ये उस आज़ाद भारत की सच्ची कहानी है, जिसका मुखिया रोज़ाना विज्ञापन जारी कर दावा करता है “भारत बदल रहा है।” लेकिन उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर के इस बस्ती में आने के बाद के बाद देश के मुखिया का नारा खोखला साबित होता है। भारत बदल रहा है का नारा केवल हवा-हवाई लगता है। सूबे के मुखिया का नारा ‘विकास के पथ पर यूपी’ चुनावी भोंपू साबित होता है। सिद्धार्थनगर ज़िले में एक क़स्बा है बिस्कोहर। ये क़स्बा पहले दुनिया में मंदिरों और कुंओं के लिए दुनियाभर में मशहूर था। कभी इस क़स्बे में 365 मंदिर और 365 कुएं थे। आज बिल्डरों और प्रॉपर्टी डीलरों की मेहरबानी से गिनती भर के मंदिर बचे हैं और कुंओं का तो नामोंनिशान तक नहीं है। आज यही बिस्कोहर देह की मंडी के तौर पर पूरे यूपी भर में बदनाम हैं। ‘अपनी हरारत’ उतारने के लिए राजधानी लखनऊ समेत आस-पास के ज़िलों के अय्याश बिस्कोहर में जमा होते हैं।
बात आज़ादी से पहले की है।
घूमंतू आदिवासी बेड़िया समाज के लोग बिस्कोहर में आकर बस गए। तबके रसिक ज़मींदारों
ने इन लोगों को बसने में मदद की। लेकिन रोज़ी-रोज़ागर के नाम पर कुछ नहीं दे पाए।
पेट की आग बुझाने के लिए इस समाज की लड़कियों ने दूसरों के बदन की आग को बुझाने का
धंधा शुरु कर दिया। आदि-अनादि काल का ये धंधा तेज़ी से चल पड़ा। फिर भी उस दौर के
संपन्न और रसूखदार लोगों ने इस समाज को मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश नहीं की।
लिहाज़ा पीढ़ी दर पीढ़ी जिस्म फरोशी ही इनका धंधा बन गया। जिस्मफरोशी बेड़िया समाज
की अपनी पहचान बन गया। बेड़िया समाज से अपने क़ायदे क़ानून ख़ुद बनाए। तब से ये
परंपरा चली आ रही है कि इस बिरादरी की बहन-बेटियां जिस्मफरोशी करती हैं। लेकिन घर
की बहुओं को इसकी इजाज़त नहीं है। ये बात ग्राहकों को भी ताक़ीद कर दी जाती है।
अगर किसी ग्राहक ने किसी बहू की तरफ आंख उठाकर भी देखा तो फिर उसकी ख़ैर नहीं
बिस्कोहर उस विधानसभा
क्षेत्र में पड़ता है, जहां से समाजवादी पार्टी के माता प्रसाद पांडेय विधायक चुने
जाते हैं। वो मौजूदा विधानसभा के स्पीकर भी हैं। लेकिन इलाक़े में विकास की कोई भी
झलक दिखाई नहीं पड़ती। सड़कों पर कई- कई फुट गड्ढे हैं। विधानसभा चुनाव सिर पर है।
लिहाज़ा इनदिनों सड़क बनाने का काम तेज़ी से चल रहा है। पीने का पानी का संकट यूं
ही बरक़रार है। इलाक़े में बेरोज़गारों की बहुत बड़ी फौज है। बेड़िया समाज भी
इन्ही में से एक है। बस्ती की बहुत पुरानी नगरवधू रेशमा बताती हैं कि चुनाव
के समय सभी पार्टी के नेता हाथ जोड़े दर पर खड़े होते हैं। बड़े-बड़े वादे करते हैं।
सपने दिखाते हैं कि वो इस लिजलिजी दुनिया से उन्हें बाहर निकालेंगे। लेकिन चुनाव
बीतते ही सब भूल जाते हैं।
नब्बे साल की नसीबन
आठवीं पास हैं। अब वो नहीं चाहतीं कि आनेवाली नई पीढ़ी भी इस दलदल में धंसे। उनकी
पांच बेटियां थीं। उन्होंने पांचों की शादी कर दी। नसीबन कहती हैं कि शिकायत करें
तो किससे। समाज से...नेता से...पुलिस से....सरकार से....। करें तो किससे करें। सब
