ैरहाज़िरी में जो लड़ाई विजय रुपानी बनाम कांग्रेसी मुख्यमंत्री के
दावेदार के बीच होना चाहिए था, वो नहीं हो पाई। ये लड़ाई राहुल बनाम मोदी की होकर
रह गई। गुजरात की जनता की उन्हें मोदी और राहुल में से किसी एक को चुनना हो तो वो
गुजराती अस्मिता मोदी को पसंद करेंगे।
राहुल ने
क़दम-क़दम पर ग़लती की। उन्हें जैन समाज से आने वाले रुपाणी के खिलाफ भरत सिंह
सोलंकी का चेहरा पेश कर देना चाहिए था। गुजरात में जैनों की आबादी लगभग एक फीसदी
है। जबकि सोलंकी कोल जाति से आते हैं। इस जाति के 10 फीसदी मतदाता है। सोलंकी के
पिता माधव सिंह सोलंकी सूबे के सीएम रह चुके हैं। इसका फायदा राहुल उठा सकते थे।
लेकिन चूक गए।
गुजरात में
कांग्रेस अपने प्रचार में पहली मर्तबा बेहद आक्रामक है। उसने लड़ाई को ‘हार्ड’ और ‘सॉफ्ट’ हिंदुत्व के चौसर पर लाकर टिका दिया है। ये समझदारी भरी राजनीति है। राहुल ने
विकास पागल हो गया है का नारा देकर भी बीजेपी को बैकफुट पर ला दिया था। उनके भाषण
और अंदाज़ से पहली बार ये संदेश गया कि राहुल समझदार हो गए हैं। वो सुलझे हुए नेता
की तरह बर्ताव कर रहे हैं। इसलिए सरसरी तौर पर प्रचार के मामले में कांग्रेस
बीजेपी को टक्कर देती दिख रही है। अल्पेश, जिग्नेश और हार्दिक पटेल
के साथ होने के बावजूद कांग्रेस सत्ता से दूर खड़ी दिखाई पड़ती है। क्योंकि एक के
बाद एक चूक ने बीजेपी को आगे निकलने का मौक़ा दे दिया।
बीजेपी ने इस चुनाव
को ‘विकास’ की जगह ‘विश्वास’ को चुनने का नारा दे दिया। 182 सीटों वाली गुजरात विधान सभा में कांग्रेस के
फिलहाल 43 एमएलए हैं। उसके 15 एमएलए राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस छोड़ बीजेपी के
पाले में चले गए थे। इनमें 10 ऐसे हैं जो अपनी हैसियत से चुनाव जीतते हैं। ये सच
है कि बीजेपी सरकार के खिलाफ लोगों में गुस्सा है। जीएसटी की वजह से कारोबारियों
में ग़ुस्सा है। आरक्षण को लेकर पाटीदार अलग से ख़फा है। दो दर्जन से ज़्यादा
सीटों पर पाटीदार उम्मीदवारों का नसीब लिखते हैं। लेकिन राहुल यहां भी चुके।
मध्य गुजरात के
अहमदाबाद में 21, सौराष्ट्र के राजकोट में 11, पूर्वी गुजरात के वड़ोदरा में 13, दक्षिण गुजरात के सूरत
में 18 सीटें हैं। कभी इन इलाक़ों में बीजेपी का जीत का आंकड़ा लगभग 90 फीसदी के
ऊपर था। इन 63 सीटों में से कांग्रेस केवल दो पर जीती थी। ये अलग बात है कि ये
दोनों विधायक बाद में बीजेपी में चले गए। या यूं कहें कि कांग्रेस उन्हें थामकर
नहीं रोक पाई।
गुजरात में 72
शहरी सीटें हैं। इस इलाके में लोग बीजेपी से बेहद नाराज हैं। लेकिन शहर में
कांग्रेस का संगठन लुंज-पुंज है। लोग वोट देने को तैयार बैठे थे। लेकिन लेनेवाला
कोई नहीं मिला। पिछली बार 27 आदिवासी सीटों में से बीजेपी 13 पर जीत पाई थी। दलितों
के लिए आरक्षित सभी 13 सीटें भी जीत गई थी।
कांग्रेस के पास
182 में से सिर्फ 110 पर ही कुछ कर दिखाने की कूवत है। जिस तरह हार्दिक पटेल की
शर्तें कांग्रेस पर लादी जा रही हैं। उस तरह वो एक पिछलग्गू पार्टी के रूप में दिख
रही है। शहर की सीटों पर पाटीदारों का कोई रोल नहीं हैं। हां, इतना कहा जा सकता है
कि ये चुनाव राहुल को बहुत सारे ऐसे अनुभव देकर जाएगा, जो अगले लोकसभा चुनाव के
समय उन्हें मदद देगा।
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