एक ही थैली के चट्टे- बट्टे हैं। दिन के उजाले में सभी अच्छी-अच्छी बातें करते
हैं। लेकिन शाम ढलते ही सबको जिस्म की आग जलाने लगती है। नसीबन पापी पेट का हवाला
देती है। कहती हैं कि पापी पेट के लिए जिस्मफरोशी ना करे तो क्या करे। कोई
काम-धंधा तो देता नहीं। सरकार से सिलाई मशीन मांगी थी ताकि इज्ज़त की दो जून की
रोटी खा सके। लेकिन सरकार ने सिलाई मशीन तक नहीं दी। अब किसी तरह अपना और अपने
बच्चों का तो पेट पालना ही है। ऐसे में जिस्म का सौदा ना करें तो क्या करें।
यही शिकायत तवायफों के
औलादों को भी है। उन्हें शिकायत है जिस्म के भूखे भेड़ियों से, समाज से, अधिकारियों
से, नेताओं से और सरकार से। इन्हीं में से एक है राजा। शिकायत भरे अंदाज़स
में वो कहता है कि वो करे भी तो क्या करे। कोई नौकरी-चाकरी देता नहीं। जहां भी
जाता है उससे उसके पिता का नाम पूछा जाता है। जब वो अपने पिता के बारे में जानता
ही नहीं तो फिर नाम कहां से बताए। ऐसे में जब कोई उससे उसका पिता का नाम पूछता है
तो वो जवाब देता है- पैसा। फिर भी उसे नौकरी नहीं मिलती। वो खाली हाथ घर लौट आता
है। राजा बताता है कि उसके समाज के भी कई लोग आगे नहीं बढ़ना चाहते। उन्हें बैठकर
खाने की आदत पड़ चुकी है। अगर समाज का कोई आगे बढ़ना चाहता है तो वो केंकड़े की
तरह टांग पकड़कर नीचे खींचने लगते हैं। राजा अपनी बात बताता है। वो बताता है कि
अपनी पहचान छिपाकर उसने देसी दारू की दुकान पर नौकरी हासिल कर ली। ये बात बस्ती के
दूसरे लड़कों को पता चली। उन्होंने जाकर दुकान के मालिक के मालिक को उसकी असली
पहचान बता दी और उसकी नौकरी छूट गई।
कुछ ऐसी ही कहानी ज़ाकिर
की भी है। ग़रीबी की दलदल में फंसे ज़ाकिर को पढ़ाई-लिखाई नसीब नहीं हुई। बड़ा हुआ
तो ड्राइवरी सीख ली। फिर भी उसे कहीं काम नहीं मिलता। हर जगह उसकी बिरादरी आड़े आ
जाती है। जहां भी नौकरी के लिए जाता है, काम और स्वभाव देखकर बातचीत पक्की हो जाती
है। लेकिन जब वो परिचय में अपनी जाति बताता है तो नौकरी देनेवाला कन्नी काट लेता
है। आज आलम ये है कि वो किराए पर ऑटो रिक्शा या ई रिक्शा चलाना चाहता है लेकिन
रिक्शा मालिक ये कहकर किराए पर देने से मना कर देते हैं कि वो बेड़िया समाज का
है।
समय के साथ बहुत कुछ बदला
है। इनकी बस्ती सिकुड़ती जा रही है। बेड़िया समाज की बेटियां शादी कर प्रदेश के
दूसरे जगहों पर बस रही हैं। रवायतें टूट रही हैं। लेकिन अफसोस कि पूरी तरह से
ख़त्म नहीं हो पा रही हैं। आज भी इस बस्ती में ऐसी अनगिनत लड़कियां मिल जाएंगी, जो
बिन ब्याहे मां बन गई हैं। वो ये नहीं जानती कि उनकी औलाद का पिता कौन है। वो बस
इतना जानती हैं कि वो जो कर रही हैं, वो केवल पेट की आग बुझाने की ख़ातिर कर रही
हैं। वो दिल से कतई नहीं चाहतीं कि उनकी बेटी भी उनकी तरह इस दलदल में फंसकर रह
जाए। इसलिए वो बाहर आने के लिए छटपटा रही हैं। लेकिन जब तक उन्हें दलदल से बाहर
निकलने की सीढ़ी नहीं मिलती तब तक वो इस नर्क की ज़िंदगी जीने के लिए अभिशप्त हैं।
No comments:
Post a Comment